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'मृच्छकटिकम' पर आधारित 'उत्सव' फिल्म का एक दृश्य |
*संगीता राय
सिनेमा कहानी प्रस्तुत करने का एक अलग ही जरिया है, लिहाजा फ़िल्म की भी अपनी एक ज़ुबान होती है। कहानी कई तरीकों से
प्रस्तुत की जा सकती है - बोले हुए शब्दों में,
लिखे हुए शब्दों में, नृत्य में, कविता में, गीत में, हाव-भाव में, तस्वीर में। लेकिन
सिनेमा में ये सब समा जाते हैं।
सिनेमा मनोरंजन ही नहीं करता, विचार भी देता है, नई कल्पना देता है और उसके मधुर-गीतों की कड़ियां, गुदगुदाते हुए
सौन्दर्य की नहीं, नये जगत को देखने की दृष्टि देती हैं। पहले फ़िल्मों में उर्दू का
प्रयोग बहुत ज़्यादा होता था। उसके सर्टिफिकेट पर भी उर्दू ज़बान लिखा जाता था।
अस्सी-नब्बे के दशक से हिन्दी लिखा जाने लगा। पर ज़बान चाहे उर्दू हो या हिन्दी एक
रोचक कथा की तलाश सभी को होती है। कहानी में जितनी रोचकता, सोद्देश्यता तथा
दर्शक को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता होगी। उसके आधार पर बनी फ़िल्म भी उतनी ही सफल
मानी जायेगी।
फ़िल्म निर्माताओं को ऐसी ही कथा की तलाश रहती है, जो दर्शकों का भरपूर
मनोरंजन तो करे ही, उसमें व्यक्ति तथा समाज के लिए कोई प्रेरणा तथा संदेश भी हो। इस
प्रकार निर्माता-निर्देशक सदैव एक श्रेष्ठ कहानी की तलाश में रहते हैं। न सिर्फ
हिन्दी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं तथा विदेशी कथा-साहित्य से भी भरपूर सामग्री
इकट्ठा की। रूपहले पर्दे के माध्यम से उस कहानी को सर्वप्रिय बना दिया जाता है।
यही कारण है कि सिनेमा की दुनिया में साहित्यकारों को अपनी तरफ़ आकृष्ट किया। मुंशी
प्रेमचन्द, अमृतलाल नागर, फणीश्वर नाथ रेणु, डॉ. राही मासूम रज़ा, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, उपेन्द्रनाथ अश्क़ ऐसे ही जानें कितने नाम हैं जो लिये जा सकते हैं।
साहित्य और सिनेमा एक-दूसरे का हाथ थामें बढ़ते रहे - निरन्तर।
आज हम सिर्फ़ संस्कृत की बात करेंगे। संस्कृत में महानतम ग्रन्थ रचे
गये, पर भाषा की दूरी के चलते वह आम लोगों से दूर होती गई। ऐसी अनेक
फ़िल्में हैं जो कालिदास, भास, भवभूति, शूद्रक, श्रीहर्ष जैसे संस्कृत के प्रख्यात रचनाकारों के कथानकों पर आधारित
है। हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम जिस प्रेमकथा की प्रस्तुति हुई, वह थी - ‘शकुन्तला तथा
दुष्यन्त की प्रणय कहानी। कालिदास का प्रसिद्ध नाटक, ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ को सबसे पहले 1931 में रूपहले पर्दे पर
हिन्दी में लाया गया। मदन थियेटर के जे.जे. मदान नाम के पारसी उद्यमी कलाकार ने इसका
निर्माण तथा निर्देशन किया। इसके गीत प्रसिद्ध नाटककार तथा कथावाचक पं. राधेश्याम
ने लिखे थे और मास्टर निसार तथा जहांआरा कज्जन ने दुष्यन्त तथा शकुन्तला की भूमिका
अदा की थी। 1931 में ही शकुन्तला नाम से एक अन्य फिल्म सरोज मूवीटोन ने बनाई, जिसका निर्देशन एम. भवनानी
ने किया। इस कृति की लोकप्रियता को इस आधार पर समझा जा सकता है कि अलग-अलग समय में, अलग-अलग भाषाओं में
फ़िल्म निर्माण किया गया। 1943 में शकुन्तला के साथ ही व्ही.
