‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–63
टाइम्स ऑफ़
इंडिया में हर वर्ष के अंत में विभागाध्यक्ष को अपने हर सहकर्मी का मूल्यांकन करना
होता था। इसका बंधे बंधाए लंबे फ़ॉर्मैट के हर सेक्शन में टिप्पणी के साथ प्रतिशत
नंबर भी देने होते थे। मेरे पहले साल यानी अक्तूबर से लेकर दिसंबर तक के फ़ार्म
भेज दिए। पर्सनल मैनेजर श्री वी.जी. कर्णिक चकित थे जैनेंद्र पर मेरे मूल्यांकन से-“जैनेंद्र के पूर्व विभागाध्यक्ष धर्मयुग
संपादक भारती जी ने उसे निकृष्ट कोटि में रखा था, आप उसे चोटी पर बैठा रहे हैं”। मैंने कहा, “वहां वह कैसा था, क्यों था - यह उनके
दृष्टिकोण और उसके आउटपुट पर निर्भर करता है। हो सकता है मेरे पास मिले खुला मैदान
के कारण उभर आया हो।” सेक्शन
में प्रतिशत का अलग प्रावधान था। कर्णिक के विभाग ने उसका टोटल किया तो वह 115
प्रतिशत बैठता था। यह कर्णिक जी की निगाह में असंभव था। मैंने किसी तरह सौ प्रतिशत
कर दिया तो वह बोले, “आगे यह
तरक़्क़ी कैसे करेगा?” बात 80 प्रतिशत
पर तय हुई।
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अरविंद कुमार, जैनेंद्र जैन और नौशाद |
टाइम्स में प्रचलित था कि पूर्व मैनेजर जे.सी. जैन और
भारती जी के संबंध कटु थे। जो भी हो ‘धर्मयुग’ में दबे दबे
रहने वाले जैनेंद्र को माधुरी में पूरी स्वतंत्रता और उन्मुक्त प्रोत्साहन मिला तो
वह खिल उठा।
मुझे मिला वह पहला संपादकीय सहकर्मी था। अनुभवी था। जैसा
कि मैं चाहता था ट्रेनिंग विभाग से दो बिल्कुल नए ख़ाली सलेट विनोद तिवारी और आर
सी जैन मिले थे। मेरे मित्र ‘हिंदी ब्लिट्ज़’ संपादक मुनीश
नारायण सक्सेना के सुझाव पर महेंद्र सरल मिले जो ‘ब्लिट्ज़’ में फ़िल्मों पर
लिखते थे। सब के साथ पहली मीटिंग में मैं ने साफ़ कर दिया, “हम सब बराबर हैं और मिल कर एक दूसरे को सलाह देते हुए
पूरे सहयोग से काम करेंगे और एक नई तरह की फ़िल्म पत्रकारिता को जन्म देंगे।”
तो यह था हमारा क़ुनबा – बॉस और मातहत वाला नहीं परिवार
के समकक्ष सदस्यों जैसा। जैनेंद्र तरह तरह से नई बात ले कर आता। एक आइडिया था कॉमिक
पत्रिकाओं की तरह किसी एक काल्पनिक घटना पर उपलब्ध सितारों के साथ सचित्र फ़ीचर।
कई अंकों में उस के कई संस्करण निकले। हर बार नए कलाकार, नई कहानी। हमारे पहले
होली अंक के लिए हृषीकेश मुखर्जी की कोठी के बाहरी सहन में होली रचाना भी उसी का
आइडिया था। कुछ कलाकार वह लाया, कुछ महेंद्र सरल। फ़ोटोग्राफ़र तो अपने टाइम्स के
थे ही। सौभाग्यवश 28 फ़रवरी सन् 1964 वाला होली का कवर पेज मुझे मिल गया। वह साझा
कर रहा हूं। $
जैनेंद्र
सब को प्रसन्न रखते हुए सब के साथ काम करना जानता था। जैनेंद्र और मैंने बीसियों
आइडिया बनाए – फ़ीचरों के। एक था ‘छुट्टी दूसरे इतवार की’। इस का आधार था महीने के हर दिन काम में मगन रह कर थकन से निजात पाने के
लिए फ़िल्म उद्योग का फ़ैसला कि महीने के दूसरे इतवार को कोई काम नहीं होगा। हमने सोचा
कि एक ऐसा फ़ीचर बनाएं जिसका लेखक बिना किसी पूर्व सूचना के किसी भी फ़िल्म वाले
घर नमूदार होगा और वहां जो कुछ देखेगा उस का वर्णन करेगा। ग़ुमनाम लेखक कौन होगा?
