हिन्दी ब्लॉग/पोर्टल की दुनिया में सबसे लंबे
धारावाहिक संस्मरण का नया रिकॉर्ड
माधुरी के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता, भाग 99
मित्रो,
यह पड़ाव एक सपने के सच हो जाने से जरा भी कम नहीं।
पिछले दो साल से आदरणीय अरविंद कुमार
जी पिक्चर प्लस के लिए साप्ताहिक स्तंभ नियमित तौर पर लिख रहे हैं। उनकी लेखनी और
शब्दावली से माधुरी युग मानो पुन: जीवंत हो गया। चारों
तरफ से उनके चाहने वालों ने जिस तरह से उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं,
निश्चय ही वे अप्रतिम हैं। ये प्रतिक्रियाएं जताती हैं कि हम आज भी
सामाजिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता और सुसंस्कृत साहित्यिक संवेदना से युक्त हैं। बस
दरकार है, संयत उपलब्धता की।
माधुरी के बचपन से ही हम सब मुरीद रहे।
एक ऐसी पत्रिका जिसमें साहित्य, सिनेमा, मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का सम्यक और
सुरुचिपूर्ण समायोजन होने के बावजूद वह व्यावसायिक तौर पर सफल थी, उसके पीछे की
साधना और संलग्नता के विषद और गहन अनुसंधान की दरकार है। यह प्रसन्नता की बात है
कि देश के कई विश्वविद्यालयों में सिनेमा या कि पर्फॉर्मिंग आर्ट एक फैकल्टी है और
जहां माधुरी की इन्हीं उपलब्धियों पर कई गुणी जनों ने शोध किये हैं और कर भी रहे
हैं। ऐसे में जाहिर है उस माधुरी के संस्थापक-संपादक से सीधे साक्षात्कार का अवसर
एक ऐतिहासिक घड़ी है।
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अरविंद कुमार |
मुझे गर्व है कि मैंने उस संस्थापक-संपादक
का सान्निध्य पाया और उनकी सह्रदयता का मैं सदैव कायल हूं कि उन्होंने हमारी ख्वाहिश
का दिल से ख्याल रखा।
बात उन दिनों की है, जब मैं पिक्चर
प्लस पत्रिका को प्रकाशित करने के लिए आतुर था। उनसे टिप्स लेने गया था। मेरी तड़प
माधुरी की उन सफलताओं के सारे राज जानने की थी। कई दौर की मुलाकातें होती रहीं। मैं
उनसे उस दौर की कई अहम बातें सुनता गया। पिक्चर प्लस के शुरुआती अंकों में कुछ
उसकी झलकियां पिरोने की कोशिश की। जिन लोगों ने पिक्चर प्लस के शुरुआती अंक देखे
हैं, उन्हें उस दौरान पाठकों से मिली प्रतिक्रियाओं से यह जरूर अहसास हुआ होगा कि हम आखिर किस दिशा में जाना चाहते हैं। हमारी
उस लगनशीलता की खुद अरविंद जी ने भी कई बार तारीफ की किन्तु किसी भी सिद्धी के लिए
जिस तप और न्याय के पथ पर स्थिर साधना की जरूरत होती है उसे आत्मसात कर पाना मेरे
लिए कहां संभव था! माधुरी केवल और केवल अरविंद जी ही
निकाल सकते थे। टाइम्स घराने की वह पत्रिका बाद के दौर में भी पहले जैसे ही साधनों
से संपन्न रहीं लेकिन विभिन्न आयामों की ऊंचाई कायम नहीं रह सकी।
बहरहाल अब पिक्चर प्लस के ऑनलाइन संस्करण की बारी थी।
यों माधुरी सिनेवार्ता श्रृंखला की रूप रेखा पिक्चर प्लस के प्रिंट संस्करण में ही
धारावाहिक तौर पर प्रकाशित करने के लिए बनीं थी किन्तु बाद में उसे ऑनलाइन संस्करण
में समायोजित किया गया।
मुझे उस दिन तब अपार हर्ष हुआ जब मैंने उनसे इस तरह
की श्रृंखला के बारे में जिक्र किया और उन्होंने इस पर अपनी सहमति जताई ; साथ ही यह
टिप्पणी भी दी कि इतने सालों में लोगों ने मुझसे साक्षात्कार तो अनेक बार लिये
लेकिन आज तक किसी ने भी माधुरी युग के बारे में संस्मरणों को लिखने के लिए नहीं
कहा। ऐसे पहले शख्स तुम हो। मैं जरूर लिखूंगा और लिखता रहूंगा।
हालांकि शुरुआत में वो हिचकिचाए थे। उन्होंने कहा कि
मैंने सितारों की बुराइयां भी बहुत देखी हैं। उनकी पार्टी में, उनके रहन रहन में
