‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–91
यमला जट,
हलाकू, अब्राहम लिंकन, हिटलर...
‘सही क्या है और ग़लत क्या
है’ की बात करें तो प्राण नाम का बंदा हमेशा ‘सही’ के साथ अडिग खड़ा पाया गया। जो ‘ग़लत’ लगा उसके ख़िलाफ़तन कर खड़ा हो गया। इससे पहले
के भाग “आइडियाज़ मैन मनोज कुमार” में मैंने लिखा
था कि (‘पाकीज़ा’ के संगीत के लिए ग़ुलाम मोहम्मद के स्थान पर) मनोज की ‘बेईमान’ फ़िल्म को संगीत
का श्रेष्ठ फ़िल्मफ़ेअर अवॉर्ड मिलने पर “अभिनेता
प्राण ने टाइम्स संस्थान के सभी बोर्ड सदस्यों को निजी पत्र लिख कर कुछ ऐसे ही (चयन
में अनियमितताओं के)आरोप लगाए थे। कंपनी में पूरी हलचल मच गई थी।” इतना ही नहीं उसने ‘बेईमान’ सिपाही राम सिंह की भूमिका के लिए श्रेष्ठ चरित्र
अभिनेता का फ़िल्मफ़ेअर अवॉर्ड लेने से भी इनकार कर दिया था।
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हैंडसम प्राण : अपने समय के कई हीरो की सुंदरता और यौवन को पर्दे पर देते रहे टक्कर |
ऐसे प्राण
का जन्म हुआ था 22 फ़रवरी 1920 को दिल्ली में मियां ग़ालिब के महल्ले बल्लीमारान
में। प्राण के पिता सिविल इंजीनियर केवल कृष्ण सिकंद साधन संपन्न थे। जहां काम
मिलता चले जाते। इसलिए प्राण की पढ़ाई लिखाई कई शहरों में हुई, जैसे देहरादून,
कपूरथला, मेरठ और उन्नाव। मैट्रिक की परीक्षा रामपुर के हामिद स्कूल से दी। दिल्ली
आकर वह उस समय की फ़ोटोग्राफी की मशहूर कंपनी ए. दास में ऐप्रेंटिस बन गया। शिमला
के ‘रामलीला’ नाटक में राम बना था मदन पुरी और सीता बना
था प्राण। 18 साल की उम्र में लाहौर में साबक़ा पड़ा फ़िल्म लेखक वली मोहम्मद वली
से, तो मिज़ाज शायराना होना ही था। बंबई में उसके घर कई अवसरों पर मैंने साहित्य
और कलाओं पर चर्चा होते देखी थी।
‘यमला जट’
कभी साठ
सत्तर साल पहले एक लोकप्रिय गीत अकसर सुनने को मिलता था – ‘कनकां दीयां फ़सलां पकियां नें, पकवान पका दीयाँ जटियाँ नें’ (गेहूँ की फ़सलें पक गई हैं, जाटनियाँ पकवान पका रही हैं)। मैं सोचता था
कि यह कोई लोकगीत है। बाद में पता चला कि यह प्राण की लाहौर में बनी पहली फ़िल्म ‘यमला जट’ (पंजाबी - 1940) का गीत था। लाहौर के श्री
दलसुख एम. पंचोली निर्मित इसका निर्देशन मोती बी. गिडवानी ने किया था। मुख्य
कलाकार प्राण (उम्र 18 साल), एम. इस्माइल, एम. अजमल और दुर्गा खोटे के साथ थी बाल
कलाकार नूरजहाँ (13 साल)। वली साहब लिखित गीतों का ग़ुलाम हैदर ने संगीत दिया था
और गायकों में नूरजहां और शमशाद बेगम भी थीं।
कहा जाता
है कि लाहौर में लेखक वली मोहम्मद वली किसी दुकान में थे। वहीं प्राण भी था। यूं
ही बातचीच हुई। पंचोली की ‘यमला जट’ के लिए नायक चुनवा दिया। इसके बाद प्राण को 1941 की मशहूर फ़िल्म ‘ख़ज़ांची’ और ‘चौधरी’ में छोटी भूमिकाएं मिलीं।
हीरो के
रूप में बीस साल के प्राण की पहली हिंदी फ़िल्म थी - पंचोली की 1942 की सुपरहिट ‘ख़ानदान’। नूरजहां ‘यमला जट’ में बाल कलाकार थी, इसमें वह नायिका थी – उम्र थी
पंदरह साल, क़दकाठी में ठीक थी, लेकिन हीरो से साथ साथ दिखने के लिए उसे ईंटों पर
खड़ा किया जाता था!