मुझे याद आए मेरठ में हमारे दूर के सेवानिवृत्त ताऊजी जो हर इतवार
हर बच्चे को इकन्नी देते थे। तो मैं ने नाम सुझाया – इतवारी लाल।
जब तक जैनेंद्र ‘माधुरी’ में बस एक उपसंपादक था, उसका फ़िल्में लिखते रहना मुझे स्वीकार्य था, क्योंकि इस वज़ह से पत्रिका की निश्पक्षता पर कोई आंच न आए यह देखने को मैं था। लेकिन मेरे बाद वह संपादक भी बने यह मैँ नहीं चाहता था। इसलिए ‘माधुरी’ छोड़ते समय मैंने अपने उत्तराधिकारी के लिए दूसरे सीनियर और समर्थ विनोद तिवारी का नाम प्रस्तावित किया। स्पष्ट था कि जैनेंद्र त्यागपत्र दे देगा। वही हुआ भी।
जब तक जैनेंद्र ‘माधुरी’ में बस एक उपसंपादक था, उसका फ़िल्में लिखते रहना मुझे स्वीकार्य था, क्योंकि इस वज़ह से पत्रिका की निश्पक्षता पर कोई आंच न आए यह देखने को मैं था। लेकिन मेरे बाद वह संपादक भी बने यह मैँ नहीं चाहता था। इसलिए ‘माधुरी’ छोड़ते समय मैंने अपने उत्तराधिकारी के लिए दूसरे सीनियर और समर्थ विनोद तिवारी का नाम प्रस्तावित किया। स्पष्ट था कि जैनेंद्र त्यागपत्र दे देगा। वही हुआ भी।
अथ
जैनेंद्र की फ़िल्म यात्रा:
सबसे
पहले पारखी राज कपूर ने ‘बॉबी’ में संवाद लेखक के रूप में
अपनाया। धीरे धीरे वह राज कपूर के दाहिने हाथ जैसा हो गया। जैनेद्र
ने राज कपूर
की ‘सत्यं
शिवं सुंदरम्’ के संवाद लिखे। अब तक मेरा मानना है कि उस में शशि कपूर सही नहीं उतरे,
वरना...

पैतृक
समाज में स्त्रियों के प्रति दोहरे मानदंड था ‘प्रेमरोग’ का विषय। दर्शाया गया था बड़े
राजा ठाकुर (शम्मी कपूर) परिवार की लाड़ली बेटी मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरे) और गांव
के पुजारी के घर पले अनाथ देवधर की प्रेम कहानी के माध्यम से। मनोरमा और पुजारी की
बेटी राधा (किरण वैराले) बचपन की सहेलियां हैं। यह मित्रता मनोरमा के परिवार में
पसंद तो नहीं है लेकिन कोई इसे रोकता भी नहीं है। राधा बताती है कि उस का भाई
देवधर (ऋषि कपूर) आठ साल बाद लौट रहा है। मनोरमा अपने बचपन के साथी ‘बुद्धू
बाबा’ को लेने स्टेशन जाने की बात करती है तो राधा को
विश्वास नहीं होता – इतने बड़े राजा की भतीजी इतने छोटे घर के बेटे को लेने जाएगी! मनोरमा
का दावा था कि वह बुद्धू बाबा को पहचान लेगी। घटनाएं कुछ ऐसी घटीं कि देवधर तो बस
दीवाना हो गया मनोरमा का। राधा समझाती है कि “हंस कर बात कर के मनोरमा तुम पर मेहरबानी करती है, इसे प्यार समझने
की भूल मत करना,” पर देवधर समझने वाला था कहां।
वह
बड़े राजा से बात करना चाहता है मनोरमा से शादी की। इस बीच मनोरमा का रिश्ता तय हो
जाता है घराने के अनुकूल कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह (विजयेंद्र घाटगे) से। मनोरमा
ख़ुशी से चहक रही है।
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'प्रेम रोग' में ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरी |
लेकिन
बुद्धू बाबा के दिल का टूटना देख पाती है मनोरमा की मां छोटी ठकुराइन (नंदा), और
कुछ कुछ कुंवर जी भी। मनोरमा ख़ुशी ख़ुशी विदा हो जाती है, अगले दिन पैर फिराई के
लिए लौटती है, साथ हैं कुंवरजी। स्वागत सत्कार के माहौल में कुंवर जी अपनी जीप में
निकल जाते हैं शिकार को और सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं। एक दिन की ब्याहली पर
दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है। बड़ी मां और घर की बड़ी बूढ़िनें अड़ जाती हैं मनोरमा
के सुंदर केश मुंड़वाने में। इस दृश्य की क्रूरता वाला दृश्य मुझे आज तक रोमांचित
करता है। सौभाग्यवश मनोरमा की जेठानी (तनुजा) मुंडन रोक देती है। फेरों की घड़ी से
मनोरमा ससुराल की हो गई है – इस तर्क के साथ जेठानी उसे अपने साथ वापस ले जाती है।
महीनों
बीत जाते हैं। भली जेठानी की देख रेख में मनोरमा जी रही है। जेठानी का बेटा उस का
