‘माधुरी’ के
संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता;
भाग–66
ऋषि पर पिछली क़िस्त का अंत मैंने राकेश माथुर के
इस उद्धरण से किया था :“'बॉबी' की सफलता का ॠषि में कोई गुरूर नहीँ झलकता था।
बस, आगे क्या करना है, इसकी ललक दिखाई देती थी। हमारी बातचीत अधिकतर
हिंग्लिश में होती थी, ऋषि कभी-कभी टोक कर, नये
हिन्दी शब्द सुनने पर, उनका सही उच्चारण जानने व उसे दोहराने का प्रयास
किया करते थे। कुछ, कैसे, किस प्रकार से नया करना है, यह
जानने की ॠषि में उत्सुकता दिखाई देती थी।”
और मैंने लिखा था “यह जो आगे क्या करना
है – यही विषय ऋषि पर मेरी अगली क़िस्त 20 जनवरी 2019 का।”
तो सबसे पहले मैं बात करता हूं 'बॉबी'
फ़िल्म की ताज़गी की।
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके लौटे बेटे राज के लिए
मां-बाप ने सरप्राइज़ बर्थ दे पार्टी रखी है। दरवाज़े पर खड़ी सकुचाती सी कमसिन एक
लड़की को देखता है तो देखता रह जाता है। पास ही रैक से डायरी सी उठाता है और उसमें
से पढ़ने-गाने लगता है -‘मैं शायर तो नहीँ मगर ऐ हसीं जब से देखा मैंने
तुझको मुझको शायरी आ गई।’ उस कमसिन के साथ खड़ी थी राज की पुरानी आया।
अगली सुबह वह रात मिले उपहार देख रहा था। एक है उस आया का नाचीज़ सा तोहफ़ा- केक
जो बूढ़ी आया बनाया करती थी। वह अपने को रोक नहीँ पाता। मछुआरों की बस्ती में आया
के घर पहुंच जाता है। दरवाज़े पर मिलती है वही लड़की, हाथ आटे से सने हैं। वह
देखता रह जाता है...
अगर बॉबी को देखकर राज शायर बन गया था, तो बॉबी
भी पीछे नहीँ है। कश्मीर के एक बंद कमरे में वह राज की आंखों की भूलभुलैया में खो
जाती है, और शेर से सामना होने पर यह कहने की हिम्मत रखती है, “तुम्हें
छोड़ दे मुझे खा जाए!”
उन दोनों की उम्र का यह ‘एक
साल जो बचपन और जवानी के बीच है’ बड़ा बुरा है। इसमें वे कुछ भी कर सकते हैं, कुछ
भी सकते हैं, और कहीँ भी भाग जा सकते हैं।
यह उत्कटता, उग्रता, प्रचंडता और अदम्यता ही ‘बॉबी’
का कथ्य थी। अनेक घटनाओं से, उतार-चढ़ावों से भरी अंत तक दर्शक को बांधे रखने वाली
प्रेम कहानी कोई राज कपूर ही फ़िल्मा सकता था। लेकिन कोई कितना ही सिद्धहस्त
निर्देशक हो उसकी कल्पना को साकार करते हैं कलाकार ही। यह दायित्व निभाने में ऋषि
और डिंपल की जोड़ी ने स्वयं राज कपूर की उम्मीदों से ऊपर बहुत कुछ कर दिखाया था।
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‘बॉबी’ के बाद यह जोड़ी बिछुड़ी तो बारह साल बाद
मिलाईरमेश सिप्पी नेगोआ के ‘सागर’ तट पर, जहां छोटा सा रेस्तरां चलाने वाली मोना
(डिंपल) बचपन के साथी राजा (कमल हासन) से हंसती खेलती रहती है। उद्योगपति परिवार
के साथ अमरीका से आए रवि (ऋषि) ने मोना को देखा तो गा उठा – “चेहरा
है या चांद खिला है, ज़ुल्फ़ घनेरी शाम है क्या, सागर जैसी आंखों वाली यह तो बता
तेरा नाम है क्या।”
वही ‘बॉबी’ जैसी ताज़गी, वही भावनाओँ के सागर से भी गहरी
गहराई, दोनों की आंखोँ में झलक रही थी। कहानी प्रेम त्रिकोण थी। राजा मन ही मन
चाहता था मोना को, पर कह नहीं पाता था। उसने अपने मन का भेद खोला रवि से। रवि की
