‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–84
शत्रुघ्न-रीना के रोमांस और
राजनीति की कहानी की आखिरी किस्त
इस क़िस्त के लिए शत्रु और रीना की कई फिल्मों में
से मैंने चुनी हैं दो परस्पर विरोधी...
पहली : मिलाप। कई कलाकारों के साथ कई सेमी न्यूड इंटीमेट सीन
वाली ‘ज़रूरत’
(1972) के कारण रीना ‘ज़रूरत
गर्ल’ कहलाई जाने लगी थी। ‘मिलाप’ में
ऐसा कुछ नहीँ था। वह नागिन कम थी, एक नाग की धरोहर ज़्यादा। यह नाग पूरी एक सदी से
उससे मिलाप का इंतज़ार कर रहा है। अब उनका मिलाप होगा। होगा क्या?
दूसरी: ‘विश्वनाथ’। ‘कालीचरण’ में शत्रु ख़ूंख़ार क़ैदी था। ‘विश्वनाथ’
में वह अपराधियों का काल है। ऐसा सरकारी वकील है जिसके पंजे से दुष्ट बच नहीँ
सकते। दुष्ट उसे ऐसा फंसाते हैं कि जेल की हवा खानी पड़ती है। इस में रीना मध्यम
वर्ग की कैबरे डांसर है और शत्रु को चाहती है।
‘मिलाप’
“कई सदियों से,
कई जन्मों से/ तेरे प्यार को तरसे मेरा
मन/ आ जा कि अधूरा है अपना मिलन”
-
वह दौड़ रहा है, बचने को भागता आ रहा
है। सड़क पर चमचमाते बल्ब पीछे छूट रहे हैं। बदहवास, थकता है, मुड़ मुड़ कर पीछे देखता
है। कभी पैर दिखते हैं, कभी सिर, कभी धड़। नामावली ख़त्म होने तक यही होता रहता
है। वाद्य संगीत अब शांत होता है।
काफ़ी रात है। किसी बड़ी हवेली का दरवाज़ा
खटखटाता है। चौकीदार रोकता है। उसे जज साहब से तत्काल मिलना है!
रुकता नहीं, भीतर चला जाता है। यह है रवि (शत्रुघ्न सिन्हा)।
शोर सुन कर जज साहब (मनमोहन कृष्ण) आते हैं - सुरक्षा के लिए हाथ में पिस्तौल, होंठों
में पाइप थामे। रवि टलने वाला नहीं है: “मैंने ख़ून किया है। पुलिस मुझे पकड़ने आती ही
होगी। पहले आप मेरी कहानी सुन लीजिए।” जज साहब रिकॉर्डर ले आते हैँ। रवि अनोखे
अविश्वसनीय से, जन्म जन्मांतर के और
नाग-नागिन के सदियों से चले आते अतृप्त प्रेम के बीच अपने फंस जाने का क़िस्सा
रिकार्ड कर रहा है...
यूं शुरू होती है इस जन्म से पिछले और फिर उससे
पिछले जन्म में जाकर कभी इस और कभी उस जन्म में डोलती भूलभुलैया जैसी फ़िल्म ‘मिलाप’।
अमीर मां बाप का इकलौता बिगड़े दिल बेटा शराब, ड्रग, नशा
पानी, भोग विलास सब कुछ कर चुका है। अपने से भागता
भटकता मैसूर के नंदी वनों और पर्वतों में शांति के लिए टिक गया है। एकाकी बासे का संचालक
अटपटा नौजवान संपेरा राजू (डैनी डैनजोंग्पा) जब चाहे जेब से निकाल कर नाग रवि के
लंबे चौड़े बिस्तर पर रख देता है।
कमरे की रखवाली करने वाली चंचल मस्त रानी (रीना
राय) चलती है तो नाचती सी, ठुमकती, हंसती, खिलखिलाती,
किलकिल करती। रवि देखता रह जाता है। समझ
नहीं पाता यह चीज़ है क्या! नारी है या छलावा?
रानी का अजीब सा आकर्षण रवि को खीँच रहा है। रानी
का बाप संपेरा है। बेटी की जन्मपत्री बनाने वाले जोगी ने कहा था कि उसकी मौत नाग
से होगी और जो भी उसे ब्याहेगा उसे नाग छोड़ेगा नहीं। रवि को ऐसे अंधविश्वासों में
विश्वास नहीं है।
एक दिन बात सांपों की चर्चा चल निकलती है। रवि के
कहने पर रानी उसे ले जाती है नाग दिखाने। रास्ते में रुकती है नाग मंदिर पर। सब से
अलग, सब से दूर। यहां वह हर दिन भविष्यवाणी के निवारण
की प्रार्थना करने आती है।
रानी के दीवाने राजू को रवि से उसकी नज़दीकी पसंद
नहीं है। जितना वह रवि को डराता है उतना ही रवि रीना की तरफ़ खिंचता है। एक बार
रानी ले गई दिखाने नागिन का नाच। रानी का बाप और राजू बारी बारी से बीन बजा रहे
हैं। भीड़ के बीच रखी बड़ी पिटारी का ढक्कन उठता है। नागिन नहीं, रानी धीरे धीरे
पूरी बाहर आ कर बलखाती नागिन जैसी नाच रही है।
हाथ में हाथ डाले रानी और रवि वनों में कहीँ भी
जाएं, तो बड़ा नाग आस-पास मंडराता रहता है। कभी नाग
धरती पर लोटता है, करवटें बदलता है, एंठता सिकुड़ता है, फिर
पूरा लंबा हो जाते हैँ। फन उठा कर खिड़की में से झांकता है, कमरों
में, पलंग पर लेटता है, पलंग के नीचे छिपता
है। राजू (डैनी) रानी से शादी करना चाहता है। बाप हिचकिचाता है, रानी
के पति के मर जाने की बात का ज़िक्र करता है। बेटी का रवि से बढ़ता मेलजोल उसे भी
पसंद नहीँ है। उस ने “हां” कर दी। रानी ने “ना” कर
दी। वह रवि से मिलना चाहती रहती है।
इस बीच सपना नाम की पत्रकार (सरिता) रवि से मिलने
आ धमकती है। वह स्थानीय परंपराओं और मान्याताओं में शोध कर रही है। कई तरह के
ताबीज़ तमग़े प्रतीक उस की शोभा बढ़ाते हैं। वह रानी का सच जानती है, रवि
को चेताना चाहती है। एक साधु बहुत बीमार था। सपना उसकी सेवा सुश्रूषा कर रही थी।
उसी साधु ने यह रहस्य उसे बताया था। बहुत बहुत पहले रानी पूर्व जन्म में रुक्मिणी
थी। उस का प्रेमी था राजू (शत्रुघ्न सिन्हा)। वनों में उनके मायावी विचरणों का
फ़िल्मांकन अलौकिक और मनमोहक है। वह गीत है ना ‘कई सदियों से कई
जन्मों से!’ दोनों एक दूसरे के लिए बेचैन बेक़रार हैं। किसी
पूर्व जन्म में जाति में ब्याह दी गई रुक्मिणी कहीं पर्वत के नीचे भटक रही है।
मिलाप को व्याकुल उस जन्म का राजू (शत्रु) कगार की तरफ़ बढ़ रहा है। फिसला और
विलीन हो गया! राजू का पुनर्जन्म नाग के रूप में हुआ था – एक
सदी पहले। कुछ ही दिनों में एक सदी पूरी हो जाएगी। इसी का उसे इंतज़ार है। अब
मिलाप न हुआ तो वे अनंत काल के लिए आवागमन के चक्रव्यूह में फंस जाएंगे। और मिलाप
हो भी गया तो वह शुभ नहीं होगा।
राजू (डैनी) रानी से शादी करना चाहता है। बाप
हिचकिचाता है, रानी के पति के मर जाने की बात का ज़िक्र किया।
लेकिन बेटी का रवि से बढ़ता मेलजोल उसे भी पसंद नहीँ है। उस ने “हां” कर
दी। रानी ने “ना” कर दी। वह रवि से मिलना चाहती रहती है।
अब तक रानी ‘पद्मिनी’ बन चुकी है। मतलब अब वह नाग के पाश में है। नाग
नागिन का मिलाप हुआ तो उस की आत्मा हमेशा भटकती रहेगी। पत्रकार राधा का कहना है कि
जब नाग मानव रूप में रानी (पद्मिनी) से मिलाप को आए तो रवि उसकी हत्या करके रानी
को बचा सकता है। तब वह और रानी सुखी जीवन बिता सकेंगे।
खुली छत पर एकांत में राधा कह रही है, सात दिन
बचे हैं। अभी से तैयारी करो। बीन बजाना सीखो। और भी विधिविधान करने होंगे। तभी रवि
और रानी का सुखी मिलाप हो पाएगा।
रानी ने संपेरे राजू से शादी से इनकार तो कर दिया, पर
वह मानने वाला कहां था? एक शाम मौक़ा पा कर वह रानी से दुष्कर्म करने पर
आमादा हो गया। मानव रूपी संरक्षक फणधर कोबरा नाग ने दुष्कर्मी को मार डाला। अब नाग
ने रवि को बेहोश कर उस के शरीर में प्रवेश कर लिया। दोनों के रोमांस में रानी
मंत्रमुग्ध हो गई। वह जान ही नहीं पाई कि यह मानव रवि नहीं नाग है।
पत्रकार राधा का कहना है कि महीने की अंतिम रात
तक रवि को नाग के चंगुल से निकालना ही होगा। कई कायाप्रवेशों की अदला-बदली और बीन बजाई
के बाद आता है सस्पेंस। क्या मानव रवि रानी को बचा पाएगा नाग रवि से जो वास्तव में
पुराना प्रेमी राजू है। यह हो या वह हो, अंत भयानक ही होगा। ...भागता बचता रवि जज साहब
की हवेली में अपना बयान रिकॉर्ड करा रहा है।
-
विश्वनाथ
“जली को आग कहते हैं, बुझी को राख कहते हैं... जिस
राख से बारूद बने उसे विश्वनाथ कहते हैं।”
रात। काले कपड़े पहने कोई बदहवास सा हांफता सा
सीढ़ियां चढ़ रहा है। हमें उस की पीठ दिख रही है। एक के बाद एक कई मंज़िल चढ़ कर
वह चिरपरिचित दराज़ खोलता। शीशी में इंजेक्शन जैसी सूई घुसा कर द्रव निकालता है।
कोहनी के नीचे बांह में द्रव इंजेक्ट करता है। वह ड्रग ऐडिक्ट है। कहीँ से हाथापाई
की सी आवाजें आ रही हैं। और भी ऊपर जाता है।
ग्रिल के पार काली छाया–मर्द औरत को
पकड़ रहा है। मालिक का बेटा जिम्मी कुछ देर की कशमकश के बाद लड़की के साथ
ज़बरदस्ती में सफल होता है। स्कॉच का बड़ा नीट पैग बना कर पीता है। लड़की से कहता
है, “इसी तरह मुझे और मेरे
साथियों को ख़ुश करती रहा करो। तुम्हारी तनख़ा पांच सौ रुपए महीना बढ़ाई जाएगी।” इतने में वह ड्रग ऐडिक्ट लड़की पर हमला करता है। लड़की मर जाती है।
सुबह बाज़ार में अख़बार
बेचने वाले छोकरे आज की सनसनीख़ेज़ ख़बर सब को पढ़वाना चाह रहे हैं।
कचहरी के बाहर भीड़ लगी
है। रात में लड़की की हत्या का मामला पेश होने वाला है। लोग तरह तरह के अनुमान लगा
रहे हैँ। सब की ज़बान पर एक ही सवाल है: सरकारी वकील विश्वनाथ धनाढ्य उद्योगपति डीएनके के बेटे
को सज़ा दिलवा पाएगा या नहीँ? डीएनके (प्रेमनाथ) अपने लाव लश्कर के साथ विराजमान हो
गया है। अपराधी के कठघरे में खड़ा है उसका बेटा जिम्मी (सुधीर)। कानों में एकल
हीरे के टॉप्स लगाए पान की गिलौरी चबाता डीएनके पीछे देखता है। वहां बैठा है
सरकारी वकील विश्वनाथ (शत्रुघ्न सिन्हा) जो तिरछी आंखों से डीएनके को ताड़ रहा है।
जज सप्रू साहब के आदेश
पर बचाव पक्ष का वकील अपना बयान पेश करता है। बीच बीच में सरकारी वकील से प्रश्न
करने को कहा जाता है। वह कोई प्रश्न नहीं पूछता। भीतर के समाचार भीड़ तक पहुंच रहे
हैँ। सस्पेंस का आलम है। हार जीत पर दांव लगाए जा रहे हैं। कोई कहता है कि डीएनके
के बेटे को दंडित किया जाना असंभव है। सरकारी वकील कोई प्रश्न नहीं पूछता पर भीड़
को लगता है कि सचमुच जिम्मी बेदाग़ छूट जाएगा।
घटना वाली रात को जिम्मी
एक पार्टी में था – यह साबित करने के लिए वीडियो दिखाया जाता है। निराकार सा
विश्वनाथ ध्यान से देख रहा है। कुछ बोलता नहीँ। बाहर भीड़ निराश हो जाती है –
सचमुच, अब तो जिम्मी बेदाग़ छूट ही जाएगा। विश्वनाथ कहता है, “कोई ग़रीब होता तो उसे
वीडियो दिखाने की अनुमति मिलती ही नहीँ। मैं वह वीडियो फिर से देखना चाहता हूं। ”वीडियो एक स्थान पर रुकवाता
है, क्लोज़प करवाता है। यहां एक सूराग़ है। जिम्मी का झूठ पकड़ा जाता है।
अंततः जिम्मी को सज़ा
मिलती है। लोग ख़ुश हैं। ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ के नारे लग रहे हैं। डीएनके
का लावलश्कर हार नहीं मानता। वे लोग विश्वनाथ से बदला ले कर रहेंगे।
यह है ‘विश्वनाथ’
फ़िल्म की आधार भूमि। शहर में अनाचार, अनाचार के पीछे धनी उद्योग पति और उस से लोहा लेने वाला जन
जन का दुलारा दुष्ट दलनहार सरकारी वकील विश्वनाथ। दूसरी ओर है बड़ा उद्योगपति
डीएनके जो पब्लिक की निगाह में दयानिधान है, पर गुप्त रूप से शहर में होने वाले
अपराधों का सरग़ना है।
अब परदे पर आना शुरू
होती है नामावली...
शेष फ़िल्म डीएनके और विश्वनाथ के
एक दूसरे पर आक्रमणों और प्रत्याक्रमणों का रोचक मसाला है।
पहले हम मिलते हैं
विश्वनाथ की मां से और लंगड़ी बहन मुन्नी (रीता भादुड़ी) से और परिचित होते हैं उसके
लिए अच्छा लड़का मिलने की समस्या से। एक बहुत अच्छा रिश्ता तय हो जाता है। लड़के
का बाप बताता है कि उसे विश्वनाथ के बारे में पता चला गोलू गवाह (प्राण) से। गोलू
पेशेवर गवाह है, पैसे लेकर गवाह बनता है, लेकिन अच्छों बुरों को पहचानता है। खुले
दिल से अच्छों की मदद करता है। डीएनके को ख़बर मिलती है तो रिश्ता तुड़वा देता है।
विश्वनाथ और गोलू साथी बन जाते हैं। गोलू डीएनके की चाल का शिकार हो कर जेल पहुंचता
है।
अब शुरू होता है सोनी
(रीना राय) और विश्वनाथ का रोमांस। इस बीचडीएनके हमला करवा देता है विश्वनाथ के घर
पर। मां मारी गई। मुन्नी दरबदर हो गई। विश्वनाथ षड्यंत्र का शिकार हो कर पकड़ा गया
और तीन साल को जेल भेज दिया गया। उसे जेल में देख कर गोलू को विश्वास नहीं होता।
वह तमाम कैदियों को विश्वनाथ का समर्थक बना लेता है। यहां से फ़िल्म में गोलू
प्रमुख पात्र बन जाता है। सज़ा पूरी होने पर पहले गोलू रिहा हुआ. बाद में विश्वनाथ।
दोनों को डीएनके से बदला लेना है। क़ानून के ज़रिए नहीं, डीएनके के तरीक़ों से।
घटना चक्र का ब्योरा देना बेकार है। बस, इतना बताना काफ़ी है अंत के निकट विश्वनाथ
अंधा हो जाता है, फिर भी बड़ी कार निकालता है, दुर्घटनाओं से बचता दीवारें तोड़ता
दुश्मन के अभेद्य दुर्ग में स्वीमिंग पूल पर पहुंचता है। क्लाईमैक्स,
ऐंटीक्लाईमैक्स और फिर क्लाईमैक्स...
डीएनके की हत्या होने से
पल भर पहले पुलिस पहुंचती है, पर पुलिस की गोली से मारा जाता है। अदालत। वही जज
साहब। समाज को विश्वनाथ की सेवाएं देखते बेदाग़ क्षमा कर देते हैं!!!
यह हुआ न कुछ न्याय!!! नायक को नायिका मिल
जाती है। दर्शक और फ़िल्म निर्माता व प्रदर्शक – सब खुश!!!
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अरविंद कुमार |
संवाद ख़ास तौर पर शत्रु के बोलने को लिख गए हैं,
जैसे:“विश्वनाथ उस चीज़ का नाम है जो ग़रीबी और इंसानियत
से प्यार करता है... और आप जैसे राक्षसों पर वार करता है।”
“जली
को आग कहते हैं, बुझी को राख कहते हैं...जिस राख से बारूद बने उसे विश्वनाथ कहते
हैं। ”“अभी भी चार गोलियां
बाक़ी हैं... दो तेरे गंदे दिल को चीरने के लिए... और दो तेरी मक्कार खोपड़ी के
पार करने के लिए!” “अक़्लमंद अपनी अक़्ल से दौलतमंद बन सकता है... मगर दौलतमंद अपनी दौलत से अक़्लमंद
नहीं बन सकता।” “आपके महंगे सूट से इत्र
की ख़ुशबू आ रही है... मगर उस के अंदर छुपे आदमी से पैसे की बदबू आ रही है।”
इस तरह की फ़िल्मों का अपना अलग व्याकरण होता है।
‘कालीचरण’
की ही तरह ‘विश्वनाथ’ भी इस व्याकरण पर खरी उतरती है। दर्शक को
ओतप्रोत कर के और सोचने समझने का मौक़ा ही नहीं देती।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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