‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–69
गीता सिद्धार्थ, शौक़त कैफ़ी, शमा ज़ैदी
और सत्यु –
‘गर्म हवा’ के लोग भाग - 2
(भाग 67 में मैंने ‘गर्म हवा’ का कथा सार ही दिया था।
आज की पीढ़ी को उससे परिचित कराने के लिए। उसके बाद पिछली क़िस्त भाग 68 बलराज
साहनी - ‘गर्म हवा’ के लोग (1) कलाकार के
रूप में बलराज साहनी पर केंद्रित थी। यह समर्पित है 1) गीता सिद्धार्थ, 2) शौक़त कैफ़ी,
3) शमा ज़ैदी और 4)
सत्यु को।)
बंबई में सांताक्रुज़ वेस्ट में
हमलोग कुल चार-पांच महीने रहे। उसके बाद सन् 1964-65 में हमें मिला अंधेरी वेस्ट
में अभिनेता – निर्देशक - निर्माता चंद्रशेखर के घर से कुछ पहले ‘आशीर्वाद’ नाम का छोटा सा सुंदर
बंगला। यहां हमारे पास तीसरे चौथे दिन निस्संकोच आ जाने वाले मित्रों में थी
देवयानी। सिने जगत में अपनी जगह तलाशने वाली भली सी, भोली सी, नाज़ुक सी लड़की। उसके
लिए महत्वपूर्ण यह नहीं था कि फ़िल्म कॉमर्शियल है या कलात्मक, छोटी है या बड़ी।
उसे चाहिए था अपने को साबित करने के लिए काम...।
पहला काम मिलते मिलते
समय लगा। नायक मनोज कुमार और नायिका सायरा बानो वाली रवि टंडन की फ़िल्म ‘बलिदान’ वह ‘वर्षा’ बनी थी, जो रिलीज़ हुई सन् 1972 में। उसी साल आई थी गुलज़ार
निर्देशित ‘परिचय’ जिसके मुख्य अंश की प्रेरणा थी क्लासिक इंग्लिश ‘साउंड ऑफ़ म्यूज़िक’। अब तक छद्मनाम देवयानी
छोड़ कर वह गीता बन गई थी। जीतेंद्र (रवि) की नायिका थी जया भादुरी (रमा) और जया
की मां थी गीता (सुजाता)। इसी तरह ‘गर्म हवा’में भी वह गीता ही थी।
![]() |
अमिना एक एसी लड़की जिसकी जिंदगी में बस ख्वाहिशें ही ख्वाहिशें (गर्म हवा) |
गीता सिद्धार्थ (गर्म हवा में अमिना का किरदार निभाने वाली)
सन् 1994 तक गीता ने अड़तालीस
(48) फ़िल्मों में काम किया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण हैं –‘शोले’ 1975 में गेस्ट एपीयरेंस
जया भादुरी की सास जो गब्बर के हमले में मारी जाती है, 1978 की ‘गमन’ में यशोधरा, 1979 की
मनमोहन कृष्ण निर्देशित ‘नूरी’, 1982 की महेश भट्ट की ‘अर्थ’ की अपर्णा, 1986 की ‘एक चादर मैली सी’ में छन्नो, और अपनी
अंतिम फ़िल्म 1994 की ‘इंसाफ़ अपने लहू से’ में मिसेज़ गीता प्रताप
सिंह। तब तक वह गीता सिद्धार्थ नाम से सुस्थापित हो चुकी थी।
‘गर्म हवा’ में मेरी शुरूआती
दिलचस्पी गीता के ही कारण हुई। उसके हर ट्रायल शो में मैं पहुंच जाता। मैंने उसके
लगभग उन्नीस बीस शो देखे थे। फ़िल्म की यूनिट का कहना था कि मैं उसका ‘परमानंट फ़िक्शचर’ बन गया हूं। ‘गर्म हवा’ समांतर सिनेमा आंदोलन की
प्रमुख कड़ी के रूप में ख्यात हो चुकी थी। कथानक का घटना काल था सन् 1948 में गांधी
जी की हत्या के बाद का ज़माना, जो मैंने दिल्ली में नज़दीक से देखा और भोगा था
अट्ठारह-उन्नीस साल की उम्र में। पाकिस्तान से आते और वहां जाते लोगों के पैदल
रेले, जानवरों की तरह लदे परिवारों से भरी रेलगाड़ियां...। उस माहौल को तब आगरा के
जूता कारोबारी मुसलमानों की ज़िंदगी की जीती-जागती तस्वीर पेश करने की ज़िम्मेदार
कोशिश थी वह फ़िल्म। नई तरह की मुस्लिम सोशल –‘मेरे मेहबूब’ और ‘चौदहवीं का चांद’ के मसनूई मायावी रोमांस
से कोसों दूर, जीवन की कठोर सच्चाई से जूझने वाली फ़िल्म, दिलों को हिलाने वाली
फ़िल्म। पाकिस्तान बन जाने के बाद मुसलमानों के बीच जो ऊहापोह थी, दुविधा थी, गुमराही, खलबली, डगमगाहट और अनिश्चय की
