‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–88
मुंशी प्रेमचंद ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की शुरुआत इस तरह की थी:
“वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे बड़े,
अमीर गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई
नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफ़ीम की पीनक ही के
मज़े लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद प्रमोद का
प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य
क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला
कौशल में, उद्योग धन्धों में, आहार विहार
में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। कर्मचारी विषय वासना
में, कवि गण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यावसायी सुरा
में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था। सभी
की आंखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को ख़बर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली
बदी जा रही है। कहीं चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक
तक इसी धुन में मस्त थे। यहां तक कि फ़कीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियां न लेकर अफ़ीम
खाते या मदक पीते। शतरंज, ताश, गंजीफा
खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता
है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील ज़ोर के साथ पेश की जाती थी। (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब
भी ख़ाली नही है।) इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय
बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील
पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी
जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियां
करते। आख़िर और करते ही क्या?”
सत्यजित
राय की फ़िल्म शुरू होती है सफ़ेद और लाल रंग के मोहरों के क्लोज़प से। सजावटी
कपड़े पहने एक हाथ आता है लाल रंग का प्यादा आगे बढ़ाता है। दूसरी तरफ़ से वैसा ही
एक हाथ आता है सफ़ेद ऊंट (तब की भाषा में ‘रुख़’) उठाता है और बढ़े प्यादे को
काट गिराता है। परदे पर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म की नामावली शुरू होती
है। पृष्ठभूमि में कमेंटटेर (अमिताभ बच्चन) इस तरह का कुछ कह रहा है: “इन बहादुर सिपहसालारों के हौसले देखिए. मैदाने जंग में
लड़ें या न लड़ें चौकोर मैदाने जंग में...चारों तरफ़ ख़ून की नदियां बह रही हैं.
सल्तनतें बदली जाएंगी मगर इनकी जंग में न ही किसी सल्तनत का पासा पलटा जाएगा, न
ख़ून बहेगा...”
नामावली
समाप्त होती है। परदे पर हम देखते हैं:-
हुक्के
का एक और क़श लेकर मिर्ज़ा सज्जाद अली (संजीव कुमार) ने विरोधी खिलाड़ी मीर रौशन
अली (सईद ज़ाफ़री) की तरफ़ नवाबी अदा में चुनौती फेंकी – ‘शह! मीर साहब, बादशाह संभालिए। बादशाह गया, खेल ख़त्म!’ मीर साहब ने नसवार ली और इधर मिर्ज़ा
ने हुक्का ठंडा पाया और ख़ादिम को पुकारा....
अमिताभ की आवाज़ हमें दोनों की दोस्ती और उन के कुछ काम न
करने की सुविधा से परिचित कराती हुई अवध के नवाब वाजिद अली शाह (अमजद ख़ान) की
राजधानी लखनऊ में लोगों के पतंगबाज़ी और मुर्ग़बाज़ी के शौक़ दिखाते दिखाते ख़ुद
नवाब साहब को सुंदरियों के नाचते और शाम को नाज़नीनों के साथ दिखाने ले जाती है। सरकारी
कामकाज उन्हें पसंद नहीँ है लेकिन अपना ताज़ बहुत पसंद है। यहां तक कि एक बार लंदन
