‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–65
कभी बहुत पहले,
शायद ‘अमर अकबर एंथनी’
में कव्वाल ऋषि कपूर को देखकर, बतर्ज़ मीर तक़ी मीर मैंने
लिखा था-
“ताज़गी
उसके फ़न की क्या कहिए / पंखड़ी इक गुलाब की सी
है।” तब से अब तक ऋषि को किसी भी फ़िल्म में देख कर
चाहे वह ‘मुल्क’
हो या ‘मंटो’
में उस का छोटा सा रोल हो मुझे वही शेर याद आता है - “ताज़गी
तेरे फ़न की क्या कहिए / पंखड़ी इक गुलाब की
सी है।”
राज
कपूर के दूसरे बेटे ऋषिराज का जन्म 4 सितंबर 1952 को मुंबई में हुआ। कुल मिला कर
वे पांच भाई बहन हैं। बड़ा भाई रणधीर, छोटा भाई राजीव, दो बहनें ऋतु नंदा और रीमा
जैन। तीनों भाइयों में ऋषि ही लोकप्रियता के शिखर तक पहुंच पाया। हीरो के रूप में
उसकी पहली और सुपर हिट फ़िल्म है ‘बॉबी’।
यूं सैल्युलॉइड की दुनिया में उसका प्रवेश श्री
420 के आइकोनिक गीत ‘प्यार
हुआ इक़रार हुआ’ के फ़िल्मांकन से ही हो गया
था।
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श्री 420 में प्यार हुआ इकरार हुआ गीत के इस दृश्य मे सबसे छोटा बच्चा ऋषि कपूर हैं |
आज
की पीढ़ी में बहुत कम लोगों ने ही वह फ़िल्म देखी होगी। यूं तो इस पीढ़ी ने ‘बॉबी’
भी कम देखी होगी। जानकारी के लिए मैं बताना चाहता हूं कि ‘प्यार
हुआ’ गीत में एक छतरी के नीचे नरगिस और राज कपूर वाली
तस्वीर भारतीय सिनेमा की आइकन मानी जाती है। इस गीत के अंत में बोल हैं “मैं
न रहूंगी तुम न रहोगे रह जाएंगी निशानियां”
और बारिश में भीगते तीन बच्चे दिखाई देते हैं। उनमें आख़िरी बच्चा है ऋषि। उसने
लिखा है –“तब मैं लगभग दो साल का था। बारिश
के मारे आंखें चिरमिरा रही थीँ। मैं रो रहा था। आख़िर नरगिस जी आईं, और बोलीं,
‘आंखें खुली रखोगे तो चाकलेट मिलेगी!’
तो मेरे पहले शॉट के लिए रिश्वत के तौर पर चाकलेट मिली थी!”
अभिनय के क्षेत्र में ऋषि का पहला पड़ाव था मेरा नाम जोकर। फ़िल्म के तीन में से पहला भाग समर्पित है ‘विश्व के महान सर्कस कलाकार’ राजू के बचपन को। यह बच्चा है रोलु पोलु सा ऋषि – अपनी क्लास को हंसाने वाला भोला भाला लड़का राजू। नई क्लास टीचर के स्वागत में राजू ने ब्लैक बोर्ड पर कार्टून बना दिया है। यह देख कर सुंदर टीचर मिस मेरी (सिमी गरेवाल) नाराज़ न हो कर ख़ुश होती है। यहां से शुरू होती है राजू की आकर्षक मेरी के प्रति आसक्ति। एक बार छिप कर राजू ने मेरी को झील में नहाते देख लिया। रात को वह उसके सपने में 'नंगी' दिखाई दी। वह स्वयं सिमी है या कोई और – यह स्पष्ट नहीं किया गया है।
