‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–77
‘यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स–फ़िल्मफ़ेअर टैलेंट कॉन्टेस्ट’
विजेता राज बब्बर
का नाम घोषित नहीं किया जा सका...क्यों? मुझे
याद आता है आपातकाल...
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'इंसाफ का तराजू' का एक विवादास्पद दृश्य, इस फिल्म के सीन से ही चमके राज बब्बर |
दिन प्रतिदिन ख़बरों में
राज बब्बर का नाम पढ़/सुनकर मुझे याद आता है वह लड़का, जिसने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में
प्रशिक्षण काल में सज्जाद ज़हीर की बेटी, अपनी सहप्रशिक्षु नादिरा से शादी कर ली
थी और जो टेलेंट कॉन्टेस्ट
में चुन लिया गया था। साथ-साथ मुझे याद आता है आपातकाल, याद आते हैं
अमिताभ बच्चन और याद आते हैं विद्याचरण शुक्ल जो उस समय केंद्रीय सूचना एवं
प्रसारण मंत्री थे और याद आते हैं निर्माता निर्देशक बी.आर. चोपड़ा।
आगे बढ़ने से पहले मैं
आप को ले चलता हूं इस सीरीज़ के 7 अक्तूबर 2018 वाले ‘भाग 51 अमिताभ बच्चन (1)’
की ओर:
[अमिताभ का नाम मैंने सबसे पहले सुनील दत्त से
सुना था। अब दिन और तारीख़ याद नहीं। समय याद है – शाम के पांच से कुछ बाद। यह भी
याद है कि अगले दिन मैं एक महीने की छुट्टी पर दिल्ली जाने वाला था। अगर उस शाम
सुनील न आते तो मुझे अमिताभ का नाम न जाने कब सुनने को मिलता। सुनील ने कहा कि
प्रधानमंत्री (श्रीमती इंदिरा गांधी) कार्यालय से फ़ोन आया है। सुनील ने यह नहीँ
बताया कि फ़ोन किसने किया है और किसके पास आया है। फ़ोन का मुद्दा यह था कि बच्चन
जी के बेटे अमिताभ को ‘यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स – फ़िल्मफ़ेअर टेलेंट कॉन्टेस्ट’
में चयन के लिए शामिल कर लिया जाए, क्योंकि ‘किसी कारणवश इंटरव्यू का निमंत्रण उसे नहीं मिल
पाया है।’ कॉन्टेस्ट का संचालन मैं कर रहा था। चुनाव
प्रक्रिया अंतिम चरण तक जा पहुंची थी। चुने प्रत्याशियों के स्क्रीन टैस्ट बी.आर.
चोपड़ा ले रहे थे। मैंने सुनील से कहा, “फिर भी इसमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। आप चोपड़ा
जी से बात कर लें। स्क्रीन टेस्ट अवश्य
हो जाएगा। मैं स्वयं उनसे बात कर लेता पर कल सुबह ही मुझे सपरिवार दिल्ली
जाना है – एक महीने की छुट्टी पर।” मैं वापस लौटा तो पता चला कि अमिताभ नहीं चुने
जा सके।]
इसी से सम्बद्ध है राज बब्बर के ‘यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स – फ़िल्मफ़ेअर टेलेंट कॉन्टेस्ट’
में प्रथम स्थान पा कर भी उस के चुनाव की घोषणा न हो पाना।
-25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने
आपात्काल लागू कर दिया। इससे एक दिन पहले ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के लंच रूम में मैं
ऐसी संभावना का संकेत कर चुका था। कुछ संपादक कह रहे थे कि इंदिरा को त्यागपत्र
देना होगा। मेरा कहना था कि ‘मरता
क्या न करता’ वाली हालत में इंदिरा संविधान की चहारदीवारी से
बाहर जा सकती हैं।
टाइम्स कार्यालय में संपादकों की आपात् बैठक में ‘इलस्ट्रेटेड
वीकली’ के संपादक ख़ुशवंत सिंह ने आपातकाल का घोर विरोध
किया, मांग की कि सभी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद कर दिया जाए। मैंने विरोध
किया। प्रबंधक मंडल मेरे मत से सहमत था। यह अलग बात है कि जब ख़ुशवंत जी की अपनी रिश्तेदार
‘मनिका’
(बोलचाल की भाषा में – ‘मेनका’) से बात हुई तो वे आपातकाल के घोर समर्थक बन गए
थे। उसी शाम विचारक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक एस. डी. नारंग से मैं आपातकाल को ‘डिक्टेटरशिप ऑफ़ द
कैपिटलिस्ट्स’ कहा था।
ये वे दिन थे जब हर पत्र-पत्रिका को छपने से पहले
समस्त सामग्री सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों से पास करानी होती थी। जब गुलज़ार
की ‘आंधी’ और लेख टंडन की ‘आंदोलन’
बैन कर दी गई थीँ। ‘आंदोलन’ में स्वतंत्रता आंदोलन के नाम पर आपातकाल का विरोध
था। एक कारण बताया गया था ‘हिंसा
का प्रदर्शन’। यह जो हिंसा प्रदर्शन वाली बात थी,
इंदिरा-विरोधी बढ़ती हिंसक घटनाओं के कारण दो तीन साल पहले से लागू थी। आपातकाल की
घोषणा के लगभग दो महीने बाद आई थी रमेश सिप्पी की हिंसा से भरपूर ब्लॉकबस्टर ‘शोले’। नीति अनुसार सेसर बोर्ड ने उससे 69 हिंसक दृश्य
काटने का आदेश दिया था। लेकिन इंदिरा की निकट सहेली तेज़ी बच्चन के बेटे अमिताभ का
रसूख़ काम आया। किसी अर्ध-सरकारी संस्थान को दो लाख का चंदा देने के नाम पर वह इस
शर्त पर पास कर दी गई कि गब्बर की हत्या ठाकुर के पैरों तले कुचल कर नहीं होगी
बल्कि पुलिस आ कर रोक लेगी। (उसके प्रीमियर पर निर्माता श्री जी.पी. सिप्पी ने
मेरी राय पूछी तो मैंने कहा था, “ए
वैस्टर्न टु बीट आलवैस्टर्न्स!” – पश्चिम अमेरीका के आदिवासियों पर गोरों की विजय की
हिंसा से भरपूर फ़िल्में ‘वैस्टर्न’ कहलाती थीँ और बहुत चलती थीं)।
आपातकाल में सत्ता विरोधियों को मिलने वाली
टेलिफ़ोन ‘मिडनाइट फ़ोन कॉल’ भयावह घटना के रूप
में प्रचलित थी। मैं विरोधी नहीँ था पर एक रात मेरे घर भी मिडनाइट काल आई – चोपड़ा
जी से, “अरविंद जी, इतनी रात को फ़ोन करने को मैं मजबूर
हूं। मेरे यहां फ़िल्म वालों से डिनर मीटिंग में बैठे हैं विद्याचरणजी। वे आप से
अभी कुछ कहना चाहते हैँ।” अब उधर से बोल रहे थे स्वयं सूचना एवं प्रसारण
मंत्री वी.सी. शुक्ला, “टैलेंट कॉन्टेस्ट बंद नहीं किया गया या उसका
परिणाम घोषित किया गया तो टाइम्स संस्थान की सभी पत्र-पत्रिकाओं का काग़ज़ का कोटा
रद्द कर दिया जाएगा।” बात मुझ अकेले की होती तो पता नहीं मैं क्या
करता। सवाल पूरी कंपनी का था। मैंने तत्काल जनरल मैनेजर डॉक्टर तरनेजा को फ़ोन
किया। वह बोले, “मैं कलकत्ते में अशोक जी को ख़बर कर रहा हूं, तुम
अपना काम करते रहो।”
कुछ दिन बाद शुक्ला जी के
दो सचिवों से (जिन्हें मैं उपनी भाषा में चंगू मंगू कहता था) बातचीत शुरू हुई। इनमें
से एक का नाम प्रसाद था। दोनों ने मेरे साथ कई मुलाक़ात कीँ और कुछ शर्तें लगाईं,
जैसे ‘अगर कॉन्टेस्ट का चुनाव घोषित किया जाए तो विजेताओं
को पुणे के फ़िल्म संस्थान में तीन साल के लिए दाख़िल किया जाना होगा।’
(उल्लेखनीय है कि अमिताभ वहां प्रशिक्षित हुए बिना ही सफल आभिनेता बन गए थे!)
यह शर्त प्रोड्यूसरों को मंज़ूर नहीं थी। लिहाज़ा परिणाम घोषित नहीँ किया गया।
सन् 1977 में आपातकाल समाप्त हो गया। मई 1978 में
मैं ‘माधुरी’ छोड़ कर दिल्ली आ गया था – ‘समांतर
कोश’ बनाने। यहां भी राज से संपर्क बरक़रार रहा। मुझे
नादिरा-निर्देशित एक नाटक देखने बुलाया गया। नाम याद नहीँ, उस में स्कूटरों वाले
हैल्मेट पहन लोग अंतरिक्ष यात्री दिखाए गए थे। इधर मैं चोपड़ा जी से पत्र व्यवहार
करता रहता था। मेरे चलते चलते उन्होंने वादा किया था कि ‘बब्बर को फ़िल्म में काम ज़रूर देंगे।’
उनका पत्र आया कि राज ‘उनकी फ़िल्म में आ रहा है।’
मैं दिल्ली से बंबई जाता रहता था लगभग तीन साल वहां मेडिकल शिक्षा पाते अपने बेटे
सुमीत से मिलने। एक बार चोपड़ा जी ने ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ की शूटिंग में राज
बब्बर से मिलने मुझे बुलाया भी। मुझे वहां ले गए थे फ़िल्म के लेखक मेरे मित्र
शब्द कुमार। अदालत का दृश्य था – पद्मिनी कोल्हापुरे के साथ।
-आगरा के नज़दीक़ सिख परिवार में कौशल कुमार और
शोभा रानी के घर 23 जून 1952 को जन्मा था – राज। आगरा के फ़ैज़े आम स्कूल से इंटर
पास कर से नई दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में तथाकथित मैथड ऐक्टिंग में
प्रशिक्षित हुआ था। मुझे याद है कॉन्टेस्ट के लिए स्टूडियो में आदेशित संवाद का
अभिनय करने के बाद उसने एक अतिरिक्त सीन भी किया था। अपने सिर पर धौल सा जमा कर
जीभ निपोरना, झेंपना और हंसना। उसकी यह अदा चोपड़ा जी को पसंद आ गई। उनके दिमाग़
में कोई भावी फ़िल्म थी। उसके लिए वह उन्हें सही लगा था। सन् 1980 की रवींद्र जैन
के संगीत वाली ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ शायद वही फ़िल्म थी।
बिल्कुल नया कलाकार ज़ीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे, इफ़्तख़ार, सिमी गरेवाल, और
श्रीराम लागू जैसे दिग्गजों के साथ बराबरी का अभिनय कर पाया और फ़िल्म उद्योग के
चहेते कलाकारों में गिना जाने लगा।
अब राज बी.आर. चोपड़ा की कई फ़िल्मों का आवश्यक
अंग बन गया, जैसे सलमा आगा के साथ ‘निकाह’ में और स्मिता पाटिल के साथ ‘आज
की आवाज़’ में। उसकी एक शुरुआती फ़िल्म थी रीना रॉय के साथ
‘सौ दिन सास के’। इन सभी में
महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे उठाए गए थे जो दर्शकों के दिलों को उद्वेलित कर रहे थे।
1983 की लेख टंडन की अत्यंत लोकप्रिय फ़िल्म ‘अगर तुम न होते’ तक उसकी 34 फ़िल्में
आ चुकी थीं। यह किसी नवोदित कलाकार के लिए महान उपलब्धि माना जाता है।
इन में से पहली थी शशि कपूर द्वारा निर्मित और
श्याम बेनेगल निर्देशित 1981 की ‘कलयुग’। यह बेनेगल की सर्वाधिक कॉप्लैक्स और श्रेष्ठ
कृतियों में गिनी जाती है। इसमें महाभारत की कथा को आधुनिक परिवेश में दो बड़ी
कंपनियों के बीच घोर टकराव के रूप में दर्शाया गया था। राज बब्बर को पांडव पक्ष के
धर्मराज युधिष्ठिर की भूमिका मिली थी। वह पूरनचंद कंपनी का प्रमुख है। दो छोटे भाई
बलराज (कुलभूषण खरबंदा) और भरतराज (अनंत नाग) कंपनी चलाने में उस का साथ दे रहे
हैं। टक्कर में दूसरी कंपनी धनराज (विक्टर बनर्जी) की, जिसका साथ दे रहा है भरतराज
(शशि कपूर)। फ़िल्म को विशिष्टता प्रदान करती है श्याम बेनेगल की गहन और प्रतीक
कथाओं का बखान करने की क्षमता।
अपनी ओर से कुछ न लिख कर मैं पेश कर रहा हूं ‘इंडिया टुडे’ के सन् 2014 के 26 फ़रवरी वाले अंक में छपे एक
लेख से कुछ अंश:
इंग्लिश से मेरा अनुवाद [श्याम बेनेगल से दर्शकों
को अपेक्षा होती है कुछ भिन्न देखने की। ‘कलयुग’ को देखा जाना चाहिए
आहिस्ता आहिस्ता मंद मंद और बड़े ध्यान से और सोचना चाहिए धीरे धीरे विकसित
महाकाव्यों की तरह। दो बड़ी कंपनियां एक दूसरे को मिटाने में लगी हैं। बचते हैं
कुछ टूटे फूटे उधड़े लपूसड़े। शशि के साथ श्याम की पहली फ़िल्म थी ‘जुनून’ 1857 के विद्रोह के बीच
शशि के उन्मत्त प्रेम की। ‘कलयुग’ के जटिल उत्कट पात्र एक दूसरे से जूझ रहे हैं,
एक दूसरे को झेल रहे हैँ। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र का युद्ध आज की दुनिया में मौरूसी
संपत्ति के विभाजन, निराशोन्मत्त लोभ और पगलाई महत्त्वाकांक्षा का टकराव बन गया
है। श्याम संयुक्त परिवारों के भीतर के आंतरिक विरोधों और प्रतिरोधों के बीच
विवाहों, जन्म दिनों और मृतक संस्कारों की शालीनता का वर्णन करने में सफल हैँ। कोई
पात्र न बड़ा है न छोटा। निरर्थक फ़िल्मों में रूप बिखरेती रेखा इस में द्रौपदी
(सुप्रिया) के प्रतिरूप में दर्शनीय है। आयकर विभाग की रेड वाला दृश्य: अलमारी
से अफ़सर उसकी ब्राएं निकाल कर उन में कामुक उंगलियां फेरना और रेखा का क्रोधावेश
देखते ही बनता है। युधिष्ठिर की भूमिका निभाते राज बब्बर की तटस्थता और पत्नी
सुप्रिया (रेखा) के प्रति अनासक्त लगाव, अश्वों के अतिरिक्त किसी और चीज़ में
अरुचि का निभाव कोई सिद्धहस्त कलाकार साकार कर सकता था।]
-1983 की सफल फ़िल्म ‘अगर
तुम न होते’ लेख टंडन की सर्वोत्तम फ़िल्मों में गिनी जाती
है, जिसका लोकप्रिय गीत था –‘हमें
और जीने की चाहत न होती – अगर तुम न होते’। कहानी रेखा के डबल रोल के इर्द-गिर्द घूमती है।
टकराव है उसके दो पतियों के बीच। यह असंभव सा संयोग समझाने के लिए मैं इसकी कहानी
संक्षेप में बताना ज़रूरी है। पत्नी पूर्णिमा (रेखा) के मरने के बाद कॉस्मेटिक
उत्पादों वाली कंपनी के धनी उद्योगपति अशोक मेहरा का दिल उचट गया। बेटी मिनी ही उस
के लिए सब कुछ है। कई साल बीत गए हैं। अशोक न तो कंपनी चला पा रहा है न बेटी की
परवरिश कर पा रहा है। मिनी बार बार मां से मिलना चाहती है। बाप दिलासा देता है एक
दिन मम्मी लौटेगी भगवान के घर से। मिनी का ढारस नहीँ बंध रहा। कोई गवर्नैस उसे
संभाल नहीं पाती। नई गवर्नैस के लिए वह जो विज्ञापन देता है उसकी शर्त है कि वह
अविवाहित हो। यह अविवाहित होने की शर्त बन जाती है कहानी में पेंच का कारण। नई
गवर्नैस आती है जो मिनी की निगाह में भगवान के घर से लौटी उस की मां पूर्णिमा ही
है।
प्रतियोगी कंपनियों के आधुनिक विज्ञापनों के कारण
कंपनी की साख गिर रही है। अशोक को किसी ऐसे फ़ोटोग्राफ़र की तलाश है जो एक बार फिर
कंपनी में जान डाल सके। आता है मशहूर फ़ोटोग्राफ़र राज बेदी (राज बब्बर) जिसे अशोक
मुंह मांगे दाम देने को तैयार है। अब राज को तलाश है एक नई मॉडल की। सागर तट पर
उसे मिलती है राधा (रेखा) जो हूबहू स्वर्गीय पूर्णिमा जैसी है। जैसे तैसे वह राधा
को मना लेता है। बढ़िया से बढ़िया फ़ोटो खीँचने की कोशिश में राज किसी कारख़ाने की
पाड़ से गिर कर असहाय हो जाता है। फ़ोटोग्राफ़ी छूट गई। घर चलाना असंभव हो गया। घर
चलाने के लिए राधा नौकरी की तलाश में है। अविवाहित गवर्नैस का विज्ञापन पढ़ कर और
अपने को अविवाहित बता कर मिनी की देखभाल के लिए रख ली जाती है। मिनी को लगता है
मम्मी भगवान के घर से लौट आई है। स्वर्गीय पूर्णिमा की हलशक़्ल होने के कारण और
मिनी को फिर से हंसमुख कर पाने के कारण अशोक उस के लिए सब कुछ करने को तैयार है।
राज बेदी का सहायक होता था चंदू (असरानी)। अब राज
ने उसे निकाल दिया है। क्रुद्ध चंदू राज के कान भरने लगता है राधा के ख़िलाफ़। कभी
कहता है कि राधा और अशोक के बीच कुछ चल रहा है। राधा क़ीमती उपहार लाती है तो राज
का संदेह बढ़ता जाता है। कभी का ख़ुशमिजाज़ राज अब शक्की हो गया है। राधा के प्रति
कठोर होता जा रहा है। अशोक को पता ही नहीं है कि राधा विवाहित है और उसका पति है
फ़ोटोग्राफ़र राज बेदी। राधा की बड़ी लॉटरी लग गई। लॉटरी के पैसे से बेहतर इलाज के
लिए राधा राज को अमेरीका ले जा रही है। एअरपोर्ट पर तीनों मिलते हैं। गिले-शिकवे
दूर होते हैं। हवाई जहाज़ उड़ने में कुछ देरी हो रही है। अशोक मिनी को राज और राधा
की दत्तक बेटी बनवा देता है। जहाज उड़ रहा है। दर्दभरी आवाज़ में अशोक कह रहा है,
मैंने तुम से दो बार प्यार किया, दोनों बार खोया।
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अरविंद कुमार |
फ़िल्म में सबसे महत्वपूर्ण अंश हैं राज बब्बर के
पात्र की बदलती मानसिकता और उसका अनुभाव (externalization of emotion)। यदि बब्बर उम तमाम परिस्थितियों के अनुरूप उपने
को ढाल न पाता तो ‘अगर तुम न होते’ धरी रह जाती। इसलिए
मैं इसे राज बब्बर की श्रेष्ठ फ़िल्मों में गिनता हूं।
-राज बब्बर के जीवन के कई पहलू हैं, बी. आर.
चोपड़ा के साथ फ़िल्में इंसाफ़ का तराज़ू’ और ‘निकाह’ और जैसे नादिरा ज़हीर और स्मिता पाटिल से विवाह जिनके
बारे में आप पढ़ेंगे अगली क़िस्तों में।
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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