की नुमाइश में वह दिखाया भी गया था। वहां उस में जड़े शीर्ष रत्न को ‘चैरी’ नाम का फल कहा गया था।
जल्द ही हम मिलते हैं लार्ड डलहौज़ी से। उनका पूरा नाम है
जेम्स ब्रौन रैमसे, फ़र्स्ट मार्क्वीस आफ़ डलहौज़ी (James Broun-Ramsay, First
Marquess of Dalhousie)। आप हैं ईस्ट इंडिया कंपनी के आलातरीन अफ़सर - गवर्नर जनरल।
आप कंपनी बहादुर की सल्तनत की देखरेख राजधानी शहर कलकत्ता से करते हैँ। फ़िल्म
बताती है ‘चैरी’ नाम का फल उन्हें बहुत पसंद है। भारत में चैरी से उनका मतलब
है पंजाब, बर्मा, नागपुर, सातारा और झांसी जैसे क्षेत्र जो कंपनी अब तक हड़प चुकी
है।
अब उनकी नज़र नवाब वाजिद अली की सल्तनत अवध नाम की ‘चैरी’ पर है। और हो भी क्यों नहीं! नवाब वाजिद अली अपना
दरबार तो कभी कभार लगाते हैँ, और मुंहलगे कारिंदों के भरोसे है सल्तनत का कारोबार।
स्वयं वहनाचरंग, गाने बजाने और शायरी में मस्त रहते हैं।
लार्ड डलहौज़ी की इच्छाओं और आज्ञाओं को पूरा करने का
हथियार है लखनऊ की रैज़िडेंसी (कंपनी बहादुर के दूतावास) का मुख्य अधिकारी जनरल विलियम स्लीमैन (अभिनेता रिचर्ड ऐटनबरो Richard Attenborough)। फ़िल्म में हम उससे
मिलते हैं, वह जानना चाहता है कि नवाब है क्या चीज़! अपने ए डी कां (aide de
camp) कैप्टेन वैस्टन (टौम आल्टर) से नवाब की शायरी के
बारे में दरयाफ़्त करता है, कोई कविता सुनना चाहता है। जो कुछ भी वैस्टन बताता है
उसकी समझ से परे है।
यही
नहीं पूरी फ़िल्म में अंगरेज़ इंग्लिश में बात करते हैं। अकसर ये संवाद बहुत लंबे
हो जाते हैं, और सामान्य हिंदी दर्शक की भी समझ से परे हो जाते हैं (काश, उनकी
पैरा-डबिंग की गई होती, तो फ़िल्म के कई
महत्वपूर्ण प्रसंग दर्शक समझ पाते और फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर भी सफल होती। भारत में
फ़िल्म के सफल न हो पाने का अफ़सोस निर्माता सुरेश जिंदल को रहा, पर उन का कहना है
कि विदेशों की कमाई से सारा घाटा पूरा हो गया था।)
फ़िल्म
दो स्तर पर चलती है। (एक) अवध राज्य के कंपनी बहादुर की सल्तनत में शामिल होने की
प्रक्रिया। (दो) दोनों जागीरदारों की शतरंज की ख़ब्त, दुनिया में क्या हो रहा है
इस से उनका अलगाव।
कभी
कभी खेल में झगड़ा भी हो जाता। मीर साहब अकसर मोहरों की जगह बदलने की कोशिश करते
थे। उस दिन मिर्ज़ा साहब बिफर उठे। “जिस मोहरे पर हाथ लगा दिया वही चलना होता है!”
झगड़ा बढ़ने से पहले अचानचक मुंशी नंदलाल (डैविड अब्राहम) आ धमके। शतरंज की बाज़ी
जमी देख कर वह नंदलाल उन्हें बताने लगे कि
गोरों की शतरंज के अजब तरीक़े – पैदल एक साथ दो ख़ाने आगे जा सकता है, उस में शाह
और वज़ीर की जगह शाह और बेगम होते हैं आदि। फिर मुंशी जी पूछ बैठे, “आप ने कुछ सुना?” तो दोनों मिर्ज़ा सज्जाद अली ने शान से फ़रमाया, “हम सुनते नहीँ, खेलते हैं!” और मीर रौशन अली ने ताईद की।
शतरंज
की चालों से बात आगे बढ़ा कर मुंशी जी ने बात आगे बढ़ाई, “सुना है कंपनी
बहादुर अवध पर कब्जा करने वाली है!” दोनों खिलाड़ी समाचार को गंभीरता से नहीँ लेते।
उनका अनुभव है जब भी कहीं लड़ाई होने वाली होती है तो लड़ाइयों के लिए दरकार होता है
पैसा। इस बार भी पैसा ले कर लौट जाएंगे। लड़ाई हुई भी तो... मिर्ज़ा सज्जाद दिखाने लगे दीवारों पर टंगे पुश्तैनी
हथियार – तलवारें, कटारें, तमंचे। बोले, “हमारे पड़बाबा के सामने बड़े से बड़े सूरमा घबराते थे। ज़रूरत पड़ेगी तो
हम भी पीछे हटने वाले नहीँ हैं!”
