द्वितीय विश्व
युद्ध के दौरान एक तरफ़ थीं जर्मन और जापानी सेनाएं तो दूसरी तरफ़ इंग्लैंड,
अमरीका, फ़्रांस, रूस और भारत। ब्रिटिश भारत सरकार फ़िल्म क्षेत्र में भी वार
ऐफ़र्ट को बढ़ावा दे रही थी। हमारे फ़िल्मकार सरकार को बुद्धू बनाने में महारथी
थे। ‘तुम ना किसी के आगे झुकना जरमन हो या जापानी’ शब्दों
के आधार पर ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’
गीत के बारे में बांबे टॉकीज़ का कहना था कि यह गीत वार ऐफ़र्ट में
हमारा योगदान है
..
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–94
कवि प्रदीप का परिचय देने के लिए यह फ़ोटो ही
काफ़ी है और काफ़ी हैं उस गीत के बोल जो लता मंगेशकर ने सन् 1963 के गणतंत्र दिवस
पर पंडित नेहरू की उपस्थिति में रामलीला मैदान में गाया। भारत-चीन युद्ध में शहीद
भारतीय सैनिकों की समर्पित इस गीत के पूरे बोल हैं—
ऐ मेरे वतन
के लोगों, ज़रा आंख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
ऐ मेरे वतन
के लोगों, ज़रा आंख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
तुम भूल ना जाओ उनको, इसलिए सुनो ये कहानी,
तुम भूल ना जाओ उनको, इसलिए सुनो ये कहानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
जब घायल हुआ
हिमालय, खतरे में पड़ी आज़ादी,
जब तक थी
सांस लड़े वो,
जब तक थी
सांस लड़े वो, फिर अपनी लाश बिछा दी,
संगीन पे धर
कर माथा, सो गये अमर बलिदानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली,
जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली,
जब हम बैठे
थे घरों में,
जब हम बैठे
थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली,
थे धन्य जवान
वो अपने, थी धन्य वो उन की जवानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई सिख कोई जाट मराठा,
कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई सिख कोई जाट मराठा,
कोई गुरखा
कोई मदरासी, कोई गुरखा कोई मदरासी,
सरहद पर
मरनेवाला,
सरहद पर
मरनेवाला, हर वीर था भारतवासी,
जो ख़ून गिरा
पर्वत पर, वो ख़ून था हिंदुस्तानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
थी ख़ून से लथपथ काया, फिर भी बन्दूक उठाके,
थी ख़ून से लथपथ काया, फिर भी बन्दूक उठाके,
दस-दस को एक
ने मारा, फिर गिर गये होश गंवा के,
जब अंत समय
आया तो,
जब अंत समय
आया तो, कह गए के अब मरते हैं,
ख़ुश रहना
देश के प्यारों, ख़ुश रहना देश के प्यारों,
अब हम तो सफ़र
करते हैं, अब हम तो सफ़र करते हैं,
क्या लोग थे
वो दीवाने, क्या लोग थे वो अभिमानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
तुम भूल न जाओ उनको, इस लिये कही ये कहानी,
तुम भूल न जाओ उनको, इस लिये कही ये कहानी,
जो शहीद हुए
हैं उन की, ज़रा याद करो क़ुरबानी,
जय हिन्द जय हिन्द, जय हिन्द की सेना,
जय हिन्द जय हिन्द, जय हिन्द की सेना,
जय हिन्द जय
हिन्द, जय हिन्द की सेना,
जय हिन्द! जय हिन्द! जय हिन्द!
जय हिन्द! जय हिन्द! जय हिन्द!
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1942-43-44 के दिन। मैं बारह-तेरह-चौदह साल का
था। अगस्त 1942 में गांधी जी ने अंगरेजो भारत छोड़ो नारा दिया था। मेरी उम्र के
किशोर और नौजवान गाते न थकते थे दो गीत: 1) ‘चल चल रे नौजवान चलो संग चलें हम, दूर तेरा गांव
और थके पांव’, 2) आज हिमालय की चोटी से फिर हम ने ललकारा है
दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’। हम नहीं जानते थे ये लिखने वाला कौन है, किसी
फ़िल्म के हैं, तो किस के से हमें कोई मतलब नहीं था। पहला हम में देशभक्ति की
भावना जगाता था, दूसरा हिम्मत से आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता था।
सन् 1954 आया।
देश आज़ाद हुए दस साल हो गए थे।
ऊपर वाले गीतों का कवि ले कर आया इतिहास का पुनर्कथन –
‘दे
दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमति के संत तू ने कर दिया कमाल...’
इनके रचेता कवि प्रदीप का जन्म उज्जैन के निकट
बड़गांव के उदीच्य ब्राह्मण परिवार में 6 फ़रवरी 1915 को हुआ था। पूरा नाम था
रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी। जब से पढ़ना लिखना शुरू किया तभी से कविता जागी। लखनऊ
विश्वविद्यालय में बीए की पढ़ाई करते करते कवि सम्मेलनों में पढ़ने लगे। आवाज़
बुलंद थी। कविता पाठ की शैली अनोखी थी। श्रोता मुग्ध हो जाते। तभी उन्होंने अपना
उपनाम ‘प्रदीप’ बना लिया। 1939 में परीक्षा पास की। अध्यापक के
पद के लिए आवेदन भेज दिया। उन्हीं दिनों बंबई में कवि सम्मेलन में कविता पाठ करने
गए।
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देशभक्ति और इंसानियत के कवि और गीतकार |
बंबई वाले कवि सम्मेलन में ऐतिहासिक बांबे टाकीज़
के संस्थापक संचालक हिमांशु रॉय ने सुना तो 1939 की सुपरहिट ‘कंगन’
के गीत लिखने के लिए चुन लिया। यहीं यह बताना ज़रूरी है कि लखनऊ का प्रदीप कवि
प्रदीप कैसे बन गया। बांबे टाकीज़ परिवार में अभिनेता प्रदीप पहले से ही थे। दोनों
में अंतर करने के लिए प्रदीप बन गए कवि प्रदीप।
निर्देशक थे फ़्रांज़ औस्टन, मुख्य कलाकार थे अशोक
कुमार, लीला चिटणीस, मुबारक, नाना पल्सीकर, प्रतिमा। एक कवि और गांव की गोरी राधा
की प्रेम कहानी। इस में प्रदीप ने कुछ गीत स्वयं गाए थे, कुछ अन्य ने। अशोक कुमार
और लीला चिटणीस ने गाया था प्रदीप का गीत ‘राधा राधा बोल’, प्रदीप ने गाए थे
कबीर के पद ‘मारे राम जिलावे राम’,
‘भाई
रे कबीर सुन’, और लीला चिटणीस के साथ अपना लिखा गीत ‘मैं
तो आरती उतारूं राधे श्याम की’, लीला चिटणीस ने गाए थे प्रदीप लिखित गीत ‘सूनी
पड़ी रे सितार मीरा के जीवन की’ और ‘हवा तुम धीरे बहो’।
एन.आर. आचार्य-निर्देशित कवि प्रदीप के गीतों
वाली ‘बंधन’ की कहानी थी गांव के ज़मींदार की बेटी बीना
(लीला चिटणीस) और हैडमास्टर निर्मल (अशोक कुमार) के प्रेम की और जमींदार की गठिया
के इलाज के लिए आए खलनायक लंदनपलट डॉक्टर सुरेश (शाहनवाज़) के षड्यंत्रों की।
अकथित सामयिक संदेश था अंगरेजियत का विरोध।
‘बंधन’
के पोस्टर में बड़ी शान से लिखा गया था 'ग्यारह गीत'। सरस्वती देवी के संगीत निर्देशन में सभी गीत कवि
प्रदीप ने लिखे थे। सर्वाधिक लोकप्रिय और आज़ादी के दीवानों की ज़बान पर चढा गीत
था:
चल चल रे
नौजवान, चलो संग चलें हम,
दूर तेरा
गांव और थके पांव,
फिर भी
राहगीर तुम क्यों नहीं अधीर,
तुम हो मेरे
संग आशा है मेरे संग,
मेरे साथ रहो तुम क़दम क़दम,
मेरे साथ रहो तुम क़दम क़दम,
चलो संग चलें
हम, चलो संग चलें हम,
किस नेकिस
नेकिया मुझ को इशारा,
दूर की
मंज़िल से मुझे किसने पुकारा,
तुम ही सिखा
रहे हो मुझे ये गीत हरदम,
चलो संग चलें
हम, चलो संग चलें हम,
कुहु कुहु
बोलो मेरी कोयलिया,
मन में मिठास
घोलो मेरी कोयलिया,
कौन तान
सुनोगे ज़रा यह तो बता दो,
वीणा के
बिखरे हुए तार सजा दो,
आओ दोनों
गाते चलें जीवन की सरगम,
चलो संग चलें
हम, चलो संग चलें हम,
यह है
ज़िंदगी का कारवां,
आज यहां और
कल वहां,
फिर क्यों
तेरा दिल हुआ अधीर,
फिर क्यों
तेरे नैनों में नीर,
फिर क्यों
प्राणों में पीर,
तू न सुने मन
की बात कौन सुनेगा कौन सुनेगा,
बंद कर ज़बान
बंद कर ज़बान,
रुकना तेरा
काम नहीं चलना तेरी शान,
चल चल रे
नौजवान चल चल रे नौजवान”
एक गीत
प्रदीप जी ने ख़ुद गाया भी था –
‘पियु पियु बोल, प्राण पपीहे पियु पियु बोल,
मेरे जीवन की
जमुना में जाग उठे मंजुल कल्लोल,
पल पल निस
दिन सांझ सकारे
मुझे साजन का
नाम सुना रे’
बांबे टाकीज़ के लिए
उन्होंने ‘पुनर्मिलन’ (1940), ‘नया संसार’ (1941), ‘अनजान’ (1943) और अंतिम ‘क़िस्मत’
(1943) के गीत लिखे।
क़िस्मत’
(1943)
कलकत्ते में लगातार तीन साल चलने वाली अब तक की
सफलतम फिल्म क़िस्मत के निर्देशक थे ज्ञान मुखर्जी, कथाकार थे ज्ञान मुखर्जी और
आग़ाजानी कश्मीरी। हिमांशु रॉय के देहांत के बाद बांबे टॉकीज़ के स्वामित्व पर
संस्थापिका देविका रानी और शशधर मुखर्जी के मतभेद के कारण कंपनी ही बंद हो गई थी।
मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार (हिंदी फ़िल्मों पहला
डबल रोल), मुमताज़ शांति, शाहनवाज़ और महमूद। पहली बार किसी नायक ने एंटी हीरो
भूमिका निभाई थी, पहली बार कोई अविवाहित नायिका गर्भवती बनी थी। संगीतकार थे अनिल
विश्वास, सभी गीत लिखे थे कवि प्रदीप ने:
आज हिमालय की
चोटी से फिर हम ने ललकारा है
दूर हटो
दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’
‘अब तेरे सिवा कौन मेरा क्रिशन कन्हैया’
‘ऐ दुनिया बता – घर घर में दीवाली है मेरे घर में
अंधेरा’
‘धीरे धीरे आ रे बादल मेरा बुलबुल सो रहा है’
(स्त्री)
‘धीरे धीरे आ रे बादल मेरा बुलबुल सो रहा है’
(दोगाना – स्त्री और पुरुष)
‘हम ऐसी क़िस्मत को, इक दिन हंसाए इक दिन रुलाए’
‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाय’
‘तेरे दुख के दिन फिरेंगे ज़िंदगी बन के जिए जा’
‘दूर हटो दुनिया वालो’
गीत से जुड़ा है एक इतिहास।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939 to 1945) अपने भयानक रूप में था। एक तरफ़ थीं जरमन और
जापानी सेनाएं तो दूसरी तरफ़ इंग्लैंड अमरीका फ़्रांस, रूस और भारत सरकार थे।
जापानी सेना कलकत्ते तक आने की संभावना बढ़ गई थी। ब्रिटिश भारत सरकार फ़िल्म क्षेत्र
में भी वार ऐफ़र्ट बढ़ावा दे रही थी। हमारे फ़िल्मकार सरकार को बुद्धू बनाने में
महारथी थे। ‘तुम ना किसी के आगे झुकना जरमन हो या जापानी’
शब्दों के आधार पर ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ गीत
के बारे में बांबे टॉकीज़ का कहना था कि यह गीत वार ऐफ़र्ट में हमारा योगदान है।
पर गीतकार, संगीतकार, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक जानते थे कि जनता तक गीत असली
देशभक्तिपूर्ण संदेश दर्शकों तक पहुंच जाएगा और पहुंचा भी।
आज हिमालय की
चोटी से फिर हम ने ललकारा है,
दूर हटो दूर
हटो, दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है,
जहां हमारा
ताजमहल है और कुतुब मीनारा है,
जहां हमारे
मंदिर मस्जिद सिखों का गुरद्वारा है,
इस धरती पर
क़दम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है,
दूर हटो दूर
हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है,
शुरू हुआ है
जंग तुम्हारा जाग उठो हिंदुस्तानी,
तुम ना किसी
के आगे झुकना जरमन हो या जापानी
आज सभी के
लिए हमारा ये ही क़ौमी नारा है,
दूर हटो दूर
हटो,
दूर हटो ऐ
दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है,
आज हिमालय की
चोटी से फिर हम ने ललकारा है,
दूर हटो दूर
हटो, दूर हटो”
भारतवासियों के लिए यह ‘भारत
छोड़ो’ नारे का प्रतीक और स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष
बन गया था। (अगले रविवार कवि प्रदीप पर दूसरा भाग)
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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