‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–71
दो सितंबर उन्नीस सौ इकलातीस को कराची में
शिवदासानी परिवार में बेटी का जन्म हुआ। पिता ने उसका नाम अपनी प्रिय अभिनेत्री - नर्तकी
साधना बोस के नाम पर रखा। साधना के चाचा थे हरि शिवदासानी - बाद में जिनकी बेटी अभिनेत्री
बबीता बनी रणधीर कपूर की पत्नी।
विभाजन के बाद परिवार बंबई आ बसा। आठ साल की उम्र
तक साधना की पढ़ाई घर पर ही हुई, जो उन दिनों का आम चलन था। उपनगर वडाला के
आग्ज़ीलियम कॉन्वेंट से मैट्रिक करके जय हिंद कॉलेज में पढ़ते-पढ़ते
नूतन से प्रेरित होकर अभिनेत्री बनने के सपने देखने लगी थी। पिता की सहायता से
फ़िल्मों की तरफ़ बढ़ने की कोशिश से राजकपूर की ‘श्री 420’ में
‘मुड़
मुड़ के ना देख’ कोरस में परदे पर भी आई।
कॉलेज के नाटकों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी
कि पंद्रह साल की साधना को फ़िल्मों के ऑफ़र आने लगे। इस तरह उसकी पहली फ़िल्म बनी
‘अबाना’
(1958) - स्वतंत्र भारत की पहली सिंधी फ़िल्म। किसी
पत्रिका में फ़ोटो देखकर फ़िल्मालय के संस्थापक-संचालक शशघर मुखर्जी ने साधना को
न्योता दिया एक्टिंग स्कूल में दाखिल होने का। मुखर्जी का बेटा जॉय उसका सहपाठी
था। आर.के. नैयर (रामकृष्ण नैयर) शशधर के सहायक-निर्देशक रह चुके थे। ये थे वे
तीनों नैयर, जॉय और साधना जो ‘लव इन शिमला’ (1960) की टीम बने। संगीकार थे इक़बाल क़ुरैशी।
नैयर, साधना, जॉय और इक़बाल क़ुरैशी की चौकड़ी की ‘लव इन शिमला’
ने लोकप्रियता का शिखर छू लिया।
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मुड़ मुड़ के ना देख...कोरस में साधना |
कहानी कुछ इस तरह थी। पिता और सौतेली मां की अकाल
मृत्यु पर सीधी सादी सोनिया अंकल और आंटी जनरल राजपाल सिंह (किशोर साहू और शोभना
समर्थ) की आश्रित हो गई। सोनिया देखने भालने में किसी तरह आकर्षक नहीँ थी। सब के
ताने सुनती रहती थी, ख़ासकर चचेरी बहन शीला (अज़रा) के। शीला का बॉयफ़्रेंड था
देवकुमार (जॉय)। चुनौती के अंतर्गत सोनिया तय कर लिया कि देवकुमार की चहेती बन कर
दिखाएगी, और ऐसा ही हुआ भी। इस प्रक्रिया में सहायक रहे माथे पर साधना–कट बाल।
फ़िल्म का सबल पक्ष थे नैयर, साधना, हास्य प्रसंग और बारह गीत। नैयर सफल
निर्देशकों में स्थापित हुए, साधना चोटी की अभिनेत्रियों में शामिल हुई, जॉय बहुत
ज़्यादा नहीं चल पाए। अच्छे संगीत देने के बावजूद इक़बाल क़ुरैशी जम नहीँ पाए।
‘लव इन शिमला’ साल की नंबर पांच फ़िल्म साबित हुई। सोवियत
