‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–72
तब सिनेसंसार की तिगड्डी
थे– दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर। तीनों का अपना रूप, अपना रंग और अपना ढंग। तीनों ने एक दूसरे के
साथ काम भी किया था। दिलीप कुमार ने राज कपूर के साथ महबूब खान की ‘अंदाज़’ में। देव आनंद और दिलीप
कुमार साथ आए वासन की ‘इंसानियत’ में, तो ‘श्रीमानजी’ में राज कपूर और देव आनंद सहकलाकार थे। तीनों में
स्पर्धाथी, पर दुश्मनी नहीं। देव की अंतिम इच्छाओं में से एक थी दिलीप के जन्म दिन
11 दिसंबर 2011 पर बधाई देने जाने की। यह डायरी में लिखा भी था, लेकिन पूरी होने
से एक सप्ताह पहले 4 दिसंबर को ही देव का देहांत हो गया।
देव आनंद की जो ख़ास बात
मुझे याद है वह थी उसकी याददाश्त। चाहे अगले दिन मिले या दो महीने बाद बात वह वहीं
से उठाता जहां पिछली बार ख़त्म की थी। इंग्लिश में इसे फ़ोटोग्राफ़िक मेमोरी कहते
हैं। जब भी मिला ताज़ादम, जोशीला, ख़ुश...। ज़िंदादिली का दूसरा नाम। उत्साह का
उत्सव। माथे पर झांकते कुछ बाल, जो देवनगर (करोल बाग़, दिल्ली) में मेरे दोस्त
संतोष और उस जैसे हज़ारों नौजवान बड़ी शान से माथे पर सजाते थे। अपने रूप पर स्वयं
इतना मुग्ध था देव कि अट्ठासी साल की उम्र में लंदन में मरते समय हिदायत दे कर गया,
“मेरा बुढ़ापे वाला चेहरा
किसी को न दिखाया जाए!”
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हिंदी सिने संसार की तिगड्डी |
उसका नाम ‘पिक्चर प्लस’ पर प्रकाशित होने वाले
मेरे अब तक के संस्मरणों में कई बार आ चुका है, ख़ासकर सुरैया की यादों में, जैसे 2
दिसंबर 2018 को प्रकाशित भाग 59 में:
[सुरैया (जमाल शेख़) की
सत्ताइसवीं फ़िल्म थी सन् 1948 की ‘विद्या’ तो धरमदेव आनंद (देव आनंद) की पांचवीं। भविष्य का सुपर
स्टार उस समय की सुपर स्टार सुरैया के सामने कई बार सैल्फ़ कांशस हो जाता था। कुछ
लोग कहते हैं कि दोनों की प्रेम कहानी यहीं से शुरू हुई लगभग वैसे ही जैसे भविष्य
में ‘मदर इंडिया’ में नरगिस और सुनील
दत्त की प्रेमकथा उपजी। ‘विद्या’ के एक सीन में सुरैया और देव नदी में नौका विहार कर रहे
हैं, दोनों के हाथ में पतवार है। वे गा रहे हैं, ‘किनारे किनारे चले जाएंगे/
जीवन की नैया को खेते हुए/ किनारे किनारे चले जाएंगे…/
ना कि किस्मत में तकरार है/ खेवट के हाथों में पतवार है/ मंज़िल
पे अपनी बढ़े जाएंगे।’.... देव ने अलग हो कर
अपने काम पर ध्यान देने का फ़ैसला बड़े भाई चेतन की सलाह पर किया था।...“मैं उस से शादी
करना चाहता था पर कर नहीं पाया, बड़े भाई के काँधे पर सिर रख कर रोया और सबकुछ
भुला कर नया अध्याय शुरू किया।”]
इसलिए इस क़िस्त (भाग 72 – 3 मार्च 2019) में इस
