‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
17 फ़रवरी 2019 वाले “भाग 70 अजीब आदमी कैफ़ी आज़मी - ‘गर्म हवा’ के लोग (2)” में मैंने लिखा था : -
“शैलेंद्र ने पहला फ़िल्म गीत लिखा था पहली संतान
के समय पैसों के लिए। प्रगतिशील लेखकों के संगठन की इस्मत चुग़ताई ने देखा कि
चालीस रुपए महीना भत्ता पाने वाले कैफ़ी की बीवी को बच्चा होने वाला है, तो पति
शाहिद लतीफ़ से कहा कि ‘बुज़दिल’ (1951) के लिए गीत लिखवा लें। कैफ़ी कैफ़ियत
देने लगे,‘मैं गीत लिखना कहां जानता हूं!’
शाहिद ने समझाया बुझाया, ‘मेहनताना सीधे शौकत को मिलेगा।‘
कैफ़ी ने ‘हां’ कर दी।”
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शबाना आजमी, अरविंद कुमार और कुसुम कुमार (अरविंद जी की पत्नी) |
(100 वें भाग में क्या है, जानने के लिए क्लिक करें)
यह पहली संतान शबाना थी आज की मात्र फ़िल्म
कलाकार नहीं, अपने आप में एक संस्थान, एक विचार। उस से मेरी पहली मुलाक़ात कैफ़ी के घर कभी नहीं हुई हालांकि दो तीन महीनों
में कम से कम एक बार जुहू तट पर उनके घर जानकी कुटीर हो ही आता था। वहां शौक़त
आजमी या शबाना से मुलाक़ात न होने का एकमात्र कारण यह था कि अग्रज समान शैलेंद्र
के परिवार जनों के अतिरिक्त मैं कभी किसी अन्य फ़िल्म वाले के घर वालों तक नहीं
गया।
शबाना से पहली बार मैं मिला
1974 की उसकी पहली फ़िल्म ‘अंकुर’ की रिलीज़ पर। मिला, तो फिर कई बार मिलना होता
रहा। पर कभी उसके घर पर नहीं, किसी न किसी फ़िल्मी कार्यक्रम पर।
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'माधुरी' के कवर पर शबाना |
फ़िल्म इंस्टीट्यूट में बनी जया भादुड़ी की
डिप्लोमा फ़िल्म ‘सुमन’ देखकर शबाना चमत्कृत हो गई थी और उस ने तय कर
लिया कि वहीं अभिनय सीख कर रहेगी। जया की ही तरह वह भी 1972 में सर्वप्रथम आई।
वहां से निकलते ही 1973 में उसे ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ‘फ़ासला’
और कांतिलाल राठौड़ ने ‘परिणय’
के लिए चुन लिया। दोनों ही मेरे निकट के लोग थे।
शबाना की सवा सौ से अधिक फ़िल्मों में से सात
गिनी चुनी फ़िल्मों की बात करूंगा जिन में वह सामान्य से अलग है और जो उस के विविध
रूप दर्शाती हैं।
-
‘परिणय’ (1974)
‘माधुरी’ उन दिनों ‘समांतर सिनेमा’ आंदोलन की मुख पत्रिका
ही बन गई थी। उसी से प्रभावित हो कर कांतिभाई ने अपनी कंपनी का नाम रखा था ‘समांतर
चित्र’। 17 मई 2017 को मैंने फ़ेसबुक पर लिखा था: “‘परिणय’ (1974) देखकर
मैँने कांतिभाई से कहा था कि यह जुबली करेगी। उन्हेँ विश्वास नहीँ हो रहा था। मैँ
ने कहा कि यदि ऐसा हो तो वह मुझे लंच कराएंगे। जुबली हुई और उन्होँने मैरीन ड्राइव
पर एक रेस्तरां मेँ लंच कराया। खेद है कि मुझे कांतिभाई को कोई चित्र नहीँ मिल रहा।
हां, फ़िल्म का एक चित्र लगा रहा हूं।”
