‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–93
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कामिनी कौशल - 92 की उम्र में भी अभिनय का सफर जारी है (फोटो - नेट से साभार) |
सन् 2019 में बयानबे (92) साल की अभिनेत्री
कामिनी कौशल को फ़िल्मों में काम करते तिहत्तर साल हो गए हैं। इतना लंबा कार्यकाल
कुछ ही हिंदी कलाकरों को मिला है। अशोक कुमार ने अपने जीवन में कुल इकसठ (61) और
देव आनंद ने पैंसठ (65) साल काम किया। शादी के बाद भी फ़िल्मों में सक्रिय रहने
वाली कलाकारों में भी इतने साल काम करने वाली अभिनेत्रियों में भी वह शायद एकमात्र
हैं। बीच में बच्चे पालने में समय लगाकर वह फिर लौट आई थीं। और सफल रही हैं। वह आठ
नौ साल की थी, यूं ही मज़े मज़े में उसके बड़े भाई ने एक छोटी सी फ़िल्म शूट कर डाली
‘द ट्रैजेडी’।
15 जनवरी 1927 को लाहौर में जन्मीं
उमा के पिता प्रौफ़ेसर शिवराम कश्यप भारतीय बौटनी (वानस्पतिकी) के जनक माने जाते
हैं। उनके देहांत के समय उमा कुल सात साल की थीं। उमा ने लाहौर के किन्नैर्ड (Kinnaird) कॉलेज से इंग्लिश
साहित्य में बी.ए. किया। नीचा नगर में काम करने का प्रस्ताव उसे चेतन आनंद ने 1946
में दिया था। चेतन भी लाहौर में पढ़े-लिखे थे और उमा के भाई के मित्र थे। किसी
इंटरव्यू में कामिनी ने कहा है, “मैं अपने में मस्त थी – तैराक़ी, घुड़सवारी और स्केटिंग
मेरे शौक़ थे। रेडियो नाटकों में काम करने के दस रुपए मिलते थे। बुद्धिजीवी परिवार
में पाबंदियाँ थीं ही नहीँ। जो चाहे करो। वह अशोक कुमार की फ़ैन थी। द्वितीय विश्व
युद्ध (1939 से 1945) के चलते ‘वार रिलीफ़ फ़ंड’ में पैसे जमा करने के लिए कॉलेज के नाटक में काम करना
था। अशोक कुमार और लीला चिटणीस मुख्य अतिथि थे। शो के बाद हम उनसे मिले। वह
स्टूडैंट्स से बात कर रहे थे। शरारतन पीछे उनके बाल खीँच लिए!”
“नीचा नगर में हमारे साथ
चेतन जी की पत्नी उमा भी थीं। तय हुआ मेरा नाम बदलना चाहिए। मैंने कहा. मेरा नाम ‘क’ से शुरू हो तो अच्छा
रहेगा। मेरी भानजियों के नाम थे कुमकुम और कविता। इस तरह मैं उमा से कामिनी कौशल
बन गई।” शूटिंग के लिए वह लाहौर से बंबई आती जाती रहती थी।
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कामिनी कौशल- 1946 की तस्वीर |
नीचा नगर
चेतन आनंद की 1945-46 की नीचा नगर को उसकी पहली
फ़िल्म थी। साथ ही नीचा नगर संगीतकार रविशंकर की भी पहली फ़िल्म थी। तब भारत का
विभाजन होने में दो एक साल थे। नीचा नगर को अनेक देशी विदेशी सम्मान मिले, लेकिन
कामिनी का इरादा फ़िल्मों में काम करते रहने का था ही नहीं। अब हुआ यह कि 1947 में
बड़ी बहन उषा कार दुर्घटना में जाती रही। बहन की बेटियों कुमकुम और कविता की
देखरेख के लिए बीसेक साल की उमा ने जीजा बी.एस. सूद से शादी कर ली। तब सूद साहब
बंबई पोर्ट ट्रस्ट में चीफ़ इंजीनियर थे। मझगांव का विशाल बंगला ‘गेटसाइड’ एक बार फिर मालकिन से गुंजायमान
हो गया। बंबई के श्री राजराजेश्वरी भऱत नाट्य कला मंदिर में गुरु महालिंगम पिल्लई
के भरतनाट्यम सीखा। साथ ही शुरू हुआ पति के प्रोत्साहन से कामिनी का फ़िल्मी सफ़र।