के बाद देव के संदर्भ में सुरैया का नाम आप को कहीं नहीं मिलेगा।
इसी तरह इस क़िस्त मैं ‘हम
दोनों’ की बात नहीं करूँगा क्योंकि (भाग 71 ‘फूलों की रानी बहारों की
मलिका’ साधना - 24 फ़रवरी 2019) में
काफ़ी लिख चुका हूं। उस का एक पैराग्राफ़ इस तरह था: [देव आनंद के डबल रोल
(कैप्टन आनंद और मेजर मनोहर लाल वर्मा) वाली ‘हम दोनों’ का ओपनिंग गीत ही था ‘अभी न जाओ छोड़ कर’ जो आज तक के सब से
अच्छे रूमानी गीतों में गिना जाता है। ‘संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन’ पर किताब में लेखक अमित
चौधरी ने लिखा है: “इस के फ़िल्मांकन में साधना
के संयत हाव भाव श्रोता को नैसर्गिक अनुभूति कराते हैं जबकि सामान्य सिनेमा में
इसके बोल सस्ती सेक्स भावना मात्र जगाने का माध्यम बना दिए जाते।”]
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देवानंद विशेषांक का कवर |
देव आनंद का जन्म गुरदासपुर ज़िले (पंजाब) की शकरगढ़ तहसील में 26 सितंबर 1923 को हुआ था। पिता पिशौरी लाल आनंद ज़िले के
नामी धनी वकील थे। उसके दो बड़े भाई थे – मनमोहन आनंद वकील और चेतन आनंद, छोटा भाई
था विजय आनंद। छोटी बहनों में शीलकांता का बेटा है शेखर कपूर। चेतन, देव और विजय
सिनेजगत में मशहूर हुए तो उन का भानजा शेखर भी पीछे नहीं रहा।
देव की मैट्रिक तक की पढ़ाई हिल स्टेशन डलहौज़ी
(अब पाकिस्तान) में हुई। इंग्लिश साहित्य में बीए किया अब लाहौर में। चालीस आदि
दशक के शुरुआती सालों में ही देव ने रुख़ किया बंबई का। पहला काम मिला चर्चगेट के
मिलिटरी के सैंसर के दफ़्तर में, बाद में किसी अकाउंटिंग कंपनी में क्लर्की मिली।
बड़े भाई चेतन इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) के सदस्य थे, उन के साथ वह भी रंगमंच
पर सक्रिय हो गया। ‘अछूत कन्या’
और ‘किस्मत’ जैसी फ़िल्मों के हीरो अशोक कुमार देव आनंद के
भी हीरो थे।
बुनियादी साल
देव आनंद के अपने शब्दों में, “सन्
था 1945 जब मैं बंबई पहुंचा तो हर स्ट्रगलर की तरह बंबई के फ़ुटपाथ नाप रहा था।
जीते रहने के लिए कुछ तो करना ही था। मिलिटरी में सैंसर का काम मिला। काम था लाम
पर खाई खंदकों से भेजे गए फ़ौजियों के ख़त पढ़ना। माशुक़ाओं और बीवियों को भेजे गए
दिल की बात कहते अंतरंग ख़त। वे दिन पूरी सीक्रेसी के दिन थे। फ़ौज जानना चाहती थी
कि कोई जवान लड़ाई के राज़ तो नहीं खोल रहा। तब पढ़े मैंने कई ज़बदस्त प्रेमपत्र
पढ़े। मेरी आंखों में कहानियां खुलने लगतीं।”
फ़िल्मों में आने का क़िस्सा देव आनंद ने इस तरह
बयान किया है, “एक दिन मैं पुणे की प्रभात फ़िल्म स्टूडियो के
दफ़्तर में घुस गया। संचालक बाबूराव पाई मुझे ताकते रह गए!”