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मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल का बहुचर्चित दृश्य |
दर्शक
देखते हैं एक औरत की पीठ, नितंब और एक स्तन। अध्यापिका
मेरी की कोशिश से उस में नई महत्वाकांक्षाएं जागती हैं। उसका जन्म लोगों को हंसाने
के लिए हुआ है। बड़ा हो कर संसार का मशहूर जोकर राज कपूर बनता है। यह कोई आसान
भूमिका नहीँ थी। लेकिन कम उम्र ऋषि ने कर दिखाई।
राज
कपूर ने बड़े शौक़ से, बड़ी मेहनत से, बनाई थी –‘मेरा
नाम जोकर’ - उनके अपने जीवन का निचोड़।
जितना मन, तन और धन उन्होँने इस पर
सर्फ़ किया, वह उन जैसे शोमैन के लिए भी अभूतपूर्व था। इस के लिए ‘जीना
यहां मरना यहां - इसके सिवा जाना कहां’
लिखते लिखते कविराज शैलेँद्र चले गए। फ़िल्म रिलीज़ हुई, बुरी तरह पिट गई। राज
कपूर और आर.के. फ़िल्म्स लगभग दीवालिया हो गए। कहने वालों का कहना था कि आर.के. की
ईंट ईंट गिरवीं थी।
उन
दिनों मैं ने देखा था एक करुण दृश्य:
बंबई
के जूहू होटल मेँ ‘बेईमान’
(1972) की आर्थिक सफलता पर निर्माता सोहनलाल कंवर ने बड़े पैमाने पर शराब से
लबरेज़ डिनर आयोजित किया - अपने चार्टर्ड अकाउनटैंट को धन्यवाद देने के लिए। लगभग
दस बजे होँगे। पार्टी पूरे जोश मेँ थी। क़हक़हे गूंज रहे थे। दौर पर दौर चल रहे
थे। मस्ती का आलम था। कोई एक घंटे बाद राज कपूर आए। पहली नज़र मुझ पर पड़ी। हम
दोनों इधर उधर की बातेँ करने लगे। फिर वह इधर उधर औरोँ सेबातेँ करने लगे। सोहनलाल
के पास गए, नाराज़ से लौट आए। मन कड़वाहट
से भरा था। सोहनलाल को बुरा भला कहने लगे। “‘जोकर’
क्या फ़ेल हो गई मुझे चीफ़ गेस्ट से मिलवाने तक के क़ाबिल नहीँ समझा…”
राज ने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी। अब नशे में राज मुझ से गलबहियां डाले बाहर की ओर
चलने लगे। अधबीच संगमरमर की बैँच पर प्रेमनाथ पूरे मूड मेँ थे। राज का वही राग चल
रहा था। “लोग हैं, ‘जोकर’
पिट गई तो मैँ पिट गया…” अबधुन प्रेमनाथ ने
पकड़ ली:“पापे, फ़िकर न कर!
‘बॉबी’ आने
दे! आर.के.
की ईंट ईंट सोने की हो जाएगी!” प्रेमनाथ राज को ढारस
बंधा रहा था।
तो
यह थी हीरो ऋषि कपूर वाली ‘बॉबी’
से अपेक्षा, और यह इस क़दर पूरी हुई कि आर.के.
