‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–75 (हीरक जयंती अंक)
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मुकेश चंद माथुर और सरला त्रिवेदी |
एक सुबह दक्षिण बंबई की मलाबार हिल पर लोकप्रिय सैरगाह
हैंगिंग गार्डन में मुकेश ने कहा, “मैं मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आप का बंटी’ पर फ़िल्म बनाना चाहता हूं। आप बात करेंगे क्या?” मैंने कहा, “ज़रूर!” राजेंद्र यादव को फ़ोन किया। दो दिन बाद राजेंद्र ने
कहा,“मन्नू और मैं सहमत नहीँ
हैँ।”
बाद में वैसे ही विषय पर गुलज़ार ने बनाई ‘मासूम’।
मुकेश और मैं नेपियन सी रोड पर रहते थे। जब भी रात को
समय से सो पाते तो सुबह सेहत के प्रति सजग मुकेश छह बजे ज़रूर आते थे। इधर हम भी
(कुसुम, छह सात साल का सुमित, दो-एक साल की मीता और
मैं) उसी समय पहुंचते थे। मीता होती थी बच्चा गाड़ी (प्राम) में। कभी-कभी मुकेश
मीता की प्राम संभाल लेते। अकसर इधर-उधर की बातें होतीं। शैलेंद्र के संकट काल में
बातचीत का रुख़ हो गया कविराज और ‘तीसरी क़सम’ को उबारने में राज कपूर की सहायता की आवश्यकता का।
मुकेश की सिफ़ारिशों पर ही राज ने ‘तीसरी क़सम’ का सारा मैटीरियल अपने हाथों में लिया था। कई सप्ताह
मग़ज मारने, शूट की गई फ़ुटेज पर माथापच्ची करने के बाद जो ढांचा सामने आया वह
देखने वालों में शैलेंद्र तो थे, मुकेश और मैं भी थे। मन्नू भंडारी वाला संवाद भी
इसी काल में हुआ था।
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माधुरी का मुकेश विशेषांक |
चांदनी चौक इलाक़े में रहने वाले कायस्थ ज़ोरावर चंद
माथुर और पत्नी चंद्राणी माथुर ने 22 जुलाई 1923 को जन्मे बेटे का नाम बड़े शौक़
से ‘मुकेश’ रखा था या ‘मुक़्क़ैश’ यह कहना
कठिन है। हिंदी/उर्दू में ‘मुकेश’ कोई शब्द है ही नहीं। ‘मूकेश’ हो सकता
है। जहां तक मैं उस इलाक़े को जानता हूं (और उस ज़माने की कल्पना
कर सकता हूं) वह इलाक़ा ज़रकशी का वज़रकशी के सामान इलाक़ा है। ‘मुक़्क़ैश’ यानी ज़रतार,
ज़री...। बेटे की सुंदरता से मुग्ध हो कर उस का नाम ‘मुक़्क़ैश’ रखा हो अचरज की बात
नहीँ। वह मा-बाप की छठी संतान था।
बहन
सुंदर प्यारी को संगीत सिखाने वाले उस्तादजी ने पास ही के कमरे से सुनते अलापते
मुकेश को भी शागिर्द बना लिया। दसवीं पास करके वह पीडब्लूडी में नौकरी करते करते
गाने बजाने का रियाज़ करता रहता और लोकप्रिय होने लगा। सहगल का दीवाना मुकेश कुछ
उस जैसे ही गीत गाकर वाहवाही लूट रहा था।
बंबई
का बड़ा ऐक्टर मोतीलाल अपनी बहन की शादी में आया था। दूर के रिश्तेदार मुकेश का
गाना सुन कर मोतीलाल को उस लड़के की संभावनाएं ताड़ने में देर न लगी। बंबई लौटे तो
उसे साथ लेकर और प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित जगन्नाथ के हवाले कर दिया।
गायक-अभिनेता
के तौर पर बीस साल के मुकेश को जो पहली फ़िल्म मिली, वह थी ‘निर्दोष’।
नायिका थीं नलिनी जयवंत। इसमें उनका पहला फ़िल्म गीत ‘दिल बुझा हुआ हो तो’ इसी का था। अगली थी
1943 की ‘आदाब अर्ज़’। राज कपूर की 1943 की