बाबूराव ने कहा है, “लड़का मेरे मन चढ़
गया। मोहक मुस्कान, सुंदर नैन और गहरा आत्मविश्वास - मैंने तय कर लिया कि
उसे लेना ही है!” जल्दी ही 1946 की ‘हम
एक हैं’ में साढ़े तीन सौ रुपए प्रतिमास वेतन पर वह हीरो
बन गया। हिंदु-मुस्लिम एकता की फ़िल्म में देव की नायिका थी कमला कोटणिस। निर्देशक
थे पी.ऐल. संतोषी। सहकलाकारों में थे रहमान। और एक था जी.डी. पडुकोण। किसी का कहना
है कि यह पडुकोण नृत्यनिर्देशक था, कोई कहता है कि वह सहायक निर्देशक या सहायक
फ़िल्म संपादक था। जो भी हो तीनों गहरे दोस्त देव आनंद, रहमान और पडुकोण (बाद का
गुरुदत्त) साइकिलों पर पुणें की सड़कों के चक्कर लगाते घूमते रहते। उन दिनों देव
और गुरुदत्त ने अहद कर लिया कि कभी देव ने फ़िल्म बनाई तो गुरुदत्त उसका निर्देशन
करेगा, और कभी गुरुदत्त को कोई फ़िल्म मिली तो वह देव आनंद को उस में रोल देगा।
‘हम एक हैं’ के बाद देव को दो अनुल्लेखनीय फ़िल्में मिलीं –
1947 की ‘मोहन’ और ‘आगे बढ़ो’।
भाग्य पलटा तब जब अशोक कुमार ने स्टूडियो में
चक्कर काटते देव को देखकर चुन लिया बांबे टाकीज़ की ‘ज़िद्दी’
(1948)
के लिए। (बांबे टाकीज़ के संचालक थे अशोक के बहनोई शशधर मुखर्जी। वही अशोक को
सिनेजगत में लाए थे। अशोक उनके सहायक के तौर पर भी सक्रिय थे।) ‘ज़िद्दी’
के निर्देशक थे शाहिद लतीफ़, नायिका थी कामिनी कौशल। ‘ज़िद्दी’
के ही लिए किशोर कुमार और लता मंगेशकर का पहला सहगान रिकार्ड हुआ था – ‘यह
कौन आया करके सोलह सिंगार’। ‘ज़िद्दी’ के ही लिए किशोर कुमार का पहला एकल गीत ‘मरने
की दुआएं क्यों मांगूँ’ रिकार्ड हुआ था। इस तरह लता मंगेशकर और किशोर
कुमार से देव आनंद का स्थायी संबंध हो गया।
सुनहरा सफ़र
‘ज़िद्दी’ बनते बनते देव ने इरादा कर लिया अपनी फ़िल्म
कंपनी खोलने का। नाम रखा बड़े भाई चेतन के बेटे केतन के नाम पर – ‘नवकेतन’
(नया ध्वज – नया झंडा)। सन 2011 तक ‘नवकेतन’ ने 35 (पैंतीस) फ़िल्म बनाई थीं। पहली फ़िल्म थी
1951 की ‘बाज़ी’ – देव के कैरियर पर लगा दांव। यह दांव लगाया गया
गुरुदत्त के निर्देशन में। दांव को मज़बूत करने के लिए कहानी थी आज़माया नुस्ख़ा –
शहराती क्राइम थ्रिलर। अपराध और रहस्य रोमांच। देव आनंद के साथ थी उस समय की चोटी
की गीता बाली। नई कलाकार थी कल्पना कार्तिक। देव के कैरियर पर ‘बाज़ी’
उम्मीद से ज़्यादा सफल रही।
देव और कल्पना की जोड़ी चल निकली। उस जोड़ी की
फ़िल्म थीँ – ‘आंधियां’ (1952), ‘टैक्सी ड्राइवर’ (1954), ‘हाउस
नंबर 44’ (1955), ‘नौ दो ग्यारह’ (1957)। ‘टैक्सी ड्राइवर’ बनने के दौरान
देव-कल्पना का प्रेम पनपा और शादी में तब्दील हुआ। उनका बेटा है सुनील और बेटी है
देविना – देव और कल्पना के नामों का संगम देव-इ-ना। ‘नौ
दो ग्यारह’ के बाद कल्पना ने फ़िल्मों से संन्यास ले लिया।
‘बाज़ी’ के बाद से ही देव का अपना अलग अंदाज़, अलग अदा, अलग
