शताब्दी पुरुष चित्रपति शांताराम – एक.
बाबूराव
पेंटर ने बताया, “शांताराम, अब
तुम्हें वेतन भी मिलेगा – नौ रुपए!”
शांताराम
ख़ुश – “भोजन के लिए आठ रुपए और साबुन तेल के
लिए एक रुपया। और क्या चाहिए!”
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–100
बीसवीं सदी के पहले साल सन् 1901 को 18 नवंबर को जन्मा
और सन् 1990 की 30 अक्तूबर तक जीने वाला, सन् 1921 से 1987 तक लंबे छियासठ साल
सिने संसार में सक्रिय रहने वाला, एक से एक अच्छी गूंगी और बोलती हिंदी और मराठी
फ़िल्में देने वाला, ‘शांताराम और राष्ट्रीयता’ (मूल मराठी में ‘शांताराम आणि
राष्ट्रीयत्व’) जैसे मोटो वाला शख़्स सही माने में शताब्दी पुरुष था। वह फ़िल्मों के लिखे
जाते ककहरे के साथ बड़ा हुआ और उसे एक संपूर्ण समृद्ध सिनेभाषा तक विकसित करने में
अमूल्य योगदान किया, कोल्हापुर से बरास्ता पुणे मुंबई तक आया और देश से सार्थक
संवाद करता रहा। आज़ादी की बढ़ती लड़ाई में और देश आज़ाद होने के बाद सामाजिक और
सांस्कृतिक संचेतना को अपनी फ़िल्मों में पिरोता रहा। मेरा सौभाग्य था कि जनवरी
1964 के गणतंत्र दिवस पर प्रकाशित ‘सुचित्रा’ (बाद में ‘माधुरी’) के लिए उनके
सुझावों से उपकृत होता रहा।
अंक छप कर आ गया। दफ़्तर में बैठा मैं मित्रों, परिचितों
की बधाइयां टेलिफ़ोन पर सुन रहा था। उसी दिन पत्रिका के स्वागत में कंपनी के बोर्ड
की मीटिंग रखी गई थी। श्रीमती रमा जैन आदि सदस्यों की ओर से प्रशंसा संदेश मिल रहे
थे। पहले अंक के मुखपृष्ठ पर आवक्ष मीना कुमारी विराजमान थीं। वे बाईं ओर कुछ ऊपर मानों
भविष्य को निहार रही थीं।
पहले पेज पर संपादक के तौर पर मेरे छोटे से लेख में ‘सुचित्रा’ ने वादा किया था, “मैं आप के लिए
सस्ती गॉसिप से दूर स्वस्थ सामग्री लाया करूंगी।”
मीना कुमारी वाली कवर स्टोरी के बाद साहित्यकारों के
लेखों में सबसे पहला किशन चंदर का था। कुछ फ़िल्म वालों के लेख छपे थे - जैसे ‘फ़िल्मफ़ेअर’ में नहीं होते
थे। कई फ़ीचर ‘फ़िल्मफ़ेअर’ से प्रेरित थे।
एक प्रति शांताराम जी के पास पहुंची, एक एक पेज ध्यान से
देखा। छपने के लिए प्रशंसा अपने हाथों लिखी, और मुंहज़बानी संदेश मुझे भेजा- “पत्रिका पर ‘फ़िल्मफ़ेअर’ की झलक है। यह
नहीं होनी चाहिए!” संदेश मिलते ही मैंने उन्हें फ़ोन किया, “अन्ना साहब, मैं आप का आभारी
हूं। मेरा दावा है छह महीने बाद आप स्वयं मुझे फ़ोन करेंगे और कहेंगे कि अब यह
पूरी तरह स्वतंत्र पत्रिका है।” उनका सौजन्य था कि उन्होंने याद रखा और संतुष्ट होते ही
मुझे बधाई दी।
मैं बीस इक्कीस साल की उम्र से ही उनका प्रशंसक था। जहां
तक होता उनकी सभी फ़िल्में देखता था। जयश्री वाली ‘डॉक्टर कोटणीस की
अमर कहानी’ मैंने किसी मॉर्निंग शो में देखी थी। बनी तो वह तब थी जब मैं सोलह साल का
था। तब फ़िल्म नहीं देखता था। उसका एक पार्श्व संवाद “हम हिंदुस्तान जा रहे हैं, चिंगलान” मुझे अब तक याद है।
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सावकारी पाश : पगड़ी बांधे खड़े शांताराम |
सावकारी पाश
मैं बात शुरू करना चाहता हूं – कोल्हापुर में महाराष्ट्र