घड़ी थी, वह अंकित करने की कामयाब कोशिश थी। और कह रही थी कि बेटे सिकंदर की तरह
अब्बा सलीम मिर्ज़ा को और उन्हीं की तरह आम मुसलमान को मुख्यधारा की जदोजहद में
शामिल हो जाना चाहिए।
उस पसोपेश वाले मुश्किल
ज़माने में फंसी थीं आमिना की ख़्वाहिशें। खिलते गुलाब का धीरे धीरे कुम्हलाना और
फिर शाख़ से टूट जाना - यह साकार करने में गीता इतनी कामयाब हुई जिसकी परिकल्पना कथाकार
(शमा ज़ैदी और कैफ़ी आज़मी) की उम्मीदों से परे रही होगी। और इस टूटन को
फ़िल्मांकित करने में निर्देशक ऐम.ऐस. सत्यु सफल रहे।
गीता, सिद्धार्थ काक के साथ |
इस के पच्चीसेक साल बाद 1998
के आस पास मेरे पास निमंत्रण आया।
दूरदर्शन पर नियमित
दिखाए जाने वाले सिद्धार्थ काक के सांस्कृतिक कार्यक्रम ‘सुरभि’ के लिए बंबई आने का।
[परदे पर ‘सुरभि’ की प्रस्तुत करती थीँ सिद्धार्थ के साथ रेणुका
शहाणें जो बाद में राजश्री प्रोडक्शन ‘हम आपके हैं कौन’ में माधुरी दीक्षित
की बड़ी बहन बनीं। ‘सुरभि’ में पूछे गए प्रश्नों
के उत्तर में (लिमका बुक ऑफ़ रिकार्ड्स के अनुसार) एक सप्ताह में चौदह लाख पोस्ट
कार्ड आते थे।]
निमंत्रण भेजने वाली का
नाम था गीता सिद्धार्थ! 1994 की ‘इंसाफ़ अपने लहू से’ के बाद वह पूरी तरह ‘सुरभि’ का कामकाज संभालने लगी
थी। कार्यक्रम में जाने का उत्साह तो था ही गीता से एक बार फिर मिलने का लालच भी
कम नहीं था। पहुंचा तो गीता को देखकर सदमा सा लगा। वह बेहद मोटी हो गई थी। मेरे
मुंह से पहला वाक्य निकला, “यह क्या हुआ?” उसने जवाब दिया, “कुछ नहीँ, थायरॉड का असर
है!” (थायरॉड दो तरह से असर
करता है, अति सक्रिय हो शिकार को कांटा कर देता है, अल्प सक्रिय तो गुब्बारा बना
देता है।)
शौकत कैफ़ी: जमीला (सलीम मिर्ज़ा की
पत्नी और आमिना की मां)
फ़िल्म में किसी
रिश्तेदार ने ख़ाविंद सलीम मिर्ज़ा के कारख़ाने के बारे में कुछ पूछा तो “ना वे बतावें ना मैं
पूछूं” कहने वाली जमीला की
दुनिया घर की चहारदीवारी तक सीमित है। फ़िल्म में वह सलीम मिर्ज़ा का काउंटर-पाइंट
है। जब जब कोई अपना पाकिस्तान जाने को होता है तो उसका काम है ख़ाविंद से कहना कि
हमें भी जाना चाहिए, और सलीम मिर्ज़ा का काम है न जाने का इरादा बताना। और जब सलीम
भी जाने को तैयार हो जाता है, वह शिकवा करती है जब बेटी गंवा दी तो जा रहे हैं।
पहले चले जाते तो वहां आमिना के लिए कोई लड़का मिल ही जाता। बेटे शमशाद की शादी का
सामान ख़रीदने पाकिस्तान से आई ननद अख़्तर बिना कहे यह अहसास कराती है कि दुल्हन
आमिना होगी। जमीला और आमिना बड़े जोश से ख़रीददारी में शामिल होती हैँ। सलीम
मिर्ज़ा की मदद से वह यूनुस परवेज़
का डूबा धन उगहवाती है। और फिर भारी ठेस लगाती है–‘शमशाद की दुल्हन पाकिस्तानी है’।
यही वह नुक़्ता है जब जमीला बिफ़र कर ननद पर बरसती है और आमिना टूट जाती है।
हैदराबाद में जन्मीं शौकत का कैफ़ी से रामांस
मुशायरे से शुरू हुआ और एक ख़त से परवान चढ़ा।
उर्दू पत्रिका ‘मज़दूर मोहल्ला’ का
मशहूर नौजवान ऐडिटर कैफ़ी मुशायरों की जान बन चुका था। हैदराबाद के किसी मुशायरे
में शौकत ने उसे देखा और सुना तो दीवानी हो गई। शौकत ने लिखा है, “शादी
से पहले जब 1947 मेँ औरंगाबाद हमारे घर पर आए थे,
तो मैँने एक पेपर पर यह लिखकर उनके सामने बढ़ा दिया-‘काश, ज़िंदगी मेँ तुम
मेरे हमसफ़र होते तो ज़िंदगी इस तरह गुज़र जाती जैसे फूलों पर से नीम सहर का झेंका!”
