फिल्म समीक्षा
सोनचिड़िया - रेटिंग 3
1/2*
निर्देशक - अभिषेक चौबे
कलाकार - मनोज वाजपेयी, सुशांत सिंह राजपूत, भूमि पेडनेकर, रनवीर
शौरी, आशुतोष राणा आदि
*रवींद्र त्रिपाठी
चंबल के बीहड़ों और डकैतों पर पहले भी फिल्में बनीं हैं। लेकिन अभिषेक
चौबे की फिल्म `सोनचिड़िया’ कुछ अलग तरह की है। इसमें डाकुओं की कहानी तो है, साथ ही इसमें दो और
पहलू लिपटे हुए हैं। एक तो जाति प्रथा की पेंच और दूसरे औरतों की हालत। सोनचिड़िया
तो दरअसल एक लड़की का ही नाम है जिसे बचाने और अस्पताल पहुंचाने के जद्दोजहद पर पूरी फिल्म
टिकी है। क्या वो डाकुओं की आपसी भिड़ंत और डाकू-पुलिस भिड़ंत से बचकर अस्पताल
पहुंच पाएगी? यह भी कहना होगा कि
यह सिर्फ लड़की नहीं है बल्कि एक विचार है। सामंती समाज की प्रताड़ित एक बच्ची जिस
पर कई तरह के जख्म हैं।
चंबल के डाकुओं की कई दंतकथाएं प्रचलित हैं। ये अपने को बागी कहते थे।
ऐसे डाकुओं में मान सिंह सबसे ज्यादा मशहूर हुआ। फिर मोहर सिंह, मलखान सिंह आदि का
नाम आता है। इस फिल्म में मान सिंह (मनोज वाजपेयी) का किरदार तो इतिहास सम्मत है।
लेकिन लखना (जिसका किरदार सुशांत सिंह राजपूत ने निभाया है) एक काल्पनिक चरित्र
लगता है हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह चरित्र मलखान सिंह के ऊपर आधारित है।
अभिषेक चौबे की ये फिल्म सिर्फ कुछ डाकुओं की कहानी नहीं है। निर्देशक
ने भी दिखाया है कि डाकुओं के कुछ और जज्बात होते हैं जिनसे समाज अपरिचित रहता है।
दंतकथाओं की तरह इस फिल्म में भी मानसिंह सिर्फ डाकू नहीं लगता है। वो तो पश्चाताप
की आग में धीरे धीरे सुलगता हुआ शख्स लगता है। पश्चाताप किस बात का? इस बात का कि उसने डकैती के एक वाकये को अंजाम देते हुए गलतफहलमी से
कुछ छोटी उम्र के लड़कियों की हत्या कर दी थी, वरना वो तो जिस घर में डाका डालता
था उस घर की लड़कियों और औरतों के साथ बेहद इज्जत से पेश आता था। फिल्म में
मानसिंह तो एक डाके के वक्त पुलिस के हाथों में मारा गया लेकिन उसका चेला लखना उस
पाप का प्रायश्चित करते हुए उस छोटी सी बच्ची लड़की को बचाना चाहता है जिसके साथ
बलात्कार हुआ है। वो इंदुमती तोमर (भूमि पेडनेकर) का साथ देता है जो लड़की को
बचाने और अस्पताल पहुंचाने निकली है। इंदुमती खुद ठाकुर है और बच्ची दलित। लखना इन
दोनों की मदद देने के लिए अपने गैंग के दूसरे सदस्यों से भी झगड़ जाता है। पुलिस
उसके पीछे हैं लेकिन लखना इंदुमती तोमर और सोनचिड़िया को अस्पताल पहुंचाने निकलता
है और उसका साथ देती है एक और डाकु फुलवा मलाहिन जो अपना गैंग चलाती है।
फिल्म चंबल के बीहड़ों के साथ जाति प्रथा के बीहड़ में जाती है। कौन
बीहड़ ज्यादा घुमावदार है? जाति का या बंदुकों से
लगातार गुंजनेवाला? मानसिंह, लखना और
उसके साथी ठाकुर हैं। उन्होंने जिस जाति के बच्चियों को मारा था वो गूजर जाति की
थीं। इसी जाति का पुलिस अफसर वीरेंदर गुजर (आशुतोष राणा) एक एक कर मानसिंह और उसके
साथियों को मारता जाता है। फिर मलाहे का अलग गैंग है जिसकी सरदारिन है फुलवा।
फुलवा इस जाति युद्ध में किसका साथ देगी? लेकिन वह
तो एक जगह इंदुमती से कहती हैं कि बामन, ठाकुर, गुजर आदि तो मर्दों के चोचले हैं
और औरतों पर तो हर जाति के लोग अत्याचार करते हैं। ये सब कुछ फूलन देवी और कुसमा
नाइन जैसी महिला- दस्युयों की याद दिलाता है जिन्होंने अत्याचार का शिकार होने के
बाद बंदूक उठाई थी।
मनोज वाजपेयी की भूमिका छोटी है। जिस मानसिंह के किरदार को उन्होंने निभाया
है, डकैत से अधिक एक जोगी लगता है। उसे लगता है उसे शाप लग लग गया है जिससे मुक्ति
कठिन है। और लखना डाकू कम और एक शरीफ इंसान की तरह उभरता है जो एक औरत और एक बच्ची
को बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देता है। इंदुमती तोमर की भूमिका में
भूमि पेडनेकर एक ऐसी सताई औऱत बनी है जो अन्याय का शिकार भी हैं और प्रतिकार भी
करती है। वो लड़कों को बचाना चाहती है और इसीलिए अपने श्वसुर की हत्या कर देती है।
आशुतोष राणा के चरित्र के भी दो पहलू हैं। एक तरफ तो वो पुलिस अफसर बनकर डाकुओं का
सफाया करता है और दूसरी तरफ अपनी निजी लड़ाई भी लड़ रहा होता है क्योंकि मानसिंह
ने उसकी बिरादरी के लोगों की हत्या की थी। चंबल के बीहड़ों में जाति युद्ध भी होता
था, ऐसा अभिषेक चौबे ने दिखाया है। विशाल भारद्वाज का संगीत चंबल के भीतर कई तरह
के तमावों को सामने लाता है।
*लेखक जाने माने कला और फिल्म समीक्षक हैं।
दिल्ली में निवास। संपर्क – 9873196343
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