‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–62
![]() |
शो मैन सुभाष घई |
पुणे के फ़िल्म
प्रशिक्षण संस्थान के प्रशिक्षित छात्रों के मिलने जुलने का अड्डा साबन गया था ‘माधुरी’ कार्यालय। ऐसा इसलिए हो
पाया कि मैं वहां से पास होने वाले छात्रों को टाइम्स के लंच रूम की लाबी में चाय पानी
के लिए न्योता देता था। धीरे धीरे वहां प्रशिक्षार्थी भी आने लगे जैसे रेणु सलूजा जो
मिसेज विधु विनोद चोपड़ा और उससे तलाक़ के बाद मिसेज सुधीर मिश्र बनी। बेटी जैसी रेणु
तो ‘माधुरी’ में एक फ़ीचर भी लिखने
लगी – सिनेमा घर में किसी फ़िल्म पर दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का हलका फुलका
ख़ाक़ा।
‘तक़दीर’ (भारत भूषण), ‘आराधना’ (राजेश खन्ना) में इतनी
छोटी भूमिकाओं में काम करने के बाद कि पता न चले कब आया और सुभाष घई गया। गुरुदत्त
के छोटे भाई आत्माराम की ऐसे ग्यारह छात्रों के साथ बनी ‘उमंग’ 1970 में सुभाष घई हीरो
बन गया। कहानी गुलज़ार की थी, संवाद लेखक थे आज के प्रसिद्ध लेखक असग़र वज़ाहत,
संगीत शंकर जयकिशन, और नए कलाकार थे – सतीश कुमार, असरानी, पेंटल, रेहाना, अर्चना
आदि। सब के सब उमंगों से भरे थे।
‘उमंग’ के बाद वह ‘शेरनी’, ‘भारत के शहीद’ और 1973 वाली ‘गुमराह’ में स्वप्नदर्शी सुभाष
घई हीरो बना। ‘गुमराह’ में
उस के सह कलाकार थे रीना रॉय और डैनी। ये दोनों उस के निर्देशन की पहली फ़िल्म ‘कालीचरण’ में महत्वपूर्ण कलाकार बने थे।
सुभाष स्वप्नदर्शी ही
नहीं यथार्थवादी भी था। अभिनय छोड़ कर वह फ़िल्म लेखक बन गया। उस की कहानी वाली
पहली फ़िल्म थी – ‘ख़ान दोस्त’ (निर्देशक: दुलाल गुहा, मुख्य कलाकार: राज कपूर और शत्रुघ्न सिन्हा)। ‘माधुरी’ में उपसंपादक और फ़िल्म
के संवाद लेखक जैनेंद्र जैन ने मुझे बताया कि सुभाष ने कहानी के नाम पर बस एक
पैराग्राफ़ दिया था। यानी बस आईडिया था - “बहन शांति (योगिता बाली) के दहेज के लिए नासिक
जेल में भोला भाले हवलदार रामदीन पांडे (राज कपूर) पाँच हज़ार रुपए देना बस से
बाहर है। नया हत्यारा भयानक क़ैदी रहमत ख़ान (शत्रुघ्न सिन्हा) रामदीन को पटा कर
बंबई में अपनी बीमार मां को देखने जाने के बहाने रामदीन की मदद से फ़रार हो जाता
है। जेलर रामदीन को आदेश देता है कि बंबई जा कर एक महीने में रहमत तो पकड़ कर लाए
वरना उस पर मुक़दमा चलेगा। कहानी है रामदीन पर पड़ने वाली मुसीबतों की।”
सुभाष के लिए अगला स्वाभाविक
पड़ाव था निर्देशन। पुणे से निकलने वाले सभी छात्र फ़िल्म कला की हर तकनीक सीखते
हैं। निर्देशक बनने के लिए ‘कालीचरण’ की कहानी ले कर सुभाष घई सात निर्माताओं से निराश हो
चुका था - एन.सी. सिप्पी ने “हां” की राजेश खन्ना को हीरो बनाने की शर्त पर। पर राजेश के
पास समय नहीं था, शत्रुघ्न को लेने पर बात बनी। शत्रु इससे पहले किसी फ़िल्म में
हीरो नहीँ बना था लेकिन अपना सिक्का जमा चुका था। ‘कालीचरण’ में उसे डबल काम करना
था ‘ख़ान दोस्त’ के भयानक हत्यारे का और
बेहट कठोर पुलिस अफ़सर का।
‘कालीचरण’ की आधार घटना है पुलिस
अफ़सर प्रभाकर की मृत्यु के बाद गुपचुप रूप से कालीचरण नाम के ख़तरनाक़ क़ैदी को
प्रभाकर के रूप में प्रशिक्षित करने लायन नाम के माफ़िया सरदार का नाश करना।
शक्ति सामंत वाली क़िस्त
(25 नवंबर 2018) में मैं ने लिखा था:
[‘चाइना टाउन’ में ‘कालीचरण’
(1976) और ‘डॉन’ (1978) और ‘डॉन’ (2006) का बीज था। ‘चाइना टाउन’ शुरू होती है रेस्तरां में हेलेन के नाच-गीत से
जो कलकत्ता शहर के चाइना टाउन का गुणगान करता है।
यह रेस्तराँ अंडरग्राउंड अड्डा है डॉन माइक (शम्मी कपूर) का। ...दार्जीलिंग में
गायक शेखर (शम्मी कपूर) और रायबहादुर दिगंबर प्रसाद राय की बेटी रीता (शकीला) का
प्रेम।... बाद में घटनावश रायबहादुर ने शेखर को पुलिस के हवाले कर दिया। इंस्पेक्टर
ने शेखर को देखा तो हैरान। अरे, यह तो हूबहू माइक है जिसे उसने जेल में बंद कर रखा
है। इंस्पेक्टर अब शेखर को माइक के चालढाल की फ़िल्म दिखाता है। और उस से अड्डे
में धकेल देता है। है ना यह ‘कालीचरण’ और ‘डॉन’ के कथानक का बीज! ]
![]() |
कालीचरण - शत्रुघ्न सिन्हा और अजीत |
‘कालीचरण’ में अपराधी कालीचरण (शत्रु) को
मृत पुलिस अफ़सर प्रभाकर (शत्रु) बना दिया जाता है। इसी तरह ‘डॉन’ फ़िल्म में पनवाड़ी विजय (अमिताभ) को मृत
डॉन (अमिताभ) डॉन बना दिया जाता है। शेष घटनाक्रम पूरी तरह अलग हैं।
पुणें के छात्रों में से
ऐक्टरों से चोटी पर पहुंचने वाला पहला ऐक्टर शत्रु ही था। निर्देशकों में सब से
पहले चोटी पर पहुंचने वाला सुभाष घई निकला, बहुत बाद में विधु विनोद चोपड़ा और राज
कुमार हीरानी।
-तो पहले ‘कालीचरण’ फ़िल्म:
एक मेज़ पर कई रंगोँ के
और भांति भांति के टेलिफ़ो। एक की घंटी बज रही है। कैमरा दाहिने घूमता है - शानदार
कमरा। मसहरीदार शाहाना पलंग पर लेटी सुंदरी, बाएं स्लीपिंग लिबास में लेटा अभिनेता
अजीत दाहिने हाथ से फ़ोन उठाता है, बात करता है।... किसी शानदार कमरे में मीटिंग।
अध्यक्ष की कुरसी पर अजीत। कई वेशभूषाओं में उपस्थित हैं कुछ व्यापारी। विषय है आज
के अख़बार में छपी ख़बर :“भारत सरकार का आश्वासन – जनता बढ़ती कीमतों से घबराए
नहीं।”
अजीत सबको आश्वस्त करता
है,“घबराओ मत, सब माल
अंडरग्राउंड कर दो, ब्लैक में बेचो,” आदि इत्यादि। (कुछ ऐसा ही दृश्य मनोज कुमार की एक
फ़िल्म में भी है।) परदे पर नामावली आती है। प्रेमनाथ (आईजीपी पुलिस खन्ना) और
अजीत (नगर का समाजसेवी सेठ दीनदयाल) की मित्रता स्थापित की जाती है। खन्ना का पसंदीदा
ईमानदार और बेहद सख़्त पुलिस अफ़सर प्रभाकर (शत्रुघ्न सिन्हा) है। वह
कालाबाज़ारियों के पीछे पड़ा है। ख़बर मिलती है कि इसके पीछे है कोईलायन (LION)। एक अपराधी बता देता है
कि सेठ दीनदयाल ही (लायन LION) है। लायन उसे मरवा देता है। अब प्रभाकर दीनदयाल के पीछे
पड़ जाता है, दीनदयाल उसे ख़रीदने की नाकामयाब कोशिश करता है। लायन के आदेश पर सड़क
पर कराई गई दुर्घटना में प्रभाकर के सिर में घातक चोट लगी है। मरते मरते प्रभाकर
लिख LION देता है जो उलटा पढ़ने
पर दिखता है NO 17।
![]() |
आईजीपी पुलिस खन्ना
चाहते हैं कि प्रभाकर की मौत का समाचार पब्लिक तक न पहुंचे। उनका दोस्त डाक्टर
डैविड प्रभाकर को देख कर हैरान रह जाता है। अरे, यह तो कालीचरण है!