‘आह’ में अतिथि कलाकार बने
तो उसी साल सुरैया के साथ वह दिखे ‘माशूक़ा’ में। 1956 की
‘अनुराग’ में उषा किरण और
मृदुला रानी थीं। ‘अनुराग’ के सहनिर्माता भी
मुकेश थे। आपको आश्चर्य होगा कि 1951 में डार्लिंग फ़िल्म्स की सहभागिता में मुकेश
ने बनाई ‘मल्हार’, जिसमें नायक नायिका
थे अर्जुन और शम्मी।
मोतीलाल
की 1945 की फ़िल्म ‘पहली नज़र’ में बाईस साल का वह प्लेबैक सिंगर बना। तब मैं
कुल पंद्रह साल का था। पर याद है कि उसके गीत ‘दिल
जलता है तो जलने दे’ से सनसनी फैल गई थी। “नया सहगल आ गया!” किंवदंती है कि यह
सुन कर स्वयं सहगल भी भ्रमित हो गए थे –“यह गीत मैंने कब गाया!?” गीतकार थे आह
सीतापुरी और संगीतकार अनिल विश्वास।
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नौशाद ने मुकेश को सहगली गायन से उबरने में सहायता दी
1949 की ‘अंदाज़’ से। वह फ़िल्म मुझे
अब तक याद है। दिलीप कुमार, नरगिस और राज कपूर के अभिनय वाली यादगार फ़िल्म। महबूब
की बेहद अच्छी फ़िल्मों में से एक। दिलीप और राज के बीच उत्तेजनाओँ से भरपूर अभिनय
का टकराव। मुकेश ने दिलीप कुमार के लिए गाए थे:‘हम आज कहीं दिल दे
बैठे’, ‘झूम झूम के नाचो आज’, ‘तू कहे अगर’, ‘टूटे ना दिल
टूटे ना’ जो आज तक सुने जाते हैं और सुनने वालों को ओत-प्रोत कर
लेते हैं। अब मुकेश अपने रंग में रम गया था। उसे रोकने वाला कोई नहीं था।
इससे पहले दिलीप कुमार की आवाज़ बन चुका था मुकेश नौशाद
के ही लिए 1948 की ‘मेला’ में, अनिल विश्वास की
‘अनोखा प्यार’ में (‘मेरा जीवन
सपना टूट गया’), शंकर जयकिशन की ‘यहूदी’ में (‘ये मेरा
दीवानापन है’), और सलिल चौधरी की बिमल रॉय वाली ‘मधुमती’ में (‘दिल तड़प तड़प
के’)।
इसके बाद दिलीप की आवाज़ बने मोहम्मद रफ़ी, तो राज कपूर
के लिए गाने लगा मुकेश। राज कपूर की शंकर जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी और मुकेश
की संगीत टीम का अनिभाज्य सदस्य। आंकड़ों की बात करें तो शंकर जयकिशन की जोड़ी के लिए
मुकेश ने गाए 133 और कल्याणजी आनंदजी के लिए 99 गाने। मुकेश को जो चार फ़िल्मफ़ेअर
अवॉर्ड मिले उनमें से तीन शंकर जयकिशन रचित थे
(‘सब कुछ सीखा
हमने’ ‘अनाड़ी’ 1959, ‘सबसे बड़ा
नादान वही है’ ‘पहचान’ 1970, ‘जय बोलो
बेईमान की’ ‘बेईमान’ 1972),
ख़य्याम रचित ‘कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है’ ‘कभी कभी’ 1976। नेशनल
फ़िल्म अवॉर्ड ‘कई बार यूं भी देखा है’ ‘रजनीगंधा’ 1974। इन्हीं
दिनों उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था, तो धीरे धीरे वह कम ही गीत गा रहे थे।
एक बार फिर मैं बंबई में उनके शुरुआती दिनों की तरफ़
वापस जाता हूं। 1945-46 आते आते बाईसेक साल के मुकेश की वह उमर थी जब लड़के
लड़कियां एक-दूसरे से ‘तुझे बनाया गया है
मेरे लिए’ कहने को उतावले हो जाते हैँ। मुकेश के जीवन में ऐसी
उतावली लड़की थी सरला त्रिवेदी। वह बंबइया गुजराती ब्राह्मण, मुकेश दिल्लीवाले
कायस्थ। वह थी बड़े सेठ की बेटी, वह था गाने बजाने जैसे ‘अनैतिक’ –‘बदनाम’ धंधे में
