‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–74
दस साल की छोट-बड़ाई वाले आनंद
भाइयों में सबसे छोटा था विजय। बड़ा होते होते बचपन
के सुनहरी बाल तो नहीँ रहे, पर लोग गोल्डी
ही कहते रहे। गोल्डी नाम सार्थक रहा क्योंकि वह हिंदी सिने संसार
में गोल्डन प्रतिभा संपन्न लोगों में गिना जाता है।
तीनों भाई एक से बढ़ कर एक थे – कुछ समान और कुछ भिन्न प्रतिभाओं के धनी। तीनों
का फ़िल्मी सफ़र बंबई के रंगमंच से शुरू हुआ। चेतन और देव इप्टा से प्रभावित हुए
तो चेतन से बीस साल छोटे विजय के समकालीन थे थिएटर
यूनिट के सीनियर इब्राहिम अल्काज़ी और जूनियर सत्यदेव दुबे, जो रंगमंच को एक नई
चेतना से अनुप्राणित कर रहे थे।
चेतन से बीस और देव से दस साल की दूरी ने विजय के
मनोजगत को तुलनात्मक भिन्नता भी दी। तीनों की बाल्य और किशोर अवस्था में पाठ्यक्रम
भिन्न थे, सामाजिक चिंतन बदलते रहे थे, प्रभावित करने वाली
फ़िल्में, कला आंदोलन भी नए थे। विजय का जुनून थे बालरूम डांस, वाल्त्ज़ और फ़ौक्स
ट्रौट। ये सीखने नौजवान विजय जाता था जुहू से दूर दक्षिण
बंबई के कोलाबा। तरह तरह की शर्टों का शौक़ था। एक साथ दर्जनों ख़रीद लेता। तरह
तरह की घड़ियां, कोलोन ख़ुशबू तो पसंद थी हीं, कल्याणजी आनंदजी के साथ काम करते
घोड़ों का शौक़ भी चर्राया।
कहा जाता है वह सिनेमा की टेक्स्ट
बुक से बढ़ कर पूरा पाठ्यक्रम (curriculum) ही था। हंसाने वाली कॉमेडी हो, रोमांचित
करने वाला थ्रिलर हो, नाटकीय घटनाओं से भरपूर ड्रामा हो, गीत-संगीत वाली म्यूज़िकल
या फिर फ़ार्मूला वाली मसाला फ़िल्म हो, वह सबमें मास्टर था। उसका कौशल था कैमरा
वर्क। पात्रों के चरित्र-चित्रण में जो विविधता और गहराई वह भर पाता था, वह अनुपम
थी। बड़े भाई चेतन आनंद ने ‘गाइड’
का निर्देशन करने से इनकार कर दिया था। कारण: “जनता रोज़ी जैसा पात्र हज़म नहीं कर
पाएगी!” ‘गाइड’
की वेश्या को नारी मुक्ति का प्रतीक बना कर आम आदमी के लिए स्वीकार्य बना देना
गोल्डी का ही काम था। एक समालोचक ने कहा है कि मुमताज़ की सैक्सुएलिटी को सूती
साड़ी में लपेट कर ‘तेरे मेरे सपनों में’ सर्वोत्तम अभिनय करवाना विजय आनंद के ही बस का था।
फ़िल्मों में चेतन आनंद का शॉट डिवीज़न कमाल का
था। वह फ़िल्म के सैट पर चीज़ें इधर उधर करते रहते थे। विजय पूरी तैयारी के साथ
आता था। उसकी फ़िल्मों के गाने आज तक टीवी पर लोकप्रिय
हैं। उसका कहना था, “मेरा
कैमरा गीत सुनता है और उसके साथ घूमता है।” मनोरम लहलहाती
पृष्ठभूमि में लॉग शॉट के साथ-साथ इंटरकटिंग से गद्य भी काव्य बन जाता था।
-1954 की कामयाब फ़िल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ की पटकथा विजय की पहली थी। कॉलेज से
नया नया निकला था, जवान ताज़गी थी। सहलेखक थीं उमा भाभी (चेतन की पत्नी), और
निर्देशन कर रहे थे बड़े भाई चेतन।
-विजय ने 1957 की ‘नौ दो ग्यारह’ की पूरी पटकथा लिख ली थी।
महाबलेश्वर जाते समय देव ने कहा, “स्क्रिप्ट
दे दो, रास्ते में पढ़ लूंगा।” इनकार करता गोल्डी बोला, “मैं ख़ुद सुनाऊंगा” और कार में बैठ गया। महाबलेश्वर
पहुंचते ही देव ने दफ़्तर फ़ोन कर दिया, “नवकेतन
की अगली फ़िल्म का डायरेक्टर विजय आनंद होगा!