ख़ूँख़्वार अपराधी! खन्ना तय कर लेता है कालीचरण को प्रभाकर बनाएगा।
कालीचरण मानने वाला नहीँ है। बार बार भाग निकलता है। कोशिश करते करते खन्ना उसे
शिमला ले जाते हैं जहां खन्ना की बेटी सपना (रीना राय) प्रभाकर के दो बच्चों के
साथ रह रही है। यहां भी कालीचरण भाग निकलता है। सपना उसे राखी बांधती है, तो उस
मानव मन जागता है। वह प्रभाकर बनने को तैयार हो जाता है। हर तरह के प्रशिक्षण के
बाद सुधरा कालीचरण प्रभाकर की अदाओँ के साथ थाने जाता है। सब उसे प्रभाकर ही समझते
हैं। दीनदयाल और लायन भी उसे प्रभाकर मान लेते हैं। तमाम घटनाओं और लटकों के बाद
भेद खुलता है, अनेक मुठभेड़ों के बाद बुराई का अंत होता है, अच्छाई की जीत होती
है।
‘कालीचरण’ अपने समय की लोकप्रिय फ़िल्म
साबित हुई। सुभाष सिद्ध निर्देशक और शत्रु लोकप्रिय नायक के तौर पर स्थापित हो गए। रीना
राय भी चल निकली।
अपने निर्देशन की पहली
ही फ़िल्म में करिश्मा करने वाले सुभाष का जन्म 24 जनवरी सन 1945 को नागपुर में
हुआ था। दंत चिकित्सक पिता की प्रैक्टिस दिल्ली में थी। वहीं से सुभाष ने हायर
सैकेंडरी पास की। नज़दीक़ ही हरियाणा के रोहतक से कामर्स में बी.ए. किया। 1963 में
वह पुणें के फ़िल्म संस्थान में दाख़िल हुआ। 1970 में उस ने पुणे की छात्रा और ‘उमंग’ में सह अभिनेत्री
रेहाना से शादी कर ली, अब जिसका नाम मुक्ता है। उसी के नाम पर सुभाष की कंपनी का
नाम भी है।
‘कालीचरण’ के बाद सुभाष ने ‘विश्वनाथ’ (1976), ‘गौतम गोविंदा’ और ‘क्रोधी’ (1979) का निर्देशन किया। 1982
में त्रिमूर्ति फ़िल्म्स के लिए दिलीप कुमार, संजय दत्त, पद्मिनी कोल्हापुरे के
साथ शम्मी कपूर, संजीव कुमार, अमरीष पुरी, मदन पुरी, सुरेश ओबेराय और सारिका वाली
मल्टीस्टारर ‘विधाता’ निर्देशक के तौर पर सुभाष के
माथे का मुकुट साबित हुई। यह बाद में कन्नड़ में ‘पितामह’, मलयालम में ‘अलकडलिनक्करे’(Alakadalinakkare) और तमिल में ‘वंश विळक्कु’
नाम से बनी।
इस बीच स्वप्नदर्शी सुभाष ने
1980 की अपने निर्देशन में बनी ‘कर्ज़’ (ऋषि कपूर और टीना मुनीम के
साथ सिमी गरेवाल) के वितरण के लिए अपनी कंपनी मुक्ता आर्ट्स प्रा.लि. कंपनी खोल ली
थी। ‘कर्ज़’
के निर्माता थे अख़्तर
फ़ारूकी और जगजीत खुराना, संवाद डा. राही मासूम रज़ा ने लिखे थे। बदला लेने के
पुनर्जन्म में फिर से पैदा होने जैसे रहस्य-रोमांच से पूर्ण कथानक वाली ‘कर्ज़’ में संगीतकार लक्ष्मी-प्यारे
के दो गीत ‘दर्दे दिल’ और ‘ओम शांति ओम’ अभी तक याद किए जाते हैं।
यथार्थवादी
सुभाष के लिए समय आ गया था निर्माता बनने का। स्वप्न को साकार करने का। मुक्ता
