‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–97
[ज़ोया
और फ़रहान की मां हनी ताश खेलते खेलते जावेद अख्तर की पत्नी बन गई थी। और जब जावेद
से अलग हुई तो बाद में खुद भी एक मशहूर फिल्म लेखिका की बन गईं।]
बात शुरू करता हूं शबाना वाली क़िस्त से: “जब जावेद ने अपनी पहली बीवी हनी ईरानी को तलाक़ दे दिया तब से
अब तक शबाना और जावेद का सुखी और सामाजिक रूप से सक्रिय विवाह चल रहा है।”
‘हाथी मेरे साथी’ के बाद सलीम-जावेद जोड़ी रमेश सिप्पी की फ़िल्म ‘सीता और गीता’ (1972) लिख रही थी।
वास्तव में उन्हें पहला ब्रेक भी रमेश सिप्पी ने ही दिया था ‘अंदाज़’ (1971) में। ‘सीता और गीता’ में किशोरी शीला का रोल
कर रही थी हनी। शूटिंग के दौरान जावेद से उसका हंसी मखौल का रिश्ता जल्दी ही
रोमांस में बदल गया। तब हनी सतरह साल की थी और जावेद सत्ताईस का।
हनी का कहना है, “एक दिन
ख़ाली समय में हम ताश खेल रहे थे। जावेद लगातार हार रहा था। मैं ने कहा, ‘तेरा अगला पत्ता मैं
निकालूंगी।’ वह बोला, ‘अच्छा निकला तो तुझसे शादी पक्की!!’ पत्ता बढ़िया निकला। जावेद
बोला, ‘चल, शादी कर लेते हैं!’ जावेद ने सलीम को भेजा मेरी मम्मी के पास बात करने।”
शादी 21 मार्च 1972 को हुई। कहते हैं ना – चट मंगनी पट ब्याह!
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जावेद अख्तर और हनी ईरानी |
हनी ने कहा है, “जावेद का कैरियर शुरू हुआ ही था पिछले साल। हमारे पास कोई घर
नहीं था। बड़ी बहन मेनका की शादी हुई थी फ़िल्म प्रोड्यूसर कामरान ख़ान से। (इन
दोनों के बेटी और बेटा आज की मशहूर फ़िल्मी हस्ती हैं फ़राह ख़ान और साजिद ख़ान।)
जुहु में उन के घर का एक कमरा फ़िल्मी सामान से अटा पड़ा था। वह हमारे लिए ख़ाली
करवाया गया। एक साल हम वहीं रहे।”
यह जो अगला साल था, उसने जावेद की तक़दीर बदल दी! ‘ज़ंजीर’ आई, ‘ज़ंजीर’ के बाद ‘शोले’, ‘यादों की बारात’ और ‘दीवार’। जावेद का कैरियर चोटी पर, निजी जीवन तलहटी में! शबाना से जावेद के रूमानी
क़िस्से हनी के कानों तक पहुंचने लगे। कुछ दिन तो वह टालती रही। बात बिगड़ती ही गई।
आपसी तकरार बढ़ती गई। झगड़े टंटे बढ़ने लगे। बच्चों को इस सबसे दूर ही रखा गया। छह
साल बाद दोनों जुदा हो गए। बेटे फ़रहान और बेटी ज़ोया को शबाना ख़ुश रखती थी।
तलाक़ पूरा होते होते सन चौरासी-पिचासी आ गया।
इस बीच 1984 में जावेद ने शबाना से शादी कर ली।
शबाना के बारे में हनी ने कहा है, “कोई मेलजोल नहीं था
हमारे बीच! जावेद के जन्मदिन पर मैं जाती हूं उन के घर। शबाना से रस्मी
मुलाक़ात होती है। बस! कोई कितना ही कहता रहे, हम दोनों सहेली वहेली न थीं, न हैं!”