के वारे के न्यारे हो गए। ‘जोकर’
के बाद ऋषि विकास यात्रा का अगला पड़ाव ‘बॉबी’
ही हो सकता था।
बॉबी
तक ऋषि कपूर के पड़ाव#
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बॉबी में ऋषि और डिंपल |
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सन 2012
में एक इंटरव्यू में ऋषि कपूर ने कहा है:
“डैडी ने 1973
की ‘बॉबी’
मुझे फ़िल्मों में लाने के लिए नहीँ बनाई थी। यह ‘मेरा
नाम जोकर’ की असफलता से पड़े संकट से उबरने
के लिए बनाई गई थी। वे कम उम्र वाले हीरो हीरोइन की प्रेम कहानी पेश करना चाहते थे,पर
राजेश खन्ना को देने लायक़ पैसा था नहीँ।”
यह भी
कहा जाता है कि बॉबी वाला रोल पहले बेबी फ़रीदा को ऑफ़र किया गया था। भाग 56 में मैंने
लिखा था: “कहा
जाता है कि राजकपूर की तरफ़ से उसे ‘बॉबी’
की नायिका वाली भूमिका ऑफ़र की गई थी। नए नए विवाह के नाते फ़रीदा ने अस्वीकार कर दी।
सोचो ऐसा होता तो क्या होता।”
सोचने
की बात यह भी है कि ‘बॉबी’
राजेश खन्ना के साथ बनी होती तो क्या होता।
पर ‘बॉबी’
बनी ऋषि कपूर और डिंपल कापड़िया के साथ। मैं दावे के साथ कहना चाहता हूं कि यही जोड़ी
सही थी फ़िल्म के लिए। राजेशखन्ना के साथ शादी करके डिंपल लगभग चौदह साल तक गृहिणी
न बनी रहती तो ऋषि और डिंपल की जोड़ी बॉक्स ऑफ़िस पर और कितने कमाल कर दिखाती रहती–
यह कल्पनातीत है। डिंपल ने कम बैक किया ऋषि कपूर और कमल हासन के साथ 1984-85 में रमेश
सिप्पी की ‘सागर’
में।
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‘बॉबी’
के बाद 1973 से सन् 2000 तक ऋषि ने हिंदी फ़िल्मों में बतौर रोमांटिक हीरो काम
किया। इन में से एकल हीरो के रूप में इक्यावन में से कुल ग्यारह सफल रहीँ। बॉबी के
लिए ऋषि को फ़िल्मफ़ेअर का श्रेष्ठ अभिनेता अवॉर्ड मिला। अपनी किताब ‘खुल्लम
खुल्ला’ में उस ने लिखा है कि यह पच्चीस
हज़ार (25,000) में ख़रीदा था। उस
के अपने शब्दों में यह वाक़या:
[मैं
कुल इक्कीस साल का था, कैरियर की शुरूआत थी, और एक अहमक़ाना हरक़त कर बैठा। किसी
ने कहा, अवॉर्ड मिल सकता है, पर क़ीमत देनी होगी। मैंने हां कर दी। उस साल अमिताभ
का भी नामांकन था – शायद ‘जंज़ीर’
के लिए। यह सही है कि मैं ने रुपए वास्तविक अधिकारियों को नहीँ दिए थे। जो भी हो,
मुझे अवॉर्ड मिल गया।]
ऋषि
ने भी साफ़ साफ़ लिखा है कि मैं यह सब अटकल से कह रहा हूं। “He
[Bachchan] was perhaps also nominated that year. These are
conjectures."
यहां,
मैं अरविंद कुमार कुछ कहना चाहता हूं। उन दिनों मैं ‘फ़िल्मफ़ेअर’
की सहपत्रिका ‘माधुरी’
का संपादक था। श्री प्रेम जन्मेजय द्वारा प्रकाशित-संपादित पत्रिका ‘व्यंग्ययात्रा’
के ‘संस्मरण विशेषांक’
में मैंने लिखा था-
“मैँ
गवाह हूं उन दिनोँ देने वालोँ के लिए – यानी कि ‘फ़िल्मफ़ेअर’
के प्रकाशकोँ के लिए –अवॉर्ड बिज़नेस नहीँ थे, पत्रिका को बहुचर्चित बनाने का साधन
थे। हां, उनके कारिंदोँ मेँ किस के लिए यह पैसा कमाऊ बिज़नेस हो सकता था। था या