आर्ट्स प्रा.लि. को फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय करने का।
पहली ही फ़िल्म ‘हीरो’ सदाबहार गीत संगीतमय
ब्लाकबस्टर सिद्ध हुई। इसी के ज़रिए जैकी श्रौफ़ महानायक बना। और फिर सन् 2001 तक झड़ी
लग गई एक के बाद बहुप्रतीक्षित सुपर हिट फ़िल्मों की –‘मेरी जंग’, ‘कर्मा’, ‘राम लखन’, ‘सौदागर’, ‘खलनायक’, ‘परदेस’, ‘ताल’, ‘यादें’। 2004 की ‘किसना द वारिअर’ चली कम, पर मुझे सुभाष
की उत्तम काव्य कृति लगती है – विवेक ओबराय कवि किसना की भूमिका में चिरस्मरणीय
रहेगा।
-
आनंद बख़्शी लिखित गीत ‘चोली
के पीछे क्या है’ के कारण रिलीज़ से बहुत पहले ही ‘खलनायक’
वाद-विवाद का कारण बन गई थी। गीत का मुखड़ा कुछ को अश्लील लगता था, पर गीत अश्लील
नहीं था। गीत के बोल इस प्रकार थे.“चोली के पीछे क्या है, चुनरी के नीचे क्या है/चोली में दिल है मेरा,
चुनरी में दिल है मेरा, ये दिल मैं दूँगी मेरे यार को, प्यार को।” अभी पिछले दिनों मैं ने
यू-ट्यूब पर यह देखी तो ‘चोली’ ग़ायब थी। यूं यह सीन इंटनेट पर और तरह तरह के
संस्करणों में देखा जा सकता है।
उन्हीं दिनों हीरो संजय
दत्त के आतंकवादी गतिविधि में शामिल होने के आरोप समाचारों में छाए थे। फ़िल्म का
नाम ‘खलनायक’ इन समाचारों के कारण भी
चर्चा में था। फ़िल्म में नायक फ़रार बल्लू आतंकवादी तो नहीँ था, पर शातिर बदमाश
ज़रूर था। यह सब और फ़िल्म के दक्ष निर्देशन, पात्रों की प्रस्तुति से खलनायक
फ़िल्म सुपर हिट हो गई। मैं इसकी गिनती हिंदी की श्रेष्ठ फ़िल्मों में करता हूँ।
-
![]() |
'हीरो' में जैकी श्रॉफ |
निर्माता के तौर पर यथार्थवादी सुभाष ने कई नए
काम किए, जैसे ‘ताल’ से फ़िल्मों का इंश्योरैंस, बैंकों से फ़िल्म के
लिए फ़ाइनैंसिंग, और सन 2000 में अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को पब्लिक लिमिटेड
कंपनी बना कर शेअरों की बिकवाली। इस के बाद तो उस ने कंपनी का कार्यक्षेत्र बढ़ा
दिया। अब वह शैक्षिक फ़िल्में भी बनाने लगा, फ़िल्म प्रदर्शन यानी सिनेमाघर बनाने
लगा और बदलते ज़माने के साथ आधुनिकतम मल्टीमीडिया क्षेत्र में भी सक्रिय हो गया।
पुरानी फ़िल्में अभी तक कमा रही हैं - टेलीविज़न पर प्रदर्शन से और रीमेक के अधिकार
दे कर। वही एकमात्र स्वप्नदर्शी निर्माता है जिसने 2001 में फ़िल्म प्रशिक्षण के
लिए मुंबई में एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान विस्लिंग वुड्स इंरनेशनल 'Whistling Woods
International (WWI)' स्थापित किया जो 2006 में सक्रिय हो गया। इस में
यूके और नाइजीरिया आदि देशों के छात्र को ट्रेन किया जाता है। एक हॉलीवुड