दोनों ने बात ख़त्म कर दी। पर इस बार मामला
संगीन था। कलकत्ता से चले थे आठ सैनिक – बड़ी तेज़ी से दिन रात एक करते। उन के पास
था लार्ड डलहौज़ी का आदेश – अवध को कंपनी की सल्तनत में
शामिल करने की प्रक्रिया शुरू की जाए। यह सब होगा जनरल विलियम स्लीमैन की देखरेख में।
एक दफ़ा की बात है। शाम से ही शतरंज जमी थी कि रात पड़े खिलाड़ी मिर्ज़ा सज्जाद अली की बेगम ख़ुरशीद (शबाना आज़मी)
शौहर को ज़नानख़ाने में बुलवाने में कामयाब हो ही गईं। बिस्तर गर्म था, मिर्ज़ा
साहब उस में घसीट लिए गए। बेगम ने उन्हें गर्म करने की बड़ी कोशिश की पर इस में वे
कामयाब नहीँ हो पाईं। झेंपते झेंपते मिर्ज़ा बोले, “हमारा मन बाहर खेल में लगा है। आप की वज़ह से हम
अधूरा खेल छोड़ कर आए! हम कल ही साबित करके दिखाएंगे!”
अगली सुबह। रैज़ीडैंसी में बरतानिया का परचम
लहरा रहा है। अवध के वज़ीरे आज़म (विक्टर बनर्जी) को रैज़ीडैंट ने तलब किया है और
रिआया पर ज़ुल्म करने का आरोप लगाया है। वह बार बार प्रतिवाद करता है कि हमारी
रिआया तो बहुत ख़ुश है। उसे वापस भेज दिया जाता है नवाब को आगाह करने के लिए।
-इधर मिर्ज़ा
साहब हैरान हैं, “किस कमबख़्त ने
हमारे मोहरे चुरा लिए!” खेलें तो कैसे खेलें।
याद आया बड़े बूढ़े वकील साहब के प्रवेश कक्ष
में ही शतरंज बिछी रहती है। बस क्या था, दोनों जा पहुंचे। ख़ादिम ने इस्तक़बाल
किया। दोनों जहां बैठे हैं वहीं शतरंज रखी है। “अब्बा जानी बेहोश
हैँ!” की ख़बर दे कर बेटा (आग़ा) भीतर चला गया उन की ख़ैर ख़बर लेने। मिर्ज़ा
साहब और मीर साहब को तो गर्ज़ शतरंज से थी। उसे ही देखते रहे। इस बीच ख़ादिम फिर
आया। सजी शतरंज मेज़ से उठा कर अलग रख दी और शरबत के गिलास रख गया। अब? नज़र वहीं टिकी
है। आग़ा आ कर ख़बर दे गया, “अब्बा जानी को होश आ गया है!” शर्माशर्मी दोनों
गए बूढ़े वकील साहब का दीदार करने। उन का मुंह खुला था, छाती पर मोतियों की माला
के मनकों से ध्यान लगा रहे थे। बेचारे दोनों बाहर प्रवेश कक्ष तक आए। एक मेज़ पर
शतरंज वहीँ रखी थी जहां ख़ादिम रख गया था। उसकी तरफ़ बढ़ ही रहे थे कि भीतर से
रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं। अब खेल कैसे हो सकता है। दौनों लौट आए।
उधर नवाब साहब के महल में बड़ी मासूम सी कत्थक
नर्तकी (शाश्वती सेन) ‘कान्हा मैं तोसे हारी’ गीत पर नाच रही
है। वज़ीरे आज़म रैज़ीडेंसी से लौट आया है। उसकी हिम्मत नहीं है नाच रंग रुकवाने
की। वह इंतज़ार करता रहा, इंतज़ार करता रहा। उस के चेहरे पर ग़म पुता है और
परेशानी भी है और दया भी है।
नाच ख़त्म हुआ। वज़ीरे आज़म की उड़ी रंगत देख
कर नवाब साहब चौंके। सब को विदा किया। वज़ीरे आज़म फूट फूट कर रोने लगा। नवाब साहब
ने पूछा –‘क्या बात है? यह क्या!” सारी बात सुन कर परेशान हो गए।
रिआया है कि बेख़बर है। मानों आने वाली जंग के
प्रतीक के तौर पर मेढ़ों की ख़ूंख़ार मुठभेड़ देख रही है, दांव लगा रही है।
तमीशबीनों में मिर्ज़ा और मीर भी हैँ – शायद वे वकील साहब के घर से लौट रहे हैं।
शहर में मुनादी हो रही है, “अफ़वाह उड़ाने वालों को गिरफ्तार कर लिया
जाएगा...”
मिर्ज़ा साहब के घर बेगम ख़ुरशीद हुक्का पी रही हैं। बाहर मरदानख़ाने में दोनों दोस्तों को
मिर्ज़ा के घर पर देखते हैँ। शतरंज की बिसात पर कांच की शीशियां और टमाटर आदि
तरकारियां रख कर मोहरों का काम ले कर शतरंज शुरू हो चुकी है। बड़ा पेचीदा मामला
है, भूल जाते हैं कौन सी तरकारी कौन सा मोहरा है।
भीतर बांदी बेगम को ख़बर करती है, नवाब साहब आ
गए। झींकती बेगम मोहरे बाहर फेंक देती है। शतरंज फिर से शुरू !
उधर नवाब साहब मुसाहबों की लानत मलामत कर रहे
हैँ। “हम ने रिश्तेदारों से ज़्यादाआप सब पर भरोसा किया…हकूमत की सारी जिम्मेदारियां
आप पर सौंपदीं!” साथ साथ गाना हो रहा है –‘कौन देस गयो सांवरिया!” नवाब साहब
रैज़ीडैंट को संदेश भेजते हैं, हमसे मुकाबला करना होगा। हुक्का पीता रैज़ीडैंट
संदेश सुनता है। उठता है, खिड़की से बाहर का नज़ारा निहारता है। अपने मातहतों को
आदेश देता है।
इस बार शतरंज की
बाज़ी लगने वाली है मीर साहब के घर – यानी वह अनहोनी होने वाली है जो अब तक नहीँ
हुई। यही सबब बन गया है मीर साहब की बेगम नफ़ीसा (फ़रीदा जलाल) का। वह और मीर साहब
का भतीजा अक़ील (फ़ारूख़ शेख़) तरह तरह के खेल खेल रहे हैँ। मरदानख़ाने में शतरंज
चल रही है, पान की गिलौरियां गलाई जा रही हैं, इधर मीर साहब की इज्जत मिट्टी में
मिलाई जा रही है। अचानक मीर साहब हैं कि जनानख़ाने में आ टपके। जल्दबाज़ी में बेगम
ने अक़ील को पलंग के नीचे छिपा दिया। वही तो है जो उन के तन और मन की प्यास बुझाता
है। छिपे अक़ील को देख कर मीर साहब ने सबब पूछा तो हाज़िर जवाब नफ़ीसा ने बत साफ़
की। लड़ाई के इमकान में नौजवानों की फ़ौज़ में जबरन भरती की जा रही है, उसी से
बचने बेचारा अक़ील यहां आ छिपा है। भोलेभाले मीर साहब ने सफ़ाई पर भरोसा कर लिया,
पर मिर्ज़ा साहब को माजरा ताड़ने में देर न लगी। खिलखिला उठे, पर चुप रहना ही
बेहतर समझा।
सोच समझ कर नवाब साहब ने अपनी फौज की बुरी हालत
पहचान कर मुआवजा ले कर रैज़ीडैंट का हुक्म मान लेना ही बेहतर समझा। कंपनी बहादुर
से मुक़ाबला करना उन के लिए मुमकिन नहीं था। लेकिन उनकी मां (अभिनेत्री वीना)
चुपचाप अनाचार सहने को तैयार नहीँ थीं। उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया, “महारानी
विक्टोरिया के घटिया नौकर अन्याय कर रहे हैं। लाट साहब से कह दीजिए हमें मुआवजा
नहीं चाहिए, हमे इंसाफ़ चाहिए!”
अगली सुबह आठ बजे तक की मोहलत थी। नवाब साहब
अपनी प्यारी लखनऊ नगरी छोड़ चले। दूसरी तरफ़ मुसीबत से बचने के लिए मिर्ज़ा साहब
और मीर साहब ने भी लखनऊ नगरी से कहीँ दूर एकांत में शतरंज की बाज़ी लगाना बेहतर
समझा। मीर साहब ने यक़ीन दिलाया कुछ दूरी पर मस्जिद में आराम से खेला जा सकता है।
दूर दूर तक किसी मस्जिद का नामो निशान नहीँ मिल रहा था। मीर साहब को अपनी ग़लती का
अहसास हुआ, बोले,“मियां, वह तो कानपुर के बाहर थी!” जो भी हो उजाड़ में एक लड़का मिला जिसने उनके
बैठने और खेलने का इंतजाम कर दिया। वक़्त पर खाना लाने का वादा कर दिया।
दूर ऊंची जगह पर कंपनी की फ़ौज़ आ रही है - पूरे
लवाज़मात के साथ।
इधर दोनों दोस्त शतरंज खेल रहे हैँ। हमेशा की
तरह छोटी मोटी बात पर झगड़ा शुरू हो जाता है। मिर्ज़ा ने मीर की बीवी पर लांछन लगा
दिया। मीर साहब भड़क उठे, तमंचे से गोली मार दी मिर्ज़ा को, पर कुछ ज़्यादा
नुक़सान नहीं कर पाई। अंगरेज फौज ने अवध पर क़ब्जा कर लिया। दोनों एक दूसरे से
कहते हैं, “हम शहर में रह कर भी क्या कर लेते?” दोनों को अहसास
है कि उन्होंने अपना मुंह काला कर लिया है। काला मुंह लेकर लखनऊ कैसे जाएंगे।
दूसरा कहता है, रात के अंधेरे में जाएंगे।
कहीँ से आवाज़ उठती है, “मलिका विक्टोरिया
तशरीफ़ ला रही हैं!”
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अरविंद कुमार |
‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म
हमें कभी नवाब साहब के शौक़ों, तो कभी मिर्ज़ा
सज्जाद अली और मीर रौशन अली के खेल में खोयापन और उनकी घर गिरस्ती दिखाती आगे
बढ़ती है। एक तरफ़ निष्क्रिय नवाबी हुकूमत की और रईस जागीरदारों में मिर्ज़ा
सज्जाद अली जैसों की नामर्दगी या मीर रौशन अली की बेगम की उनके भतीजे से
यौनेच्छाओं की पूर्ति दर्शा कर तत्कालीन खोखले समाज की तस्वीर पेश करने में तो
दूसरी तरफ़ लोभी विदेशी सौदागरों की लोभी सक्रियता दिखा कर अवश्यंभावी त्रासदी की
ज़मीन तैयार में सत्यजित राय पूरी तरह सफल होते हैं।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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