जमने की कोशिश करता स्ट्रगलर। न कोई बंधी आमदनी, न कोई बंधा-बंधाया घर! सरला के धनी
पिता रायचंद त्रिवेदी की नज़र में ग़लत दामाद! ऐसे रिश्ते के लिए उन
जैसा हैसियत वाला समझदार पिता राज़ी हो ही नहीं सकता था। तो एक दिन सरला और मुकेश
निकल भागे। पूरी फ़िल्मी कहानी थी जो जीवन में अकसर घटित होती रहती है। मुकेश की
तेईसवीं वर्षगांठ 22 जुलाई 1946 को चर्चगेट स्टेशन से बीसवें मैट्रो स्टेशन
कांदीवली के एक मंदिर में दोनों ने शादी कर ली। सहायक बने स्वयं मोतीलाल। (ग़ैर
बंबई पाठकों के लिए जानकारी के तौर पर कांदीवली पश्चिम गुजराती जैन और बनिए
व्यापारियों की बस्ती है।) लड़का लड़की छिपे थे (बाद के सुप्रसिद्ध और श्रेष्ठतम)
कैमरामैन आर. डी. माथुर के घर। दारुण भविष्यवाणियां की जा रही थीं इस रिश्ते के
अस्थिर भविष्य के बारे में:‘ज़्यादा दिन नहीँ चल
पाएगी जोड़ी। तंग आ कर घर लौट आएगी सरला!’ ‘मुकेश कब तक टिकेगा
फ़िल्मों में। तंग आ कर लौट जाएगा दिल्ली!’ हम सब जानते हैं कि
सरला मुकेश की जोड़ी आदर्श दांपत्य की मिसाल रही। उनके पांच संतान हुईं – रीता,
गायक नितिन, नलिनी (मृत्यु 1978), मोहनीश और नम्रता (अमृता)। नितिन का बेटा है
अभिनेता नील नितिन मुकेश। शादी की तीसवीं जयंती मनाई गई 22 जुलाई 1976 को देहांत
से पांच दिन पहले।
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मुकेश |
27 अगस्त 1976: संयुक्त राज्य अमेरीका, मिशिगन, नगर
डैट्रौइट। जल्दी उठकर मुकेश नहाए। छाती में दर्द की बात करते हांफते बाहर आए। तत्काल
अस्पताल पहुंचाया गया, पर वहां से पहुंचनेपहले वह बड़ी दूर पहुंच गए। उस शाम के
कंसर्ट में उनकी जगह बेटे नितिन मुकेश ने गीत प्रस्तुत किए। लताजी उन का शव ले कर
वापस लौटीं। पूरा फ़िल्म उद्योग अंतिम यात्रा में रो रहा था। कई जगह उनका भारत
भूषण के लिए गाया गीत बज रहा था ‘आ लौट के आ जा मेरे
मीत’, तो कहीँ और लोग सुन रहे थे ‘जग में रह जाएंगे तेरे
मीठे बोल’।
27 अगस्त 1976: द्वितीय विश्व हिंदी
सम्मेलन। मॉरीशस जहां जगह जगह मुकेश का आठ खंडों वाले ‘रामचरित मानस’ का पाठ बजता
रहता था और शादियों में उनके गीतों के रिकार्ड। शाम के पांच बजे। मॉरीशस के संसद सदस्य श्री मेवा
राम का घर। अमेरीका में मुकेश के देहांत का
काला समाचार हम ने वहीँ सुना। बेचैन मैं कमरे से बाहर निकल आया। हमेशा तरह पाँच
बजे निकलने वाला इंद्रधनुष आसमान पर छाया था। मैं ने भीतर जा कर लिखना शुरू किया
संस्मरण –‘यादों के इंद्रघनुष’। बंबई लौटने पर ‘माधुरी’ का ‘मुकेश विशेषांक’ निकाला। अन्य लेखों के साथ उस में यह चार पेजी संस्मरण
छपा था।
[1964-65: उन दिनों मैं अपने बड़े भाई स्व.चक्रधारी अग्रवाल के साथ दिल्ली में था।
भाई साहब एच 4, हौज़ खास मे किराये के मकान के नीचे तल्ले मे
रह रहे थे। ऊपर के तल्ले में सहाय साहब का परिवार रहता था। (सहाय साहब) सफदरजंग एयरपोर्ट मे ग्राउंड इंजीनियर थे।... एक दिन मैं घर
में अकेला था। ... सहाय साहब के छोटे बेटे ने कहा, अंकल, आपको मम्मी बुला रही हैं। उमाजी प्रायः
भाभी के पास आती रहती थी और मुझे वे भाई साहब कह संबोधित करती थी लेकिन मुझे कभी
