‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–59
‘माधुरी’ शुरू हुई थी 1964 की
जनवरी में, सुरैया की अंतिम फ़िल्म ‘रुस्तम सोहराब’ आई थी 1963 में। 1954
की सुपर हिट फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ (निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी, मिर्ज़ा ग़ालिब भारत भूषण, मोती बेगम उर्फ़
चौदहवीं सुरैया) के बाद की कुछ उनकी कुछ फ़िल्म थीं ‘बिल्वामंगल’, ‘वारिस’, ‘मिस 1958’ और ‘शमां’ (1961)। एक बार उन्होंने
लता मंगेशकर से कहा भी था कि जल्दी ही मैं एक्टिंग कम करने लगूंगी। ‘रुस्तम सोहराब’ के बाद वह रिटायर हो गई
थीं। लेकिन उनका क्रेज़, उनकी दीवानगी कम नहीं हुई थी।
मैंने बहुत कोशिश की ‘माधुरी’ के लिए उनसे इंटरव्यू
करवाने की। वे राज़ी नहीं हुईं तो नहीँ हुईं। दिल्ली में ‘सरिता’ में मेरे एक सहयोगी
अशोक चोपड़ा बंबई आए थे। वह कोशिश करते रहे। कई दिन पर उनकी गली के सामने मैरीन
ड्राइव की मुंडेर पर बैठे रहते। वहां सुरैया का एक दीवाना भी बैठा करता था। अशोक
ने उसके संस्मरण ‘माधुरी’ में लिखे थे। तमाम तरह के क़िस्से थे देव आनंद और सुरैया की आपसी दीवानगी के।
किस तरह सुरैया की नानी ने दोनों की शादी नहीं होने दी।
कई बरस बाद: सन् 1977-78 की बात
है। कुछ साल पहले ‘फ़िल्मफ़ेअर’ पुरस्कारों के चयन के लिए सभी नामांकित फ़िल्में निर्णायकों को दिखाई जाती
थीं। साथ ही कुछ आमंत्रित विशिष्ट जन भी होते थे। निर्णायक मंडल की किसी न किसी
उपसमिति का सदस्य होने के नाते मैं भी आता था। सपरिवार। उस साल सुरैया भी सभी
फ़िल्म देखने आती थीँ। लगभग पूरे एक महीने हर शाम हम साथ होते। शरीर भर गया था, अंग
अंगज़ेवरों से ढंका होता। उंगलियों में अंगूठियां, कलाई से लेकर कुहनी तक और उससे
ब्लाउज़ की बांह तक जड़ाऊ चूड़ियां, बाज़ूबंद, कानों में कई बुंदे, माथे पर लटकता
झूमर...। सुरैया शब्द का अर्थ ही है ‘झूमर’। मुझे लगता कि नानी के कारण अविवाहित रहने की दमित आकांक्षा
वे ज़ेवरों से पूर रही हैँ। एकाकी बैठी रहतीं, किसी से बात नहीं करती थीं। उनके
एकांत भाव का सम्मान करते मैं ने उनसे मुख़ातिब होने की कोशिश नहीं की।
(निम्नलिखित सामग्री
मैंने कई स्रोतों से इकट्ठा की हैं। अरविंद कुमार)
-
सुरैया (जमाल शेख़) की सत्ताइसवीं फ़िल्म
थी सन् 1948 की ‘विद्या’ तो धरमदेव पिशौरीमल आनंद (देव
आनंद) की पांचवीं। भविष्य का सुपरस्टार उस समय की सुपर स्टार सुरैया के सामने कई
बार सेल्फ़कांशस हो जाता था। कुछ लोग कहते हैं कि दोनों की प्रेम कहानी यहीं से
शुरू हुई लगभग वैसे ही जैसे भविष्य में ‘मदर इंडिया’ में नरगिस और सुनील दत्त की
प्रेमकथा उपजी।
‘विद्या’ के एक सीन में सुरैया और देव नदी
में नौका विहार कर रहे हैं, दोनों के हाथ में पतवार है। वे गा रहे हैं, ‘किनारे किनारे चले जाएंगे/जीवन की नैया को खेते हुए/ किनारे किनारे चले जाएंगे…/ना कि किस्मत में तकरार है/ खेवट के हाथों में पतवार है/ मंज़िल पे अपनी बढ़े जाएंगे।"
अचानक यह क्या!
