फिल्म समीक्षा
जंगली
निर्देशक - चक रसेल
कलाकार - विद्युत जामवाल, पूजा सावंत, आशा भट्ट, अतुल कुलकर्णी, मकरंद
परांजपे
*रवींद्र त्रिपाठी
भोला एक हाथी है जो हाथियों के अभयारण्य में चिघाड़ते हुए मस्त विचरता
है। वो जल्द ही बाप बनने वाला है और हथिनी दादी उसके होनेवाले बच्चे की मां। भोला
के दांत काफी लंबे हैं। इतने लंबे कि उनको देखकर हांथी-दांतों का कोई तस्कर ललचा जाए। और एक विदेशी तस्कर की निगाह उस पर
पड़ भी जाती है। वो भोला को मारने और उसके दांत पाने के लिए एक शिकारी (अतुल
कुलकर्णी) को हाथियों के उस चंद्रिका अभयारण्य में भेजता है जिसे राज नायर (विद्यत
जामवाल) के पिता ने बनाया था। राज नायर कलारीपायटु (केरल का मार्शल आर्ट) में
पारंगत है और जानवरों का डॉक्टर है। वो मुंबई में रहता है और मां की बरसी में शरीक
होने अभयारण्य में आया हुआ है। क्या शिकारी राज के रहते भोला को मारकर हाथी दांत
पा लेगा?
`जंगली’ वन्यजीवों के प्रति
प्रेम की कहानी है। खासकर हाथियों के प्रति। हालांकि इसमें साथ साथ राज और शंकरा
(पूजा सावंत) और मीरा (आशा भट्ट) के बीच एक प्रेम त्रिकोण भी है। शंकरा महावत है।
कह सकते हैं कि वो महावती है। मीरा एक पत्रकार है और हमेशा वीडियो रिकॉर्डर हाथ में
लिए चलती है। पर ये प्रेम त्रिकोण फिल्म में खुलकर नहीं उभरता है। `जंगली’ सिर्फ दो चीजों पर फोकस करती है - एक तो जंगल में मुक्त होकर हाथियों
के विचरने और रहने पर और दूसरे विद्युत जामवाल के जबर्दस्त एक्शन पर। `द मास्क’, `द स्कॉर्पियन किंग’ और `इरेज’ जैसी हॉलीवुड
फिल्मों के निर्देशक रहे चक रसेल ने इस फिल्म के साथ बॉलीवुड में पदार्पण किया है।
और जिस तरह के एक्शन सीक्वेंस उन्होंने इस फिल्म में रखे हैं वो अंतरराष्ट्रीय
स्तर के हैं और साथ ही भारतीयता का पुट भी लिये हुए है। भारतीयता का इस अर्थ में
इसमें कलारीपायटु की शैलियों का काफी इस्तेमाल हुआ है। सब फिल्म प्रेमी जानते है
कि विद्युत जामवाल को सलमान खान की तरह कमीजें उतारकर एक्शन करना पसंद हैं इसलिए
इस फिल्म में भी ऐसा हुआ है। भारतीयता इस अर्थ में भी है कि जब शिकारियों से लड़ते
हुए राज घायल और लहूलुहान हो जाता है तो उसके सपने में गणेश जी आ जाते हैं और कहते
हैं कि युद्ध कर।
जहां तक एक्शन और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए जागरुककता पैदा करने मामला है `जंगली’ एक बेहतरीन फिल्म
है। कह सकते हैं कि यह एक ग्रीन (यानी हरित) फिल्म भी है क्योंकि इसमें जंगल की
हरियाली को इतने उम्दा ढंग से दिखाया गया है कि सिर्फ पर्दे पर हरियाली का एहसास
करने या उसका आनंद लेने के लिए भी इसे देखा जा सकता है। सिनेमेटोग्राफी भी अद्भुत
है। लेकिन दूसरे कई जज्बात उभरने से रह गए हैं। हां, जो लोग फिल्म में किसी न किसी
तरह का संदेश ढूंढ़ते रहते हैं उनके लिए अच्छी खबर है। `जंगली’ आखिर में संदेश
देती है कि आप हाथी दांत से बनी चीजें न खऱीदिए और अगर आप ऐसा करते हैं कि हाथी
शिकारियों के हाथो मारे नहीं जाएंगे और हाथी दांतों की तस्करी भी नहीं होगी।`जंगली’ कुछ कुछ 1971 में आई राजेश खन्ना की फिल्म `हाथी मेरे साथी’ की याद दिलाती है।
*लेखक जाने माने कला और
फिल्म समीक्षक हैं।
दिल्ली में निवास। संपर्क – 9873196343
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