अनाउन्स कर दो!” यूं शुरू हुआ था गोल्डी का निर्देशन
कैरियर।
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तेरे मेरे सपने - देव आनंद और विजय आनंद |
-कॉलेज के दिनों में मैट्रो,
लिबर्टी, एंपायर जैसे सिनेमा हॉलों के बाहर ब्लैक में बिकते टिकट देखने में विजय
को बड़ा मज़ा आता था। हर गतिविधि नोट करता। इसी से उबरा था एक फ़िल्म का आइडिया।
उस पर विकसित हुई थी 1960 की ‘काला बाज़ार’। देव आनंद था निर्माता। गोल्डी ने
लिखी और चेतन आनंद ने किया अभिनय। महबूब की ब्लॉकबस्टर दिलीप कुमार, नरगिस, गीता
दत्त, गुरुदत्त, राज कुमार और राजेंद्र कुमार वाली फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ के प्रीमियर पर बाहर की भीड़ के
दृश्य ‘काला बाज़ार’ का एक सीन बने।
-1961 की
देव के डबल रोल में साधना वाली ‘हम दोनों’ की विस्तृत पटकथा बमय ऐंट्री, ऐग्ज़िट, कैमरा प्लेसमैंट पहले से
तैयार थे। लिखी थी विजय ने।
-उसकी
प्रिय अभिनेत्री थी नूतन। शायद आपने देखी हो 1963 की ‘तेरे घर के सामने’– देव आनंद, नूतन और सेठ करमचंद की भूमिका में हरींद्रनाथ चट्टोपाध्याय।
दिल्ली का आभास देने के लिए कुछ शूटिंग कुतुब मीनार पर की गई थी। फ़िल्म न देखी हो, तो भी सुना होगा या याद
होगा वह गीत ‘दिल का भंवर करे पुकार - प्यार का राग सुनो’... कुतुब में ऊपर जाते
हैं दो मित्र देव और नूतन, उतर कर बाहर निकलते हैं दो प्रेमी देव और नूतन।
-विजय आनंद
निर्देशित मेरी ख़ास पसंद है ‘ज्वैल थीफ़’
(1967), जो दो साल पहले की ‘गाइड’ के बाद
आई थी। देव आनंद के साथ थे अशोक कुमार, वैजयंती माला, और उनके साथ थीं तनुजा,
हेलेन, फ़रयाल और अंजु महेंद्रू।
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'ज्वैल थीफ' में देव आनंद |
साधारण विनय (देव आनंद) को लोग कुख्यात ज्वैल थीफ़
अमर समझ बैठते हैं। पुलिस की सहायता करने के लिए विनय बन जाता है अमर, उधर चालाक
अमर बन जाता है विनय। पूरा गड़बड़ घोटाला है लेकिन हास्य कॉमेडी नहीं, रहस्य
रोमांच कथा। पुलिस कमिश्नर पिता विनय से नाराज़ रहते हैँ क्योंकि बेटा कुछ करता
धरता है नहीं, सारा समय क़ीमती नगों की शिनाख़्त करने में और जौहरियों की दुकानों
में बर्बाद करता रहता है। और वह जो अमर है ज्वैल थीफ़, वह बड़े जौहरी विश्वंभर नाथ
के यहां काम पाने में कामयाब हो जाता है। विनय की मुलाक़ात होती है जौहरी की बेटी
नीना (अंजु महेंद्रू) से। दोनों एक दूसरे को चाहने लगते हैं, पर लोग विनय को अमर
कह कर पुकारते हैं तो संबंध टूट जाता है। ऐसे में कहीं से आ टपकी शालिनी (वैजयंती
माला) जो अपने को विनय की मंगेतर बताती है! समस्या यह है कि विनय अपने को विनय कैसे साबित
करेगा। याददाश्त ख़त्म हो गई है, याद नहीं वह कौन है। पुलिस उस के पीछे है।
सिक्किम में वहां की पुलिस भी उसके पीछे पड़ी है।
मेरे लिए फ़िल्म का मुख्य आकर्षण था मजरूह लिखित गीत ‘होंठों
में ऐसी बात मैं दबा के चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई’ का
विराट पैमाने पर फ़िल्मांकन। मैं कहूंगा कि यह विजय आनंद के निर्देशन का मानक