जेल यात्रा
नीचा नगर में वह आदर्शवादी समाजसेविका थी।
लिहाज़ा पहली फ़िल्म मिली गजानन जागीरदार निर्देशित जनवरी 1947 में प्रदर्शित जेल
यात्रा।
स्वयं जागीरदार के साथ नायक था राज कपूर। इस के
बारे में अधिक जानकारी आज नहीं मिलती, हां गीत मिलते हैं – ‘सारी दुनिया जेल रे’, ‘जग में छाया अंधेरा’, ‘लहराए मोरी लाल चुनरिया’ (याद कीजिए ‘मेरा लाल दुपट्टा मल मल का’), ‘मोरा जिया नाहीं लागे सुध
बार बार जागे’, ‘मोरी रंग ना गयो रे चुनरी’, ‘ओ गोरी कहां चली उस पार’, ‘पिया मिलने नवेली जाये रे’, और ‘रोते रोते हँस पड़ी मैं - किस ने मुझे हंसाया’।
दो भाई
उसी साल (1947) कामिनी सुपरहिट हो गई
फ़िल्मिस्तान की मुंशी दिल निर्देशित दो भाई से। इसके मुख्य कलाकार थे उल्हास,
कामिनी कौशल, नूरजहां आदि। यह साल की सर्वाधिक कमाई में दूसरे नंबर की फ़िल्म
साबित हुई थी। कहानी क्या थी – यह अब पता नहीं लेकिन इसके संगीत की कहानी स्मणीय
है। गीता राय (बाद में गीता दत्त) को संगीत की शिक्षा नहीं मिली थी, पर गाती बहुत
अच्छा थी। कहते हैं संगीतकार के. हनुमान प्रसाद ने उसकी आवाज़ सुनी तो भक्त
प्रह्लाद के कोरस में दो स्वतंत्र लाइन गवा लीं। शचिन देव बर्मन ने सुनीं तो उसके
घर दादर जा पहुंचे, और दो भाई में गाने के लिए राज़ी कर लिया। लेकिन फ़िल्मिस्तान
वाले नई गायिका से गाने गवाने के पक्ष में नहीं थे। शचिन देव भी अड़ गए। अपनी साख
दांव पर लगा दी - गीता नहीं तो मैं नहीं। फ़ैसला हुआ एक गीत रिकार्ड करा लें, फिर
देखेंगे। पहला गीत ‘हमें छोड़ पिया किस देश गए’ रिकार्ड हुआ। जीत शचिन देव की हुई। फिल्म के नौ गीतों
मॆं से छह गीता ने गाए। गीता का पहला सुपरहिट गीत था ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’। दर्शक बार बार आते
कामिनी कौशल को गीता दत्त के गीत गाते देखने।
ज़िद्दी
इस्मत चुग़ताई के उपन्यास पर
आधारित और उनके पति शाहिद लतीफ़ निर्देशत बांबे टाकीज़ निर्मित शहीद के साल में 1948
की ही ज़िद्दी कामिनी कौशल की एक और सुपर हिट फ़िल्म थी। बंबई में कहीं मरती नानी
ने जिसे बुलवाया वह था नौजवान पूरण (देव आनंद)। गांव के पुश्तैनी धनी परिवार का
बेटा। धेवती आशा (कमिनी कौशल) उस परिवार से निष्कासित नौकरानी की बेटी है। नानी ने
अपील की कि अनाथ आशा को गांव में शरण दे। गांव में बड़ा महल। दरवाज़े पर तांगे से
उतरा पूरण। आशा को ले कर भीतर गया। उसे देख कर दादी, मां, और सभी लोग ख़ुश थे।
पूरण ने कहा, यह आशा है। मैं इसे ले आया हूं। किसी कोने में पल जाएगी। कुछ लोग
ख़ुश हैं, कुछ नाराज़, कुछ आशंकित। धीरे धीरे नौकरों चाकरों और घर के स्त्री
पुरुषों में मतभेद भरने लगे। आशा और पूरण की बढ़ती नज़दीकी ने मतभेदों को हवा दी। एक
दिन पूरण ने पूजाघर में ले जाकर आशा की मांग में सिंदूर भर दिया। कोई और साक्षी
नहीं था।
काफ़ी देर बाद मां पूरण की
शादी धनी परिवार की लड़की से करवा देती है। परिवार का एक वृद्ध सदस्य ताना मारता
है – बेटा हार गया, मां जीत गई। जीत का जश्न बनाओ। न पत्नी ख़ुश है, न पूरण। मन की
घुटन से वह देवदास की तरह बंदूक़ थामे चिड़ियों का मारता घूम रहा है। पत्नी भाग
जाती है। आशा अब किसी नौकरानी के साथ झोंपड़ी में रहती है। उसकी शादी हो रही है या
शादी का नाटक किया जा रहा है – जो कुनबे के एक बुज़ुर्ग ने रचा है। पूरण आशा को घर
ले आता है, शादी कर रहा है। फ़िल्म में ज़िद्दी सिर्फ़ पूरण ही नहीं है, मां भी
है। यह देव आनंद की चौथी फ़िल्म थी। इसी में देव आनंद की चौथी लेकिन पहली हिट
फ़िल्म थी। इसी में लता मंगेशकर को किसी नायिका के गीत (यह कौन आया रे) गाने का
पहला मौक़ा मिला था, यही गीत लता और किशोर कुमार का पहला दो गाना था, लाहौर से
बंबई आने के बाद यही प्राण की पहली फ़िल्म थी और वह खलनायक बना।
शबनम
1949 की शबनम का निर्देशन बी. मित्रा ने किया। फिल्म में मुख्य
भूमिकाओं में दिलीप कुमार, कामिनी
कौशल, श्यामा, मुबारक, जीवन, कूकू, हारून, राजेंद्र सिंह और पारो देवी थे। संगीत एस. डी. बर्मन ने दिया और गीत क़मर
जलालाबादी ने लिखे थे। शबनम के बारे में एक समकालीन समीक्षक ने लिखा था
(इंग्लिश से स्वतंत्र अनुवाद):
“रौक्सी सिनेमा में कई
सप्ताह से ठसाठस चल रही है एस. मुखर्जी निर्मित शबनम। सैक्स-स्टार्व्ड भीड़ उमड़ी चला
आ रही है बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता के उद्देश्य से बनाई गई दस गानों और कई डांस नंबरों
से भरपूर, सुंदर फ़ोटोग्राफ़ी, शानदार कॉस्ट्यूम, रोचक कॉमेडी, उत्तम साउंड रिकॉर्डिंग
वाली इस फ़िल्म से मानसिक प्यास बुझाने। सुगठित कथानक के अभाव में एक के बाद
असंबद्ध दृश्य और विश्वासातीत घटनाएं दर्शक को सांस लेने का मौक़ा नहीं देते। तमाम
कमियों के बावजूद फ़्लैश बैक तकनीक के सुंदर उपयोग वाली फ़िल्म बेहतरीन मनोरंजन
प्रदान करती है। कामिनी कौशल का अभिनय
अब तक का सर्वोत्तम है। हल्का-फुल्का हास्य, ग्रेसफुल अंग संचालन, पात्र की गहरी
पकड़ के कारण वह फ़िल्म की सर्वोत्तम कलाकार बन जाती है। ‘अंदाज़’ के
बाद दिलीप से जो आशाएं बंधी थीं, वे वह शबनम में पूरी नहीं कर पाया।”
फ़िल्म की
सफलता के स्तंभ थे ‘तुम्हारे
लिए हुए बदनाम, ना भूले फिर भी तुम्हारा नाम’ (शमशाद बेगम, मुकेश), ‘तू महल
में रहने वाली’ (मुकेश, शमशाद बेगम),
‘किस्मत में बिछड़ना था’ (गीता दत्त, मुकेश), ‘प्यार में तुमने धोखे सिखाए तो बताओ कैसे’
(शमशाद बेगम, मुकेश), ‘ये
दुनिया रूप की चोर बचा ले मेरे बाबू’ (शमशाद बेगम), ‘क़दर मेरी ना जानी छोड़ के जाने वाले’ (शमशाद बेगम),
‘मेरा दिल तड़पा कर कहां चला’ (गीता दत्त), ‘एक बार तू बन जामेरा ओ परदेशी’
(शमशाद बेगम), ‘हम किसको सुनाये हाल’ (ललिता देऊलकर), ‘देखो आई
पहली मोहब्बत की रात’ (शमशाद बेगम)
जैसे गीत।
आरज़ू
कम्मो
(कामिनी) और बादल (दिलीप) बचपन से साथ रहे हैं। बादल कुछ करता धरता है नहीं। शादी
की बात पर कम्मो के बाप ने कह दिया, कुछ काम कर के बड़े बनो। वह जाता है। पर जल्दी
लौट आता है - कम्मो के बग़ैर कहीं मन नहीं लगा। फिर जाता है। दिल का दयालु है।
जाते जाते एक भिखारी को अपना कमरा दे गया। उसी रात आग लगी। भिखारी इतना जला कि
पहचाना नहीं जा सका। मतलब बादल को मरा मान लिया गया। कम्मो की शादी ठाकुर साहब से
कर दी गई। दुखांत फ़िल्म आज तक याद की जाती है तलत महमूद की आवाज़ में ‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल’, सुधा मल्होत्रा के ‘मिल गए नैन’, लता मंगेशकर के चार गीत ‘आँखों से दूर जाके’, ‘कहां तक
हम उठाएं ग़म’, ‘मेरा नरम करेजवा डोल
गयो’, और ‘आई बहार आई बहार’ के लिए, और शमशाद बेगम के साथ मुकेश के दोगाने ‘जाओ
सिधारो हे राधा के शाम’ के लिए।
यही नहीं, ‘आरज़ू’ याद की
जाती है कम्मो और बादल के उत्कट प्रेम के लिए, कामिनी और दिलीप के दीवानावार नाकाम
इश्क़ के लिए। लेकिन ब्याहता कामिनी अपना पति और परिवार नहीं छोड़ने को तैयार नहीं
थी।
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बिराज बहू की एक तस्वीर |
बिराज बहू
मेरी राय में कामिनी के
पूरे जीवन की सबसे अच्छी फ़िल्म है बिमल राय निर्देशित बिराज बहु। शरतचंद्र की दुखियारी
नारी बनना कामिनी के लिए आसान नहीं रहा होगा। बच्ची बिराज (कामिनी कौशल) अधेड़
नीलांबर चक्रवर्ती (अभि भट्टाचार्य) से ब्याह दी गई थी। षड्यंत्रों का शिकार भोलाभाला
नीलांबर लाचार हो गया। देवधर (प्राण) नाम के ठेकेदार के शिकंजे से बचने के लिए बिराज
के बजरे से नदी में कूद पड़ने पर ‘सुनो सीता की कहानी’ गीत हर नर नारी दर्शक को
झकझोर जाता है। मुझे याद है पैंसठ
साल 1954 में मेरा इस गीत पर भावुक हो जाना। उसी रात बिराज अस्पताल से भाग
निकली पति नीलांबर के अंतिम दर्शन के लिए।
देवर ने घर का बंटवारा करा लिया, लेकिन आर्थिक
संकट से ग्रस्त बिराज का दौरानी से मदद लेना, या पेड़ नीचे चूल्हा बना कर मांड
पकाती बिराज आते जाते लोगों से भीख स्वीकार करती कामिनी की भावभंगिमा अभिनय कला की
पराकाष्ठा में गिने जा सकते हैं। चिरस्मरणीय हैं बिराज और नीलांबर का कुछ बीते पलों
की याद करने वाले दृश्य... नीलांबर का याद दिलाना कैसे बिराज ने पंछी को पिंजरे से
उड़ा दिया था इस विश्वास के साथ कि वह अपने आप पिंजरे में लौट आएगा, कैसे वह
बालिका वधु के कान ऐंठता था। अधेड़ पति और बालवधु के अद्भुत प्रेम के पल। बिराज का
शीशे में जर्जर मुंह देख कर कहना, अच्छा ही हुआ जो मैं सुंदर नहीं रही।
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चेन्नई एक्सप्रेस में कामिनी कौशल और शाहरुख (फोटो सौ. नेट) |
यह सब सफल हो पाने के पीछे है एक कहानी। शूटिंग
शुरू होने से पहले बिमल रॉय ने कामिनी को उपन्यास दिया दो बार पढ़ने के लिए। बचपन
से साहित्य और कलात्मक वातावरण में पली कामिनी ने वह कई बार पढ़ कर आत्मसात कर
लिया।
अंत में-
कामिनी कौशल को सन् 2015 की चेन्नई ऐक्प्रैस की
नीतू बिशंभर मिठाईवाला यानी राहुल मिठाईवाला (शाहरुख़) की दादी के रूप में देखना
सुखद आश्चर्य था, तो इस साल (2019) में कबीर सिंह में कबीर रजिंदर सिंह (शाहिद
कपूर) की दादी के रूप में देखना अपने आप में एक अनुभव है।
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अरविंद कुमार |
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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