संगी बन गया है। और फिर एक दिन जेठ ठाकुर वीरेंद्र प्रताप सिंह (रज़ा मुराद) की
नज़र गड़ती है मनोरमा के बदन पर। जेठानी किसी शादी में बाहर गई है - रात में वह
जेठ की लिप्सा का शिकार बनती है। जेठानी लौटी तो देवरानी को ज़िंदा लाश जैसा पाती
है। मनोरमा पीहर जाना चाहती है, दुखियारी जेठानी भेज देती है।
बेटी
को देखते ही मां भांप लेती है उस पर क्या बीती है, पर लोकनिंदा के भय से बलात्कार
की घटना को गुप्त ही रखती है। पीहर में विधवा का जीवन घुट रहा है तरह तरह के
प्रतिबंधों से। रमा की बीती सुन कर देवधर शहर से लौट आया है। देवधर एक बार फिर उस
के जीवन बहार लाने के प्रयास करता है। लेकिन वह बड़ी दिलेरी से शक्तिशालियों से
टक्कर में सफल हो जाता है।
फ़िल्म
की सफलता का बड़ा अंश थे जैनेंद्र के संवाद। एक समीक्षक ने लिखा - Hard-hitting
dialogues (Jainendra Jain) added the necessary pizzazz to a strong script. तभी तो वह एक के बाद एक बड़े निर्देशक और हीरो की
पसंद बनता गया।
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'बॉबी' में ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया |
अनिल कपूर को लीजिए, मतलब उसके बड़े भाई निर्माता बोनी कपूर को लीजिए।
अनिल कपूर को बतौर हीरो लॉच करने के लिए उस ने ‘वोह सात दिन’ के संवाद लिखने के लिए चुना। बांगड़ू
प्रेम परताप पटियाला वाले का चरित्र स्थापित करने के लिए जो भाषा चाहिए थी, वह
लिखना कोई ठट्ठा नहीं था।
फिल्म की कहानी परखी परखाई थी। पहले वह तमिल में बनी थी, निर्देशक
थे के. भाग्यराज, तेलुगु में निर्देशन किया बापू ने और बोनी कपूर ने बापू से ही
निर्देशन करवाया था। फ़िल्म का मूल तत्व था - मंगल सूत्र। डाक्टर आनंद और माया की
शादी हो रही है। बार बार मंगल सूत्र पर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। क्या वह यूं
ही उतार कर फेंका जा सकता है? बदला जा सकता है? देखा जाए तो ‘वोह सात दिन’ में है बीज सन् 1999 की बंपर ‘हम
दिल दे चुके सनम’ का। ‘वोह सात दिन’ का नायक प्रेम परताप
पटियाले वाला बंबई आया है संगीत निर्देशक बनने, ‘हम
दिल दे चुके सनम’ का इटालियन नायक समीर आया है संगीत
सीखने। नायिका की शादी कर दी जाती है। पति पुराने प्रेमी से नायिका का पुनर्मिलन
करवाना चाहता है। विधुर डॉक्टर आनंद (नसीरुद्दीन शाह) की ब्याहली माया (पद्मिनी
कोल्हापुरे) पहली रात ज़हर खा लेती है। आनंद पूरा मामला जानने की कोशिश करता है। बताता
है कि उसने भी शादी मां को प्रसन्न करने के लिए की है। माया और प्रेम परताप की
प्रेम कहानी बड़े रोचक ढंग से उद्घाटित होती है। क्या माया जाएगी प्रेम परताप के
साथ या रहेगी डाक्टर आनंद के साथ?
फ़ैसला माया करती है।
पात्रों
का चरित्र चित्रण ही है ‘वोह सात दिन’ की
जान। और उस की जान हैं जैनेंद्र जैन के संवाद।
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'वो सात दिन' में अनिल कपूर और पद्मिमी कोल्हापुरी |
जैनेंद्र ने ‘बॉबी’ सहित कुल मिला कर 96 (छियानबे) फ़िल्मों के संवाद या पटकथाएं लिखीं जिनमें शामिल थीं: ‘कालीचरण’(1976), ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ (1978), ‘प्रेम रोग’(1982),‘वोह सात दिन’(1983), ‘हिना’ (1991), ‘प्रेमग्रंथ’(1996), ‘जुदाई’(1997) आदि।
जैनेंद्र
ने वही ग़लती की जो कभी शैलेंद्र ने की थी –‘जानू’ नाम की फ़िल्म बना डाली। फ़िल्म बनाना और सफल करना हर एक के बस की बात
नहीं। ‘जानू’ बनी पर चल नहीं पाई।
चार अक्टूबर 1939 को जन्मे जैनेंद्र का देहांत अड़सठ साल की उम्र में 23 दिसंबर 2007 को हुआ – फेफडों में संक्रमण के कारण।
जैनेंद्र की याद में गुणी जैनेंद्र को समर्पित है यह क़िस्त --- अरविंद।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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