‘परिणय’ में हीरो था रोमेश शर्मा। शबाना का कहना है रोमेश
उसकी बहुत रैगिंग किया करता था। सन् 2017 में रोमेश (अब फ़िल्म निर्माता) के
सत्तरवें जन्म जयंती पर इकट्ठे हुए पुराने सहपाठी।
-अंकुर (1974)
गूंगे बहरे किश्टैया (साधु मेहर)
की घरवाली है लक्ष्मी (शबाना आज़मी)। ज़मींदार का बेटा
सूर्या (अनंत नाग) आया है खेतों की देखरेख करने। क्रूर और अहंकारी सूर्या गांव
वालों पर अत्याचार का प्रतीक है। जब चाहे दूसरों के खेतों का पानी काट देता है।
लक्ष्मी उसकी चाय बनाती है, खाना बनाती है। सारा घर उस पर है। वह चावल चुरा कर ले
जाती दिखाई गई है। एक दिन किश्टैया ने सूर्या के ताड़ के पेड़ से ताड़ी पाछ ली
(चुआ ली)। इस पर सूर्या ने किश्टैया को बेरहमी से पिटवा दिया। लक्ष्मी बचाव करती
रही, पिटी भी। पर सूर्या को रहम नहीं आया। किश्टैया गांव छोड़ कर चला गया – कुछ
कमा कर लाने के लिए। लक्ष्मी अब बेसहारा थी। सूर्या से कह रही थी, “अब मेरी देखरेख कौन करेगा?” सूर्या ने उसके कंधे पर हाथ
रखा। वह चौंकी। सूर्या कह रहा था, “मैं करूंगा!” “कब तक?” लक्ष्मी ने पूछा। सूर्या ने
कहा, “हमेशा!” अब लक्ष्मी घर की मालकिन और रखैल
बन गई। पर देर तक नहीं। अफ़वाहें घरवालों तक पहुंचीं। सूर्या का बाप उसकी पत्नी
सरु (प्रिया तेंदूलकर) को गांव में छोड़ गया। लक्ष्मी का राज्य ख़त्म होने लगा।
चावल चुराते पकड़ी गई। घर से निकाल दी गई। शहर से कुछ कमा कर किश्टैया लौट आया,
लक्ष्मी उसके पास आ गई। किश्टैया पर और गांववालों पर सूर्या के अत्याचार बढ़ते ही
गए। अंतिम दृश्य में हम देखते हैं, एक बच्चा सूर्या के घर पर पत्थर फेंक रहा है।
यह है विद्रोह का ‘अंकुर’।
समांतर सिनेमा आंदोलन की शुरूआती फ़िल्म ‘अंकुर’
श्याम बेनेगल, शबाना और अनंत नाग की पहली फ़िल्म थी।
बहुचर्चित, बहुप्रशंसित और अनेक अवॉर्डों से अलंकृत ‘अंकुर’
ने तीनों को समाज के सचेत वर्ग में चोटी पर पहुंचा दिया।
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-अर्थ (1982)
‘अर्थ’ के मुख्य कलाकार थे शबाना, स्मिता पाटिल और
कुलभूषण खरबंदा। इसमें निर्देशक महेश भट ने अपने जीवन की कुछ घटनाओं में ड्रामा का
पुट डाला और वैवाहिक रिश्तों का दुस्साहसपूर्ण आफ़बीट सूक्ष्म निरूपण करती झकझोर
देने वाली फ़िल्म बना कर शीर्ष फ़िल्मकारों में जा पहुंचा। कहानी है पूजा (शबाना)
और कविता (स्मिता) की और उनके पति इंदर (कुलभूषण खरबंदा) की। इन तीनों का
चरित्रचित्रण पूरी मानवीय सहानुभूति से किया गया है जो फ़िल्म को सामान्य बाज़ारू
स्तर से कई गज़ ऊपर उठा देता है। पूजा और इंदर की आर्थिक हालत ख़स्ता है। एक दिन
ऐसा आता है जब शाम तक मकान ख़ाली करना है। उस दोपहर इंदर ने पूजा को बुलाया बड़े
बुकस्टोर के शोरूम में, हाथ में पकड़ा दी इंटीरियर डेकोरेशन की महंगी टेबल बुक और
कहा, “अब अपना नया मकान संवारो सजाओ!”