यूनियन में यह 1963 में रिलीज़ हुई थी। कमाई के हिसाब से वहां की सर्वाधिक
लोकप्रिय बीस हिंदी फ़िल्मों में गिनी जाती है। निजी सफलता की बात करें तो मुझे
याद है दिल्ली में लड़कियां किस क़दर दीवानी थी साधना-कट बालों की। साधना-लुक
आधुनिकता का प्रतीक ही बन गया था।
‘लव इन शिमला’
से ही साधना की क्षमताओं का अंदाज़ा लगाया
बिमल रॉय ने और अगले ही साल 1961 में उसे बहुप्रशंसित और ढेरों अवार्ड विजेता ‘परख’
की गांव की सीधी सादी लड़की बना दिया। इस विचारोत्तेजक फ़िल्म में साधना का प्रेम
प्रसंग सजीव पहलू था। शैलेंद्र लिखित सलिल चौधरी रचित लता मंगेशकर की आवज़ वाले ‘ओ
सजना बरखा बहार आई’ गीत में साधना को देख कर स्वयं बिमल राय को नूतन
की छवि दिखाई दी थी। अपनी दूसरी ही फ़िल्म में इतनी ऊंचाई तक पहुंचना साधना के
सुस्थापित हो जाने का प्रमाण था।
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सुपरहिट मुस्कराना |
इसी साल देव आनंद के डबल रोल (कैप्टन आनंद और
मेजर मनोहर लाल वर्मा) वाली ‘हम दोनों’ का ओपनिंग गीत ही था ‘अभी
न जाओ छोड़ कर’ जो आज तक के सब से अच्छे रूमानी गीतों में गिना
जाता है। ‘संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन’
पर लेखक अमित चौधरी ने लिखा है: “इस के फ़िल्मांकन में साधना के संयत हावभाव
श्रोता को नैसर्गिक अनुभूति कराते हैं जबकि सामान्य सिनेमा में इसके बोल सस्ती सेक्स
भावना मात्र जगाने का माध्यम बना दिए जाते।”
भीषण दूसरे विश्वयुद्ध का ज़माना है। धनी
जागीरदार की बेटी मीता अपने जागीरदार पिता से आनंद से शादी की बात करती है। अगले
दिन अलमस्त लेकिन बेकार आनंद आया तो जागीरदार साहब ने उसे साधनहीन कह कर हकाल
दिया। अपमानित प्रताड़ित आनंद ने देखा फ़ौज में भर्ती होने का पोस्टर तो मां (लीला
चिटणीस) के विरोध के बावजूद तत्काल फ़ार्म भरा और हाथोंहाथ आगे भेज दिया गया। आनंद
के अपमान से अनजान मीता उस के घर पहुंची, सारी बात पता चली, तो भावी बहू के नाते
सास की सेवा करने वहीं रहने लगी। उधर सेना में है आनंद की शकल का लेकिन मूंछ वाला
मेजर वर्मा। मेजर वर्मा जंग में लंगड़ा होकर लापता घोषित कर दिया गया। बहादुरी के
कारनामों से आनंद तरक़्क़ी करके घर लौटा, तो मां का देहांत हो चुका था। वह और मीता
साथ साथ प्रसन्न रहने लगे। दोस्त की मृत्यु का समाचार देने आनंद उसके घर गया तो उसकी
दिल की बीमार पत्नी रूमा (नंदा) और मां उसे वर्मा समझ बैठे। पारिवारिक डॉक्टर की
सलाह पर वह वर्मा की मौत की बात बता नहीँ पाता। वहीं रहने को विवश हो जाता है। एक
दिन वर्मा लौट आता है...