शान्ताराम ने राजकमल कला मंदिर की शुरूआत की। प्रभात से अलग होकर उन्होंने स्वयं
निर्माता बनने का निर्णय लिया। राजकमल की पहली फिल्म के लिए उन्होंने कालिदास के
नाटक शकुन्तला को चुना। पटकथा दीवान शरर ने तैयार की। वसन्त देसाई ने संगीत दिया
था। दुष्यन्त और शकुन्तला की भूमिका में चन्द्रमोहन और जयश्री को प्रस्तुत किया
गया। शकुन्तला, शान्ताराम के फिल्मी कैरियर में एक नए मोड़ की तरह थी और एक बड़ी चुनौती
भी। एक नये बैनर की शुरूआत हो रही थी, शान्ताराम ने एक ऐसी कहानी को लिया जो लोकप्रिय थी, पर पूर्व में जिस पर
फिल्में बन चुकी थी। ये एक चुनौती थी जिसे उन्होंने स्वीकार किया। इसे शान्ताराम
ने प्रभात की फ़िल्मों की सादगी से उलट अत्यन्त भव्य स्तर पर बनाया था। जहां एक ओर
साहित्य के क्लासिक पर बनी हुई सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में परिगणित किया जाता है वहीं
दूसरी ओर सिनेमा में यथार्थ के कुछ हिमायती इससे नाराज़ भी हुए। बलराज साहनी ने
अपनी आत्मकथा में लिखा है कि -
‘‘वे शकुन्तला देखने के बाद ‘दुनिया न माने’, ‘पड़ोसी’, और ‘आदमी’ के रचयिता के इस
परिणति से अत्यन्त निराश हुए थे।’’
निस्सन्देह शकुन्तला एकदम अलग मिजाज़ की फ़िल्म थी। वह अलग उद्देश्य से
भी बनाई गई थी। उस समय शायद शान्ताराम के लिए सफल होना सबसे बड़ी ज़रूरत थी। और
शकुन्तला से उपयुक्त कथा कोई हो नहीं सकती थी। हालांकि आगे चलकर ‘डॉ. कोटनीस की अमर
कहानी’, ‘दहेज’ और ‘दो आंखें बारह हाथ’ जैसी सामाजिक, यथार्थ और आदर्श से गहरा सम्बन्ध स्थापित करने वाली फ़िल्में बनाईं। पर
व्ही. शान्ताराम का अभी शकुन्तला से मोहभंग नहीं हुआ था। 1961 में उन्होंने
शकुन्तला का पुनः चित्रांकन किया। संध्या शकुन्तला की भूमिका में तथा वह स्वयं
दुष्यन्त की भूमिका में थे। पर इस बात फ़िल्म का नाम रहा ‘स्त्री’। मानों अस्वीकार
किये जाना उसकी नियति बन गई है। शकुन्तला के माध्यम से एक स्त्री की वेदना को
रूपहले पर्दे पर रूपायित किया। वैसे कालिदास की एक अन्य रचना मेघदूत पर चर्चा
करेंगे पर यहां यह भी बताना आवश्यक है कि जितना लोकप्रिय कालिदास का काव्य रहा
उतना ही कौतूहल से पूर्ण उनका जीवन। तो जितनी फ़िल्में उनकी रचनाओं पर बनीं, उतनी ही फ़िल्में
उनके जीवन पर भी बनीं। 1931 में कालिदास पर फ़िल्म बनी तमिल में। आर्देशिर इरानी ने प्र्रोड्यूस
किया। ये तमिल की पहली बोलती फ़िल्म थी। 31 अक्टूबर 1931 को दिवाली के मौक़े पर ये फ़िल्म रिलीज़ हुई थी और उस साल की ये रिलीज़
अकेली फ़िल्म थी। फिर क्या 1955 में, 1960 में, 1966 में कालिदास के जीवन पर फ़िल्में बनीं।
अब बात करते हैं मेघदूत की। 1945
में निर्माता देवकी कुमार बोस ने कीर्ति पिक्चर्स
के बैनर तले शापग्रस्त यक्ष की विरह वेदना को फ़िल्मी पर्दे पर उतारा। निर्देशक
स्वयं देवकी बोस ही थे जबकि संगीत दिया था कमलदास गुप्ता ने। ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे
मेघमाश्लिष्ट सानुं’ के भाव को दर्शाता जगाता जगमोहन का सुरीला गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था ‘ओ वर्षा के पहले
बादल’। शाहू मोडक यक्ष की भूमिका में थे और लीला देसाई ने वियोगिनी पत्नी
की भूमिका निभाई थी।
संस्कृत के नाटक लेखकों में भवभूति अविस्मरणीय हैं। उनका योगदान
महत्वपूर्ण रहा है। करुण रस को भवभूति ने प्रधानता दी, कहा - ‘एको रस करुणमेव’। करुण को ही
एकमात्र रस माना। भवभूति के द्वारा रचित ‘मालती-माधव’ के कथानक पर 1922 और 1929 में पहले मूक फ़िल्में बनीं। 1929
की फ़िल्म को दादा साहेब फाल्के ने डायरेक्ट किया
था। फिर आई 1933 में ‘मालती-माधव’ नाम से एक और फ़िल्म। सरोज मूवीटोन ने ए.पी. कपूर के निर्देश्न में
मालती तथा माधव के प्रणयाख्यान को रुपहले पर्दे पर दिखाया। 1951 में प्रसन्न
पिक्चर्स ने ‘मालती-माधव’ को लेकर एक अन्य फिल्म बनाई जिसका निर्देशन भालेराव जोशी ने किया और
सुधीर फड़के ने जिसे संगीत से सजाया। नरेन्द्र शर्मा ने इस फ़िल्म के गीत लिखे थे। ‘मन सौंप दिया अनजाने
में’ जैसा गीत गाया लता मंगेशकर ने। विषय के अनुसार इस फ़िल्म मे कई ख़ूबसूरत
गीत हैं पर ‘बांध प्रीति फूल डोर’ - लता की आवाज़ में यह गीत ‘मालती-माधव’ का अभिन्न अंग लगता है।
भवभूति की ख्याति का कारण है, उनका एक अन्य नाटक ‘उत्तर रामचरित’। जिसमें कथानक के आधार पर विजय भट्ट ने 1943 में अपनी अत्यन्त
लोकप्रिय फ़िल्म रामराज्य का निर्माण किया। शोभना समर्थ और प्रेम अदीब ने राम-सीता
का रोल किया। कहा जाता है कि यह एकमात्र फ़िल्म है जिसे गांधी जी ने देखा था। ‘भारत की एक सन्नारी
की हम कथा सुनाते है’’ - आज भी नये-नये रूपों में गूंजता है। रमेश गुप्ता के गीतों ने उन्हें
अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। यह उनकी सबसे बड़ी और पहली कामयाबी थी। संवाद लेखक
थे संपतलाल श्रीवास्तव ‘अनुज’।
इसमें लंका-विजय के बाद की रामकथा को कथावस्तु का आधार बनाया गया है।
धोबी का आरोप, राम द्वारा सीता का परित्याग, वाल्मीकि आश्रम में लव-कुश का जन्म, अश्वमेघ यज्ञ और लव-कुश द्वारा घोड़ा रोकने, राम की सेना का
लव-कुश के हाथों पराजय और अंत में पिता-पुत्र का आमना-सामना। इस कथा को विजय भट्ठ
ने मधुर संगीत में गूंथकर देश की जनता के सामने प्रस्तुत किया था। उस समय गांधी जी
की रामराज्य की अवधारणा भी लोकप्रिय थी। जनमानस ने बड़े ही उदारतापूर्वक इस फ़िल्म
को सराहा।
भास ने ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ लिखकर राजा उदयन और वासवदत्ता की प्रणय-कथा को अमर बनाया है। 1934 में प्रसिद्ध फ़िल्म
कम्पनी अजंता मूवीटोन ने ‘वासवदत्ता उर्फ शाही गवैया’ नाम से भास की इस कथा को रूपहले पर्दे पर उतारा। निर्देशक थे पी.वाई.