नैया उलट गई! शूटिंग करने वाली नाव कुछ दूर थी। नैया उलटी तो
सुरैया पानी में। देव ने आव देखा न ताव – असली हीरो की तरह
नदी में कूद गया, सुरैया को थामे किनारे ले आया। यह था वह पल जब सुरैया के मन में
देव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटा।
‘विद्या’ के ही कुछ दृश्यों बाद सुरैया ख़ुशी से झूम
रही है। नैया अब नाव बन गई है। वह गा रही है, “ख़ुशियों की नाव आज/ मन की तरंगों पे झूम रही रे/ …इसे क्या पड़ी जो ये ढूंढे किनारा/ ढूंढे किनारा/
राजा की रानी चाहे किसका सहारा/ बनूं किसका
सहारा/ इसे क्या पड़ी जो ये ढूंढे किनारा।ये तो खेवट के
चरणों को चूम रही/ चूम रही चूम रही/ ये
तो खेवट के चरनों को चूम रही रे/ मन की तरंगों पे झूम रही
रे।”अब वह किनारे आना ही नहीं चाहती। मन की तरंगों में मस्त
रहना चाहती है।
इसी फ़िल्म के एक और दृश्य
में नायक नायिका (मुकेश और सुरैया की आवाज़ में) गा रहे हैं – “लाई
ख़ुशी की दुनिया हंसती हुई जवानी।”
‘विद्या’ हिट हुई तो दोनों की जोड़ी चल
निकली। तीन साल में ‘विद्या’ के बाद दोनों ने पांच फ़िल्मों एक साथ
साथ काम किया –1949 में ‘शायर’, ‘जीत’, 1950 में ‘नीली’ (जिसका गाना ‘बरबाद मेरी दुनिया पल भर में हो गई’ ख़ास तौर पर याद किया जाता है),
1951 ‘दो सितारे’ और ‘सनम’।
तीसरी फ़िल्म ‘जीत’ तक आते आते दोनों का प्रेम पूरी
तरह खिल उठा था। देव ने सुरैया को हीरे की अंगूठी पहनाई और पूछा, “मुझ से शादी करोगी।” सुरैया मुसलमान थी देव हिंदू। दोनों
को पता था घरवाले आसानी से हां नहीं करेंगे। शादी के इरादे से साथी कलाकारों और
अन्य फ़िल्मकर्मियों की मदद से दोनों शूटिंग के बहाने शादी करने वाले थे। शायद बात
बन जाती। पर एक सहनिर्देशक ने सुरैया की ज़बरदस्त नानी बादशाह बेगम को ख़बर कर दी,
वे दौड़ी दौड़ी सैट पर आईं और सुरैया को खींच कर घर ले गईं।
घर पर पूरा ड्रामा चल निकला। बादशाह बेगम ने साफ़ साफ़ कह दिया,“तू ने
यह शादी की तो जान दे दूंगी।” बहाना मज़हब का लगाया। घर की
आमदनी का एकमात्र साधन थी सुरैया। वह गई तो क्या होगा। जो भी हो, शादी नहीं होना
तय पाया गया। दोनों की जोड़ी की आख़री ‘दो सितारे’ का काम चल रहा था। वह उनकी एक साथ आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। देव आनंद तो
इतना निराश हुआ कि बड़े भाई चेतन आनंद के कंधे पर सिर रख कर रोता रहा।
सुरैया
ने कहा है, “हमें जुदा
करने में नानी पूरी तरह कामयाब रहीं। मुझे देव को ले कर डर था। अब सोचती हूं कि
अगर मैंने हिम्मत दिखाई होती तो कुछ बुरा नहीं होता। पर मैं नानी से बेहद डरती थी।
बस, टूटा दिल सहलाती रही।”
झगड़े के बाद तो नानी
इतनी सख़्त हो गईं कि सुरैया और देव के साथ सामान्य सा लव सीन भी न होने देतीं।