फ़िल्म कंपनी में 1925 में बनी साइलेंट फ़िल्म ‘सावकारी पाश’ (‘साहूकार का फंदा’) से। यह
वह फ़िल्म थी जिसने रचा था वह शांताराम जिसे मैं ‘सिनेमा का
शताब्दी पुरुष’ कह रहा हूं। महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी के
संचालक बाबूराव पेंटर कमाल के जुगाड़ू आदमी थे। अपना कैमरा उन्होंने आप बनाया था।
शुरुआत की थी पौराणिक कथानकों से या शिवाजी की वीरता की कहानियों से।
‘सावकारी पाश’ कोई पौराणिक कथानक नहीं थी, साहूकारों द्वारा लुटे और सताए किसानों की
दुर्दशा का यथार्थवादी चित्रण थी। इसका आधार था मराठी के मशहूर उपन्यासकार नारायण
हरि आपटे का एक मार्मिक और सामयिक उपन्यास। पटकथा भी उन्हीं से लिखवाई गई थी।
बाबूराव
पेंटर की सभी फिल्मों में यह सरताज थी। आज अच्छी फ़िल्म के जितने भी विशेषण प्रयोग
किए जाते हैं वे सब इस फ़िल्म पर उन दिनों लागू हो सकते थे। कुल दो तीन शब्दों में
इसे परिभाषित किया जा सकता है – ‘समांतर’, ‘प्रायोगिक’, ‘लीक से हट कर बनी ’कलाकृति। फ़िल्म शुरू होती है: नायक (शांताराम) रूई की बड़ी
बड़ी गांठें उठा रहा है। फ़्लैशबैक में उसे बीता जीवन याद आता है। उसकी शादी के
लिए मां बाप ने कर्ज़ लिया था गांव के बहुत नीच और कंजूस साहूकार के पास खेत गिरवी
रख कर। साहूकार उन का सब कुछ – ज़मीन जायदाद, घर बार - हड़प गया। दर दर की ठोकरें
खाते वे लोग शहर पहुंचे। बेटा मिल मज़दूर बन गया है। मर्मस्पर्शी फ़िल्म के अंत
में वही सावकार अपनी पेड़ी पर बैठा है। एक और किसान उस से कर्ज़ लेने आता है। पहले
किसान की भांति साहूकार इस किसान का भी हाथ पकड़ कर ऋणपत्र पर अंगूठा लगवा लेता
है। यही दुष्चक्र चलते ही रहने वाला है।
टिकट खिड़की पर तो फ़िल्म
बुरी तरह फ़ेल हो गई पर आज तक भारतीय सिनेमा के इतिहास में उसका उल्लेख अति सम्मान
के साथ होता है। बंबई से उन दिनों ‘सोशल
रिफ़ार्मर’ नामक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका के संपादक नटराजन ने ‘सावकारी
पाश’ को सराहा ही नहीं बल्कि लिखा, “समाज में व्याप्त
अज्ञान को मिटाने के लिए ऐसे चित्रपट बहुत बड़ी संख्या में बनाए जाने चाहिएं।”
इस लेख ने शांताराम के
विचारों को नई दिशा दी।
बचपन
पिता राजाराम वणकुद्रे गांवगांव
नाटक दिखाने वाली किसी मंडली के मैनेजर थे।उस नाटक कंपनी का क्या हुआ, राजारामने
उसे क्यों छोड़ दिया - यह अब कोई नहीं जानता। तब बालक शांतारामचार पांच साल का था।
अब वे कोल्हापुर में जोशी राव के गणपति के मंदिर के पीछे संकरी गली में रहने लगे थे। उनके घर आती जाती मौसी राधा को पांचों भाई ‘माई’ कहा करते थे। आई बड़ी और माई छोटी बहनें थीं। शांता
के नाना वकालत किया करते थे। दिन में आठ आने या रुपया भर कमा पाते। कचहरी से लौटते
समय सागसब्ज़ी बेचने वालियों से भावताव करते, थोड़ी सी ज़्यादा
सब्ज़ी छीन कर अपने झोले में डाल लेते। नानी से बच्चे बहुत डरा करते थे।
बापू दोपहर दुकान बंद करके
भोजन के लिए घर आते, अपने हाथों खिचड़ी पकाते, उस पर उस पर घी,
अचार, पापड़, चटनी डाल कर खाते थे। आई तरह तरह