![]() |
कैफी और शौकत |
‘नीम सहर का झौंका’, ‘नसीमे
सहर’, ‘बादे सहर’–‘भोर की मंद मंद बयार’,‘मादक
मलयानिल’ पढ़कर कौन शायर है जो रीझ न जाएगा लिखने वाली पर! और 23 मई 1947 को कैफ़ी और शौकत हमेशा के लिए एक
हो गए। अगर कैफ़ी शायर थे तो 19 साल की शौकत रंगमंच की अदाकारा। हिंदी फ़िल्म जगत
में यह जुगल जोड़ी सफलतम मानी जाती है। ‘हक़ीक़त’
से अभिनय शुरू शौकत ने ‘गर्म हवा’ के अलावा 1974
की ‘ज़ुर्म और सज़ा’ (राजेश खन्ना की
मां), 1981 की मुज़फ़्फ़र अली निर्देशित ‘उमराव जान’ (ख़ानम जान), 1982 की और 1988 की ‘सलाम
बॉबे’ जैसी बारह फ़िल्मों में अदाकारी से धाक जमाई। उल्लेखनीय
है कि बेटी शबाना के साथ सन् 2006 ‘उमराव जान’ में भी शौकत ने अभिनय किया था!
शौकत ने अपनी ज़िंदगी का
बयान किया किताब ‘याद की रहगुज़र’– कैफ़ी के साथ और उसके बाद एक पूरे युग का सफ़रनामा।
इसके इंग्लिश अनुवाद का नाम है ‘कैफ़ी ऐंड आई’ (Kaifi and I)। अपने ज़माने के
दस्तावेज के तौर पर मान्य इंग्लिश संस्करण की समीक्षा लिखी किसने? नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य
सेन ने! ख़ुशी में फूली न समा
कर शौकत ने एक साथ सोलह साड़ियां ख़रीद लीं! बेटी शबाना हैरान हुई
तो शौकत ने कहा, “क्या अमर्त्य सेन ने कभी तेरी तारीफ़ की है!”
सन् 2018 में कैफ़ी को
गए सोलह साल हो चुके हैँ। बेटी शबाना का कहना है, अब शौकत मेरी मां है, बेटी है,
सहेली है।
शमा जैदी (गर्म हवा की सह-लेखिका)
पटकथाकार, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर, आर्ट डायरेक्टर,
रंगमंचकर्मी, कला समीक्षक और डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म निर्माता बहुमुखी शमा ज़ैदी ‘गर्म
हवा’ के निर्माता-निर्देशक की पत्नी के रूप में ‘गर्म
हवा’ का कथापक्ष संभालने में कैफ़ी आज़मी को
सकारकात्मक योगदान किया। 25 सितंबर 1938 को रामपुर में जन्मी शमां मशहूर नेता बशीर
हुसैन ज़ैदी उसके पिता थे और मां थीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सक्रिय रहने वली
बेगम क़ुद्सिया ज़ैदी। वह उनकी एकमात्र और लाडली बेटी है। मां हबीब तनवीर जैसे
नाट्य व्यक्तित्व सहकर्मियों में प्रमुख थीं। शमां की आरंभिक पढ़ाई मसूरी के
वुडस्टाक स्कूल में हुई तो दिल्ली विश्वविद्यालय से इंग्लिश में बी.ए. करने के बाद
लंदन के स्लेड स्कूल ऑफ़ आर्ट से मंच सज्जा में डिप्लोमा किया। नई दिल्ली के ‘द
स्टेट्समैन’ दैनिक और अपने समय के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर
द्वारा स्थापित शंकर्स वीकली के लिए कला समीक्षक रहीँ।
![]() |
गर्म हवा की राइटर्स जोड़ी- कैफी आजमीऔर शमा जैदी |
पूरी तरह संभव है कि दिल्ली
में सन् 1961 के बाद मेरा उनसे कभी साबक़ा पड़ा हो, क्योंकि उन दिनों मे इंग्लिश ‘कैरेवान’
में रंगमंच और कला समीक्षाएं लिखा करता था और तद्संबंधित कार्यक्रमों में बढ़चढ़
कर हिस्सा लेता था। स्लेड स्कूल ऑफ़ आर्ट में ही शमा की रुचि कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग
में भी हुई। यही नहीं, वह जर्मनी के फ़्रांकफुर्त म्यूनिसपल थिएटर में ऐप्रैंटिस