देव को सुरैया के पलकों का चुंबन भी नहीं लेने दिया। नानी का ज़ुल्म देव पर भारी
पड़ रहा था। घर पर भी दोनों का मिलना नामुमकिन हो गया। फ़ोन पर बात करने की मनाही
थी।
“हर जगह
सुरैया की नानी की मौजूदगी इस क़दर थी कि सुरैया से बात करना दूभर हो गया था। हां,
किताबों के बीच रखा ख़त भेजना मुझे याद है। मैं सुरैया से कहता हमारा धर्म तो
प्रेम है। सामाजिक और पारिवारिक बंधनों की हमारे बीच कोई गुंजाइश नहीं है। एक शब्द
में कहूं तो मैं प्यार में पागल था।”
सुरैया का कहना है कि फिर
भी किसी न किसी तरह छिपते छिपाते हम दोनों मेरे घर की छत पर मिल ही लेते थे।
द्वारका दिवेचा के साथ देव आते पिछवाड़े की सीढ़ियों की तरफ़ से। द्वारका नानी को बातों
में उलझाए रखते और मैं....हमेशा डर के मारे कांपती रहती। मेरी नानी ख़िलाफ़ थीं पर
मां नहीं। देव का कहना है, “सुरैया की मां हमेशा मेरे साथ थीं। सहारा देती रहतीं।
अकसर मां मुमताज बेगम ही दोनों को मिलवाती थीँ। पर उन्हें घरवालों की झिड़कियां
सहनी पड़ती थीँ। कई बार मुझे डर सताता कि कहीं मुलाक़ात के पीछे कोई चाल तो नहीं
है।”
फिर भी देव जाता ही था।
आख़िरी दिन देव का एक पुलिसिया दोस्त ताराचंद उसके साथ था। हाथ में पिस्तौल, जेब
में कई टार्च। एक देव के पास थी। कोई ख़तरा हो तो टोर्च जला कर इशारा कर दे। आख़िर
देव सुरैया के घर की छठी मंज़िल की छत पहुंच ही गया। दोनों मिले, गले लगे, रोए,
पिछले चार साल की मोहब्बत याद करते रहे और फिर कभी न मिलने का वादा करके जुदा हुए।
देव ने अलग हो कर अपने
काम पर ध्यान देने का फ़ैसला बड़े भाई चेतन की सलाह पर किया था।
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अरविंद कुमार |
“मैं उससे शादी करना चाहता था पर कर नहीं पाया, बड़े भाई के कांधे पर सिर
रख कर रोया और सबकुछ भुला कर नया अध्याय शुरू किया।”
देव ने
तो बाद में कल्पना कार्तिक से शादी कर के घर बसा लिया, लेकिन सुरैया के लिए आने
वाला वक़्त अंधेरा था। धीरे धीरे उसने नई फ़िल्में लेना बंद कर दिया। प्लेबैक गाने
भी नहीं गाए। ताउम्र कुंवारी रहने का फ़ैसला कर लिया।
अलगाव
के बावजूद दोनों के बीच कोई कड़वाहट नहीं आई। दोनों अपनी राह चलते रहे। देव
फ़िल्मों में और परिवार में, सुरैया अपने प्यार की याद में। अपने एकाकी जीवन में सुरैया
का कहना था, “कौन कह सकता है कि शादी हो जाती तो क्या होता। कई दोस्तोँ के घर मैंने बिखरते
देखे हैं। मैं अपने अकेलेपन में मगन हूं। मनचाहा करती हूं, मनचाहा जीती हूं। मेरे
अपने संगी साथी हैं। हां, मां के चले जाने के बाद कभी कभी अकेलापन सालने लगता है।”
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सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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