संवाददाता के अनुसार यह अपनी तरह के दस सर्वोच्च में गिना जाता है। एक समय में
इसमें चार सौ के लगभग छात्र ट्रेन होते हैं। इस की अध्यक्ष सुभाष की बेटी मेघना घई
पुरी जो अब इसे कई देशों तक ले जाने की कोशिश में हैं।
सुभाष ने कई नए चेहरे दिए: माधुरी
दीक्षित, जैकी श्रौफ, मीनाक्षी शेषाद्रि, मनीषा कोईराला, महिमा चौधरी, ईशा
शिवरानी, अनुराग सिन्हा, और अनुपम खेर, अनिल कपूर और संजय दत्त को बड़ी ब्लाकबस्टर
फ़िल्मों में बड़ी भूमिकाएँ दे कर सँवारा और बढ़ाया।
![]() |
अनिल कपूर, ऐश्वर्या रॉय और अक्षय खन्ना |
अंत
में मैं सुभाष की सहायता से बनी तीन अच्छी फ़िल्मों का ब्यौरा देना चाहता हूँ:
सन 2006 वाली चाइना टाउन
मर्डर मिस्टरी और सस्पैंस का दिलचप्स पुलिंदा थी, निर्देशक थी अब्बास-मस्तान की
जोड़ी और निर्माता सुभाष घई। असफल अभिनेता राज मल्होत्रा (शाहिद कपूर) और अपने
लालची से भागी प्रिया (करीना कपूर) को एक लावारिस बच्चा मिलता है। पता चलता कि उसे
लौटाने वाले को पच्चीस लाख रुपए मिलेंगे। दोनों लड़का वापस करने जाते हैं तो 36
चाइना टाउन के शानदार घर में मालकिन सोनिया चांग की हत्या हो गई है। शक़ इन दोनों
पर जाता है। अंत तो सुखद होना ही था।
मुक्ता सर्चलाइट
फ़िल्म्स के झंडे तले नागेश कुकुनूर निर्देशित गूंगे बहरे बच्चे ‘इक़बाल’ के क्रिकेट स्टार बनने
की हृदयद्रावक कहानी, जिसने श्रेयस तलपडे नाम का कलाकार फ़िल्म उद्योग को दिया।
क्रिकेट की दीवानगी भी फ़िल्म दीवानगी से कम नहीँ है।
कई फ़िल्में क्रिकेट के इर्दगिर्द बनाई जाती रही हैं जैसे आमिर ख़ाँ की लगान।
लेकिन सुभाष के फ़ाइनेंस से बनी इक़बाल एक निर्देशक थे कला फ़िल्म बनाने वाले
नागेश कुकूनूर। कहानी और पटकथा भी कुकुनूर की थी, संवाद लिखे थे मीर अली हुसैन ने।
क्रिकेट खेल लोकप्रिय है पर उस के पीछे जो घटिया प्रतियोगिता और षड्यंत्र होते हैं
उनके बीच गूँगे बहरे बच्चे इकबाल की गाथा रोचक और आशाप्रद फ़िल्म साबित हुई। इसी
के माध्यम से श्रेयस तलपडे जैसा कलाकार उभर कर आया
![]() |
अरविंद कुमार |
-
प्रेम पिल्लई के साथ
सुभाष घई निर्मित ‘जौगर्स पार्क’ अनंत बालानी निर्देशित अपनी तरह की पहली फ़िल्म थी और सुभाष की अपराध वाली
थीम से हट कर थी। पार्क में सुबह की सैर पर रिटायर्ड जज ज्योतिन चटर्जी (विक्टर
बनर्जी) का साथ बिंदास लड़की जैनी सूरतवाला (परीज़ाद ज़ोराबिया) से होता है तो वह
समझ जाते हैं कि उनकी पुरानी सोच कितनी बेमानी थी।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
यदि आपके पास फ़िल्म मोम की गुड़िया के नायक रतन चोपड़ा से जुड़ी कोई जानकारी हो तो अवश्य सांझा करें। प्लीज़
जवाब देंहटाएं