संवाद अदायगी उस का ट्रेड मार्क बन गए। देव की सभी फ़िल्मों पर बात करने के लिए कई
किताबें चाहिए होंगी। कुछ नाम गिनाना ज़रूरी हो जाता है- ‘मुनीम
जी’
(1955), ‘पाकिट मार’ और ‘फंटूश’ (1956), ‘पेइंग गेस्ट’ (1957), ‘एक के बाद एक’ (1959)।
नई अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ वह हिट हुई ‘सीआईडी’
(1956), ‘सोलवां साल’ तो मधुबाला के साथ ‘काला
पानी’ (1958)। पिता के नाम पर लगा कलंक मिटाने के
लिए बेटे की कोशिशों की कहानी ‘काला पानी’ के लिए उसे मिला पहला फ़िल्मफ़ेअर अवॉर्ड।
1963 के अंतिम महीनों में मेरे ‘माधुरी’
का ‘संपादक’ बनने के बाद आई उसकी अलग तरह ही ‘शराबी’।
तमाम फ़िल्मी फ़ार्मूलों से हट कर संजीदा फ़िल्म। उसके लेखक थे मेरे मित्र उमेश
माथुर।
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देव आनंद व नूतन |
रोमांटिक हीरो
उन्हीं दिनों
देव आनंद लोकप्रिय रूमानी हीरो के रूप में उभर रहे थे। नूतन के साथ ‘तेरे घर के
सामने’ सफल हो चुकी थी। मीना कुमारी के साथ ‘किनारे
किनारे’, माला सिन्हा के साथ ‘माया’, साधना के
साथ ‘असली नक़ली’ और ‘हम दोनों’ (भाग 71 - 24
फ़रवरी), आशा पारेख के साथ ‘जब प्यार किसी से होता है’ और ‘महल’, वहीदा
रहमान के साथ ‘गाइड’ और ‘तीन देवियां’ में प्लेबॉय
देव के साथ दिखीं कल्पना, सिमी गरेवाल और नंदा।
रहस्य रोमांच
लौटा ‘ज्वैल थीफ़’ में विजय आनंद के निर्देशन में। देव के साथ
दिखीं एक साथ वैजयंती माला, तनुजा, अंजु महेंद्रू, फ़रयाल और हेलेन। विजय आनंद के
निर्देशन में अगली फ़िल्म ‘जौनी मेरा नाम’ से हेमामालिनी
सुपर स्टार बन पाई। मेरी राय में ये दोनों देव की श्रेष्ठ फ़िल्मों शुमार की जानी चाहिए।
पर ‘गाइड’ का मुक़ाबला देव की कोई और फ़िल्म नहीं ही
कर सकती। वह हिंदी फ़िल्म इतिहास की आल टाइम क्लासिक फ़िल्म है।
सत्तरादि दशक
का देव आनंद
देव के
निर्देशन में पहली फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ पिटी ज़रूर
पर धीरे धीरे उसे पसंद करने वालों की संख्या बढ़ती गई। यह ज़ाहिदा की पहली फ़िल्म
थी, नायिका वहीदा रहमान थी। 1971 की ‘हरे राम हरे कृष्ण’ ने सबको
उसका सिक्का मनवा दिया। क्या फ़िल्म थी! क्या सीन थे
हिप्पियोँ के! देव की हीरोइन प्रेमिका न हो कर बहन थी – ज़ीनत अमान, मिनी
स्कर्ट पहनने वाली ड्रग ऐडिक्ट जैनिस। हर दर्शक के मन में बस गई।
इन्हीं दिनों
राज कपूर मुटापे से भारी भरकम हो गया था, ‘कल आज और कल’ के बाद ‘धरम करम’ में पिता बन
गया था। दिलीप कुमार की ‘दास्तान’ और ‘वैराग’ पिट गई थीं।
इसी समय हेमामालिनी के साथ तीन फ़िल्म ‘शरीफ़ बदमाश’, ‘जानेमन’ और ‘जोशीला’ तथा ज़ीनत
अमान के साथ दो फ़िल्म ‘इश्क़ इश्क़ इश्क़’ और ‘प्रेम
शास्त्र’, प्रिया राजवंश के साथ ‘साहब बहादुर’ की दुर्दशा
ने देव के कैरियर प्रश्नचिह्न ही लगा दिया था।
पर 1973 की
डबल रोल वाली ‘बनारसी बाबू’ से वह तेज़ी से वापस आया। शर्मिला टैगोर के
साथ ‘यह गुलिस्तां हमारा’, योगिता
बाली और राखी के साथ ‘बनारसी बाबू’, हेमा के साथ ‘छुपा रुस्तम’ और ‘अमीर ग़रीब’, ज़ीनत अमान
के साथ ‘हीरा पन्ना’ (1973), ‘वारंट’ (1975) और ‘डार्लिंग
डार्लिंग’, परवीन बॉबी के साथ ‘बुलैट’ (1976) ने
एक बार फिर उसे सदाबहार हीरो बना दिया। 1978 की सफल ‘देस-परदेस’ में 55 साल
के देव की नायिका थी टीना मुनीम।
देव ने लगभग एक
सौ दस फ़िल्मों में काम किया। अंतिम फ़िल्म थीं – 2001 की ‘सेंसर’, 2003 की ‘लव ऐट टाइम्स
स्क्वायर’, 2005 की ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ और 2011 की ‘चार्जशीट’।
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राज कपूर और
दिलीप कुमार ने कभी राजनीति में सीधे दिलचस्पी ली हो तो मुझे याद नहीँ। लेकिन देव
आनंद को देश के हालात पर परेशान होते मैंने देखा था। वह कहता, “मैं प्रधान
मंत्री बन जाऊं तो सब ठीक कर दूंगा!” यह सही है कि प्रधानमंत्री बन पाना कोई
बच्चों का खेल नहीँ है, पर देव सोचता तो था! आपातकाल
में तमाम तरह के ख़तरों के बावजूद देव उठा इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़। 1977 के चुनाव
में घूम घूम कर इंदिरा के ख़िलाफ़ भाषण दिए। कुछ दिनों के लिए एक नई पार्टी भी
बनाई – नाम रखा ‘नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया’।
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चार्ली चैपलिन के
दीवानों में देव आनंद भी था। दोनों की मुलाक़ात हुई 1954 मेँ। अमेरीका वरोधी
गतिविधियों के नाम पर वहां से निष्कासित चैपलिन स्विट्ज़रलैंड के मौनत्रू (Montreux) में रह रहा था। देव आनंद वहाँ किसी भारतीय डेलीगेशन के सदस्य के साथ था। कॉलिज
के दिनों से ही वह चैपलिन की ‘द ग्रेट डिक्टे’टर का दीवाना था। जब वे
मिले तो ‘ग्रेट डिक्टेटर’ के अंदाज़ में देव ने
हाथ उठा कर नारा लगाया, ‘हेल चैपलिन!’ चैपलिन भी चूकने वाला नहीँ था। उसी अंदाज़ वह बोला, ‘वैलकम टू माई व्हाइट
हाउस!’ उस मौक़े पर चैपलिन का ऑटोग्राफ़
देव ने अंत तक संजो कर रखा था।
अंत में-
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माधुरी का एक पन्ना-देवानंद का कॉलम |
‘माधुरी’ के साथ देव आनंद
का संबंध लगातार था। हर अंक में उन का एक कालम छपता था : ‘??? जवाब हाज़िर है।’ प्रक्रिया इस
प्रकार थी: ‘शराबी’ फ़िल्म के लेखक
उमेश माथुर को वह भेजते हमारे दफ़्तर से पाठकों के तमाम पोस्ट कार्ड ले जाने के
लिए। फिर उमेश के साथ बैठ कर जवाब डिक्टेट करते। फ़ाइनल जवाब उमेश हमें दे जाते।
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अरविंद कुमार |
अगली क़िस्त देव की सर्वोत्तम फ़िल्म ‘गाइड’ को समर्पित होगी।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर
प्लस)
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