नृत्य दृश्य है। सूक्ष्म प्रायोजना के बग़ैर शूटिंग हो ही नहीं सकती थी। तीन कैमरे
तीन कोणों से शूटिंग कर रहे थे। चौथा कैमरा ट्रॉली पर घूम रहा था।
-इसी तरह थी नासिर हुसैन की ‘तीसरी
मंज़िल’
(1967) – अपनी तरह की उल्लेखनीय फ़िल्म। पहले तो इस लिए कि
नवकेतन से बाहर यह विजय की पहली फ़िल्म थी। इसमें देव आनंद को होना था। पर हुआ
नहीँ। साधना की सगाई के मौक़े पर नासिर और देव में कुछ ग़लतफ़हमी हो गई। जो भी हो
शम्मी कपूर बना ‘तीसरी मंज़िल’
का अनिल कुमार (सोना/रौकी)। हीरोइन थी आशा पारेख (सुनीता)।
एक साल पहले देहरादून में दिल्ली की सुनीता की बड़ी बहन
रूपा ने आत्महत्या कर ली थी। कारण बताया जा रहा है होटल में ड्रम बजाने वाले रॉकी
(शम्मी कपूर) से उसका संबंध। देहरादून के रास्ते में सुनीता को ट्रेन में मिला
अनिल (शम्मी कपूर)। वही रॉकी नाम से होटल में ड्रम बजाता है। कहानी है ग़लतफ़हमी
दूर करने की। रूपा होटल की तीसरी मंज़िल से गिरी थी/गिराई गई थी। इसी पर था फ़िल्म का नाम।
संगीत था राहुल देव बर्मन का। फ़िल्म के कुछ सुपर हिट
गीत (मजरूह सुलतानपुरी) ‘ओ मेरे सोना रे ख़फ़ा मत होना’, ‘आ आ आजा मैं हूं प्यार तेरा’, ‘ओ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली’ अभी तक सुने जाते हैं। इसी फ़िल्म से शम्मी की इमेज
भारतीय ऐल्विस प्रैसली की बनी थी।
-अन्य तमाम गुणों के साथ ‘जॉनी मेरा नाम’
(1970) याद की जाती है ‘ओ मेरे राजा’ और ‘पल भर के लिए कोई
हमें प्यार कर ले’ के फ़िल्मांकन के लिए। ‘ओ
मेरे राजा’
शूट किया गया था बिहार में नालंदा और राजगीर स्तूप में, और ‘कोई
हमें प्यार कर ले’ की शूटिंग की गई थी काठमांडू के गोदावरी
गार्डन में, जहां देव आनंद एक खिड़की से दूसरी, तीसरी, चौथी खिड़कियों से झांकता
है हेमामालिनी को।
-अगले ही साल ‘तेरे
मेरे सपने’
की असफलता ने गोल्डी का दिल तोड़ दिया। यह उसका निजी सपना थी। उस के आध्यात्मिक
अनुभवों से ओतप्रोत ए.जे. क्रोनिन की ‘द
सिटाडल’
से प्रेरित। मैटीरियलिस्टिक समाज में मानवीय संबंधों की कोमल संवेदनाओं से भरपूर
कहानी। डॉक्टर की भूमिका में देव आनंद की चाल-ढाल व्यवहार की बारीक़ियां समझने के लिए
वह कई डॉक्टरों से मिला। सभी गीत एक से बढ़ कर एक थे। देव द्वारा विवाह का
प्रस्ताव रखने पर मुमताज का गीत ‘राधा ने जपी माला तेरे नाम की’।
साइकिल पर देव और मुमताज का गीत ‘हे मैंने क़सम ली’ -
दोनों की नज़दीकी दिखाने के लिए क्लोज़पों में शूट किया गया ‘जीवन
की बगिया’।
गोल्डी को सबसे पसंद था ‘मेरा अंतर एक मंदिर’
जो मुमताज के गर्भवती होने का प्रतीक था।
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नूतन और विजय आनंद - 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' में |
अगली कुछ फ़िल्में भी कुछ ख़ास नहीँ चल पाईं –‘छुपा
रुस्तम’
(1973), ‘राम
बलराम’
(1980), ‘हम
रहें ना रहें’
(1984)। ‘जाना
ना दिल से दूर’
तो रिलीज़ ही नहीँ हो पाई। वह इतना निराश था कि कहने लगा, “शायद
मेरा समय बीत गया है!”