जुदाई के बाद जावेद बच्चों के वास्ते जो कुछ देता था, वह हनी के लिए नाकाफ़ी
था। उसने साड़ियों की कढ़ाई शुरू की। रीना राय और मुमताज़ जैसी दोस्त ख़रीदने लगीं।
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हनी का जन्म हुआ था बंबई में पारसी नौशेर
और पेरिन ईरानी के घर 25 अगस्त 1955 को। वह मेनका,
बन्नी, सरोश और डेज़ी की छोटी बहन है। डेज़ी के तीन
बच्चे हैँ। (उस के बारे में आप पढ़ेंगे मेरे अगले संस्मरण भाग 98 में।)
आज की पीढ़ी को शायद ही पता हो कि एक ज़माने में ईरानी सिस्टर्स के
नाम से मशहूर बाल कलाकार डेज़ी और हनी बॉलिवुड पर छाई थीं। किसी फ़िल्म में उन का
होना सफलता की गारंटी था। उन के हिसाब से फ़िल्म लिखी और बनाई जाती थीं। पहले आई
थी डेज़ी, बाद में आई थी हनी। अपनी पहली फ़िल्म
देवेंद्र गोयल की 1959 की ‘चिराग़
कहां रोशनी कहां’ में हनी बनी थी लड़का – राजू। सहकलाकार थे
राजेंद्र कुमार और मीना कुमारी। मां मीना कुमारी पति की मृत्यु से पहले ही वह
गर्भवती हो गई थी और राजू बाद में एक बड़ी संपत्ति का अधिकारी सिद्ध होता है।
उन दिनों की उस की कुछ अन्य उल्लेखनीय फ़िल्म हैँ: 1958 की ‘एक
शोला’, 1959 की ‘क़ैदी नंबर 911’,
1960 की ‘बारूद’, ‘ज़मीन के
तारे’ और ‘मासूम’ (इसी के
दौरान शबाना शेखर कपूर के निकट आई थी और कई
साल ‘बहुत’ निकट रही। बाद में इसी ‘मासूम’ की बाल
कलाकार हनी से जावेद ने शादी की थी और बाद में तलाक़ दे कर शबाना से शादी की – यही तो समय
का खेल कहलाता है!), 1961 की ‘प्यार की प्यास’, 1964 की ‘चांदी की
दीवार’, 1965 की ‘दीदी’
और ‘पूर्णिमा’ (यह वही ‘पूर्णिमा’ है जिस के बनने के दौर में मैं ने ‘सुचित्रा’ के लिए मीना कुमारी का फ़ोटो खिंचवाया था), और 1961 की
‘रामू दादा, 1962 की ‘आशिक़’,
‘तीन उस्ताद’,
1962 की ‘बॉम्बे
का चोर’, ‘सूरत
और सीरत’, ‘सौतेला
भाई’, 1963 की ‘अकेला’।
इसके बाद ‘सीता और गीता’ की किशोरी शीला
की बात हम कर ही चुके हैं।
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हनी की पहली फिल्म जिसने बालक बनीं |
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हनी ने कुछ कहानियां भी लिखी थीं, पर डरती थी लोग उन्हें जावेद की न
समझ बैठें। “एक बार यशजी (यश चोपड़ा) ने मुझे एक आइडिया दिया और बोले, ‘इस पर पांच मिनट की रूपरेखा लिख दो’, मैंने पूरा स्क्रीन प्ले लिख डाला।
सुनते ही वे उठे, मेरी कौली भर ली। बोले, ‘वाह! यह थी 1992 की फ़िल्म ‘लम्हे’!”
ऐसे ही एक दिन बातों बातों में यश की पत्नी पैम को हनी ने एक टीवी
सीरियल का आइडिया सुनाया। यश ने उस पर फ़िल्म बना डाली – ‘आईना’ (1993)।
1993 की यश चोपड़ा की ‘डर’ की कहानी और पटकथा हनी ने लिखी थी। इस के बाद हनी की लिखी फ़िल्मों
के नाम चौंकाऊ हैं। 1993 ही की सैफ़ अली, आमिर ख़ान,
सुनील दत्त, विनोद खन्ना, रवीना टंडन वाली ‘परंपरा’
की कहानी और स्क्रीनप्ले हनी का था। अगले साल 1994 की ‘सुहाग’
का स्क्रीनप्ले उसी के नाम है। हनी की साख बढ़ती जा रही थी। उस की कुछ फ़िल्मों के
भी बस नाम लिख रहा हूं:
1997: ‘और प्यार हो गया’: कहानी
1998: ‘जब प्यार किसी से होता है’: स्क्रीनप्ले, कहानी
1999: ‘लावारिस’: स्क्रीनप्ले, कहानी
2000: राकेश और हृतिक रोशन वाली ‘कहो ना प्यार है’ : स्क्रीनप्ले
2000: ‘क्या कहना’
2001: ‘अलबेला’
2003: ‘अरमान’
2003: राकेश और हृतिक रोशन की ‘कोई मिल गया’: स्क्रीनप्ले
2006: और उन्हीं की ‘कृश’: स्क्रीनप्ले
2007: जह्नु बरुआ की ‘हर पल’ दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाई
2013: राकेश और हृतिक रोशन: ‘कृश 3’: स्क्रीनप्ले
कहा जाता है कि 1995 वाली ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की कहानी हनी ने यश चोपड़ा परिवार को सुनाई थी। फ़िल्म आई तो
कहानी पर नाम अकेले आदित्य चोपड़ा का था। इसी को लेकर हनी ने चोपड़ाओं से संबंध
तोड़ लिए थे। जिन कुछ दिनों हनी का बेटा फ़रहान टीवी पर लोकप्रिय शो ‘जीना इसी का नाम है’ पर एंकर था तो उसके बचपन के दोस्त
आदित्य की अप्रत्याशित उपस्थिति ने हनी परिवार से चोपड़ा परिवार का भूली को बिसरा
देने का संकेत मानी गई था।
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हनी, ज़ोया और फरहान |
बेटी ज़ोया और बेटे फ़रहान की बात किए बिना हनी पर लेख
पूरा नहीं हो सकता। तो...