के व्यंजन बनाती, किंतु बापू उनकी बनाई रसोई नहीं खाते थे। बापू जैन थे और आई हिंदू। सन् 1896 में दोनों का
अंतरधर्मीय विवाह हुआ था। धर्म आदि बातों का बड़ा भारी दबाव था। ज़रा सी हट कर
किसी ने कोई बात की और समाज ने उस के साथ रोटी पानी का व्यवहार बंद कर दिया! कोल्हापुर से दूर श्री दत्तात्रेय के तीर्थ स्थान पर बापू ने विवाह किया
था। केवल समाज की भावना की ख़ातिर बापू अपना भोजन अलग से पका कर खाते थे। भोजन का
यह अलगाव कुछ साल बाद छूट गया। बापू कभी एक दुकान खोलते कभी दूसरी, पर चलती कोई
नहीं थी।
शांताराम की पढ़ाई शुरू हुई। पाठशाला
का नाम था हरिहर विद्यालय। चौथी के बाद अंग्रेजी स्कूल में दाख़िला कराया गया। वहां वह हाफ़-फ़्री छात्र था। शांताराम को पता चला कि ग़रीब बच्चे आधी
फ़ीस में पढ़ते हैँ। ग़रीबी क्या होती है – यह उसे जल्दी ही समझ में आ गया।
कोल्हापुर में मशहूर
किर्लोस्कर नाटक मंडली आई थी। नाटक मंडली के फ़ोटोग्राफ़र से बापू की अच्छी जान
पहचान थी। एक बार बापू उस से पूरे परिवार का फोटो खिंचवाने ले गए। मां ने सबसे
अच्छी साड़ी पहन ली। लेकिन पांचों भाइयों के फटे पुराने, मोटे और घटिया कपड़े देख
कर फोटोग्राफ़र ने उन्हें राजकुमारों वाले ज़रीदार मख़मली कपड़े दिलवाए। वे बड़े
और ढीले थे। उन्हें पहनकर हम लोग राजकुमारों जैसे अकड़ कर फोटो के लिए खड़े हुए
खड़े हो गए। फ़ोटो खिंचे, मुलायम और भारी कीमत के कपड़े बच्चों ने लौटा दिए।
शांताराम ने सोचा, क्या इसे
ही ग़रीबी कहते हैं। बच्चे के मन में प्रश्नों का अंबार लग गया। मां से पूछा, “मां, क्या हम लोग गरीब हैं? स्कूल में मेरी आधी फ़ीस क्यों
माफ़ की गई है। ग़रीब लड़कों की माफ़ की जाती है ना? हम लोग गरीब हैं?”
हार कर मां ने कहा, “अरे बाबा, हम लोग अमीर नहीं हैं!”
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शांताराम के मनस्पटल पर अंकित
थे बचपन के दृश्य: भगवे
कपड़े पहने ‘रामरक्षा’ कहते रामदासी साधु, शुक्रवार को रेणुका देवी का भजन
गाते समय बीच में ‘उदे आई, उदे आई’
गुहार लगाती ‘जोगवा’ मांगने वाली जोगनियां, सोलह हाथ की साड़ी पहने आने वाले हिजड़े, ढोलक बजाते नंदी बैल, मकर संक्रांति के दिन मिट्टी के छोटेछोटे और गणपति उत्सव पर काली काली
गणेश मूर्तियां बेचने वाले कुम्हार, नाग पंचमी पर सिर पर
टोकरियों में नागलाने वाले संपेरे टोकरी उतारते, बीन बजाते और उसकी धुन पर फुंकारता
झूमता नाग, और, हां, कड़क लक्ष्मी’ के कपड़े, बिखरे बाल,
अपनी पीठ पर कड़ाक कड़ाक कोड़े लगाने की अदा, उसका बंद संदूक़ रखना और साथ आए आदमी
का संदूक़ के सामने बैठ जाना और गुहार लगाना, “बया, द्वार
खोलो खोलो”, संदूक़ का अपने आप खुल जाना, अंदर रखी देवी के
मुखोटे का दर्शन कर के आई का उस कड़क लक्ष्मी को अनाज देना। इसी तरह शाम को मंदिर
में कथा कीर्तन में प्राचीन आख्यानों को रोचक बनाने के लिए झाँझ मंजीरा और मृदंग
की ताल पर गाए गीत, कथा के मध्यांतर में लगाया जाता काजल का काला टीका जिसे ‘बुक्का’ कहते थे, राम रावण युद्ध का वर्णन करते भजनीक का
वीर रस की साक्षात् मूर्ति बन जाना...