विजय की फ़िल्मों का
ग्लैमर उतार पर था। धर्मेंद्र और अमिताभ वाली ‘राम बलराम’ (1980) और धर्मेंद्र,
राजेश खन्ना व विनोद खन्ना वाली ‘राजपूत’ (1982) की असफलता के बाद हताशा के काल में विजय संसार
से विरक्त हो कर भगवान रजनीश की शरण पहुंचा। फ़िल्मों में समय कम लगाता और पुणे के
रजनीश आश्रम में अधिक। वह पूरी तरह रजनीश के रंग में रंग गया था। इसी समय मास्को
रेडियो के लिए उसका इंटरव्यू लेने आई लवलीन। उन दिनों विजय ‘जान हाज़िर है’ नाम की बोल्ड रोमांटिक
बना रहा था, जिसमें मुख्य कलाकार थे प्रेमनाथ का बेटा प्रेमकिशन और विजय का भांजा
शेखर कपूर। लवलीन की सुंदरता से आकर्षित हो कर विजय ने उसे भी फ़िल्म में लेना
चाहा। दो नए कलाकारों के साथ काम करना आत्ममुग्ध लवलीन को कुछ बहुत पसंद नहीं था,
फिर भी ‘हां’ कर दी। विजय की वेशभूषा
रजनीश से प्रभावित थी, और उससे प्रभावित थी लवलीन। अब विजय लवलीन को भी रजनीश के
संसार में ले गया। लवलीन भी रजनीशी होती नज़र आने लगी। उसी ने विजय से शादी का
प्रस्ताव रखा। यह भी कहा जा सकता है कि वह उसे पटा रही थी। विजय ने साफ़ कहा कि
उसके पास दो तीन जोड़े कपड़ों और चप्पलों से ज़्यादा कुछ है नहीँ। वह मानने वाली
नहीँ थी, विजय के साथ रजनीश आश्रम में हमेशा रहने को तैयार थी। उसे लगा कि विजय को
उसका फ़िल्मों में काम करना सुहाएगा नहीं, तो ‘जान हाज़िर है’ से अलग हो गई। एक दिन
रजनीश ने दोनों को अपने निजी कक्ष में बुलाया, दोनों का हाथ एक दूसरे को थमा दिया।
दोनों ने तय कर लिया कि पूरा विवाहित जीवन पुणे में ही बिताएंगे।
फिर एक दिन लवलीन ने मांग
रख दी, मुझे केंद्र में रख
फ़िल्म की कहानी लिखो जिसमें कोई सुपरस्टार हो हीरो! विजय ने सोचा बात आई गई
हो जाएगी, पर दिन ब दिन बढ़ते बढ़ते बात तकरार तक जा पहुंची। विजय सिने संसार में
लौटना ही नहीं चाहता था। उसकी मानसिक शांति भंग होने लगी। उसे लगा कि शुरू से ही
लवलीन उसका इस्तेमाल करती आ रही थी। वह बीमार भी रहने लगी। विजय सोचता क्या इसीलिए
शादी की थी! बढ़ते झगड़ों को देख स्वयं रजनीश ने उन्हें अलग करवा दिया। विजय पूरी तरह
टूट चुका था।
1974 की ‘कोरा काग़ज़’ में प्रोफ़ेसर सुकेश
दत्त (विजय आनंद) और अर्चना गुप्ता (जया भादुड़ी) का विवाह होता है, अर्चना की मां
(अचला सचदेव) की ‘कृपा’ से दोनों अलग हो जाते हैं। फ़िल्म का गीत ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़
कोरा ही रह गया’ ‘कोरा काग़ज़’ की पहचान बन गया। उससे
भी बढ़ कर उथल-पुथल विजय आनंद के जीवन में हुई थी लवलीन को लेकर। लेकिन विजय का
जीवन ‘कोरा काग़ज़’ नहीं रह पाया।
उसके जीवन को ‘कोरा काग़ज़ रह जाने’ से बचाने आई उसकी भांजी सुषमा। दोनों की शादी का पूरा विरोध किया घरवालों ने – मामा भांजी की शादी?!!! पर वे डिगे नहीँ। सुषमा और