ज़ोया
21 मार्च 1972 को हनी और जावेद के ब्याह के बाद जल्दी ही ज़ोया अख़्तर का जन्म 14 अक्तूबर 1972
को हुआ था। मानकजी कूपर स्कूल के बाद सेंट ज़ेवियर कालिज से बी.ए. (आर्ट्स) पास
किया। फ़िल्म निर्माण विषय में न्यू यार्क विश्वविद्यालय से डिप्लोमा किया, मीरा
नैयर, टोनी गर्बर तथा देव बेनेगल की सहायक निर्देशक रही। लेखक-निर्देशक बनी। उसके
निर्देशन में बनी कुछ उल्लेखनीय फ़िल्म हैं 2009 की ‘लक बाई चांस’,
2011 की ‘ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा’ और ‘शीला
की जवानी’, 2013 में ‘बांबे टाकीज़’ का
एक खंड। नवीनतम फ़िल्म है इसी साल की रणवीर सिंह वाली ‘गल्ली बॉय्ज़’।
ज़ोया (और फ़रहान) का लालन पोषण जिस वातावरण
में हुआ वह ऐग्नौस्टिक या अज्ञेयवादी कहा जा सकता है। ऐग्नौस्टिक (agnostic) अज्ञेयवादी के दो अर्थ हैं:‘1) वह व्यक्ति जिस के विश्वासानुसार ईश्वर को
जाना नहीं जा सकता, 2) वह व्यक्ति तो ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशय में है पर
जो पूरी तरह नास्तिक नहीं है।’ अपने
भाई फ़रहान और पिता जावेद की ही तरह उसे किसी एक धर्म में आस्था नहीं है।
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जावेद, हनी, ज़ोया और फ़रहान |
उस के कैरियर की शुरूआत हुई पैंटाग्राम नाम के
रॉक बैंड पर बने म्यूज़िक वीडियो की सहनिर्देशक के रूप में हुई। ‘दिल चाहता है’ और ‘स्प्लिट वाइड ओपन’ का कास्टिंग निर्देशन किया – मतलब कि फ़िल्म के पात्रों के लिए सही कलाकार का
चुनाव। भाई फ़रहान अख़्तर की ‘लक्ष्य’ और ‘दिल
चाहता है’ की सहायक निर्देशक रही। रीमा काग्टी की’ हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड’ की कार्यकारी निर्माता रही।
‘लक बाई चांस’ में नायक था भाई
फ़रहान अख़्तर और नायिका कोंकणा सेन शर्मा। ‘जिंदगी न मिलेगी
दोबारा’ मेरी बहुत पसंद फ़िल्मों में से है। इसे हिंदी की
श्रेष्ठ फ़िल्मों में गिना जा सकता है। मुख्य कलाकार थे हृतिक रोशन, अभय देवल,
फ़रहान अख़्तर, कैटरीना कैफ़ और फ़्रैंच मूल की कल्कि कैशलां (जन्म पौंडिचेरी)।
कथानक मुख्यतः स्पेन में घटित होता है। इस के लिए स्पेनी गीत ‘सेनोरीटा’ के लिए वहां की ‘कान्ते फ्लेमिंको’ शैली में गायिका
मारिया देल मार फ़रनांदेज़ को लिया गया था।
सभी गीत जावेद ने लिखे थे, पर निम्न
गीत पूरी फ़िल्म का संदेश बन जाता है :
“दिलों में तुम अपनी बेताबियां लेके
चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम
नज़र में ख्वाबों की बिजलियां लेके चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम
नज़र में ख्वाबों की बिजलियां लेके चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम
हवा के झोंकों के जैसे आज़ाद रहना सीखो
तुम एक दरिया की लहरों में बहना सीखो
हर एक लम्हे से तुम मिलो खोले अपनी बाहें
हर एक पल एक नया समा देखें ये निगाहें
तुम एक दरिया की लहरों में बहना सीखो
हर एक लम्हे से तुम मिलो खोले अपनी बाहें
हर एक पल एक नया समा देखें ये निगाहें
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-फ़रहान