इसी के साथ वह आई थी देव आनंद के साथ हृषीकेश की ‘असली
नक़ली’ में। इसके दो गीत रफ़ी और लता का ‘तुझे
जीवन की डोर से’ और लता का ‘तेरा मेरा प्यार अमर’
अभी तक याद किए जाते हैं। उसी साल राज खोसला ने ‘एक मुसाफ़िर एक
हसीना’ में एक बार फिर साधना और जॉय की जोड़ी पेश की।
1963
में हरनाम सिंह रवेल ने रूमानी ‘मेरे
महबूब’ में पेश की साधना और राजेंद्र कुमार की जोड़ी –
अलीगढ़ में छात्र नौजवान शायर
अनवर हुसैन अनवर (राजेंद्र कुमार) की अचानक मुलाक़ात हुई बुर्क़े वाली हुस्ना
(साधना) से। पल भर को उसके चेहरे की झलक क्या देखी वह दीवाना हो रहा। हुस्ना नवाब
बुलंद अख़्तर चंगेज़ी (अशोक कुमार) की बहन है जिसे शायरी सिखाने के लिए अनवर को रख
लेते हैं वह। अब जो इश्क़ दोनों पर सवार हुआ अनेक बाधाओं के बावजूद उसके कामयाब होने
की कहानी थी ‘मेरे महबूब’। अब साधना सर्वाधिक महंगी हीरोइनों में गिनी जाने
लगी। गीत ‘मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम फिर मुझे
नरगिसी आंखों का सहारा दे दे’ में जिन नरगिसी आंखों की बात है, वह साधना की आंखों
पर पूर्णत: सही बैठता था। हूर की परी जैसी ख़ूबसूरत हुस्ना
बानो के आशिक़ हो गया था देश और उसके लड़के और लड़कियां।
साधना ने कहा है, “अगर देव आनंद की बात
मान लेती तो ‘मेरे महबूब’ कभी न करती। मैं देव के साथ हृषीकेश की ‘असली
नक़ली’ की शूटिंग कर रही थी। मैंने देव को बताया कि
रवेल आए थे मुस्लिम सोशल ‘मेरे महबूब’ का प्रस्ताव ले कर। छूटते ही देव ने कहा, इनकार
कर दो। वज़ह – रवेल की देव वाली ‘रूप की रानी चोरों का राजा’
(हीरोइन थी वहीदा रहमान) बुरी तरह पिटी थी। मैं असमंजस में थी। देव की बात काट कर
हृषीदा बोले, ‘मेरे महबूब’ का हीरो है जुबली कुमार राजेंद्र कुमार, वह हर
फ़िल्म होशियारी से चुनता है। चूको मत!”
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साधना के विभिन्न रूप |
राज खोसला ने साधना को लेकर तीन बेजोड़ रहस्य
फ़िल्म बनाईं – मनोज के साथ ‘वह कौन थी’
(1964), सुनील दत्त के साथ
‘मेरा
साया’ (1967) और मनोज कुमार के साथ ‘अनीता’।
‘वह
कौन थी’ की डबल रोल में सफ़ेद साड़ी में लिपटी साधना को
फ़िल्मफ़ेअर के श्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए नामांकित किया गया था। और मदन मोहन के
संगीत वाले ‘नैना बरसे रिमझिम पिया तोरे आवन की आस’
और ‘लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो न हो शायद फिर
इस जन्म में मुलाक़ात हो न हो’ में फ़िल्मांकित होने और उनमें यादगार अभिनय करने
का सौभाग्य मिला था। ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है ‘मेरा साया’
के बारे में, जिसका गीत था ‘तू जहां जहां चलेगा मेरा साथ होगा। ’‘वह
कौन थी’ में गीत था ‘नैना बरसे’ तो ‘मेरा साया’
की साधना के ‘नैनों
में बदरा छाये थे’।
कठघरे में खड़ी है ठाकुर राकेश सिंह (सुनील दत्त)
की निरपराध असली पत्नी गीता (साधना), जबकि डकैतों की भेजी रैना (साधना) घर में राज
कर रही है। सही व्यक्ति कठघरे में हो, उस का हर बयान झूठा माना जा रहा हो, तो उसके
चेहरे पर जो हताशा, बदनसीबी, झुंझलाहट, असहायता झलकनी चाहिए वह दिखलाने में साधना
ने कोई कमी नहीं छोड़ी। तब ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में’
देख करतब दर्शक परदे की तरफ़ सिक्के फेंकते थे और हम लोग आज तक मगन होते रहते हैं।
शायद यह वही झुमका है जिसका ज़िक्र एक साल पहले ‘परख’
‘के
मिला है किसी का झुमका’ गीत में किया गया था!