दादी की विशाल संपत्ति को हथियाने का षड्यंत्र चल रहा है। क्लाईमैक्स में इंतिहाई
मारपीट गोलीबारी होती है। मोना को बचाने में राजा मारा जाता है। इस के लिए हिंदी
में फ़िल्मफ़ेअर का श्रेष्ठ नायक अवार्ड मिला कमल हासन को, उसे मिला एकमात्र हिंदी
अवार्ड। ठीक वैसे जैसे श्रेष्ठ रोमांटिक हीरो का एकमात्र अवार्ड ऋषि को मिला था ‘बॉबी’
में। यूं श्रेष्ठ हीरो का एक और अवार्ड मिला ऋषि को ‘दो
दुनी चार’ के लिए।
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इस बीच ऋषि चालीस फ़िल्म कर चुका था: जैसे\नरेंद्र बेदी की ‘रफ़ू चक्कर’, यश चोपड़ा की सुपर हिट ‘कभी कभी’, रवेल की ‘लैला मजनूं’, राज कपूर की ‘प्रेमरोग’, मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथनी’, महेश भट्ट की ‘नया दौर’, राज खोसला की ‘दोप्रेमी’, सुभाष घई की ‘कर्ज़’, मनमोहन देसाई ‘नसीब’, मनमोहन देसाई की ही ‘कुली’ और राज कपूर की ‘प्रेमरोग’।
इस बीच ऋषि चालीस फ़िल्म कर चुका था: जैसे\नरेंद्र बेदी की ‘रफ़ू चक्कर’, यश चोपड़ा की सुपर हिट ‘कभी कभी’, रवेल की ‘लैला मजनूं’, राज कपूर की ‘प्रेमरोग’, मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथनी’, महेश भट्ट की ‘नया दौर’, राज खोसला की ‘दोप्रेमी’, सुभाष घई की ‘कर्ज़’, मनमोहन देसाई ‘नसीब’, मनमोहन देसाई की ही ‘कुली’ और राज कपूर की ‘प्रेमरोग’।
‘प्रेमरोग’ पर मैं लेखक जैनेंद्र जैन वाले भाग 63 में लिख
चुका हूं। याददाश्त के लिए संक्षिप्त नोट भर लिख रहा हूं। यह पितृसत्तात्मक समाज
में स्त्रियों के प्रति दोहरे मानदंड की कहानी थी। नायिका थी बड़े राजा ठाकुर
(शम्मी कपूर) परिवार की लाड़ली बेटी मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरे) और नायक था गांव
के पुजारी के घर पला अनाथ देवधर। दोनों बचपन से ही हिलते मिलते आ रहे थे। माध्यम
थी पुजारी की बेटी राधा (किरण वैराले)। मनोरमा के बचपन का ‘बुद्धू
बाबा’ आठ साल बाद शहर से लौटा तो देवधर के मन में
अनकहा प्रेम पनपने लगा। मनोरमा का ब्याह हुआ और जल्दी ही विधवा हो गई। ससुराल के
अत्याचार सहती जेठ की हवस का शिकार बन कर पीहर आ गई। दोनों के बीच आता है समाज।
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ऋषि की तमाम फ़ार्मूला फ़िल्मों में मैं बात
करूंगा बस‘ अमर अकबर एंथनी’ के अकबर इलाहाबादी
की। तीन हीरो-हीरोइनों (विनोद खन्ना – शबाना आज़मी), (अमिताभ बच्चन – परवीन बाबी),
और (ऋषि कपूर – नीतु सिंह) वाली जोड़ियों में मुझे ऋषि – नीतू वाला अंश सबसे अच्छा
लगा था और लगता है। उसमें जो ताज़गी है, खुलापन है, और ऋषि की जो माहिर क़व्वालों
जैसी दिलफेंक अदा है, और साथ ही साथ नीतू का जो शरमाना और फ़िदा हो जाना है, वह यह
क़व्वाली लिखते समय मजरूह सुल्तानपुरी भी सोच नहीँ पाए होंगे। क़व्वाली शुरू होती
है एक बंदिश से ‘शबाब पर मैं ज़रा सी शराब फेंकूंगा/ किसी
हसीं की तरफ़ यह गुलाब फेंकूंगा’ और ठेके के साथ शुरू होती है—
‘परदा है परदा, परदा है परदा, / ‘परदे
के पीछे परदानशीं है / परदानशीं को बेपरदा न कर दूं / तो
अकबर मेरा नाम नहीं है!’
बिमल रॉय की ‘मधुमती’ की तर्ज़ पर बनी थी सुभाष घई की ‘कर्ज़’
(1980)। ‘मधुमती’ में अगर उत्तर भारत के पर्वत थे तो ‘कर्ज़’
में था ऊटी और करनूल का सुंदर क्षेत्र। नायक रवि वर्मा (ऋषि) अपने मृत पिता के
साझीदार सर जूडा (प्रेमनाथ) से जायदाद का मुक़दमा जीत कर मां को ख़ुशख़बरी दे कर
बताता कि वह कामिनी (सिमी गरेवाल) से विवाह करेगा। पर सर जूडा के साथ षड्यंत्र के
अंतर्गत कामिनी उसे मार कर काली देवी के मंदिर के पास पहाड़ से नीचे फेंक देती है।
बहुत साल बीत चुके हैं। इक्कीस साल के बिंदास
गायक-नर्तक अनाथ मौंटी को वही धुन पसंद है जो कभी रवि को पसंद थी। कहीं ऊटी के
आसपास ही रहती है मौंटी की चहेती टीना (टीना मुनीम)। वहाँ उसे बहुत कुछ जाना
पहचाना सा, अध-भूला सा, अध-याद सा लगता है। मौंटी वास्तव मेँ फिर से जन्मा रवि ही
है। बात परत दर परत खुलती जाती है। अंत तक की रोमांचक यात्रा में संगीतकार लक्ष्मी-प्यारे के दो गीत ‘दर्दे दिल’ और ‘ओम शांति ओम’ अभी तक याद किए जाते हैं। इसी
थीम पर शाहरुख़ की फ़िल्म का नाम ही था ‘ओम शांति ओम’।
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सन् 2000 के बाद ऋषि ने रोमांटिक हीरो के रोल
करना बंद कर दिया। लगभग 20 फ़िल्मों में जैसे 2006 की ‘फ़ना’,
2007 की ‘नमस्ते लंदन’, 2007 की ‘ओम शांति ओम’, 2009 की ‘दिल्ली छह’, और ‘लक बाई चांस’ में कैरेक्टर रोल करने के बाद उसने की
अ--रोमांटिक हीरो के रूप में एक बेहतरीन फ़िल्म दी सन 2010 की ‘दोदुनी
चार’। दिल्ली के लाजपतनगर के डीडीए फ़्लैट में रहता
हैटीचिंग शॉप में गणित पढ़ाने वाला निम्न आय वर्ग का मेहनती आदर्शवादी टीचर संतोष
दुग्गल। घर में वह है, पत्नी कुसुम (नीतू जो तीस साल बाद फ़िल्म में आई है), बेटा
है, बेटी है। पैसे जितने कम मिलते हैं, महंगाई उनसे दोगुनी बढ़ रही है। आय बढ़ाने
का हर तरीक़ा नाकाम रहता है। ऐसे में मेरठ से एक नज़दीकी की बेटी की शादी का
न्योता आता है। शर्त यह कि वे परिवार का सम्मान बचाने के लिए कार में आएं। महल्ले
वालों से दावा करता है, “मैं हारने वाला नहीं हूँ, एक हफ़्ते में कार ला
कर रहूँगा!” एक धनी नाकारा छात्र के नंबर बढ़वा देतो...!
संघर्ष का बिंदु है मानव मूल्यों की रक्षा।
‘दो दुनी चार’ जैसी हास्य और समस्याओं का सुरुचिपूर्ण संगम
फ़िल्म कोई कोई ही आती है।
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सन् 2018 में बहुत सारी चर्चित फ़िल्में आईं जैसे
‘पद्मावत’,
‘पैडमैन’,
‘हिचकी’,
‘स्त्री’,
‘बधाई
हो’,
‘औक्टोबर’,
‘केदारनाथ’
... मेरी राय में यह साल रहा ‘102 नॉट आउट’ का, और ‘राज़ी’, ‘मंटो’, ‘संजू’, ‘मुल्क’ का।
‘102 साल का है बहिर्मनस्क मनमौजी दत्तात्रेय
वखारिया (अमिताभ)। 76 साल का है उससे बिल्कुल उलटा अंतर्मनस्क और संकोची बेटा
बाबूलाल वखारिया। इन दोनों की कमाल की जुगलबंदी है फ़िल्म ‘102
नॉट आउट’। अमिताभ का बड़बोला पात्र करना आसान था, जबकि
अपने संकोचों से दबे ऋषि कपूर का मुश्किल। ठीक वैसे ही जैसे ‘दीवार’
में बड़बोला अमिताभ था और कमबोला “मेरे पास माँ है” कहने वाला शशि
कपूर। मेरी राय में ‘दीवार’ में भी बड़बोले अमिताभ के मुक़ाबले में कमबोले
शशि कपूर का अभिनय इक्कीस था, और ‘102 नॉट आउट’ में अमिताभ के मुक़ाबले ऋषि इक्कीस साबित होता
है।
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सन 2018 की ‘राज़ी’, ‘मंटो’, ‘संजू’, और ‘मुल्क’ किसी न किसी स्तर पर देश की पारस्परिक
सांप्रदायिक एकता की समस्या अपने अपने अलग कोणों से देखती हैँ।
नंदिता दास की ‘मंटो’
फ़िल्म (2018) हमें मिलाती है विभाजन से पहले के मंटो को सामान्य फ़िल्म लेखक के
रूप में और बाद में पाकिस्तान में संकुचित संप्रदायवाद के घिनौने चेहरे पर परदा उठाने
वाले मंटो को ‘टोबा टेक सिंह’ और ‘ठंडा
गोश्त’ के बेरहम दास्तानगो के रूप में।
‘मंटो’ फ़िल्म के विभाजन से पहले वाले भाग हम मिलते हैं
सूटेड बूटेड चश्माधारी लंपट ठरकी निर्माता ऋषि कपूर से जो नई अभिनेत्री से कह रहा
है, “तुम्हारा रोल बड़ा बोल्ड है, ये उतार दो!”
मुंह फेरे कुरते पाजामे में नज़रें झुकाए एक तरफ़ खड़ाहै मंटो। ध्यान से देखिए
मालिकाना अंदाज़ में आत्मविश्वस्त ऋषि का चेहरा, और दाहिने हाथ की उंगली से
इशारा...
-
‘मुल्क’
सन 2018 की तमाम फ़िल्मों में ‘मुल्क’
मेरी निगाह में यादगार फ़िल्म है। निर्देशक अनुभव सिन्हा के कैरियर में यह उतनी ही
परिवर्तनकारी सिद्ध होगी, जितनी निर्देशक गुरुदत्त के जीवन में ‘प्यासा’।
अपने लिए नई फ़िल्म का मौजूं सब्जेक्ट चुनना अनुभव के लिए बड़ा मुश्किल होगा। ‘मुल्क’
के कथानक की आधार था एक समाचार। तेरह चौदह ड्राफ़्ट बनाकर अनुभव ने मित्रों को
पढ़वाया। शुजित सरकार ने कहा, “वाह, तुम्हारा अबतक का सबसे बढ़िया काम। सोचो मत,
बनाना डालो!”
‘मुल्क’ में ऋषि कपूर की मौजूदगी के बारे में अनुभव ने
कहा है –उन्होंने कहा, बीस मिनट में कहानी सुना दो। सुन कर बोले अच्छी तो लग रही
है पर इस में हीरो कौन है। मैं ने कहा, आप हैं, तापसी पन्नु है, मैं हूँ। उन्हें
वे बेहिचक साथ आ गए।
![]() |
अरविंद कुमार |
समीक्षक के तौर पर मैं ‘द
हिंदू’ में छपे अनुभव के इस स्टेटमैंट से सहमत हूँ कि
मुख्यधारा की यह फ़िल्म किसी विचारधारा का विरोध या समर्थन नहीँ करती। आज के वक़्त
की यह वैसी ही मुस्लिम सोशल है, जैसे सत्तरादि दशक में ‘गर्म
हवा’ थी। तब पाकिस्तान जा रहे मुसलमानों के रेले की
कहानी के आख़िरी दृश्य में बेटे सिकंदर मिर्ज़ा (फ़ारूख़ शेख़) के साथ सलीम
मिर्ज़ा (बलराज साहनी) ने पाकिस्तान न जाने का फ़ैसला कर लिया था, आज पैंसठ साल
बाद ऐडवोकेट मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) से कहा जा रहा है ‘पाकिस्तान
जाओ’, और वह नहीँ जा रहा।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा। संपादक-पिक्चर
प्लस)
बेहतरीन।
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