फ़िल्म
शुरू होती है - अनवर (प्राण) और ज़ीनत (नूरजहां) जहांगीर और नूरजहां बने हैं।
ज़ीनत गा रही है ‘पंछी उड़ जा!’ यह नाटक अनवर की छोटी बहन ने लिखा है। सामने से वह निर्धन धोबी के रूप
में आ रही है। नाराज़ होकर नूरजहां ने उस पर पिस्तौल दाग़ी। बहन को इस नक़ली
पिस्तौल से मरना पसंद नहीं आया। अब्बा की मेज़ से ख़ानदानी पिस्तौल चुरा कर आ रही
है, मां देख लेती है। पकड़ी जाती है।
यह नाटक
बहाना था दर्शकों को ‘ख़ानदान’ की मुख्य कथावस्तु में
ले जाने का। जवानी में किसी मायाविनी के इश्क़ में पड़े एक शख़्स ने उस का ख़ून कर
दिया था। लंबी जेल काट कर वह लौटता है माली के वेश में। उसी का पोता है अनवर। अनवर
की मंगेतर है ज़ीनत। दोनों एक दूसरे के दीवाने हैं। घटनावश अनवर की मुलाक़ात होती है
छलिनी मिस नरगिस से जो लोकप्रिय स्टेज ऐक्ट्रेस है और अनवर को लूटने पर तुली है।
अंत में वही पिस्तौल एक बार फिर काम आती है।
शौकत
हुसैन रिज़वी निर्देशित ‘ख़ानदान’ मुख्यतः गायिका
अभिनेत्री नूरजहां पर केंद्रित म्यूज़िकल थी। संगीतकार गुलाम हैदर रचित दसों गीत
नूरजहां ने गाए थे, इन में से एक ‘पी ले पी ले’ में सहगायिका थी शमशाद। बचपन में सुना ‘तू कौन सी
बदली में है मेरे चांद आ जा’ का मुखड़ा जब तब अब तक याद आ
जाता है।
उल्लेखनीय
है कि भविष्य के प्रसिद्ध निर्देशक रमेश सहगल और एस.के. ओझा इसमें सहायक निर्देशक
थे।
भविष्य
में प्राण ने एक और ‘ख़ानदान’ में काम किया था – उस
के बारे में बिल्कुल अंत में...
-
लाहौर
में प्राण ने 1942 से 1946 तक बाईस फ़िल्मों में काम किया। उनमें से अठारह 1947 तक
रिलीज़ हुईं, लेकिन मनोरमा के साथ वाली ‘तराश’ (1951) और ‘ख़ानाबदोश’ (1952)
पाकिस्तान में ही दिखाई जा सकीं। विभाजन ने उसके फ़िल्म कैरियर में अस्थाई ब्रेक
लगा दिया।
बंबई में
प्राण
देश का
बंटवारा हुआ। आबादी की अदला बदली, अव्यवस्था से त्रस्त देश और समाज। कौन कहां था,
कहां पहुंचा, क्या और कौन उजड़ा...