उसे एक बड़ा पार्टनर मिल गया है बड़ी फ़िल्में बनाने के लिए। पूजा जानती है कोई
यूं ही इतनी बड़ी रक़म नहीं दे देता। उसने खोज ख़बर ली तो पता चला यह साझीदार कोई
और नहीं धनाढ्य कविता है। यहीं से तीनों की लाइफ़ की समस्याएं खड़ी होती हैं।
सहानुभूति के लिए पूजा मुड़ती है अपर्णा (गीता सिद्धार्थ) की ओर। अपर्णा का
वैवाहिक जीवन स्थिर है, उस की गृहस्थी भी सुदृढ़ है। पूजा की स्थिति उस के लिए
कल्पनातीत है।
एक समीक्षक ने लिखा है, “शबाना
ने अपने आप को पूजा के पात्र से ओतप्रोत कर लिया। उस का सांस सांस पूजा का सांस
है। घायल नागन सी वह फुंकारती है, ‘पति
की सेवा में औरत को कभी माँ और कभी बहन बनना पड़ता है, और बिस्तर में - कभी
रंडी!’ नशे में धुत पूजा यह भी समझ नहीं पाती कि वह
अपने आप को ही नहीं, बल्कि अपने पति को और उसकी मिस्ट्रैस कविता को कीचड़ में सान
रही है। निस्संदेह, शबाना अपने रोल में समा गई है।
दिल्ली-गाज़ियाबाद आए मुझे दो साल होने को आए थे।
बासु ने संपर्क किया। वह सई परांजपे की पहली फ़िल्म ‘स्पर्श’
दिल्ली में बना रहा है। मैं उसकी शूटिंग पर अंध विद्यालय तो नहीं गया लेकिन दिल्ली
विश्वविद्यालय के हिंदू कालिज में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर वेदज्ञ आर्य के
सुंदर बंगले पर बार बार जाता रहा। श्रीमती आर्य ने उसे सुंदर बगिया बना रखा था।
कौन सा फूल या पौधा कितनी धूप में कहां रखना है, किस पौधे को कितना पानी कब चाहिए
- इसकी वह पंडित थीँ। इसके कई साल बादमेरा देहरा दून जाना हुआ – गुलज़ार को
शैलेंद्र सम्मान अर्पण के अवसर। दर्शकों में डाक्टर आर्य दंपती भी थे। उन के कई
मुलाक़ातें होती रहीँ।
साई की पहली फ़िल्म ‘स्पर्श’ हिंदी के अनमोल रत्नों में गिनी जाती है। कहानी
है नवजीवन अंध विद्यालय के दृष्टिहीन प्रिंसिपल अनिरुद्ध परमार (नसीरुद्दीन शाह) और
कविता प्रसाद (शबाना आज़मी) की। एक दिन डॉक्टर के पास जाते अनिरुद्ध ने मधुर गीत
सुना और गाने वाली के दरवज्जे पर बंधा सा खड़ा रहा। गीत गा रही है तीन साल की शादी
के बाद हाल ही में विधवा बनी कविता। एकाकिनी कविता अपने में ख़ुश है। उस की
एकमात्र मित्र है मंजु (सुधा चोपड़ा)। एक बार फिर अनिरुद्ध और कविता मिले मंजु के
घर। अनिरुद्ध के सुझाव पर और मंजु के समझाने पर अनिच्छुक कविता अंध विद्यालय में
कहानियां सुनाने, संगीत और हैंडीक्राफ़्ट सिखाने के लिए सहमत हो गई। दोनों के बीच
नज़दीकी बढ़ी और सगाई हो गई। लेकिन दोनों के स्वभाव विपरीत हैं। अनिरुद्ध का दृढ़
मत है कि अंधों को दया या भीख नहीं बल्कि सहायता चाहिए। प्रिंसिपल के दफ़्तर में कविता