अल्टेकर। जानी-मानी अदाकारा बिब्बो वासवदत्ता बनी और बी. सोहानी ने उदयन की भूमिका
निभाई। अपने समय के जाने-माने हास्य कलाकार भूदो एडवानी विदूषक वसंतक की भूमिका
में उतरे।
अब बात करते हैं शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ की। संस्कृत साहित्य में शकुन्तला के पश्चात् सबसे ज़्यादा ‘मृच्छकटिकम्’ ने निर्माताओं को
आकृष्ट किया। सबसे पहले 1929 में वसंतसेना नाम से फ़िल्म बनी,
निर्देशक थे दादा साहेब फाल्के। सामाजिक यथार्थ
का जैसा भावार्थ चित्रण शूद्रक ने अपने इस नाटक में किया है, वह दुर्लभ है। यहां
यदि वेश्या है तो चोर भी है, जुआरी हैं, शकार जैसे परस्त्री लंपट पुरुष है,
तो आचारनिष्ठ ब्राह्मण चारुदत्त भी है, जो वसन्तदेना के
प्रति अत्यन्त प्रेम रखता है। 1934 में ‘वसन्तसेना’ नाम से ही फ़िल्म बनी। इसे वसंत सिनेटोन ने जे.पी. अडवाणी के निर्देशन
में बनाया। जानी-मानी अदाकारा जोहरा वसन्तसेना बनी और शंकर राव ने प्रेमी चारुदत्त
का पार्ट किया। खलनायक शकार थे काशीनाथ। 1942
में अत्रे पिक्चर्स के बैनर तले एक और ‘वसन्तसेना’ का निर्माण किया
गया। जिसका निर्देशन गजानन ने किया था। इस बार अदाकार वनमाला वसन्तसेना के रोल में
थी और शाहू मोडक ने नायक चारुदत्त का पार्ट किया। यहाँ हम यह भी बताते चलें कि
मृच्छकटिकम् ने सिर्फ हिन्दी सिनेमा को ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं के सिनेमाई जगत
को भी आकृष्ट किया। 1941 में कन्नड़ में वसन्तसेना नाम से फ़िल्म बनीं। हिन्दी में एक बार फिर बॉम्बे
टॉकीज़ को इसकी कहानी पसन्द आई और पद्मिनी तथा नागेश्वर राव को लेकर 1976 में वसन्तसेना का
निर्माण किया। पर सबसे बड़ी और उल्लेखनीय फिल़्म रही शशि कपूर की 1981 में फ़िल्म ‘उत्सव’। गिरीश कर्नाड ने
निर्देशन की बागडोर संभाली। इस फ़िल्म में गणिका वसन्तसेना और ब्राह्मण कुमार
चारुदत्त की प्रेमकथा का निरुपण किया गया है। इसके साथ ही प्रेम और वासना तथा इसके
द्वन्द्व को भी उभारा गया है। वसन्तदेव का गीत और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत
और अभिनेत्री रेखा तथा उस समय के नवोदित अभिनेता शेखर सुमन ने इस फ़िल्म को अमर बना
दिया।
अब आख़िर में बात करते हैं वात्स्यायन के कामसूत्र की। हमारे देश में
सेक्स के बार में खुलकर बात नहीं हो पाती है। कारण यह है कि हमारी सामाजिक
मर्यादाएं, परम्पराएं और रूढ़िवादी नैतिकता इसकी इजाज़त नहीं देती। हैरानी होती है
कि हम आगे बढ़े हैं या पीछे गए है। क्योंकि प्राचीन भारत में ही कामसूत्र नाम का
प्रेमशास्त्र वात्स्यायन में लिखा था। संसार की लगभग हर भाषा में उसका अनुवाद हो
