‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–82
हौसलाबुलंद, आवाज़बुलंद, शख़्सीयतबुलंद यानी शत्रुघ्न
सिन्हा - फ़िल्म में भी, राजनीति में भी। मैं बात सिर्फ़ फ़िल्मों की करूंगा। वहीँ
जानता था उसे। बाद में कभी मिले नहीं हम।
फ़िल्म इंस्टीट्यूट पुणें से नया नया आया था। न काम, न
दाम-इरादे बुलंद। बड़बोला था, और है। शहर बंबई में कई अड्डों में उसके दोस्त थे ‘माधुरी’ का संपादन विभाग और मेरा कमरा। अकेले उसी का नहीं,
बड़े सपने देखने वाले कई लोगों के। उन दिनों को याद करते मेरे उत्तरवर्ती संपादक
विनोद तिवारी ने कहा है:
[जीतेंद्र वहां आ कर बैठते थे, संजय ख़ान आते थे, राजेश
खन्ना आते थे...एक दिन शत्रुघ्न सिन्हा बैठे थे और (‘माधुरी’ में यदा कदा लिखने वाले) पवन कुमार बैठे थे। अरविंदजी ने पूछा शत्रु से, “क्या चल रहा है?” उसने कहा, “कुछ नहीं चल रहा है, कुछ काम नहीं कर रहा, कोई काम
नहीं बन पा रहा, कुछ नहीं हो रहा। बहुत जगह ऐसा होता है कि मैं ख़ुद कुछ कह नहीं
पाता। कोई छोटा मोटा सेक्रेटरी हो, तो कुछ काम बन सकता है।”
अरविंदजी ने कहा. “इसमें कौन सी
मुश्किल बात है, ये पवन बैठे हैं, इन्हें ले लो।” शत्रुघ्न
ने कहा, “मेरे पास तो बीड़ी पीने तक के
पैसे नहीं हैं, इन्हें क्या दूंगा?” पवन ने कहा, “मेरे पास भी कुछ नहीं है, आपके पास भी कुछ नहीं है!”
बस... स्टार-सेक्रेटरी जोड़ी बन गई! शत्रु बड़े हो गए, पवन कुमार भी बड़े हो
गए!”]
शत्रु की पहली फ़िल्म थी मोहन सहगल की ‘साजन’ (1969)। हीरो हीरोइन थे मनोज कुमार आशा पारेख। हवलदार
शत्रु उस में कुल दो मिनट दिखाई दिया। चार फ़िल्मों के बाद आई अगले ही साल सुपर
डुपर हिट ‘खिलौना’ (1970)। शत्रु ने संदेश भिजवाया, “ज़रूर देखें!” सचमुच, ‘ज़रूर
देखने’ लायक़ थी, मेरे लिए ‘ख़ास
देखने’ लायक़ था खलनायक शत्रु। मुख्य भूमिकाओं में थे संजीव
कुमार, मुमताज, जितेंद्र और शत्रु। निर्माता थे आंध्रप्रदेश के एल. वी. प्रसाद। ‘खिलौना’ उन्हीं की 1963 की तेलुगु ‘पुनर्जन्म’ का रीमेक थी। अब यह एक साथ तमिल में ‘ऐंगिरूडो
वंढाल’ और मलयालम में ‘अमृतवाहिनी’ नामों से बनी थी। ‘खिलौना’ को हिंदी रूप दिया था लोकप्रिय लेखक
गुलशन नंदा ने।
धनी ठाकुर सूरज सिंह के बेटे विजयकमल ने अपनी प्रेमिका
सपना का विवाह पड़ोसी बिहारी (शत्रु) से होते देखा और फिर दीवाली पर बिहारी की
दावत में सपना को आत्महत्या करते देखा तो पागल हो गया। पिता ठाकुर ने सोचा – बेटे
को बीवी मिले तो ठीक हो जाएगा। वेश्या चांद (मुमताज) को राज़ी किया गया ‘बीवी’ बन कर विजय के साथ रहने
को। एक बार पागलपन के दौरे में विजय चांद से ज़बर्दस्ती कर बैठा। रफ़्ता-रफ़्ता
दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। और वह जो बिहारी था, उसका चाल-चलन बदलने वाला था
नहीं। निगाह चांद पर थी, पर विजय की छोटी बहन राधा को भगाने की कोशिश में भी लगा
था। ‘आदर्श’ नारी चांद ने ऐसा होने नहीं दिया। हालात पेचीदा हो रहे थे। विजय का छोटा भाई मोहन (जितेंद्र) आया
तो चांद से प्रेम करने लगा। लेकिन चांद अब गर्भवती है – विजय से। कुछ कहे बताए
बग़ैर मोहन कहीं चला गया। फिर एक दिन विजय और बिहारी में गुत्थमगुत्था हुई, बिहारी
छत से गिरा तो सदमे में से विजय की याददाश्त लौट आई और वह चांद को भूल गया! चांद की लानत मलामत हो रही है, घर से निकाला जा
रहा है। तभी मोहन लौट आया। वह बताता है कैसे चांद ने राधा को बचाया, पूछता है सब
चांद को ‘खिलौना’ समझ कर चाहें तो चाहते
हैं, चाहें तो दुत्कार देते हैं। रफ़्ता यह रफ़्ता भेद भी खोलता है कि चांद एक
बड़े ख़ानदान की बेटी है, ट्रेन दुर्घटना में वेश्याओं के घर पली थी। अंत भला तो
सब भला!
इस
तरह पढ़ने पर यह घालमेल लगता है, पर फ़िल्म का एक एक पल रोचक था। जहां तक शत्रु का
सवाल है उस का हर अंदाज़, हर अदा और हर लहज़ा नपा तुला था। इस पोस्टर में शत्रु की
आंखों का कोण, पूरे चेहरे की कुटिल के साथ साथ मोहक मुस्कान आसानी से नहीं आती।
शत्रु
की पहली पुख़्ता पहचान यह ‘खिलौना’ ही थी, जो छह साल बाद ‘कालीचरण’ (1976) में भयानक कालीचरण/सौम्य प्रभाकर बना कर
अप्रत्याशित ऊंचाई तक ले गई। इस बीच वह ‘चेतना’ (1970) का रमेश, ‘मेरे
अपने’ 1971 का चैनो , ‘गैंबलर’ (1971) का बांके बिहारी¸ ‘रामपुर का लक्ष्मण’ (1972) के डबल रोल वाला राम/भार्गव कुमार, ‘शरारत’ (1972) के डबल रोल वाला जगदीश/विनोद कुमार,‘मिलाप’(1972)के पूर्व/ वर्तमान/नाग और ‘अनोखा’ (1975) के ट्रिपल रोल वाला राम/अनोखा/शंभु खन्ना जैसी सैंतालीस फ़िल्मों में
लोकप्रिय हो चुका था।
‘कालीचरण’ के
बारे में मैं ‘भाग 62 सुभाष घई - 23 दिसंबर 2018’ में विस्तार से
लिख चुका हूं। संक्षेप में बस इतना कहूंगा कि उस में अपराधी कालीचरण (शत्रु) को मृत पुलिस अफ़सर प्रभाकर (शत्रु) बनाया
गया था। कहानी ‘LION’ और ‘NO I7’ के भ्रम पर आधारित थी। आईजीपी पुलिस खन्ना के बेटे प्रभाकर के मुठभेड़ में
मारे जाने की ख़बर छिपा कर कुख्यात क़ैदी कालीचरण
को प्रभाकर के रूप में पेश किया जाता है। खन्ना की बेटी सपना (रीना राय) से
प्रभावित हो कर कालीचरण पुलिस की सहायता करने को सहमत हो जाता है और ढोंगी सेठ दीनदयाल ही सचमुच में डॉन है – यह भेद खोलने में सफल
होता है।]
‘कालीचरण’ ने
फ़िल्म इंस्टीट्यूट के शत्रु को ही नहीं सुभाष घई को भी यकायक शिखर पर खड़ा कर
दिया।
‘कालीचरण’ के तत्काल बाद ही शत्रु ने राज कपूर के साथ सिनेमा का
पर्दा साझा किया पवन कुमार द्वारा निर्मित ‘ख़ान दोस्त’ (1976) में। कहानी सुभाष की ही थी। रामदीन (राज कपूर) नासिक जेल में हवलदार है, नया ख़ूंख़ार
क़ैदी रहमत (शत्रु) उसका लाभ उठा कर जेल से भाग जाता है। अब रामदीन का काम है
महीने भर में उसे वापस लाना। शत्रु ने कहा है, “राज साहब के
साथ काम करना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात थी। उस में उन से बहुत कुछ सीखा।
सिनेमा समझने का नया नज़रिया मिला।”
दो सौ से ज़्यादा फ़िल्मों के धुरंधर कलाकार, ढेरों अवॉर्डों
सम्मानों से अलंकृत ‘शॉटगन’ और ‘बिहारी बाबू’ नाम से जाने वाले राजनेता, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे शत्रुघ्न सिन्हा
का जन्म पटना में सन् 1946 की 9 दिसंबर को हुआ था। वह भुवनेश्वरी प्रसाद सिन्हा और
श्यामा देवी सिन्हा की चौथी संतान था। सभी भाइयों के नाम रामायण पर आधारित थे। राम,
लक्ष्मण, भरत। मतलब दशरथ के चारों भाई पटना में सिन्हा परिवार में जन्मे थे। नाम
के अनुरूप शत्रु-नाशक शत्रुघ्न के सामने कोई शत्रु टिक नहीं पाया। यह भी उचित था
कि जब शत्रु और पूनम के जुड़वां बेटे हुए तो मनोज कुमार ने उनके नाम लव और कुश रख
दिए।
उनकी जीवनी ‘ऑल बट ख़ामोश’ का नाम उनके प्रसिद्ध डायलॉग ‘अबे ख़ामोश’ पर रखा गया है।
-धर्मेंद्र से उस का याराना मशहूर है। उनकी
2018 की ‘यमला पगला दीवाना फिर से’ में बढ़ चढ़ कर अभिनय किया था। शत्रु का कहना है, “बरसों से
धर्मेंद्र ही नहीं हेमा भी मेरी प्रिय मित्र हैं। फ़िल्म उद्योग में इतने साल कुछ
गिने चुने निकट संबंध ही टिक पाते हैं। ‘ख़ान दोस्त’ में भी हम साथ
थे। ‘शोले’ में मैं और धर्मेंद्र साथ काम करने वाले थे, पर यह हो नहीं पाया।”
-लंदन. 3 मार्च 2018. ‘इंडिया टुडे’ के लिए अदिति खन्ना की रिपोर्ट:
आज अभिनेता-नेता शत्रुघ्न सिन्हा को ‘कला और राजनीति’ में आजीवन योगदान के लिए यू.के. संसद परिसर में सम्मानित किया गया। ब्रिटेन के ‘एशियन वाइस वीकली’ समाचार पत्र के सम्मानों का यह
बारहवां सम्मान था। समारोह हाउस ऑफ़ कॉमन्स के सदस्यों के डाइनिंग हाल में हुआ।
उपस्थित थे अनेक सांसद, व्यापार जगत और समाज की शिरोमणि हस्तियां, यू.के. की सेना
के उच्च अधिकारी।
सम्मान स्वीकार करते हुए, शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा, “आत्मविश्वास से आती है प्रतिबद्धता, प्रतिबद्धता से संकल्प, संकल्प से
उपजती है साधना। आत्मविश्वास, प्रतिबद्धता, संकल्प और साधना हों तो आता है जुनून
उन्माद। आज के प्रतियोगितात्मक संसार में हमें जूझना पड़ता है सर्वोत्तम से भी
ऊपर पहुंचने के लिए। यदि हम सर्वोत्तम से भी बेहतर न हो पाएं तब भी कोशिश, प्रयास
तो करना ही पड़ता है अपने को कुछ विशिष्ट, कुछ हट कर पाने के लिए।”
शत्रु-अमिताभ दुश्मनाना दोस्त
इंग्लिश समाचार पत्र ‘द
ऐक्सप्रेस ट्रिब्यून’ में सन् 2013 को
छपे एक समाचार के अनुसार:
“दस साल तक शत्रुघ्न सिन्हा और
अमिताभ बच्चन frenemies (दुश्मनाना
दोस्त) थे। फिर भी दोनों ने ‘दोस्ताना’
और ‘रास्ते का पत्थर’ में एक साथ काम
किया था।
अब शत्रु का कहना है, “अमिताभ की शख़्सियत, शिक्षा-दीक्षा, बॉडी लैंग्वेज में वह है जो उसे
लोकप्रिय बनाता है। दोस्ताने के बावजूद अमिताभ मेरे साथ काम करना नहीं चाहता था।
बहुत कम लोग जानते हैं कि ‘शोले’ में
अमिताभ वाला रोल पहले मुझे ऑफ़र किया गया था। मैं तब नायक के तौर पर जम रहा था। मैंने
इनकार कर दिया। हमारी मुलाक़ातें कम होती चली गईं। फिर भी हम ने ‘नसीब’ और ‘शान’ एक साथ कीं। पर मुझे कहना पड़ता है कि अमिताभ इनमें मेरे साथ काम करने को
उत्सुक नहीं था। शायद ‘काला पत्थर’
हमारी दोस्ती के कफ़न में आख़री कील साबित हुई।
जो भी हो, दशकों की राइवलरी के बाद शत्रु अब वह
दौर ख़त्म करना चाहता है। अपनी (दिल की) बाइपास सर्जरी के बाद लब बच्चन के
सत्तरवें जन्मदिन की पार्टी में गया। मैं गया तो पर पहुंचते पहुंचते बुरी तरह थक
गया था।
रीना राय शत्रुघ्न सिन्हा पूनम प्रेम त्रिकोण
हम सब ने बार-बार देखा है फ़िल्मों में
ट्रेन में लड़का लड़की एक दूसरे को देखते हैं, पसंद करते हैं और शुरू हो जाता है
लव अफ़ेअर। फ़िल्मों में ही नहीँ मैं जीवन में कुछ सफल जोड़ों को जानता हूं जो
पहली बार ट्रेन में मिले थे। कुछ ऐसा ही हुआ शत्रु और पूनम के बीच। शत्रु पहली ही
झलक में रीझ गया। ट्रेन चली। यह क्या नायिका रोने लगी। शत्रु को बहाना मिल गया -
सुंदरी के पास जाकर लगा उसे मनाने। ‘पाकीज़ा’ में राज कुमार ने मीना कुमारी के पैर देखे,
लिख गया, “इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा!” शत्रु ने किसी मैगज़ीन के पन्ने पर लिखा- “इतनी
सुंदर लड़की को रोना शोभा नहीं देता” और पकड़ा दिया पूनम को।
पूनम पर कोई असर नहीं हुआ। उस ने
मैगज़ीन फेंक दिया।
लेकिन वक़्त ने किया इक ‘हसीं सितम’
नहीं ‘हसीं करम’... दोनों फिर मिले
जल्द ही। पूनम को ‘मिस यंग इंडिया’ का
ताज मिला। शत्रु और उसे साथ साथ एक फ़िल्म मिली। प्रेम के बिरवे को पनपने का मौक़ा
मिला। और एक झटका लगा।
सुपरहिट ‘कालीचरण’ फ़िल्म की नई
नवेली 18-19 साल की रीना और शत्रु के सीने में सीधा लगा कामबाण! छिपाने की लाख कोशिशों के बावजूद बात फैलती गई। पूनम तक पहुंची। वह कुछ
बोली नहीँ।
दोनों से प्यार का खेल खेलते खेलते पांच
साल निकल गए। रीना से चोरी-छिपे मिलने के क़िस्से पूनम तक पहुंचते, वह चुप रही।
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अरविंद कुमार |
रीना के लिए पूनम शत्रु की परनारी थी।
किसी नई फ़िल्म में रीना और शत्रु को लेने एक निर्माता से रीना ने साफ़ कह दिया, “पहले शत्रु मुझसे शादी करे, तभी
करूंगी उसके साथ यह फ़िल्म!” फ़ैसले की घड़ी आ गई थी। पूनम
ने शत्रु का खुले हाथों स्वागत किया और 8 जुलाई 1980 को दोनों की शादी हो गई।
शत्रु के लिए वह जीवन भर का सहारा बन गई। बेटी सोनाक्षी और बेटे लव और कुश वाला
परिवार सुख से जीवन बिता रहा है।
शादी के बहुत बहुत साल बाद पूनम ने आशुतोष गोवारीकर
की 2008 की क्लासिक फ़िल्म ‘जोधा अकबर’ में अकबर की मां मल्लिका हमीदा बानो बेगम की
गरिमायुक्त भूमिका निभाई थी। कम ही लोग उसे पहचान पाए।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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