ने काफ़ी बनाते अनिरुद्ध की मदद करने की कोशिश क्या की कि वह भड़क उठा। मन ही मन
उसने सोचा कविता सगाई के लिए प्रेम के कारण नहीं बल्कि दया भाव से सहमत हुई है।
तभी अनिरुद्ध के अंधे मित्र दूबे (ओम पुरी) की पत्नी का देहांत हो गया। अनिरुद्ध
सांत्वना देने गया लेकिन दूबे रोना रोने लगा कि अंधे से शादी से पत्नी ख़ुश नहीं
थी। उसकी दुख गाथा से अनिरुद्ध भ्रमित हो गया। वह कोई कारण तो नहीं बताता लेकिन
हीन भावना से ग्रस्त हो कर सगाई तोड़ देता है। कविता विरोध नहीं करती। वह स्कूल
में काम कर रही है, पर मतभेद बढ़ते जाते हैं। अंततः होता यह है कि दोनों में से एक
को स्कूल छोड़ना होगा।
एकाकिनी विधवा के रूप में मन की जो पीड़ा है – वह
शबाना बड़ी सहजता से संप्रेषित कर देती है। ‘स्पर्श’ में हम शबाना का एक अलग ही रूप देखते हैं। मेरी
राय में हिंदी फ़िल्मों में किसी अंधे पात्र का सच्चा अभिनय किसी ने किया है
नसीरुद्दीन ने ‘स्पर्श में किया है।
-
-खंडहर (1984)
प्रेमेंद्र मित्र की बंगला कहानी से विकसित मृणाल सेन की ‘खंडहर’ के मुख्य कलाकार (पात्र) हैं शबाना (जामिनी), सुभाष (नसीरुद्दीन
शाह), सुभाष का दोस्च दीपू (पंकज कपूर)।
बात उस ज़माने की है जब फ़ोटोग्राफर अपने नेगेटिव से पॉज़ीटिव और
ऐनलार्जमैंट अपनी लैब में अपने आप डैवलप करते थे। लैब की लाल रोशनी में वह कोई
ऐनलार्जमैंट डैवलप कर रहा है। जो अक़्स उभर कर आता है वह किसी खंडहर से दिखती
खिड़की में खड़ी लड़की का है। सुभाष को याद आता है दीपू के कहने पर दोस्तों के साथ
एक अनोखा सफ़र। दीपू के घर के पास कोई बहुत पुरानी हवेली है – बड़े बड़े खंभे,
ऊंची ऊंची मंज़िलें जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है। दोस्त मस्ती कर रहे
हैं। सुभाष फ़ोटो ले रहा है। कहीं दूर सरियों वाली खिड़की के पीछे खड़ी है एक
लड़की - जामिनी (यामिनी का बंगला उच्चारण)। फ़िल्म इसी के बारे में है और सुभाष से
उस के क्षीण से संपर्क के बारे में है। और उस निरंजन के बारे में है जिससे जामिनी
का विवाह होना है और जिसका इंतज़ार है। वह कभी आता नहीं दिखाया जाता। हां, जामिनी
की मां को लगा सुभाष ही वह निरंजन है। सुभाष ने ‘ना’ नहीं कहा, बस, हुंकारा भर कर रह
गया।
बूढ़ी मां की सेवासुश्रूषा करती जामिनी का जीवन उत्साह कभी का मर गया
लगता है। घर और पास वालाछोटा सा ताल ही उसके जीवन हैं। संसार से संपर्क बस
पुस्तकें हैं। कहीं दबी चाहत उसकी आंखों तक आते आते खो जाती है। उस ने भाग्य से
समझौता कर लिया है। चेहरे पर मलाल की रेखा है। एक बार वह कहती भी है –“मुझे समझने की कोशिश करो, मां!”