चुका है। एक समय में भारतीय संस्कारों और धाराओं में सेक्स का महत्वपूर्ण स्थान
था। ऋषि वात्स्यायन के कामसूत्र का वही स्थान है जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है।
वात्स्यायन के कामसूत्र पर अलग-अलग भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं। तेलगु, कन्नड़ के साथ-साथ 2001 में आयी फिल्म ‘वात्स्यायन कामसूत्र’। आजकल एक नई बहस
चली है कि स्कूलों में सेक्स एजुकेशन दिया जाये या नहीं। कई जगहों पर इन बातों का
खुलकर विरोध भी हुआ। किन्तु मुझे लगता है - वात्स्यायन अपने विचारों में बहुत
आधुनिक हैं और उन्हें पढ़ाये जाने की आवश्कयता है। उन पर शोध किये जाने की आवश्यकता
है। फिल्म-निर्माण किये जाने की आवश्यकता है। मृच्छकटिकम् और कामसूत्र जैसे
यथार्थवादी साहित्य पर बहस किया जाना चाहिए,
चर्चा की जानी चाहिए। सनद रहे यथार्थ से कटा हुआ
समाज आदर्श भी स्थापित नहीं कर सकता। संस्कृत ग्रन्थों के कुछ अंशों या कुछ
पात्रों को लेकर भी फिल्म निर्माण किया गया। जैसे द्रौपदी (1931) देवी देवयानी (1931), अयोध्या का राजा (1932), इन्द्रसभा (1932), राधा रानी (1932), अमृत मंथन (1934) भरत-मिलाप (1942), महात्मा विदुर (1943), शंकर पार्वती (1943), कल्पना (1948), हर-हर महादेव (1950).
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संगीता राय |
संस्कृत के ये ग्रन्थ देश-विदेश तो सिनेमा के आने से पहले ही पहुंच
गये थे, पर आम व्यक्ति तक इन ग्रन्थों को पहुंचाने और लोकप्रिय बनाने, साहित्य में
उत्सुकता पैदा करने का काम सिनेमा ने किया। सिनेमा नज़र से नज़र का खेल है। सिनेमा
को कभी साहित्य के मापदंडों पर कसा गया, कभी नैतिक मानदंडों के आधार पर मापा गया। पर सिनेमा को सिनेमा की
दृष्टि से रखने की आवश्यकता है। यह वह रचनात्मक विधा है जिसके सृजन में जीवन के
लगभग हर कार्य-व्यापार से सम्बन्धित व्यक्ति जुड़ा होता है। भिन्न-भिन्न तरह के लोग, छोटे से बड़े तक, खरे से लेकर खोटे तक
- यह किसी लेखक के वैयक्तिक सृजन से नितान्त अलग तरह की निर्मिति है। वह निर्देशक
के भीतर कितनी भी एकाग्रता में समेकित क्यों न हो, उसे प्रत्यक्ष रूपाकार अपने अनन्त सहयोगियों के
साथ मिलकर ही प्राप्त करना होता है। सिनेमा सबसे पहले उस आख़िरी व्यक्ति का माध्यम
है जो पढ़ने-लिखने की हदों से दूर है। सिनेमा के माध्यम से हम विपुल संस्कृत
साहित्य को आम जनमानस तक पहुंचा सकेंगे।
*लेखिका मिरांडा हाउस
(दिल्ली विश्वविद्यालय) में हिन्दी साहित्य और सिनेमा की प्राध्यापिका हैं।
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