ज़ोया को जन्मे साढ़े चौदह महीने बीते थे, 9 जनवरी 1974 को आया उस का छोटा भाई फ़रहान। बहुगुणी फ़रहान फ़िल्म निर्देशक, अभिनेता, गीतकार, प्लेबैक गायक, निर्माता और टी.वी. एंकर – मतलब सब कुछ है। बड़ी बहन की ही तरह फ़िल्मी माहौल में पला बढ़ा है। चौबीसेक साल की उमर से ही फ़िल्मों में आ गया – 1991 की ‘लम्हे’ और छह साल बाद 1997 की ‘हिमालय पुत्र’ में सहायक निर्देशक रहा। रितेश सिधवानी के साथ ऐक्सल ऐंटरटेनमैंट कंपनी की स्थापना की और 2001 की ‘दिल चाहता है’ के निर्देशन से प्रसिद्ध हो गया। आमिर, सैफ़, अक्षय खन्ना, प्रीती, सोनाली बेंद्रे और डिंपल वाली फ़िल्म की शूटिंग बंबई और सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) में हुई थी और श्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म का राष्ट्रीय अवॉर्ड भी मिला। इस की कहानी भी उस की अपनी थी। फ़िल्म को कई अवॉर्ड मिले।
ज़ोया को जन्मे साढ़े चौदह महीने बीते थे, 9 जनवरी 1974 को आया उस का छोटा भाई फ़रहान। बहुगुणी फ़रहान फ़िल्म निर्देशक, अभिनेता, गीतकार, प्लेबैक गायक, निर्माता और टी.वी. एंकर – मतलब सब कुछ है। बड़ी बहन की ही तरह फ़िल्मी माहौल में पला बढ़ा है। चौबीसेक साल की उमर से ही फ़िल्मों में आ गया – 1991 की ‘लम्हे’ और छह साल बाद 1997 की ‘हिमालय पुत्र’ में सहायक निर्देशक रहा। रितेश सिधवानी के साथ ऐक्सल ऐंटरटेनमैंट कंपनी की स्थापना की और 2001 की ‘दिल चाहता है’ के निर्देशन से प्रसिद्ध हो गया। आमिर, सैफ़, अक्षय खन्ना, प्रीती, सोनाली बेंद्रे और डिंपल वाली फ़िल्म की शूटिंग बंबई और सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) में हुई थी और श्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म का राष्ट्रीय अवॉर्ड भी मिला। इस की कहानी भी उस की अपनी थी। फ़िल्म को कई अवॉर्ड मिले।
2004 में आई उसकी कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि
में बनी ‘लक्ष्य’। उसी साल उस ने गुरिंदर सिंह की अमेरीका में बनी फ़िल्म ‘ब्राइड ऐंड प्रैजुडिस’ में गीत लिखे।
2006 की ‘डॉन’
(अमिताभ वाली डॉन से प्रेरित शाहरुख़ ख़ान वाली डॉन) बना और निर्देशत कर
क्राइम-थ्रिलर में नया रिकॉर्ड क़ायम कर दिया। अमिताभ वाली ‘डॉन’ की
पटकथा लिखी थी सलीम-जावेद की जोड़ी ने, इसकी पटकथा लिखी बेटे फ़रहान और पिता जावेद
ने। 1970 के वातावरण को इक्कीसवीं सदी जैसा तकनीक में विकसित दुनिया के अनुसार
ढाला और मलेशिया के शहर क्वाला लंपुर के ट्विन टावर का प्रयोग किया क्लाईमैक्स
में। यह और 2011 की ‘डॉन 2’
शाहरुख़ की बहुत लोकप्रिय फ़िल्में मानी जाती हैं। ‘डॉन 2’ में जितनी कमाई हुई उस तक फ़रहान की कोई और
फ़िल्म अब तक नहीं पहुंच सकी है।
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अरविंद कुमार |
मेरी राय में मिलखा सिंह के जीवन से प्रेरित राकेश ओमप्रकाश मेहरा
द्वारा निर्मित-निर्देशित 2013 की ‘भाग मिलखा भाग’ में मिलखा सिंह की भूमिका में फ़रहान उत्कृष्ट अभिनेता के रूप में
उभर कर आया था। अपने को मिलखा के कई रूपों में ढाल पाना और परदे पर दर्शकों को
मिलखा की उपलब्धियों से अभिभूत करना विलक्षण ही था। यदि वह कहीं भी कमज़ोर पड़
जाता तो फ़िल्म सुपर हिट हो ही नहीं सकती थी। मिलखा और उन की बेटी सोनिया ने मिल
कर लिखी ‘द रेस ऑफ़ माई लाइफ़’। कुल एक रुपया ले कर उस का फ़िल्मांकन अधिकार देकर मिलखा ने एक
तरह से देश को ही समर्पित कर दिया था।
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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