खंडहर को प्रेम कहानी कहें तो किसी प्रेमी की मौजूदगी दिखाई नहीं
देती। सुभाष बस एक घटना है। जामिनी के लिए कहीं कुछ है जो कम है या है ही नहीं।
बस, है एक ख़ालीपन। यह है मृणाल सेन की ‘खंडहर’ जो याद रह जाती है।
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-मकड़ी (2002)
‘खंडहर’ में शबाना एक पुरानी विशाल खंडहर सी इमारत से दिखती खिड़की के पीछे
थी, ‘मकड़ी’ में खंडहर जैसे भुतहा महल में राज करती है। बड़ी सोच समझ कर संगीतकार विशाल भारद्वाज ने अपने पहले निर्देशन के
लिए बच्चों के वास्ते दंतकथा सी कहानी चुनी और उस में एक भुतहा महल रचा, महल में ‘मकड़ी’ नाम की चुड़ैल रखी और उस चुड़ैल के अभिनय के लिए शबाना को चुना! और बड़े शौक़ से शबाना ने स्वीकारा होगा यह रोल कुछ अनोखा करने के
मूड में! और निभाया भी बड़ी ज़िंदादिल मस्ती के साथ। काली डरावनी काया, लंबे
उलझे बाल, लंबी लंबी उंगलियों से बाहर निकलते नेलपालिश लगे लंबे तीखे नाखून! जो भी उस के भुतहा
महल में घुसता है, वह कभी बकरी, कभी मुर्गा बन कर निकलता है। भुतहा महल में जाने
से हर कोई बिचकता, बिदकता, घबराता, थरथराता, दहलता है। और तो और सिपाही भी कतराते
हैं, बड़े बड़े दरवाज़े पकड़े भीतर जाने की हिम्मत नहीँ कर पाते। फिर भी फ़िल्म हंसोड़
कॉमेडी है।
गांव क्या है
- शांत भी है, अजब हरक़त करने वालों का पूरा मज़ेदार जमघटा भी है। लंबे
लंबे नाचते से डग भरने वाला कल्लू क़साई है। कल्लू क़साई का सहायक लड़का मुग़ले आज़म
है। चुन्नी मुन्नी दो जुड़वां बहनें हैं। चुन्नी के बाएं नथुने के नीचे होंठ पर
काला मस्सा गोला है। शरारती मुन्नी वैसे ही मस्से जैसी काली बिंदी चिपका कर जब
चाहे चुन्नी बन जाती है। अब एक दिन हुआ यह कि मुर्गे चुरा कर भागा एक लड़का। मुग़लेआज़म
चिल्लाया,“चोर! चोर!”
और चोर के पीछे भागा। उसके पीछे भागा कल्लू कसाई, कल्लू के पीछे एक एक
कर के सब बच्चे कच्चे, मंदिर से पंडित जी, उनके पीछे यह और वह! मुन्नी भी भाग रही है यह कूदती, वह फांदती। भुतहा महल का लोहे के
सीख़चों वाला फाटक थोड़ा सा खुला है। चोर लड़के ने जो लंबी छलांग लगाई, तो अहाता
पार कर के भुतहा महल के लकड़ी के दरवाज़े में भी घुसता चला गया। उसके पीछे भागते
आने वाले फाटक से सट कर खडे रह गए। कोई भीतर जाने को तैयार नहीं है। मुन्नी बोली, “मैं भूतों चुड़ैलों से नहीँ डरती। मास्टर जी ने बताया है न कोई चुड़ैल
होती है न कोई भूत। मैं जाती हूं अंदर!” पर सब ने
उसे रोक लिया। महल में सब कुछ जादुई है। महल में घुसने वाला जैसे ही उस के बीचोबीच
बने चबूतरे पर चढ़ता है, चुड़ैल अपने सिंहासन पर लगी बाएं दाहिने लगी खोपड़ी पर
मुक्का मारती है, कहीँ ऊपर से काला गोल परदा गिरता है, उठता है तो जो भी उस के
नीचे होता है किसी गर्त में विलीन हो जाता है। बाद में एक दिन मुन्नी अकेली ही चली
गई भुतहा महल मेँ और लौट कर नहीं आई। चुन्नी परेशान हो गई। हिम्मत कर के मुन्नी को