नहीं, था तो किस किस के लिए था, किस ने कितने कमाए होँगे – यह कहना मेरे लिए
निश्चय ही संभव नहीँ है।
हां,
पानेवालोँ के लिए, फ़िल्मवालोँ के लिए अवॉर्ड बिज़नेस थे। अवॉर्ड का मतलब था अगली
फ़िल्मोँ के लिए उन की क़ीमत बढ़ जाना। अवार्ड बिज़नैस थे उन चालाक, काइयां,
छुटभैया दलालोँ के लिए जो पत्थर मेँ से भी तेल निकालने की कला मेँ माहिर होते हैँ।
मैँ
बंबई 1963 के अंतिम दिनोँ पहुंचा था। ‘माधुरी’
(पहले पांच अंकोँ का नाम –‘सुचित्रा’)
का पहला अंक गणतंत्र दिवस 1964 को आया था। तब से ही ‘फ़िल्म
फ़ेअर’ अवॉर्डोँ मेँ घपलोँ की बात
सुनने मेँ आती रहती थी। किस ने किस को किस जुगत से अवॉर्ड दिलाया, किस का कटवाया –
यह कानोँ कान नहीँ खुल्लम खुल्ला बखाना जाता था।
पुरस्कारोँ
की प्रक्रिया दोहरी थी। पहले तो पत्रिका एक फ़ार्म छाप पर पाठकों से कई कोटियोँ के
नामोँ का प्रस्ताव मांगती थी। यह फ़ार्म कई अंकोँ मेँ छपता था। उन अंकोँ की बिक्री
बहुत बढ़ जाती थी। यह प्रकाशकोँ के लिए बिज़नैस था।
नामांकन
फ़ार्म छपा, दलालोँ का काम शुरू। फ़िल्म वालोँ से पैसे ले कर ये दलाल शहर शहर अपने
एजेंटोँ से अपने ग्राहक के समर्थन मेँ फ़ार्म भरवा कर मंगवाते थे। शहर शहर से आए
फ़ार्मों का अंबार टाइम्स कार्यालय मेँ लगने लगता। सब फ़ार्मोँ का आकलन कर के हर
कोटि मेँ सब से ज़्यादा मत पाने वालोँ के तीन (कभी कभी चार या पांच भी) नाम
प्रकाशित किए जाते थे। अवॉर्ड इन मेँ से किसी एक को दिए जाते थे। निर्णायक मंडल का
कोई भी सदस्य अपनी पसंद के किसी अतिरिक्त व्यक्ति को भी चर्चित नामोँ मेँ शामिल
करवा सकता था। निर्णायकोँ के पास प्रत्याशियोँ की तरफ़ से सिफ़ारिशेँ आने लगतीं।
उन्हेँ ललचाया भी जाता।
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माधुरी के कवर पर भी छपे थे ऋषि कपूर |
एक और तरह के चतुर सुजान इन के भी उस्ताद थे! एक थे तारकनाथ गांधी – गहरे सांवले, पतले दुबले, चालाकी की जीती जागती मूरत। अपनी उस्तादी के क़िस्से शान से बघारते। उन का रास्ता सीधासादा, सपाट और सुगम था। वह सभी नामांकितोँ के पास जाते। अपनी सकत के, पहुंच के गुणगान करते। बताते- ‘अरे फ़लाना, उसे तो मैँ ने अमुक अवार्ड दिलवाया था। अवार्ड अपने हाथ आया समझिए! बस इतनी रक़म मुझे दीजिए। अवार्ड न मिला तो पूरी रक़म वापस!!! ’सब से एक सी रक़म ले आते। नतीज़ा आते ही असफलोँ की रक़म वापस, सफल की रक़म जेब मेँ!!! कैसी रही!!!
अवॉर्ड दिलवाने या कटवाने के लिए कई अनोखी चालेँ चली जाती थीँ। एक सुप्रसिद्ध जुगत का मुलाहजा फ़रमाइए। शंकर जयकिशन अपने संगीत के लिए हमेशा लोकप्रिय थे। उन का नाम सफलता की निशानी बन गया था। पर अवॉर्ड की प्यास हर साल लगी रहती।
सन्
1961 के ‘फ़िल्मफ़ेअर’
अवॉर्डोँ की बात है। मुक़ाबला था ‘मुग़ले
आज़म’ के संगीत के लिए नौशाद और ‘दिल
अपना और प्रीत पराई’ के लिए शंकर जयकिशन
के बीच। चयनकर्ता समिति के अध्यक्ष थे ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के लिए जाने वाले
जस्टिस ऐम. सी.