उनके रिश्तों में। लेकिन उसे याद करना या उसके बारे में अब लिखना औचित्य नहीं
बनता। तब मैंने कहा कि हमारा मकसद सितारों की बुराइयों या उनकी नकारात्मकता को
दुनिया के सामने लाना नहीं है बल्कि उनकी सकारात्मकता, संवेदनशीलाता, उनकी
विद्वता, सुंदरता और उनकी कलात्मकता को प्रस्तुत करना है। चूंकि उस गोल्डेन पीरियड
के आप साक्षी रहे, लिहाजा आपसे बेहतर इस दौर को और कौन बयां कर सकता है।
इसी बात ने उनके दिल के किसी कोने को छू लिया। और फिर
उनकी लेखनी चल पड़ी।
मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि दो साल से यह सिलसिला
नियमित जारी है।
मित्रो, पिक्चर प्लस पर अरविंद
जी का बहुचर्चित स्तंभ माधुरी सिनेवार्ता अगले हफ्ते 100वें भाग में पहुंचने वाला
है। यह पल गौरवांवित करता है। सिने पत्रकारिता जिस तरीके से आज पतित हुई है,
वैसे दौर में लोग अरविंद जी को लोग पढ़ते हैं तो दिल में एक उम्मीद
जगती है कि आशांवित रहने की वजह अभी खत्म नहीं हुई।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है हिन्दी ब्लॉग
में ऐसा कोई और नियमित स्तंभ नहीं जो इतनी लंबी अवधि तक चला हो। अगर मेरी जानकारी
कमजोर हो तो कृपया नए तथ्य से जरूर अवगत कराएं। निश्चय ही यह प्रवाह अरविंद जी
जैसे ऋषि तुल्य साधक लेखक अनुसंधानकर्ता और संपादक से ही संभव है।
इसी के साथ सौवें भाग की एक झलक प्रस्तुत
है – जिसे आप सब अगले हफ्ते पढ़ेंगे विस्तार से:-
अगले रविवार आप पढ़ेंगे
शांताराम के मनस्पटल पर अंकित थे बचपन के दृश्य:
भगवे कपड़े पहने ‘रामरक्षा’ कहते रामदासी साधु, शुक्रवार को रेणुका देवी का भजन गाते समय बीच में ‘उदे आई, उदे आई’ गुहार लगाती ‘जोगवा’ माँगने वाली जोगनियाँ, सोलह हाथ की साड़ी पहने आने वाले हिजड़े, ढोलक बजाते नंदी बैल, मकर संक्रांति के दिन मिट्टी के छोटे छोटे और गणपति
उत्सव पर काली काली गणेश मूर्तियाँ बेचने वाले कुम्हार, नाग पंचमी पर सिर पर टोकरियों में नाग लाने वाले
सँपेरे टोकरी उतारते, बीन
बजाते और उस की धुन पर
फुँकारता झूमता नाग, और, हाँ, ‘कड़क
लक्ष्मी’ के कपड़े, बिखरे
बाल, अपनी पीठ पर कड़ाक कड़ाक कोड़े लगाने की अदा, उस का
बंद संदूक़ रखना और साथ आए आदमी का संदूक़ के सामने बैठ जाना और गुहार लगाना, “बया, द्वार
खोलो खोलो”, संदूक़ का अपने आप खुल जाना, अंदर
रखी देवी के मुखोटे का दर्शन कर के आई का उस कड़क लक्ष्मी को अनाज देना। इसी तरह
शाम को मंदिर में कथा कीर्तन में प्राचीन आख्यानों को रोचक बनाने के लिए झाँझ
मंजीरा और मृदंग की ताल पर गाए गीत, कथा
के मध्यांतर में लगाया जाता काजल का काला टीका जिसे ‘बुक्का’ कहते
थे, राम रावण युद्ध का वर्णन करते भजनीक का वीर रस की साक्षात् मूर्ति
बन जाना...
मित्रो
100वें भाग की पूर्ति से पूर्व मैंने
उनके निवास पर जाकर उनसे मुलाकात की और उन्हें इस उपलब्धि को लेकर साधुवाद दिया।
और इस दौरान कुछ बातचीत भी की। जिसे
वीडियोबद्ध किया है।
आप सभी पिक्चर प्लस के सुधी पाठकों के
लिए उस वीडियोवार्ता के लिंक्स नीचे दिये गये हैं।
अरविंद जी को तो हमने पढ़ा ही है, अब
उनको सुनेंगे तो यकीनन खुद को और भी ऊर्जावान महसूस करेंगे।
और हां, एक बात और अतीव गर्व
के साथ बताने योग्य है कि 100वें भाग के बाद भी पिक्चर प्लस पर अरविंद कुमार से
माधुरी सिनेवार्ता की शृंखला जारी रहेगी।
सादर।
संजीव
श्रीवास्तव
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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