लाने जा पहुंची सीधे चुड़ैल के सामने। चुड़ैल ने एक मुर्गा पकड़ा दिया उसे, “यह रही तेरी मुन्नी!” कुछ दिन चुन्नी
मुर्गे को ही मुन्नी समझती रही। लेकिन मुर्गे को कल्लू कसाई ने काट कर बेच दिया।
चुन्नी फिर गई चुड़ैल के पास। इस बार चुड़ैल ने उसे पिल्ला थमा दिया। वह पिल्ला
किसी का पालतू पिल्ला निकला। अब चुन्नी सारी बात समझ गई। अब वह चुड़ैल के पीछे पड़
गई। उस के उकसावे पर कई गांव वाले गए और गर्त में विलीन हो गए। चुन्नी लगी रहती
है। अंत में चुड़ैल हार जाती है। पता चलता है कि महल चोरी का माल छिपाने के काम
आता था। इतना बड़ा ख़ज़ाना खोज पाने के लिए चुन्नी के सम्मान में भाषण हो रहे हैं।
-गॉड मदर (1999)
गुजरात. काठियावाड़. निम्न मध्यम वर्ग की
गृहिणियों जैसी ही थी शांत स्वभाव की संतोखबेन सरमनभाई। राजकोट में उस के घर के
बाहर न कोई हथियारबंद गार्ड होता था, न ही आसपास हट्टेकट्टे पट्ठे घूमते नज़र आते
थे। न ही उस की आवाज़ रौबीली थी। संक्षेप में वह फ़िल्मी माफ़िया सरदारों जैसी नहीं
दिखती थी। पर यही थी इलाक़े की माफ़िया क्वीन संतोखबेन। उस के गैंग के ख़िलाफ़
पुलिस में सवा पाँच सौ फ़ौज़दारी मामले दर्ज़ थे। छोटे छोटे शब्दों में बोलती थी।
आँख से आँख मिला कर बात नहीं करती थी, गरदन झुकाए मुस्कराती सी हाथ मलती रहती थी।
कुल तीसरी कक्षा पास थी, केवल अपनी स्थानीय बोली ही जानती थी। राजनीति और अपराध
जगत पर उस का प्रभाव था। बिना एक भी भाषण दिए, वह एमएलए चुनी गई थी।
शबाना आज़मी की फ़िल्म ‘गौड
मदर’ इसी संतोखबेन पर आधारित मानी जाती है। निर्देशक
हैं विनय शुक्ला, संगीतकार विशाल भारद्वाज, गीतकार जावेद अख़्तर। राष्ट्रीय फ़िल्म
अवार्डों में इसे सात मिले, कहानी पर विनय शुक्ला को मिला फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड।
फ़िल्म की थीम है किस तरह भले मानस भी सत्ता में
आ कर भ्रष्ट हो जाते हैं। वीरम (मिलिंद गुणाजी) और उस की पत्नी रंभी (शबाना आज़मी)
गाँव में पड़े सूखे से बचने के लिए शहर चले आए हैं। वीरम को काम तो मिला, लेकिन मुक़ादम
उस की जाति को हरदम नीचा दिखाता रहता है। वीरम ने उसे मार डाला। उसी की जाति की
पुलिस हत्या को नज़रअंदाज़ कर देती है। वीरम का रुतबा बढ़ रहा है, दौलत बढ़ रही
है, राजनीतिक हैसियतबढ़ रही है। और एक दिन पछतावे में वीरम ऐसे सब धंधे बंद क्या
किए, उस की हत्या हो गई। अब रंभी ने उस की जगह ले ली। वही पुराना हत्या के बदले हत्या
का निर्मम सिलसिला शुरू हो गया। वक़्त बीता, रंभी शांत हो चली। पर सत्ता का
दुरुपयोग पीछा नहीं छोड़ रहा। उस का बिगड़ैल ग़स्सैल बेटे को जो लड़की चाहिए उस का
प्रेमी मुसलमान है। भयानक सांप्रदायिक दंगा भड़क उठता है। निराकार निवारण होता है
रंभी के पश्चात्ताप और शहादत से।
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अरविंद कुमार |
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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