फिल्म समीक्षा
निर्देशक - अभिषेक बर्मन
कलाकार - वरुण धवन, आलिया भट्ट, सोनाक्षी सिन्हा, आदित्य रॉय कपूर,
संजय दत्त, माधुरी दीक्षित, कुणाल खेमू आदि।
*रवींद्र त्रिपाठी
यह किस पर लगा कलंक है?
निर्देशक अभिषेक बर्मन पर या इस फिल्म के सितारों
पर? `कलंक’ देखने के बाद नहीं बल्कि उसे देखने के दौरान ही यह सवाल दर्शकों के
मन में ताबड़तोड़ ढंग से उठता है। और अब शायद निर्देशक के मन में भी यही प्रश्न
उठे। लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
कलंक में कई तरह की बेतरतीबियां हैं। एक तो कहानी का सिरपैर कुछ समझ
में नहीं आता। या शायद यह कहना चाहिए कि बहुत देर से समझ में आता है। बहरहाल फिल्म
के मुताबिक एक शहर है हुस्नाबाद, जो कभी अविभाजित भारत में हुआ करता था। यहां की
एक लड़की रूप (आलिया भट्ट) जो अल्हड़ किस्म की है और गाती बहुत अच्छा है। एक
शादीशुदा औरत सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) रूप को अपने पति के साथ शादी के लिए तैयार करती है। जी,
हां सही पढ़ा आपने। अपने पति के साथ शादी के लिए। क्यों? इसलिए कि सत्या खुद
कैंसर से मरनेवाली है और अपने पति से बेइंतिहा प्यार करती है और नहीं चाहती कि
उसका पति उसकी मृत्यु के बाद अकेला रहे।। खैर, किसी तरह रूप की शादी (देव) आदित्य
रॉय कपूर से हो जाती है लेकिन पति महोदय शुरू शुरू में अपनी दूसरी पत्नी का चेहरा
भी नहीं देखते। इसलिए कि वो भी अपनी पहली पत्नी को बहुत चाहते हैं भले ही वो
मृत्यु के करीब है। इसलिए पहला झोल तो यही है कि देव साहब, ने दूसरी लड़की की मांग
भरी ही क्यों? अगर उसका चेहरा भी नहीं देखना है तो।
बहरहाल, ऐसी औरत जिसे अपने पति से प्यार से न मिल रहा हो वो दूसरे
पुरुष की तरफ आकृष्ट हो सकती है। इसलिए रूप जफर वरुण धवन की तरफ आकृष्ट होती है।
जफर मजबह से मुस्लिम है और पेशे से लोहार। ताकतवर इतना कि एक गुस्सैल साड़ से भी
लड़ पड़ता है। और एक बात और। हुस्नाबाद में वो नाजायज औलाद की तरह पला बढ़ा है।
लेकिन वो किसकी नाजायज औलाद है?
तवाय़फ बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) से उसका क्या
रिश्ता है? और देव के पिता बलराज (संजय दत्त) से? और क्या रूप और
जाफर की मोहब्बत किसी मुकाम पर पहुंचेगी? इन सवालों के जवाब
तो मिलते हैं लेकिन ढीले ढाले तरीके से।
यहां सिर्फ रिश्तों की पेचीदगियां नहीं है। चूंकि यह भारत के विभाजन
के ठीक पहले का वक्त है इसलिए उस समय हुए दंगों का जिक्र है इसमे। राजनीति और इश्क
के दो छोरों से गुजरती यह फिल्म किसी घाट पर टिकती नहीं और दिशाहीन हो जाती है।
हां, फिल्म आगे बढ़ती रहती है लेकिन उसी तरह जैसे कोई खराब हो गई गाड़ी को धक्के
मारमार कर आगे ले जाता है।
वरुण धवन, आलिया भट्ट, संजय दत्त, माधुरी दीक्षित और सोनाक्षी सिन्हा
जैसे बड़े सितारों के रहने के बावजूद इसमें फिल्म न तो इनके अभिनय का रंग जमता है
और न किसी तरह का धमाका है। संजय दत्त जैसा अभिनेता निस्तेज लगा है। आलिया भट्ट का
चुलबुलापन भी गायब है। कुछ देर के लिए वरुण धवन छाप छोड़ते हैं लेकिन सांड़ से
लड़ने वाला उनका दृश्य मजाकिया ज्यादा लगा है। और जहां तक माधुरी दीक्षित का सवाल
है लगता है फिल्म बनने के दौरान उन्होंने मेकअप करने और गहने पहनने में ज्यादा
वक्त लगा दिया। पर यह सब अभिनेताओं की समस्या नहीं है। अभिनेता वही करते हैं जो
निर्देशक चाहता है या उनके लिए जैसा `स्पेस’ रचता है।
निर्देशक ने न जाने क्यों इसमें इस्पात की
फैक्ट्री का मामला भी बीच में ला दिया है। फिल्म की कहानी मे यह भी है कि देव
अखबार तो निकालता ही है साथ में अलग से इस्पात की फैक्ट्री भी लगाना चाहता है और
जिसका स्थानीय मुसलमान कारीगर इसलिए विरोध कर रहे हैं कि उनको भय है कि इससे उनके
रोजगार छिन जाएंगे। यह सारा मामला बेमेल है। इस तरह `कलंक’ कई तरह की ईंटें और
कई तरह के रोड़े जोड़े गए हैं जिससे फिल्म में कहीं फोकस नहीं बनता है। हां, फिल्म
में सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी हैं और कुछ दृश्य तो लाजबाब होकर उभरे हैं।
*लेखक जाने माने कला और फिल्म समीक्षक हैं।
*लेखक जाने माने कला और फिल्म समीक्षक हैं।
दिल्ली में निवास। संपर्क – 9873196343
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