छागला। वह लालच मेँ आएंगे? तौबा तौबा!
पर छले गए। उन के पास एक सिफ़ारिशी ख़त पहुंचा। लिखा था कि “आप
से तवक्को है कि एक मुसलान का ख़याल रखेँगे।”
लिखने वाले का नाम था – नौशाद।
जस्टिस
साहब भड़क गए। तय कर लिया कि संगीत का अवॉर्ड भाड़ मेँ जाए या समंदर मेँ, नौशाद को
नहीँ मिलेगा। नतीज़ा सब जानते हैँ। ‘पराई
प्रीत’ जीत गई!
ऋषि
ने कई और दिलचस्प बातें भी कही हैं। जैसे:
डिंपल से शादी के लिए राजेश खन्ना के प्रति बेमतलब नाराज़गी।
‘बॉबी’
बनने के दौरान ऋषि और डिंपल के रोमांस की अफ़वाहें चला करती थीं। ऋषि को उसकी गर्ल
फ़्रैंड ने एक अंगूठी दी थी। वह ऋषि ने डिंपल को पहना दी। राजेश खन्ना को पता चला
तो उस ने वह छीन कर जुहू तट के समुद्र में फेंक दी। शायद मज़े लेते हुए ऋषि ने
लिखा है, “अभी तक मुझे जुहू पर उस
अंगूठी की तलाश है। पैंतालीस साल बीत गए हैं पर मेरी तलाश ज़ारी है!”
यह
क़िस्सा ऋषि ने इस तरह लिखा है, “एक मैगज़ीन ने मेरे और
डिंपल के रिश्ते के बारे में छाप दिया था। काश ऐसा होता!
मैं जिस (यास्मीन) से डेटिंग कर रहा
था, उस ने पढ़ा तो मुझ से नाता तोड़ दिया। उन दिनों सैल फ़ोन तो थे नहीँ। हम लोग
अर्जैंट कॉल किया करते थे। वह मेरा फ़ोन उठाती ही नहीँ थी। मैं ने नीतु की मदद ली।
अब देखिए ज़िंदगी भी क्या शै है - मैं नीतु से शादी कर बैठा!”
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अरविंद कुमार |
आजकल
विश्व कला के प्रसिद्ध उपभोक्ता व समीक्षक लंदनवासी राकेश माथुर (फ़ेसबुक पर
Rakesh K. Mathur) ने कैरियर की शुरूआत ‘माधुरी’
से की थी। मेरे कहने पर राकेश ने जो संक्षिप्त सा संस्मरण लिखा उस में साफ़ झलकता
है ऋषि की सफलता का राज़।
“सातवें
दशक के प्रारम्भ की बात है।‘माधुरी’
पत्रिका के युग में, ॠषि कपूर से अक्सर
फिल्मी जश्नों में भेंट हुआ करती थी। चूंकि अधिकतर अधेड़ मेहमानों के मध्य हम एक
उम्रके कुंवारे, मासूम,
समान दिलचस्पी वाले जवान थे, इसलिए
हमारी खूब पटती थी। 'बॉबी'
की सफलता का ॠषि में कोई गुरूर नहीँ झलकता था। बस, आगे क्या करना है,
इसकी ललक दिखाई देती थी। हमारी बातचीत अधिकतर हिंग्लिश में होती थी,
ऋषि कभी-कभी टोक कर, नये हिन्दी शब्द सुनने
पर, उन का सही उच्चारण जानने व उसे दोहराने का प्रयास
किया करते थे। नया कुछ, कैसे,
किस प्रकार से करना है, यह
जानने कि ॠषि में उत्सुकता दिखाई देती थी।” --राकेश
माथुर]
यह
जो आगे क्या करना है –यही विषय ऋषि पर मेरी अगली क़िस्त 20 जनवरी 2019 का।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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