लाहौर से
जो कलाकार बंबई पहुंचे उनमें प्राण भी था। अब फिर से शुरू करना था। आठ महीने वह
मैरीन ड्राइव पर ‘डैल्मार’ होटल में काम करता रहा।
मित्र सआदत हसन मंटो और अभिनेता श्याम की सिफ़ारिश पर मिली पहली फ़िल्म बांबे
टाकीज़ की शाहिद लतीफ़ के निर्देशन में बनी ‘ज़िद्दी’। ‘ज़िद्दी’ ने न सिर्फ़ प्राण
को नया प्राण दिया, बल्कि देव आनंद को भी होरो के रूप में जमा दिया।
‘ज़िद्दी’ की सफलता के पहले हफ़्ते में ही उसे तीन फ़िल्म मिलीं – एस. एम. य़ुसुफ़
की ‘गृहस्थी’ (1948) ने हीरक जयंती
मनाई। प्रभात फ़िल्म कंपनी की ‘अपराधी’
(1949) और वली मोहम्मद की ‘पुतली’ (1949) – ये वही वली मोहम्मद थे जिन्होंने उसे लाहौर में ‘यमला जट’ दिलवाई थी।
एक
आंकड़े अनुसार प्राण की फ़िल्मों की कुल संख्या है 362; मैं उनकी कुछ ही फ़िल्मों की बात करूंगा।
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राज कपूर के साथ तीन:
‘आह’ (1953)
आमतौर पर
धारणा बन गई है कि ‘ज़िद्दी’ के प्राण को
खलनायक वाले रोल ही मिलते थे। स्वयं मैंने मनोज की ‘उपकार’ की समीक्षा में यह लिखा भी था। यह कहना अधिक सही होगा कि उस की प्रधान
इमेज खलनायक की थी। इंदरराज आनंद की कहानी पर राजा नवाथे द्वारा निर्देशित ‘आह’ धनी राज बहादुर (राज
कपूर) की अनोखी प्रेम कथा थी। पिता ने कहा, “बेटा, तुम्हारी मां की चाहत थी
परिवार के धनाढ्य मित्र की बेटी चंद्रा (विजयलक्ष्मी) से शादी करो।” बड़ी बहन चंद्रा राज की चिट्ठियों की
अनदेखी करती रही, छोटी बहन नीलु (नरगिस) चंद्रा के नाम से जवाब देती रही। दोनों
में प्रेम हो गया, राज उसे चंद्रा ही समझता रहा। तभी अपनी मां की तरह राज भी तपेदिक़
का शिकार हो गया। वह चाहता है उसकी शादी न हो। इलाज कर रहा संवेदनशील और
सौमनस्यपूर्ण दोस्त डॉक्टर कैलाश (प्राण)। कैलाश चंद्रा से प्यार करने लगता है। इसी
फ़िल्म के गीत हैं ‘राजा की आएगी बारात मगन मैं नाचूंगी’ और ‘रात अंधेरी दूर सवेरा’।
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‘आह’ के सात साल बाद
राज कपूर ने बनाया प्राण को क्रूर डाकू राका। उन दिनों
चंबल के डाकू चर्चा का विषय़ थे। एक साथ कई फ़िल्म बनीं। दिलीप कुमार की ‘गंगा जमना’, सुनील दत्त की ‘मुझे
जीने दो’ और राज कपूर की ‘जिस देश में
गंगा बहती है’। तीनों का अलग रंग था, अलग ट्रीटमैंट था। ‘जिस देश में गंगा…’ में अनाथ निर्धन प्यारा राजू
(राज कपूर) गा बजा कर गुज़ारा करता है। एक दिन कोई घायल पड़ा मिला। राजू ने सेवा सुश्रूषा
से चंगा कर दिया। वह था डाकू गिरोह का सरदार। गिरोह के कुछ डाकुओं को शक़ हुआ कि
राजू कहीं पुलिस वाला तो नहीँ था। वे उसे उठा कर सरदार के पास ले आए। सरदार को उसके
भलेपन पर भरोसा था, उसे अपने दल में रख लिया। सरदार की बेटी कम्मो (पद्मिनी) को वह
पसंद आ गया। सरदार और कम्मो ने राजू को समझा दिया, ‘हम सब भले लोग हैं – अमीरों की दौलत ग़रीबों में बांटते
हैं।’ एक धाड़ में राजू ने देखी नवविवाहित जोड़े की हत्या, तो
पुलिस को ख़बर कर दी। राका (प्राण) सरदार की हत्या करके ख़ुद सरदार बन गया।
जबलपुर
के कुछ दूर नर्मदा नदी के दोनों तटों पर संगमरमर की सौ फुट तक ऊंची धवल
चट्टानों के बीच दुराचार और क्रूरता के खेल में भोले भाले लोकगायक राजू (राज कपूर) की
राका (प्राण) जैसे भयानक डाकू के विरोधाभास के चित्रण की परिकल्पना राज कपूर ही कर
सकता था। राज कपूर को पता था कि प्राण अपनी हर भूमिका
में कुछ अनोखा जोड़ता है। यही उसे आशा थी राका के चरित्रचित्रण में। प्राण ने अपने
आप को गिरोह का क्रूरतम और बुरा सदस्य बनाने का फ़ैसला कर लिया। एक इंग्लिश
न्यूज़पेपर में इक्कीस गोलियों से छलनी मशहूर ख़ूंख़ार डाकू की तस्वीर देखी। उसी
को आधार बना कर आगे बढ़ने का फ़ैसला कर लिया राज और प्राण ने। लेकिन प्राण को इतना
ही काफ़ी नहीं लगा। प्राण ने कहा है, “एक रात भयानक
सपने से मैं जागा तो देखा मैं उंगलियों से गला सहला रहा हूं मानो मेरा दम घुंट रहा
हो! मैंने तय कर लिया कि इस हरक़त से हम हर डाकू के भीतर कहीँ गहरे पुलिस से
पकड़े जाने का डर दिखा सकते हैं।”
बॉबी (1973)
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बॉबी में प्राण |
‘आह’ के बीस साल बाद
राज कपूर ने बनाया ‘बॉबी’ में प्राण को बंबई का धनी व्यापारी मिस्टर नाथ–ऐसा व्यस्त बाप जिस के पास
बेटे राजनाथ (ऋषि कपूर) के स्कूल से लौटने पर मिलने का समय नहीं है। बेटे के
स्वागत के नाम पर वह जो पार्टी देता है वह भी उसके लिए धनिकों से संबंध बढ़ाने का
बहाना है। पार्टी में बिन बुलाए आ जाती है राज की धाय - अपनी पोती बॉबी के साथ –
कैथलिक मछुआरे ब्रगैंजा (प्रेमनाथ) की बेटी। मिस्टर नाथ और मछुआरे ब्रगैंजा के साथ
भिड़ंत के दृश्य फ़िल्म की जान हैँ। मिस्टर नाथ के लिए बेटे की शादी भी व्यापारिक
सौदा है और वह बड़े व्यापारी से व्यावसायिक लाभ के लिए वह अल्पबुद्धि अलका (फ़रीदा
जलाल) से सगाई कराना चाहता है। यह भूमिका प्राण की सभी फ़िल्मों से हट कर थी और
प्राण ने शायद अपना बेहतरीन काम भी किया।
‘बॉबी’ के बनने के पीछे
की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है – राज और प्राण दोनों के लिए। ‘मेरा नाम जोकर’ बुरी तरह पिट
जाने पर आर.के. फ़िल्म्स की हालत ख़स्ता थी। बेहद ज़रूरी था अगली फ़िल्म सफलता के
अभूतपूर्व झंडे गाड़े। आप को याद नहीं होगा कि [भाग 65 “गुलाब की
पंखड़ी” ऋषि
कपूर (भाग-1) 13 जनवरी 2019] में मैंने लिखा था, “सन् 2012 में एक इंटरव्यू में ऋषि कपूर ने
कहा है: डैडी ने 1973 की ‘बॉबी’ मुझे फ़िल्मों में लाने के लिए नहीँ बनाई थी। यह ‘मेरा
नाम जोकर’ की असफलता से पड़े संकट से उबरने के लिए बनाई गई
थी। वे कम उम्र वाले हीरो हीरोइन की प्रेम कहानी पेश करना चाहते थे, पर राजेश
खन्ना को देने लायक़ पैसा था नहीँ।”
यही बात
प्राण पर भी लागू होती थी – वह अपने समय के सब से महंगे कलाकारों में था। लेकिन
राज कपूर के लिए ‘बॉबी’ काम करने के नाम पर सिर्फ़ एक रुपया लिया।
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हलाकू (1956)
ईरान में कहीं
नीलोफ़र (मीना कुमारी) और परवेज़ (अजित) का रोमांस अब्बा हकीम नादिर को परवेज़
पसंद नहीं है। एक लंबे सफ़र से लौटे, तो क़हवाख़ाने में बेटी के क़िस्से सुने। शुरूआती
विरोध के बाद हकीम साहब ने परवेज़ को शादी के लिए ज़ेवरात ख़रीदने दूर शहर भेज
दिया। तभी चंगेज़ ख़ां के पोते शक्तिशाली सुलतान हलाकू के बहादुर मंगोल बढ़ते चले
आ रहे हैं। हकीम साहब मारे जाते हैं, नीलोफ़र पकड़ी गई, बेची जा रही है, परवेज़ ने
ख़रीद ली, पर हलाकू के लिए सैनिकों ने हथिया ली। हलाकू उसे बेगम बनाना चाहता है,
पहली बेगम को यह पसंद नहीं। अब परवेज़ और नीलोफ़र की जंग है हलाकू के ख़िलाफ़।
नीलोफ़र बार बार उस की हत्या करना चाहती है, परवेज़ हलाकू के ख़िलाफ़ जंग कर रहा
है। उन के प्रेम को देखते हुए हलाकू दोनों को माफ़ कर देता है। पहली बेगम का कहा
मान कर ईरान को आज़ाद करके वापस चला जाता है।
हलाकू के लिए
प्राण ने चेहरे को मंगोल बनाया और डायलॉग डिलीवरी की ख़ास अदा विकसित की थी, तो
आश्चर्य नहीं कि यह उसकी दिलपसंद फ़िल्म रही। अकेली ‘हलाकू’ के लिए ही नहीं, प्राण अपनी हर फ़िल्म की ज़रूरत
के लिए एक नया अंदाज़ और नया लहज़ा ईजाद करता था।
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मधुमति
(1958)
बिमल रॉय
की ‘मधुमति’ से प्राण और दिलीप कुमार का यह फ़ोटो पूरा
विरोधाभास दर्शा रहा है। परस्पर टकराव और संघर्ष का सुपर प्रतीक। अपने पात्र के
नाम की तरह वह उग्रता की मूरत है हिमालय के जंगलों में श्यामनगर टी ऐस्टेट का
क्रूर मालिक उग्रनारायण (प्राण) तो
ऐस्टेट में नया आया कोमलहृदय कलाप्रेमी सतत प्रेमी मैनेजर आनंद (दिलीप कुमार)।
टकराव का कारण है पहाड़न युवती मधुमति (वैजयंती माला)। अगर प्राण और दिलीप कुमार
कसौटी पर खरे न उतर पाते को ‘मधुमति’
फ़िल्म प्राणहीन हो जाती। उग्रनारायण जब क्रूरता और दुराचार पर उतर आता है तो अपना
सम्मान बचाने के विशाल बंगले की छत से गिर कर मर जाती है मधुमति। ऐसी फ़िल्म में
खलनायक की दुष्टता का अभिनय ही सफलता का प्राणहोता है और प्राण सौ प्रतिशत सफल
सिद्ध होता है। (जब कभी भविष्य में मैं बिमल रॉय पर संस्मरण लिखूंगा तो एक अलग
क़िस्त में ‘मधुमति’ की विस्तृत समीक्षा
करूंगा, जिस में प्राण का गहन चरित्रचित्रण भी होगा। -अरविंद)
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हाफ़ टिकट (1962)
उन्मादी ‘हाफ़ टिकट’ में
प्राण है पढ़ेलिखे उच्चवर्गीयों जैसा स्मगलर और किशोर कुमार मार्का हुड़दंगिया कॉमेडी
में एकदम पूरमपट फ़िट – ख़ासकर ‘आके सीधी लगी’ गाने में। किशोर कुमार है जबलपुर के धनी उद्योगपति सेठ लालचंद का अविकसित
लल्लू बेटा विजय। लगातार बाप की भाषणबाज़ी से और ब्याह कर सुधारने की कोशिश से परेशान
वह बच निकला। पूरे टिकट के पैसे हैं नहीँ, इसलिए मुन्ना होने का नाटक करता रेल का
हाफ़ टिकट ख़रीद लेता है। इरादा है बंबई में कुछ कर दिखाने का। उसे पता ही नहीं
चलता लेकिन प्राण ने उसकी पिछली जेब में हीरे छिपा दिए हैं। ट्रेन में रजनी देवी
(मधुबाला) क्या मिली, विजय उसका दीवाना हो गया (जो फ़िल्मी व्याकरण में होना ही
था)। आगे की कहानी है स्मगलर प्राण और उस की गर्लफ़्रैंड (शम्मी) की चालों से निपटने
के नाप पर हंसी का फ़व्वारा – असंभव सी घटनाओँ से भरपूर, ऊटपटांग वेशभूषा, अगड़म बगड़म
शोर शराबा जो किशोर कुमार ही स्वीकार्य बना सकता था।
विक्टोरिया नंबर 203 (1972)
प्राण और
अशोक कुमार का दोस्ताना जग जाना था। दोनों ने एक साथ सत्ताईस फ़िल्मों मे काम
किया। इम में से बीस सफल हुईं। मैं अपने ज़माने की मस्त फ़िल्म ‘विक्टोरिया नंबर 203’ की ही बात करूंगा। पेचीदा कहानी के विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीँ है,
बस इतना ही लिखूंगा जिससे आज की पीढ़ी को उसका कुछ आइडिया हो जाए।
उन दिनों
की कई फ़िल्मों की तरह इस में भी स्मगलरों का सरदार सेठ दुर्गादास (अनवर) बेटे
कुमार (नवीन निश्चल) की ही नहीं पूरे समाज की आंखों में आदरणीय है। गिरोह के एक
सदस्य की नीयत बिगड़ी तोलूट के बेशक़ीमती हीरे चुरा कर भागा। उसे मारने जिसे भेजा,
उसकी भी नीयत बिगड़ गई। दुर्गादास के एक और गुर्गे ने उस भागते गुर्गे को मार
दिया। पर हीरे नहीं मिले क्योंकि मृतक ने मरने से पहले 203 नंबर की बग्घी में छिपा
दिए थे। (ऐसी बग्घियों को बंबई में ‘विक्टोरिया’ कहते थे, इसीलिए फ़िल्म का नाम रखा गया था ‘विक्टोरिया
नंबर 203’।) हत्यास्थल के पास पाए गए बग्घी चालक को गिरफ्तार
कर लिया गया।
उघर जेल
से रिहा हो रहे हैं दो अपराधी राजा (अशोक कुमार) और राणा (प्राण)। दोनों दिल के
खरे हैं, स्वभाव से मस्त हैँ। कभी पहले राणा के बेटे को किसी ने उड़ा लिया था। वह
ज़िंदा है, पर राणा यह बात नहीं जानता। दोनों अब भले बन कर जीना चाहते हैं। पर उन्हें भी गंध लग गई चोरी के हीरों की। हीरे मिल जाएं जो जीवन ऐश से बीतेगा। गिरफ़्तार बग्घी वाले के
रिश्तेदार बन कर उस की बेटी रेखा (सायरा बानो) के हमदर्द बन गए। रेखा का पीछा करते
करते एक रात वे दुर्गादास के जिस गुर्गे के पास पहुंचे वह भी मार दिया गया। अब वे रेखा
को और धोखे में नहीं रखना चाहते, सब बात बता दी। तमाम कोशिश के बावजूद बग्घी में
हीरे नहीं मिलने थे, नहीँ मिले। दुर्गादास का बेटा कुमार और रेखा एक दूसरे को
चाहने लगे। एक शाम राणा के दिमाग़ में आइडिया कौंधा – हो सकता है कि हीरे
विक्टोरिया के लैंप में हों। वहीं मिले भी। पता चलता है कि दुर्गादास का बेटा
कुमार ही राणा का खोया बेटा है। दुर्गादास सहित पूरा गिरोह पकडा जाता है। अब राणा
के पास बेटा है, होने वाली बहु है। राजा के भाग्य में अब कुछ नहीं बचा था। वह छिप
कर जा रहा है। राणा उसे अपने सुखी परिवार के साथ रहने को विवश कर लेता है।
फ़िल्म की हाईलाइट है राजा और राणा का गाना “दो
बेचारे बिना सहारे/ देखो पूछपूछ कर हारे/ बिन ताले की/ चाभी लेकर/ फिरते
मारे मारे/ मैं हूं राजा ये है राना/ मैं
दीवाना ये मस्ताना/ दोनों मिलके गाएं गाना….”
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इलाके में नए आए हो साहिब - जंजीर में प्राण का मशहूर डायलॉग वाला दृश्य |
ज़ंज़ीर
(1973)
‘ज़ंज़ीर’ की
बात किए बिना प्राण महिमा का कोई मतलब ही नहीं है। 12 (बारह) फ़्लॉप देने वाले
अमिताभ को ‘ज़ंज़ीर’ ने बंबई का सिरमौर तो बनाया ही, ‘उपकार’ के बाद उसकी चरित्र अभिनेता इमेज को चोटी पर पहुंचा दिया। शेरदिल पठान
शेरख़ां लाखों लोगों का शेर बन गया।
फिल्म का
गीत ‘यारी है ईमान मेरा -
यार मेरी ज़िंदगी’ आज तक चोटी पर है। मित्रता
दिवस पर यार लोग यह सोशल मीडिया पर साझा करते हैं।
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अरविंद कुमार |
‘अमर अकबर ऐंथनी’ अभी तक लोकप्रिय है, और ‘ज़ंज़ीर’ की ही तरह इसकी कहानी भी बताने की ज़रूरत नहीं है। बस
इतना बताना है कि प्राण ने यह रूप रंग अमेरीका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम
लिंकन पर बनाया था।
हिटलर भी
नहीं बचा था प्राण से।
पेश है
इससे बारह साल पहले ए. भीम सिंह की ख़ानदान (1965) में भगवंती (ललिता पवार) का
भतीजा नौरंगीलाल (प्राण)
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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राज कपूर और मनोज कुमार के बाद प्राण सबसे ज्यादा अमिताभ के साथ दिखे। शराबी में वैसे ही व्यस्त पिता थे, जैसे बॉबी में। |
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