उनके फ्लेट में जाने का मौका नही लगा था।इस लिए जाने मे थोड़ा संकोच भी हुआ लेकिन
फिर भी चला गया। जैसे ही ड्राइंग रूम में घुसता हूं, सामने
सोफा पर बैठे सज्जन कुछ जाने पहचाने से लगे। ‘अरे, ये तो मुकेश जी हैं’। उमाजी ने कहा, “भाई साहब, ये मेरे मामाजी हैं, मुकेश मामा। …वे सोफा पर से उठे, प्रेम से मुझसे हाथ मिलाया और साथ अपने बगल में बैठा लिया। मुकेशजी कहने
लगे, “जब भी दिल्ली आता हूं, उमा से
जरूर मिलता हूं। आज आपसे भी मुलाक़ात हो गई”। इतनी विनम्रता, कोई अहंकार नहीं, भेषभूषा भी बहुत सीधा सादा,
जितने बड़े गायक, उतनी ही सरलता। बच्चे कुछ
सुनने को कह रहे थे। उमाजी बच्चों को बारबार कहतीं–“नानाजी को तंग मत करो,”लेकिन बच्चे मानने से रहे। मुकेशजी ने कुछ गाकर सुनाया और फिर बोले, “अगर हॉरम्यूनियम होता तो एक भजन सुना देता। बिना
साज के आवाज़ क्या?” कह वे चुप हो गए। उमाजी गरम चाय और तली
पकौड़ियां लेकर आईं, मुकेश जी ने चाय पी लेकिन तली पकौड़ी खाने
से मना कर दिया। बोले, “गला खराब होने का डर है”। उनसे अनायास मुलाक़ात मेरी स्मृति मे आज भी ताज़ी है।]
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वाट्सैप पर एक संवाद:
[पंकज द्विवेदी, कानपुर से,
[6:36 PM, 2/18/2018] मुकेश
जी का नन्हा सा भक्त, मुकेश स्मृति
[6:37 PM, 2/18/2018] Arvind Kumar:
Welcome
[6:39 PM, 2/18/2018] नितिन
मुकेश जी कानपुर में
[6:40 PM, 2/18/2018] Arvind Kumar: Tell
him about me
[6:41 PM, 2/18/2018] उनकी
बेटी नेहा मेरे घर के पीछे सिविल लाइन्स में ब्याही है अतः वो आते हैं और मुलाक़ात
भी होती है
[6:43 PM, 2/18/2018] किसी
ज़माने में मुकेश जी अपनी बेटी रीता की शादी कानपुर में करने के लिए आये थे। पर बात
नहीं बनी अब उन्हीं की पोती कानपुर में ब्याही है। उनका ही आशीर्वाद है।
[7:52 AM, 7/22/2018]: 22 जुलाई
2018 जन्मदिन पर विशेष
आदमी चाहे तो तकदीर
बदल सकता है...
पूरी दुनिया की वो
तस्वीर बदल सकता है...
आदमी सोच तो ले उसका
इरादा क्या है....]
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अरविंद कुमार |
अंत में-
मेरी पसंद के मुकेश के गीतों की संख्या बहुत अधिक है फिर भी कुछ का
ज़िक्र कर रहा हूं, इनमें कोई क्रम नहीं है, लिखते लिखते जो जब याद आया
लिख दिया है:
‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’, ‘जिंदगी ख़्वाब है’, ‘वोह सुबह कभी तो आएगी’,
‘सारंगा तेरी याद में’, ‘कहीं दूर जब दिन ढल
जाए’, ‘ओह रे ताल मिले नदी के जल में’, ‘ज़िंदा हूं इस तरह’, ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’,
‘यह मेरा दीवानापन है’, ‘यह कौन चित्रकार है’, ‘वो तेरे प्यार का ग़म’,
‘किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार’, ‘फूल
तुम्हें भेजा है ख़त में’, ‘चंदन सा बदल चंचल चितवन’,
‘दुनिया बनाने वाले’, ‘मैं पल दो पल का शायर
हूँ’…
ïïï
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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