फिल्म समीक्षा
अमावस
निर्देशक - भूषण पटेल
कलाकार - सचिन जोशी, नर्गिस फाकरी, नवनीत कौर ढिल्लों, मोना सिंह, अली असगर, विवान भटेना आदि।
*रवींद्र त्रिपाठी
इस फिल्म की सबसे प्रमुख बात यह है कि इसमें नर्गिस फाकरी हीरोइन की
मुख्य भूमिका में है। वे लंबे समय के बाद किसी फिल्म में आई हैं। लेकिन इसका मतलब
यह नहीं है कि ऐसा उनकी खास प्रतिभा की वजह से हुआ है। शायद यह इसलिए हुआ कि इसके
निर्माता-सह-हीरो सचिन जोशी को अपने सामने हीरोइन के रूप में किसी ऐसी अभिनेत्री
की तलाश थी जिसका कुछ नाम हो। इसी वजह से नर्गिस की लॉटरी खुल गई और वे इस हॉरर
फिल्म में आ गईं। इतना मानना पड़ेगा कि इस फिल्म मे उनके होठों पर लाल लिपिस्टिक
बहुत अच्छी लगी है। पर इसके अलावा क्या? जवाब देना कठिन है।
बहरहाल फिल्म का किस्सा यह है कि करण अजमेरा (सचिन जोशी) नाम का
मालदार शख्स अपनी प्रेमिका आहाना (नर्गिस) के साथ पेरिस जाने की योजना बना रहा है
लेकिन प्रेमिका उसके समर हाइस में वीकेंड मनाने जाना चाहती है। अब प्रेमिका की ऐसी
छोटी सी जिद कौन प्रेमी नहीं पूरा करेगा? सो करण आहाना को लेकर अपने विशाल समर हाउस में जाता
है और वहां जाने पर आहाना को मालूम होता है कि यह तो एक भुतहा घर है। और इस भुतहे
घर में एक भूतनी का निवास है। ये भूतनी कोई और नहीं करण की पूर्व प्रेमिका माया
(नवनीत कौर ढिल्लों) रहती है। क्या था करण और माया का रिश्ता और माया भूतनी क्यों
बनी इसे बताने में निर्देशक को डेढ़ घंटे लग गए। इसी बीच नाच गाने भी हुए। जिनकी
कोई जरूरत नहीं थी। और फिर आधे घंटे के बाद पता चलता है इसमें हॉरर के तत्व भी हैं।
तब फिल्म कुछ गति पकड़ती है। कह सकते हैं कि अमावस एक ससपेंस- हॉरर फिल्म है।
वैसे लिपिस्टिक वाली बात कुछ देर के लिए भूल जाएं तो नर्गिस फाकरी में
थोड़ा दम तो दिखता है। खासकर जब वे लिपिस्टिक नहीं लगाए हुए हैं। लेकिन सचिन जोशी
तो जबर्दस्ती हीरो बनने पर तुले हुए हैं। ये भी कह सकते हैं कि पैसे के बल कर। उनके
चेहरे पर किसी तरह का जज्बा नहीं दिखता। चूंकि फिल्म की शूटिंग विदेश में हुई है
इसलिए विदेशी शहरों और प्रकृति के दृश्य बेहतर दिखते हैं। सिनेमेटोग्राफी बहुत
अच्छी है। नवनीत कौर बहुत कम समय के लिए फिल्म में हैं उनका सबसे अच्छा अभिनय उस
वक्त का है जब वे मुखौटा पहनकर अपने हॉस्टल के मेट्रन को डराती है। भटेना इस फिल्म
के खलनायक हैं और कुछ समय के लिए भूत भी बने हैं। पर वे इस रूप में डरा नहीं पाते।
मोना सिंह मनोवैज्ञानिक ड़ॉक्टर नहीं है लेकिन उसको भरोसा अपने ज्ञान पर नहीं ऊं
पर है जो उनके हाथ पर खुदा हुआ है। असगर अली ने कुछ देर के हंसाया जरूर है पर
आखिरकार वे भी भूत के शिकार हो गए। वैसे हिंदी में बेहतर मौलिक हॉरर फिल्में कम ही
बनती हैं इसलिए `अमावस’ से ज्यादा अपेक्षा
उचित भी नहीं थी।
*लेखक जाने माने कला और फिल्म समीक्षक हैं।
दिल्ली में निवास। संपर्क – 9873196343
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें