‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–89
सुचित्रा देखकर मनोज कुमार ने कहा था –
इतनी हाई क्वालिटी मैगज़ीन के कवर तक पहुंचने के लिए
मुझे अभी न जाने कितनी मंजिलें पार करनी होंगी
हरिकिशन गिरि गोस्वामी का जन्म अविभाजित भारत के नॉर्थ-वेस्ट
फ़्रंटियर प्रॉविंस (सीमांत प्रदेश, संक्षेप में फ़्रंटियर) के ऐबटाबाद में सन्
1937 की 24 जुलाई को हुआ था। वह दस साल का था तो विभाजन की विभीषिका के दौर में
परिवार पंजाब के शेख़ुपुरा जिले के जंढ्याला शेर ख़ां से बचकर तो दिल्ली के
किंग्सवे कैंप के विजयनगर में शरणार्थियों (पुरुषार्थियों) की बस्ती में रहा और
बाद में करोलबाग़ से पूसा रोड के परे ओल्ड राजिंदर नगर में आ बसा था।
इस हरिकिशन गोस्वामी को फ़िल्मों का बहुत शौक़ था। उसके पसंदीदा
कलाकार थे दिलीप कुमार, अशोक कुमार और कामिनी कौशल। फ़िल्मिस्तान निर्मित 1949 की
फ़िल्म शबनम उसने बार बार देखी। दिलीप कुमार और कामिनी कौशल के साथ अन्य कलाकार थे
जीवन और श्यामा। शचिन देव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध दसों गीत तुम्हारे लिए हुए बदनाम,
तू महल में रहने वाली, क़िस्मत में बिछड़ना था, इक बार तू बन जा मेरा, परदेसी, क़दर मेरी ना जानी छोड़ के जाने वाले, प्यार
में तुमने धोखा सीखा, मेरा दिल तड़पा के कहां चला, दुनिया रूप की चोर बचा ले, मेरे बाबू, हम किस को सुनाएं हाल, देखो आई पहली
मोहब्बत की रात - हर किसी की ज़बान पर चढ़े थे। लड़के लड़कियां गा-गा कर एक दूसरे
को दिल का हाल जता रहे थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार का नाम था मनोज कुमार। वह अपने
आप को मनोज कुमार समझने लगा। फ़िल्मों में आया तो यही उसने इसे ही अपना नाम बना
लिया।
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शहीद के प्रीमियर के वक्त पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, मनोज कुमार व फिल्म की टीम |
यह मनोज बंबई के फ़िल्म वालों मेरे सबसे क़रीबियों में था। तब
तक वह भारत कुमार नहीँ बना था। उससे दूर का नाता दिल्ली से ही था। मैं करोलबाग़ के
देवनगर में रहता था और वह रहता था राजिंदर नगर में। अकसर इधर उधर दिख जाता था।
करोल बाग़ में कांग्रेस की लोकप्रिय नेता थीं सविता बहन। अपनी 15 साल की उमर से ही
मैं उन्हें जानता था। हमारी तीन चार दोस्तों की टोली जब चाहे आर्य समाज मंदिर के
पास उनके पहली मंज़िल वाले घर में जा धमकती थी। मेरे बंबई आ जाने के बाद में वे
सांसद भी बनीं थीँ। उनकी बेटी थी शशि। बाद में वह मनोज की पत्नी बनी।
जनवरी 1964 के अंतिम सप्ताह में सुचित्रा के प्रकाशन पर मैंने संपादन
मंडल के चारों सदस्यों को पत्रिका की प्रतियां लेकर पूरे फ़िल्म जगत में बांटने के
लिए भेज दिया। उद्देश्य था उस पत्रिका के दर्शन कराना जिसका सब को बेताबी से
इंतज़ार था। विनोद तिवारी नए नए ट्रेनी थे। मनोज कुमार की प्रतिक्रिया उन्होंने इस
प्रकार लिखी है- “मनोज कुमार उन दिनों `नया हीरो' माने जाते थे। सफलता की सी़ढ़ियां तेज़ी से चढ़ रहे थे। खार में रहते थे
एक फ़्लैट में। जुहू में बंगले का प्लॉट ले चुके थे जहां काम शुरू हो चला था। उसी सिलसिले
में आर्किटेक्ट के साथ उलझे थे। सुचित्रा देखी तो जैसे खिल उठे। पढ़ने लिखने के शौक़ीन
थे। कुछ चिढ़ाने के अंदाज़ में पत्नी को आवाज़ दी,`शशि,देखो,‘सुचित्रा’ कितनी सुंदर है!' शशि शायद किचन में थीं। चौंक कर बाहर
आईं। पति पत्नी ने पत्रिका खूब सराही। मैं चलने को हुआ तो मीना जी वाले कवर को निहारते
हुए बोले, `इतनी हाई क्वालिटी मैगज़ीन के कवर तक पहुंचने के लिए
मुझे अभी न जाने कितनी मंजिलें पार करनी होंगी!' सुचित्रा,
माधुरी हो गई और मनोज कुमार ने विभिन्न सफलताओं के साथ यह मंजिल अनेक
बार पार की।”
-राज खोसला ने साधना को लेकर तीन बेजोड़ रहस्य फ़िल्में
बनाईं – मनोज के साथ - वह कौन थी (1964), सुनील दत्त के साथ - मेरा साया (1967) और मनोज कुमार के
साथ -अनीता। वह कौन थी की डबल रोल में सफ़ेद साड़ी में लिपटी साधना को फ़िल्मफ़ेअर
की श्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए नामांकित किया गया था। और मदन मोहन के संगीत वाले नैना
बरसे रिमझिम पिया तोरे आवन की आस और लग जा गले के फिर ये हसीं रात हो न हो शायद
फिर इस जन्म में मुलाक़ात हो न हो में फ़िल्मांकित होने और उनमें यादगार अभिनय
करने का सौभाग्य मिला था। ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है - मेरा साया के बारे में,
जिसका गीत था तू जहा जहा चलेगा मेरा साथ होगा। वह कौन थी में गीत था नैना बरसे तो मेरा
साया की साधना के नैनों में बदरा छाये थे।
-आइडियाज़ मैन मनोज - सूझ
बूझ वाला मनोज कुमार
राज कपूर की सन् 1970 वाली फ़िल्म कई साल से बनती आ रही थी। उसके
पहले खंड में मनोज कुमार नायक था – अध्यापिका सिमी ग्रेवाल का पति। किशोर वयस्क
छात्र जोकर (ऋषि कपूर) अपनी अध्यापिका का दीवाना हो जाता है। इस खंड के निर्वाह
में कई अड़चनें आ रही थीँ। बार बार राज कपूर अटक जाते थे। तब काम आता था मनोज
कुमार और उससे सलाह मश्विरा। पूरे फ़िल्म उद्योग में बात गरम थी कि मनोज राज कपूर के
सलाहकार हैं।
-इसके लगभग पचास साल बाद अमिताभ की ‘डॉन’ का एक क़िस्सा गीतकार समीर ने बयान किया है। फ़िल्म तैयार थी।
कहीँ कुछ कमी खटक रही थी। लगता था कि फ़िल्म भारी हो रही है। कुछ और चाहिए। तब
मनोज को दिखाई गई। मनोज के दिमाग़ में आया अपनी फ़िल्म ‘बनारसी ठग’ का एक गीत जो उस में लग नहीं पाया था। गीतकार थे समीर के पिता
अनजान। गीत था - खइके पान बनारस वाला। वहां यह ऐसा चस्पां हुआ कि उसके बग़ैर ‘डॉन’ की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
-
एक बार की बात है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सहायक संपादक के.सी.
खन्ना और दिल्ली जाना था। हम दोनों ने फ़र्स्ट क्लास में कूपे बुक कराया। खाते
पीते सफ़र मज़े में चल रहा था। किसी काम से के.सी. बाहर गए तो देखा पास के कूपे से
मनोज कुमार निकल रहा है। मुझे बताया तो मैं मनोज के कूपे में जा धमका। फिर वह भी
हमारे कूपे में आ गया। उसने बताया कि हवाई जहाज़ से सफ़र उसे पसंद नहीं है। बाद
में बंबई में पता चला कि उसे हवाई सफ़र में डर लगता है।
अभिनेता के रूप में मनोज की पहली फ़िल्म थी 1957 की – फ़ैशन,
जो चली ही नहीँ। करोलबाग़ में उसका नाम गूंजा ऐच.ऐस. रवेल की कांच की गुड़िया से
तो हमारे मन में जमा 1962 की विजय भट निर्मित-निर्देशित हरियाली और रास्ता (नायिका
माला सिन्हा) से जो उस की पहली हिट फ़िल्म साबित हुई। राज खोसला की 1964 की - वोह
कौन थी, ने उसे लोकप्रिय बना दिया। इस पृष्ठभूमि में हम अगर सुचित्रा की पहली
प्रति देखकर उस का यह कहना `इतनी हाई क्वालिटी मैगज़ीन के कवर तक पहुंचने के लिए मुझे अभी न जाने कितनी
मंजिलें पार करनी होंगी! देखें तो स्पष्ट हो जाता है मनोज का यथार्थवादी दृष्टिकोण। यही
स्वस्थ दृष्टिकोण उसे तब तक आगे बढ़ाता रहा जब तक वह अपनी इमेज का ग़ुलाम नहीं हो
गया – यानी भारत कुमार जिसके लिए देशभक्ति फ़ॉरमूला बन गई। यहां हम राज कपूर का
उदाहरण ले सकते हैं जो आवारा और श्री चार सौ बीस से बंधा नहीँ रहा।
वोह कौन थी में राज खोसला ने जिस तरह साधना को दिखाया था, उस
का बार बार दिखना और अदृश्य हो जाना, मनोज का उसकी तलाश में भटकना – वह दर्शकों के
लिए अबूझ पहेली बन गया था। 1966 की दो बदन का आइडिया स्वयं आइडियाज़ मैन मनोज ने
दिया था। उसने राज खोसला को दिखाई नीतिन बोस की 1951 की दीदार जो तब सिनेमाघरों
में फिर से चल रही थी। कलाकार थे अशोक कुमार, दिलीप कुमार, नरगिस और निम्मी। इसी
से दिलीप कुमार ट्रैजेडी किंग बने थे। उसी के आधार पर, या प्रेरणा से, दो बदन की कहानी अस्सरे नौ लिखी जी. आर. कामथ ने।
कलाकार थे मनोज कुमार, आशा पारेख, सिमी ग्रेवाल और प्राण। पिता की मृत्यु के कारण
निर्धन विकास (मनोज कुमार) परीक्षा पूरी नहीं कर पाया। वह और आशा (आशा पारेख) एक
दूसरे को चाहते हैं। विकास की दुर्दशा देख कर आशा ने अपने पिता की कंपनी में नौकरी
दिलवा दी। पिता आशा की शादी अश्विनी (प्राण) से करवाना चाहते थे। अश्विनी की कुटिल
चाल से विकास अंधा हो गया। अब वह आशा से दूर ही रहता है। अश्विनी ने आशा से कह
दिया कि विकास मर गया है। दोनों की शादी हो गई। उधर विकास ने डॉक्टर अंजलि (सिमी
ग्रेवाल) से शादी कर ली। सवाल यह है कि क्या ये दोनों दंपति ख़ुश रह पाएंगे। राज
खोसला के कुशल निर्देशन, मनोज और आशा के उत्कृष्ट अभिनय, गीतकार शक़ील बदायूनी और
रवि के संगीत के कारण फ़िल्म सुपरहिट बनी।
-इस बीच 1965 में केवल कश्यप निर्मित और ऐस. राम शर्मा
निर्देशित शहीद आ चुकी थी, जिससे मनोज के कैरियर में दिशा परिवर्तक मोड़ आ गया। शहीद
में मनोज ने भगत सिंह की भूमिका अदा की थी। इसी के निर्माण के दौरान मेरा उससे बार
बार मिलना होता था। मनोज के साथ थे कामिनी कौशल, प्राण, इफ़्तेख़ार, निरूपा राय,
प्रेम चोपड़ा, मदन पुरी और अनवर हुसैन। संगीत प्रेम धवन का था और स्वतंत्रता
सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल की कई कविताएं थीं। अपने समय में शहीद को अनेक अवॉर्ड
मिले और 15 अगस्त 2016 को स्वतंत्रता दिवस के 17वीं जयंती पर आयोजित फ़िल्मोत्सव
में इसका प्रदर्शन किया गया।
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अरविंद कुमार को एक शॉट का एंगल दिखाते मनोज कुमार |
-उपकार
मनोज ने कहा है, “मैं अपनी हर फ़िल्म के निर्माण में पूरी
दिलचस्पी से काम करता हूं। शहीद के निर्देशन से जो कुछ सीखा उसी के बल पर मैंने अपनी पहली
फ़िल्म उपकार के निर्माण और निर्देशन का साहस किया। शास्त्री जी का नारा था जय
किसान जय जवान। मुझे दोनों को एक ही पात्र में ढालना था। शुरू में मैं उन्नत किसान
हूं, जंग होती है तो सेना में भर्ती हो कर जवान बन जाता हूं।”
मेरी (अरविंद कुमार) की राय में यह मनोज का
सर्वोत्तम फ़िल्म है। इस पर मैं एक स्वतंत्र क़िस्त लिखूंगा जो आप अगले भाग में
पढ़ेंगे। अतः अब मैं मनोज की कुछ अन्य उल्लेखनीय फ़िल्मों की तरफ़ ले चलता हूं।
-उपकार के बाद
देशभक्ति के नाम पर मनोज ने बनाई पूरब और पश्चिम (1070)। कहानी कुछ इस तरह थी।
1942 में हरनाम (प्राण) ने एक देशभक्त को धोखा दिया। हरनाम को इनाम मिला पर आंदोलनकारी
मारा गया। बची उसकी पत्नी गंगा (कामिनी कौशल)। 1947 में आज़ादी आई, निर्धन बेसहारा
गंगा का बेटा भारत (मनोज कुमार – कोई और हो ही कैसे सकता था!) मेहनत करके पढ़ा है और उच्चतर शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाता है। वहां
मिलता है शहीद पिता का दोस्त शर्मा (मदन पुरी)। पश्चिमी रंग में रंगी उसकी पत्नी हैरीटा
(शम्मी), बेटी है प्रीति (सायरा बानो) और बेटा है हिप्पी शंकर (राजेंद्र नाथ)। पिंगल
केशी (ब्लौंड) और मिनी कपड़े पहनने वाली प्रीति खुलेआम पीती है और धूम्रपान करती
है। वह भारतीय संस्कृति और जीवन से अनभिज्ञ है। उसे मिलता है भारत। भारत हैरान है
उसके देशवासी पूरी तरह विलायती रंग में रंग गए हैँ। उनके नाम भी विलायती जैसे लगते
हैं। दूसरी तरफ़ वे हैं जो अभी तक अपने देश को याद करते हैं, पर आर्थिक कारणों से
वहां रहते हैँ। ये लोग शर्मा की तरह सहगल के गीत सुनते हैं। जो भी हो भारत और
प्रीति एक दूसरे को चाहने लगते हैं। प्रीति को भारतीयता अच्छी लगने लगती है। बेमन
से भारत आती है तो देश की पावन धरती उसे अच्छी लगने लगती है, तमाम ऐब छोड़ कर
भारतीय नारी बन जाती है।
मेरी राय
फ़िल्म ऊपरी ऊपरी या कहें तो उथली लगती है। सच तो यह है कि यह कहानी गांव और
पश्चिमीकृत शहरों की पृष्ठभूमि में भी कही जा सकती थी। सांस्कृतिक टकराव यहां भी
वैसे ही हैँ।
-1972 की सोहनलाल कंवर की बेईमान
फ़िल्म में नायक श्याम (मनोज कुमार) को शादी की रात अनेक झूठे आरोपों में फंसा
दिया गया। मारकाट, धोखाघड़ी से भरपूर फ़िल्म अनेक विवादों मॆं फँस गई थी, विशेषकर
फ़िल्मफ़ेअर अवॉर्डों में घपले के आरोपों को लेकर। शायद आप को याद हो ‘भाग 65 “गुलाब
की पंखड़ी” ऋषि कपूर 13 जनवरी 2019’ में मैंने लिखा था [बंबई के जूहू होटल मेँ ‘बेईमान’ (1972) की आर्थिक सफलता पर निर्माता सोहनलाल कंवर ने बड़े पैमाने पर शराब
से लबरेज़ डिनर आयोजित किया - अपने चार्टर्ड अकाउनटैंट को धन्यवाद देने के लिए।
लगभग दस बजे होँगे। पार्टी पूरे जोश मेँ थी। क़हक़हे गूंज रहे थे। दौर पर दौर चल
रहे थे। मस्ती का आलम था। कोई एक घंटे बाद राज कपूर आए। पहली नज़र मुझ पर पड़ी। हम
दोनों इधर उधर की बातेँ करने लगे। फिर राज कपूर इधर उधर औरोँ से बातेँ करने लगे।
सोहनलाल के पास गए, नाराज़ से लौट आए। मन कड़वाहट से भरा था।
सोहनलाल को बुरा भला कहने लगे। “‘जोकर’ क्या फ़ेल हो गई मुझे चीफ़ गैस्ट से मिलवाने
तक के क़ाबिल नहीँ समझा!” राज ने
कुछ ज़्यादा ही पी ली थी। अब नशे में राज मुझ से गलबहियां डाले बाहर की ओर चलने
लगे। अधबीच संगमरमर की बेंच पर प्रेमनाथ पूरे मूड मेँ थे। राज का वही राग चल रहा
था। “लोग समझते हैं कि ‘जोकर’ पिट गई तो मैँ पिट गया…” अबधुन प्रेमनाथ ने पकड़ ली: “पापे,
फ़िकर न कर!‘ बॉबी’ आने दे! आर.के. की ईंट ईंट सोने की हो जाएगी!” प्रेमनाथ राज को ढारस बंधा रहा था।]
पार्टी के
अंत में राज कपूर ने मेरे गले में बाँहें डाले फ़िल्मफ़ेअर अवार्डों मॆ घपले के
गंभीर आरोप लगाए थे।
दूसरी तरफ़
अभिनेता प्राण नें टाइम्स संस्थान के सभी बोर्ड सदस्यों को निजी पत्र लिख कर कुछ
ऐसे ही आरोप लगाए थे। कंपनी में पूरी हलचल मच गई थी।
-शोर
(1972) की कहानी देशभक्ति से हट कर थी, पर पूरी तरह प्रभावी नहीं बन पाई। बेटे
दीपक की जान बचाते बचाते मां (नंदा) मर गई। बेटे की आवाज़ जाती रही। पिता शंकर
(मनोज कुमार) उसकी आवाज़ वापस लाने के ऑपरेशन के लिए जैसे तैसे करके पैसे जमा करता
है। दीपक की आवाज़ लौट आई। डॉक्टरों ने पिता से कहा, ‘कल मिलना बेटे से!’ शंकर कारख़ाने में काम में पूरा
ध्यान नहीं दे पा रहा। दुर्घटना में कानों की श्रवण शक्ति जाती रही। अब वह बेटे की
आवाज़ नहीं सुन सकता! फ़िल्म के कुछ गीत इक प्यार का नग़मा है, जीवन चलने का नाम, पानी
रे पानी तेरा रंग कैसा आज भी याद किए जाते हैं।
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दिल्ली के विज्ञान भवन में जब मनोज कुमार को दादा साहेब फाल्के सम्मान दिया गया |
-अब मनोज
ने बनाई रोटी कपड़ा और मकान (1974) इस की बड़ी कास्ट में मनोज के साथ थे ज़ीनत
अमान, शशि कपूर, और अमिताभ बच्चन। परिवार चलाने का भार भारत (मनोज कुमार) पर है।
दो छोटे भाई विजय (अमिताभ बच्चन) और दीपक (धीरज कुमार) कालिज जाते हैं, बहन शीतल
(मीना टी.) की शादी की उमर है। घर चलाने में मदद करने के लिए विजय अपराध जगत में
लिप्त हो जाता है और बड़े भाई भारत से कहा सुनी पर घर छोड़ देता है और सेना में भर्ती
हो जाता है। भारत बी.ए. पास है, पर आमदनी के लिए कुछ गा कर पैसे ला पाता है। उसे
चाहने वाली शीतल (ज़ीनत अमान) धनी व्यापारी मोहन बाबू (शशि कपूर) की सेक्रेटरी बन
जाती है। मोहन बाबू उसे चाहता है, वह भी धनदौलत देख कर फिसलने लगती है। भारत को
चाहती तो है पर उसके साथ निर्धन जीवन उसे ग़वारा नहीं है। भारत को बनते मकान में
काम मिल जाता है। पर आर्थिक समस्याएं कम नहीं होतीँ। शीतल ने मोहन बाबू से शादी कर
ली। भारत का दिल टूट गया। पिता की मृत्यु हो जाती है। निराश भारत ने अपना कॉलेज का
डिप्लोमा चिता में जला दिया। चंपा की शादी के लिए वर तो मिला पर पैसे नहीँ हैं। हर
तरफ़ से निराश भारत को प्रेम मिलता है मज़दूरनी तुलसी (मौसमी चटर्जी) से। मुझे इस
प्रकरण का एक रुचिहीन संवाद अब तक याद है। तुलसी के हाथ से तसला भर मिट्टी भारत पर
गिर जाती है। नाराज़ वह ऊपर देखता है। तुलसी कहती है, “बाबू, मेरी मिट्टी जब भी गिरेगी
तो तुझ पर गिरेगी!” सरदार हरनाम सिंह (प्रेमनाथ) तुलसी को गुंडों से बचाता है। भ्रष्टाचारी
व्यापारी नेकीराम (मदन पुरी) भारत को अपने धंधे में शामिल करना चाहता है। सवाल है-
क्या भारत यह स्वीकार करेगा? इस के लिए
उसे मिला श्रेष्ठ फ़िल्म निर्देशन का अवॉर्ड।
-मनोज
द्वारा निर्मित-निर्देशित सब से बड़ी और सफल फ़िल्म क्रांति (1981)। सन् 1825 से
1875 तक तीन क्रांतिकारियों की कहानी लिखी थी सलीम जावेद ने। एक से बढ़ कर एक बड़े
कलाकार थे – स्वयं मनोज कुमार, दिलीप कुमार, शशि कपूर, हेमा मालिनी, शत्रुघ्न
सिन्हा, परवीन बॉबी, सारिका, प्रेम चोपड़ा, मदन पुरी, पेंटल, प्रदीप कुमार...।
दिलीप कुमार तो पांच साल बाद इस में दिखाई दिए थे। गोरों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले
तीन वीरों की तीन कहानियां थीँ। सांगा (दिलीप कुमार), क्रांति नाम से जाने वाला
भारत (मनोज कुमार)। एक राज कुमार शशि कपूर। स्वतंत्रता सेनानी शत्रुघ्न
सिन्हा।
ईमानदार और स्वामीभक्त सेवक सांगा की निष्ठा रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह
के प्रति है। राजा ने अंगरेजों को व्यापार के लिए बंदरगाह के इस्तेमाल की अनुमति
दे रखी है। सांगा को टोह लगती है कि गोरे सोना और ज़ेवरात बाहर ले जाते हैं और
भीचर लाते हैं हथियार और गोला बारूद। यह ख़बर राजा साहब को देने जाता है, लेकिन
उनकी हत्या हो चुकी है। हत्या और देशद्रोह का आरोप लगता है सांगा पर। उसे मृत्यु
दंड मिलता है, लेकिन वह बच निकलता है। अब उसने क्रांतिकारियों का दल बनाना शुरू
किया जो बढ़ते बढ़ते कई सेनाएं बन गया। उन सब का एक ही लक्ष्य है स्वतंत्र भारत -
क्रांति।
क्रांति के
बाद की मनोज की सभी फ़िल्म फ़्लॉप होने लगीँ। 1995 की मैदाने जंग के बाद मनोज ने
अभिनय बंद कर दिया। 1999 में मनोज ने बेटे कुणाल को ले कर जय हिंद नाम की देश
भक्ति की फ़िल्म बनाई जो चल ही नहीं पाई। कई बार मैंने उन्हें टीवी पर ‘हनुमान चालीसा यंत्र’ बेचते देखा। बड़ी कोफ़्त हुई –
कहां वे दिन कहां ये !
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अरविंद कुमार |
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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