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कई सुपर स्टारों से जड़ी यश चोपड़ा निर्देशित ‘वक़्त’
में चुड़ीदार और कुरता पहनने वाली साधना किसी और के मुक़ाबले कम नहीँ उतरी। तो
रामानंद सागर की ‘आरज़ू’ में वह फ़ीरोज़ ख़ान और राजेंद्र कुमार के बीच ‘फूलों
की रानी बहारों की मलिका’ कही गई थी। उसका दावा था ‘अजी
रूठ कर अब कहां जाइएगा’ और इसी में वह कराह रही थी ‘बेदर्दी
बालमा तुझ को मेरा दिल याद करता है।’
‘दूल्हा-दूल्हन’ में राज कपूर और
साधना की जोड़ी थी। साधना की साधना के कारण राज कपूर उन्हें ‘सध्धोरानी’ कहकर
पुकारता था। लव इन शिमला के ज़माने से ही साधना (उम्र सोलह साल) और आर.के. नैय्यर (उम्र
बाईस साल) प्रेमी थे। मां बाप उनकी शादी के ख़िलाफ़ थे। राज कपूर की मदद से सन्
1966 में दोनों की शादी 1995 में नैयर के देहांत तक चली।
जो बोलती आंखें साधना की पहचान थीँ उन्हीं को
नज़र लग गई। अचानक साधना को लेकर गरमागरम ख़बरें / अफ़वाहें फैलने
फैलाई जाने लगीं कि उसकी एक आंख ख़राब हो रही है। किसी किसी का कहना था कि ये ‘ख़बरें’ स्वयं
शिवदासानी परिवार से आ रही हैँ। जो भी हो ख़बरों / अफ़वाहों का असर
साधना के करियर पर अच्छा नहीं पड़ा। उसे नई फ़िल्म देने से लोग घबराने लगे। साधना
की अंतिम फ़िल्म थी ‘गीता मेरा नाम’ (1974)।
चार दशक के एकांत के बाद (2014) साधना कैंसर
रोगियों के लिए चंदा इकट्ठा करने के मकसद से आयोजित एक शो में दिखाई दी। रैंप पर साथ
चल रहे थे रनबीर कपूर और फैशन डिज़ाइनर शाइना।
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अरविंद कुमार |
साधना आई थी अपने साधना-कट बालों के साथ। साधना
की पिंक शिफ़ॉन की साड़ी चांदी की कशीदाकारी थी। गर्मजोशी से ज़ोरदार स्वागत हुआ।
आत्मविभोर साधना ने कहा, “रनबीर कमाल का एक्टर है, और ‘अटर्ली
बटर्ली डिलीशस’ बंदा है।... मेरे अपने ज़माने में भी मेरा स्वागत
इतनी गर्मजोशी से नहीं हुआ। क्या स्टैंडिंग ओवेशन था। हज़ार से ज़्यादा लोग रहे
होंगे हाल में, तालियां बजाते रहे - मेरे स्टेज पर आने से वापस जाने तक। ‘लव
इन शिमला’ में ज़रूर मुझे फ़ैशन शो में चलाया गया था। उसके
बाद यह पहला ऐसा मौक़ा था। शुरू में मैं नर्वस थी। एक बार दिल पक्का कर लिया तो
हिम्मत बंध गई।”
साधना के अंतिम दिन का वर्णन उसके मित्र अमित
महता ने यूं किया है, “बुधवार को उसका बुख़ार बहुत बढ़ गया। फौरन हम
वापस रहेजा अस्पताल जा पहुंचे। हालत सुधरने लगी। क्रिसमस तक घर लाना चाहते थे।
वैसा होना था नहीं। सुबह जागी तो ख़ुश थी। सात बजे चाय पी। बाद में बेचैनी हुई, और
बेदम सी, सांस लेने में तकलीफ़ भी। डॉक्टरों ने पूरी कोशश की एक घंटे तक। वह चली
गई!”
सहेली शशिकला ने कहा, ‘वह
सिनेमा की सुंदरतम कलाकारों में से एक थी, कमाल का फ़िगर था!
चटोरी होने के बावजूद वह फ़िगर कैसे बनाए रखती थी – राम जाने!
शूटिंग में लाती थी अपना रसोइया। सबके लिए मयस्सर थे पकोड़े, दाल पकवान, बी की चाट!”
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर
प्लस)
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