रहीं, बर्लिनर ऐनसैंबल (Berliner Ensemble) में पर्यवेक्षक (ऑबजर्वर)
भी रहीँ। 1965 में वह बंबई में इप्टा के अंतर्गत लेखक-डिज़ाइनर-कलाकार-निर्देशक
थीँ।
मां क़ुद्सिया ज़ैदी के नेतृत्व में दिल्ली के हिंदुस्तानी
थिएटर में शमा और सत्यु सहकर्मियों में थे। वहीं शमा ने कई भाषाओं के नाटकों के
हिंदी अनुवाद भी किए। बंबई में वह कई फ़िल्मों से जुड़ीँ जैसे श्याम बेनेगल के ‘चरणदास चोर’ (1975) की पटकथा, श्याम
बेनेगल की ही ‘मंथन’ (1976) का आर्ट डायरेक्शन, या उन्हीं की ‘भूमिका’ में आर्ट डायरेक्शन, या
फिर सत्यजित राय की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में कॉस्ट्यूम
डिज़ाइनर, मुज़फ़्फ़र अली की ‘उमराव जान’ की जावेद सिद्दीक़ी के साथ पटकथा... आदि
इत्यादि।
![]() |
गर्म हवा के निर्माता निर्देशक- एमएस सत्यु |
मैसूर श्रीनिवास सत्यु
(निर्माता-निर्देशक गर्म
हवा)
6 जुलाई 1930 को मैसूर में जन्मे सत्यु की आरंभिक
शिक्षा मैसूर हुई और बेंगलूरु में विज्ञान में बी.ए.
किया। 1952-53 में वह फ़िल्म एनिमेशन में प्रयोग करते रहे। लगभग चार साल बाद मासिक
वेतन पर चेतन आनंद के सहायक बने और 1964 की ‘हक़ीक़त’ में कला निर्देशन के लिए स्वतंत्र निर्देशन के
लिए ‘फ़िल्मफ़ेअर’ का अवॉर्ड जीता। साथ-साथ दिल्ली में बेगम ज़ैदी
के हिंदुस्तानी थिएटर और हबीब तनवीर के ओखला थिएटर, कन्नड़ भारती तथा अन्य थिएटर
ग्रुपों के लिए मंच सज्जा के साथ साथ मंच की प्रकाश व्यवस्था करते रहे। फ़िल्मों
में वह आर्ट डायरेक्टर, कैमरामैन, पटकथा लेखक, निर्माता और निर्देशक के रूप में
सक्रिय रहे। उन्होँने पंद्र डॉक्यूमेंटरी के साथ-साथ हिंदी-उर्दू और कन्नड़ भाषाओं
में आठ फ़ीचर फ़िल्म बनाई हैं।
बंबई से बेंगलूरु में जा बसे सत्यु मुख्यतः टेलीविज़न
और रंगमंच पर सक्रिय रहे हैं। मुझे याद है गूगल की ‘रीयूनियन’
विज्ञापन सीरीज़ की पाकिस्तानी यूसुफ़ (सत्यु) के विभाजन में बिछुड़े भारतीय दोस्त
बलदेव (विश्वमोहन बडोला) से पुनर्मिलन की कहानी।
![]() |
अरविंद कुमार |
सत्यु का नाटक ‘दारा शिकोह’
नाटकों में आधुनिक क्लासिक माना जाता है। बहुत पहले कभी के स्टेट्समैन के मेरे
मित्र रमेशचंद चार्ली पारंपरिक नाटक विधा की संवेदनाओं में परिवर्तनकारी मोड़ की
संज्ञा दी है। नाटक में दखनी (हैदराबादी) काव्य के प्रयोग के कारण इसे दुर्लभ
ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ने वाली कृति कहा गया है। दिल्ली, गुड़गांव और बेंगलूरु
में इस का सफल मंचन कई बार दोहराया गया था।
सत्यु ने हिंदी और कन्नड़ में दस फ़िल्में बनाईं।
सत्यु को मिले कुछ अवॉर्ड और सम्मान इस प्रकार
हैं-
1966: हक़ीक़त के लिए फ़िल्मफ़ेअर का आर्ट डायरेक्शन
अवॉर्ड,
कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल
में गोल्डन पाम के लिए गर्म हवा का नामांकन।
1974: राष्ट्रीय फ़िल्म अवार्डों में राष्ट्रीय एकता
विषय पर नरगिस दत्त अवॉर्ड
1975: पद्मश्री।
सिनेवार्ता जारी
है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर
प्लस)
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें