‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–85
दांपत्य में आस्था, अनास्था और निष्ठा, अनिष्ठा का चितेरा
यह कहानी है ‘समांतर सिनेमा’ के दो महारथी बासुओं में से
पहले भट्टाचार्य की। पहले तो बासु नाम के बारे में- यहां ‘बासु’ है ‘बासुदेव’ (‘वासुदेव’–‘वसुदेव’ का बेटा कृष्ण–‘बासुदेव’ यानी ‘वासुदेव’ का बांग्ला उच्चारण)।
दोनों बासु एक दूसरे से बिल्कुल अलग थे। दोनों का फ़िल्मी कैरियर शुरू हुआ ‘तीसरी क़सम’ से जिसमें पहले बासु का
सहायक था दूसरा बासु।
भट्टाचार्य का जन्म हुआ
कलकत्ते के पास कासिम बाज़ार के एक पुरोहित वंश में (सन् 1934)। कलकत्ते में
सत्यजित राय की ‘अपराजित’ (1956) क्या देखी, उसे फ़िल्मोनिया हो गया। अब वह बंबई में बिमल रॉय के
अनेक सहायकों में जूनियर था, तब वह शैलेंद्र की निगाह में आया। तब राज कपूर ने कहा
था, “इस बंदे को तो फ़िल्म बनाने का एबीसी तक नहीं
आता... बस, बातें बनाना आता है!” इस क़िस्त में हम
देखेंगे एक एक फ़िल्म से बासु की कला का विकास।
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बासु भट्टाचार्य |
बंबई के फ़ोर्ट क्षेत्र
में बासु का एक ठिकाना थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया कार्यालय की चौथी मंज़िल पर धर्मयुग और माधुरी पत्रिकाओं के संपादन
विभाग। बातें बहुत करता था, बड़ी बड़ी ऊंची ऊंची बातें करता था। हर सुनने वाला उससे
प्रभावित होता था, उसकी उन्नति की आकांक्षा करता था। वह रंगमंच पर भी सक्रिय था।
मंच प्रस्तुति पर सब संपादक, समीक्षक, नाट्य और फ़िल्म जगत की हस्तियां आती थीं।
शैलेंद्र ही नहीँ ढेरों लोग चाहते थे उसे आगे बढ़ता देखना, उसे फ़िल्म निर्देशन का
अवसर दिलवाना।
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उस की कहानी
एक थे मुग़नी अब्बासी।
1963 की उस्तादों के उस्ताद में कोई भूमिका भी की
थी। अपनी कुल जमा पूंजी थी पचास-साठ हज़ार रुपए। उनके लिए बासु बहुत कुछ था। बासु
ने उन्हें भरोसा दिला रखा था किफ़ायत से काम लो तो पचास-साठ हज़ार में फ़िल्म बन
सकती है। बासु के लिए मौक़ा बड़ी चीज़ था, जैसे किसी भी क्षेत्र के किसी
महत्त्वाकांक्षी को होता है। मुग़नी के लिए बासु को मौक़ा दिलाना बड़ी चीज़ था चाहे
मुग़नी की क़ीमत पर ही क्यों न हो। फ़िल्म उद्योग में क्रांति के लिए यह बेहद ज़रूरी
था। मुग़नी के कहे पर मुझे भी भरोसा था। तो उस की कहानी (1966) के निर्माता थे यही मुग़नी अब्बासी।
कहानी सीधी सादी थी।
नाकारा सा लड़का राजू (तरुण घोष) सब के काम कर के गुज़ारा कर रहा था। महल्ले में
नए नए प्रदीप और उस की बहन रेखा (अंजु महेंद्रु) क्या आए राजू का मानों कायाकल्प
हो गया। रेखा ने उसे कुछ कर दिखाने का प्रोत्साहन दिया तो वह मंच पर कॉमेडी करने
लगा और जगह जगह से बुलावे आने लगे। मन ही मन वह रेखा को चाहने लगा था। एक बार लंबे
दौरे से लौटा। रेखा की शादी की शादी हो रही है। उस की प्रेरणा, उस के मन की रानी,
रेखा ख़ुद कह रही है मेहमानों का मनोरंजन करने को। वह इनकार नहीं कर सकता। इस बड़ी
विडंबना, अग्निपरीक्षा क्या हो सकती है, पर वह खरा उतरता है।
बासु के तमाम प्रशंसक थे
पत्रकार जगत में। बासु या उस की यूनिट के लोग रोमांचक क़िस्से सुनाते। रात की
आउटडोर शूटिंग में मह्ल्ले वाले मुफ़्त बिजली दे रहे हैं। नाश्ता पानी भी करा देते
हैं। नायिका अंजु की मां फ़िल्म की यूनिट के यातायात का इंतज़ाम अपनी जेब से करती
थी। रात के दृश्यों का फ़िल्मांकन फ़ोटोग्राफ़र नंदू कारों की लाइट से करते थे।
संवाद और गीत कैफ़ी के थे। दो गीत थे जो गीता दत्त और हेमंत कुमार ने कनु राय के
निर्देशन में मुफ़्त में गाए थे। ऐसी तमाम बातें बॉलीवुड में दंतकथाओं की तरह
प्रचलित हो रही थीं। बासु चर्चित चेहरा बनता जा रहा था।
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अनुभव
अनुभव में संजीव और तनूजा
मुग़नी अब्बासी ने बासु
के लिए उस की कहानी बनाई तो अनुभव (1971) की शूटिंग के लिए नयिका तनुजा
ने बासु को अपना विशाल फ़्लैट ही सौंप दिया। मीता सेन (तनुजा) और सफल व्यापारी अमर
सेन (संजीव कुमार) के विवाह को कई साल हो गए हैं, पर कोई संतान नहीं है। अमर के घर
में बड़ी पार्टी की भीड़ में भटकता बच्चा रो रहा है। मीता उसे बैडरूम में सुला
देती है। वह संतान के लिए तरस रही है। उस की राय में कारण हैं -पति की व्यस्तता,
और नौकरचाकरों से भरे घर में एकांत न मिल पाना। पति को नज़दीक लाने के लिए बस एक
पुराने नौकर हरि (हंगल) को रख कर मीता बाक़ी सब को निकाल देती है। ख़ुद सारा
कामकाज संभालती है। दोनों नज़दीक आ ही जाते हैं। तभी आ टपकता है मीता का पुराना
चाहने वाला शशिभूषण (दिनेश ठाकुर)। यही नहीं उसे भी उसी कंपनी में काम मिल जाता है
जहां अमर काम करता है। बस, शादी खटाई में पड़ जाती है। अंत में सब ठीक हो जाता है!
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आविष्कार
मेरी राय में बासु की सब
से अच्छी रचना है आविष्कार (1973) कहानी है ‘घर अमर मानसी का’
के बनने और टूटने की
कगार तक पहुंचने की और फिर इस नाम की पृष्ठभूमि में दोनों के एक साथ होने के
यथार्थ या सपने की कहानी।
यह कहानी बयान करने के
लिए निर्देशक के पास हैं राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर जैसे सिद्धहस्त कलाकार। तभी
तो यह दिखाई गई है जहां तक हो सके क्लोज़प, बड़े क्लोज़प, बहुत बड़े क्लोज़प, बहुत
बड़े से भी बड़े क्लोज़प के सहारे। राजेश और शर्मीला ही ऐसे क्लोज़पों को झेल सकते
थे। शर्मीला के होंठों तक राजेश की आंख, और फिर राजेश की आंखों का और बड़ा क्लोज़प
हज़ारों नहीं लाखों शब्द एक साथ कह जाते हैं। जहां तक बहुत बड़े क्लोज़प, बहुत
बड़े से भी बड़े क्लोज़प की बात है, वे ‘आविष्कार’ में पात्रों के अभिनय को रेखांकित करते हैं, लेकिन बासु
की ‘गृहप्रवेश’ में निरर्थक फ़ॉर्मूला
बन जाते हैं।
मैंने आविष्कार सबसे पहले किसी
प्रीव्यू ऑडिटोरियम में देखी थी और दिल दिमाग़ पर छा गई थी। कहानी क्या थी बासु और
रिंकी के अपने रोमांस, ब्याह और मोहभंग और क्लेशोँ की कहानी थी। बंबई छोड़ कर आए
मुझे कई साल हो गए थे। कनॉट प्लेस में अचानक रिंकी से मुलाक़ात हुई। हम दोनों
रेस्तरां में बैठे बात करने लगे। दुखियारी रिंकी बता रही थी, कैसे बासु कैसे उस पर
दारुण इमोशनल अत्याचार करता है, शारीरिक कष्ट देता है और मारपीट करता है। मुझे ‘आविष्कार’ का वह सीन याद आया
जिसमें मानसी के गाल पर तमाचा जमाता है अमर। दांपत्य बोझ हो गया था। 1983 में दोनों अलग रहने लगे। 1990 तक पहुंचते पहुंचते
तलाक़ हो गया।
फ़िल्म में एक और सीन है: बिमल रॉय जैसे किसी
आदमी के सामने अमर बैठा है। यह मानसी का पिता है
जिसे बेटी रिंकी के लिए अमर पसंद नहीं है। बाद में हम देखते हैं कि
नवविवाहित अमर और मानसी टैक्सी में कहीं जा रहे हैं। वास्तविक जीवन में वे गए थे
सांताक्रुज़ पूर्व के एक फ़्लैट में जो शैलेंद्र ने उन्हें दिया था।
फ़िल्म शुरू होती है
विज्ञापनकर्मी राजेश के दफ़्तर से। वह अकेला है। घर जाने से कतरा रहा है। घर न जा
कर सहयोगी रीता के साथ सिनेमाघर चला जाता है। उनकी बातचीत का विषय है दांपत्य में
परस्पर निष्ठा का। (यह बासु का प्रिय विषय है।) आज अमर के विवाह की दूसरी वर्षगांठ
है। फ़िल्म देखते देखते अमर को याद आते हैं मानसी से रोमांस के दृश्य। उसे याद आती
है अपनी शादी की वर्षगांठ। फ़िल्म बीच में छोड़ फूलों का बुके लिए घर की ओर चलता
है। घर पर उदास मानसी अकेली थी। अमर का गहरा दोस्त सुनील विवाह की वर्षगांठ पर
बधाई देने फूलों का गुच्छा ले लाया था। पर यहां तो उत्सव जैसा कुछ है ही नहीं! मानसी ज़िद करती है वह
कुछ खाए पिए बग़ैर न जाए। जल्दी जल्दी मानसी कुछ बनाती है। मानसी और सुनील हंस हंस
कर बातें कर रहे हैं, दरवाज़े से ही अमर देखता है। बुके फेंक देता है, सिरदर्द का
बहाना कर बिस्तर पर लेट जाता है।
अनुभव में नायिका को संतान की
आकांक्षा थी, यहां अमर और मानसी के पास सुंदर सा बच्चा है। गृहप्रवेश में अमर का बेटा आठ साल
का है।
अनुभव में नायिका का पुराना
चाहने वाला शशिभूषण (दिनेश ठाकुर) था, तो यहां नायक का आत्मीय सुनील (दिनेश ठाकुर)
है और ‘गृहप्रवेश’ में अमर के जीवन में आई
सपना (सारिका) है। तीनों फिल्मों में किसी न किसी बहाने सवाल दांपत्य में परस्पर
निष्ठा का है। बासु की अंतिम फ़िल्म ‘आस्था:
इन द प्रिज़न ऑफ़ स्प्रिंग’ में भी यही सवाल है।
आविष्कार के लिए बासु की निगाह अनुभव वाले संजीव पर ही थी,
पर शर्मीला थी कि राजेश पर अड़ी थी। बासु की कल्पना से भी परे था कि इतने छोटे बजट
वाली फ़िल्म के लिए उसे राजेश जैसा महंगा कलाकार मिल जाएगा! राजेश को कहानी इतनी
पसंद आई कि उस ने नाम मात्र की फ़ीस पर काम करना स्वीकार कर लिया। और जो कुछ उस ने
कर दिखाया वह बासु की अपेक्षाओं से कई गुना ज़्यादा था। उस के लिए बासु और रिंकी
अच्छे मित्र बन गए। ‘आविष्कार’ में उस का अभिनय मन से निकला, स्वाभाविक सर्वोत्तम माना जाता है। इसी के
लिए उसे मिला तीसरा और अंतिम श्रेष्ठ अभिनेता अवार्ड।
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गृहप्रवेश
बंबई। छोटे से किराए के फ़्लैट
में बरसों से रहते हैं अमर (संजीव कुमार), मानसी (शर्मीला टैगोर) और बेटा बिट्टू
(बाबला)। दीवारों से पपड़ी उतर रही है। फ़र्नीचर गिरा पड़ा सा है। मानसी चाहती है
उस का अपना घर हो। अमर कहता है घर के लिए पैसे कहां हैँ। प्रोपर्टी एजेंट जो
दिखाता है, वह उनकी जेब से बाहर है। उनके जीवन में बासीपन घर कर चुका है। अमर कहता
है, “एक समय आएगा जब हम पास
होंगे, साथ नहीं।” सच तो यह है कि ऐसा समय आ ही गया है। वही दिनचर्या, वही रूटीन।
अमर के दफ़्तर की
दिनचर्या में नई टाइपिस्ट सुंदरी सपना (सारिका) हलचल पैदा कर रही है। वह समय से
पहले आती है तो पुरुष कर्मचारी भी जल्दी आने लगे हैं। उस की हर गतिविधि पर नज़र
रखते हैं। कंपनी का संचालक चाहता है कि खुले हाल के बजाए सपना को अलग केबिन में
बैठाया जाए। पर संचालक के अलावा एक ही और केबिन है – अकाउन्टेन्ट अमर का। अमर की
इच्छा के विरुद्ध सपना की मेज़ कुर्सी उस के केबिन लगा दी जाती है। सपना अनब्याही
है, एक सहेली के रूम शेअर करके रहती है। उस के लिए अमर एक चुनौती है। एक वही है
जिस ने उसे कभी नोटिस नहीँ किया। सपना के लिए वह चुनौती है। धीरे धीरे वह अमर को
आकर्षित करने में सफल हो जाती है।
प्रोपर्टी एजेंट को एक
फ़्लैट मिल गया है, जो ठीकठाक है, क़ीमत भी माकूल है।
रेस्तराओं के एकांत कक्ष
में अमर और सपना एक होने के सपने देख रहे हैं। पर अमर को मानसी को बताना होगा कि
अब वह उसे नहीं चाहता। एक दिन वह बता ही देता है। मानसी की बस एक ही शर्त है – ‘अमर एक शाम सपना को घर
ज़रूर लाए। मानसी और सपना को मिलवाए।’ अमर सकुचाता है। सपना को तैयार करने के लिए अपने घर की
अव्यवस्था और मानसी के साधारणता की बात करता है।
शाम को सपना आने वाली
है। मानसी का भविष्य दाँव पर है। वह घर का बासीपन दूर करने पर लगी है। पूरा घर
चमकवा देती है। पहली बार फ़ेशियल कराती है। अमर और सपना आते हैँ। घर वैसा नहीं है
जैसा अमर ने कहा था। मानसी भी वैसी नहीं है जैसी अमर ने कहा था। स्वयं अमर चकित
है। सपना की हालत भी वैसी है। मानसी और सपना बातें कर रही हैँ। सपना अपने को हारा
महसूस करती है। जाना चाहती है। मानसी ज़िद करती है कि अमर उसे छोड़ने जाए। सड़क पर
बारात निकल रही है। सड़क पार कर के सपना उस तरफ़ है। इधर से अमर बाई-बाई करता है,
उधर से सपना हाथ हिलाती है। ओझल हो जाती है। दोनों का सपना टूट गया है।
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आस्था: इन द प्रिज़न ऑफ़
स्प्रिंग (जेल में वसंत की क़ैद में: आस्था)
बासु की अंतिम फ़िल्म ‘आस्था:
इन द प्रिज़न औफ़ स्प्रिंग’ में हम अमर (ओम पुरी) और मानसी (रेखा) से अंतिम बार
मिलते हैं। प्रोफ़ेसर अमर का छोटा सा परिवार है और उस से भी छोटी है उनकी आय। एक
दिन हुआ यह कि स्कूल जाती बेटी का जूता टूट गया। दुकान में जो जूते पसंद आते हैं
वे महंगे हैं। वहीं एक और ग्राहक रीना (डेज़ी ईरानी) ने जूते क्या ख़रीदवाए सहेली
बन गई। यह रीना पेशे से मैडम है – यानी पैसों पर रईसों को लड़कियां दिलवाती है। एक
बार किसी होटल में कॉफ़ी पिलाने के बहाने मानसी को बुलवा कर मिस्टर दत्त (नवीन
निश्चल) से मिलवा दिया – निम्नवित्त महिला के लिए अतिरिक्त आय का नया साधन। मानसी
कहती है, मैं अपने को रोक नहीं पाई। महापाप की भावना से ग्रस्त अपने को बेहद ग़लीज़
और घिनौना महसूस करती है। पूरे कपड़े पहने देर तक नहाती रहती है। लेकिन जो पैसे
दत्त साहब से मिले थे, वे नहाने से पहले ब्लाउज़ में से निकाल कर संभाल कर रखना
नहीं भूलती। प्रोफ़ेसर साहब हैं कि अपनी फ़िलॉसफ़ी में मस्त हैं, छात्रों से
कबायली समाजों में प्रेम के अनेक रूपों पर डिबेट करते रहते हैं। मानसी रीना से
मिलने से कतराती रहती है। लेकिन रीना मानने वाली कहां है – अब वह घर आने औऱ मानसी
को बाहर ले जाती रहती है।
अब हुआ यह कि अमर के एक
छात्र ने होटल में रीना और मानसी की बातें सुन लीँ और प्रोफ़ेसर साहब के सामने
सवाल रख दिया कि ऐसा हो तो क्या पति को अपनी पत्नी को भूल जाना या स्वीकार कर लेना
चाहिए? अमर का उत्तर था,
रिश्ते भूलने या क्षमा करने पर निर्भर नहीं होते – यह समझने पर आधारित होते हैं कि
कर्म के पीछे भावना क्या है, नीयत क्या है।फ़िल्म जो सवाल उठाती है वह है,“ऐसी स्थिति में हम क्या
करते, क्या करें?”
अमर और मानसी वाली
फ़िल्मों में बासु दांपत्य में आस्था के, निष्ठा अनिष्ठा के, संबंधों की विविधता
के चितेरे के रूप में उभरते हैं। आस्था में पैसे के लिए, या किसी दबाव में आ कर सेक्स
मशीनी निर्जीव नहीं है, उस में सहभागी आनंदातिरेक
की चरम पराकाष्ठा तक पहुंचते हैं। मानसी कहती है, मुझे नहीं मालूम था कि अपने शरीर
से हम इतना कुछ कर सकते हैं... मेरा अपना शरीर कितना कुछ दे सकता है। सब कुछ महकने
लगा। साथ साथ पैदा हुआ एक पाप का अहसास।” यह वह कह रही है अमर के एक स्टूडेंट के सामने। फ़िल्म
में यौन उत्तेजना मात्र यौनांगों तक सीमित नहीं है। ओम पुरी के कान, पैरों की
उंगलियां, पैर, उंगलियां, चेहरा यहां तक कि नाक भी उत्तेजना का कारण बन जाते हैं।
आस्था पूरी होने पर 27 अगस्त 1997 को बासु का देहांत हो गया। वह नहीं देख
पाया कि आस्था उस की सब से ज़्यादा कमाऊ फ़िल्म सिद्ध हुई।
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अरविंद कुमार |
अंत में बासु
निर्देशित अठारह फ़िल्मों की सूची -
तीसरी क़सम (1966)
अनुभव (1971)
आविष्कार (1973)
डाकू (1975)
तुम्हारा
कल्लू (1975)
संगत (1976)
मधु मालती (1978)
गृहप्रवेश (1979)
मधुमान (1981)
अन्वेषण
(टीवी) (1985)
सोलर ऐनर्जी (1986)
साइंस इंडिया
(1986)
पंचवटी (1986)
एक सांस
ज़िंदगी (1991)
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
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संपादक - पिक्चर प्लस)
आविष्कार , हिंदी सिनेमा की उपलब्धि है। ..
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