विजय आपस में सुखी थे, परिवार ने भी उन्हें स्वीकार कर लिया।
‘कोरा काग़ज़’ के अतिरिक्त उसने ‘हक़ीक़त’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में नूतन के साथ और ‘चोर चोर’ में लीना चंदावरकर के
काम किया था। दूरदर्शन पर लोकप्रिय एक घंटे के सीरियल ‘तहक़ीकात’ (1994-95) में वह जासूस
सैमडी सिल्वा था और उसका सहायक था गोपीचंद (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा वाला सौरभ
शुक्ला) जो आजकल सफल चरित्र अभिनेता है। इस के तेरह एपिसोडों के प्रोड्यूसर थे करण
राज़दान, निर्देशक थे विजय आनंद, शेखर कपूर और करण राज़दान। हमलोग यह देखना नहीं
भूलते थे।
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अरविंद कुमार |
कुछ काल तक वह फ़िल्म
सेंसर बोर्ड का चेयरमैन रहा। फ़िल्मों की एडल्ट सर्टिफ़िकेट की परिभाषा पर सरकार
से मतभेद के कारण वहां से त्यागपत्र देना उचित समझा।
व्यक्ति के तौर पर विजय की दिलचस्पी
शुरू से अध्यात्म और ज्योतिष में थी। उसे तलाश थी अंतिम सत्य की। जीवन क्या है,
ईश्वर क्या है, हम क्या हैं, क्यों हैं-जैसे सवालों के जवाब जानने को उसने ढेर सी आध्यात्मिक
किताबें पढ़ डालीं – गीता, उपनिषद, बाइबिल, क़ुरआन... भगवान रजनीश की शरण गया, पर
संतुष्ट नहीँ हो पाया। अब वह यू.जी. कृष्णामूर्ति से मिला। ये वही कृष्णामूर्ति
हैं जो enlightenment (‘ज्ञानोदय’ या ‘बोधोदय’) को मन की एक ‘प्राकृतिक अवस्था’ मात्र मानते थे। उनका कहना था, “अगर कोई बोधोदय नाम की चीज़ है भी तो वही उसकी प्राप्ति में भी बाधक
होती है!” वह कहा करते थे, “अगर कोई मुझे समझ पाया है तो वह गोल्डी ही है।”
ज्योतिष के आधार पर विजय ने अंत के
काफ़ी पहले ही कहा था, “फ़रवरी
महीना मेरे लिए अशुभ होगा।” 22 जनवरी 1934 में जन्मे
बहुमुखी प्रतिभा वाले विजय आनंद का देहांत सतहत्तर साल की उम्र में 23 फ़रवरी 2004 में हुआ।
‘गाइड’ को अमर बनाने वाले विजय को अमेरिका के प्रमुख समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ ने ‘Lasting inspiration’ (चिरस्थायी प्रेरणा) घोषित किया और लिखा, “गोल्डी अपने समय से बहुत आगे था।”
‘गाइड’ को अमर बनाने वाले विजय को अमेरिका के प्रमुख समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ ने ‘Lasting inspiration’ (चिरस्थायी प्रेरणा) घोषित किया और लिखा, “गोल्डी अपने समय से बहुत आगे था।”
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
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संपादक - पिक्चर प्लस)
विजय आनन्द के निजी जीवन का आधिकारिक विवरण बेहद रोचक ढंग ये प्रस्तुत किया गया है ।
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