उन्हीं दिनों शांताराम ने नाटक क्या देखे कि नाटक
कंपनी में जाने की ठान ली। बापू मना करते रहे पर आख़िर
वे उसे पुणे में ‘गंधर्व
नाटक मंडली’ में ले गए और गोविंदराव के सुपुर्द किया, “शांताराम को लाया हूं, अब से
आप ही इसका पालन कीजिए!” साल भर वहां तरह तरह के नाटकों में
हिस्सा लिया, कई बार लंबे बालों के कारण उसे लड़की बनाया
जाता। साल बीतते बीतते ऊब कर वह घर लौट आया, लंबे बाल
कटवा दिए।
कोल्हापुर का दादू लोहार
मुंबई से सिनेमा दिखाने की एक छोटी सी मशीन ख़रीद लाया। दादू उस पर फ़िल्म की रील
चढ़ाते। पीछे से लाइट रील पर पड़ती तो सामने परदे पर चलती तस्वीर दिखाई देने लगती।
एक रील में मां बच्चे को खिला पिला रही है। एक अन्य में पुरुष
और स्त्री को लगातार चूमते दिखाया गया था। दस ग्यारह साल का शांताराम भी कभी कभी
रील चलाता था और तरह तरह के प्रयोग करने लगा। चुंबन वाली फ़िल्म को शुरू में बहुत
धीमी गति से घुमाता और बाद में स्पीड बढ़ाता, असर यह होता कि वह जोड़ा तेज़ी से
चुंबन करता दिखता, लोगों की हंसी के फ़व्वारे छूटने लगते।
गरमी की छुट्टियों में कुछ
कमाने के लिए उस ने श्री वेंकटेश्वर प्रेस में कंपोजिंग का काम किया। पहले पंद्रह दिन
में स्याही का रोलर चलाना और टाइप जमाना सीखा। कुछ पैसा घर ख़र्च में काम आता, कुछ
कोर्स की किताबें ख़रीदने में। लाइब्रेरी से किताबें लाकर रामायण महाभारत भागवत तो
पढ़ीं ही,
हरिनारायण आपटे के प्रेरक शिवाजीकालीन उपन्यास पढ़े। आपटे का ‘लेकिन ध्यान कौन देता है’ सामाजिक उपन्यास
मर्मस्पर्शी था: विधवाओं का सिर मुंडाना, बाल विवाह, महिलाओं में साक्षरता की आवश्यकता...बाद
में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के निबंध और महात्मा तिळक
का ‘गीता
रहस्य’ पढ़े।
तभी बापू राजाराम ने
कोल्हापुर की दुकान बेच कर कर्नाटक के हुबली शहर में डेक्कन सिनेमा में नौकरी कर
ली। बड़ा भाई किसी और गांव में सिनेमा की नौकरी करने चला गया। वहां फ़िल्म चालू
होने पर उसके दृश्यों पर पियानो बजाता और विदेशियों से आने वाली फिल्मों की
इंग्लिश जानकारी का मराठी अनुवाद बताता।
शांताराम मैट्रिक की परीक्षा
में संस्कृत में फेल हो गया। पढ़ाई समाप्त हुई, शांता ‘मैट्रिक-फ़ेल’ रह गया।
सब लोग हुबली आ गए। डाक विभाग
में लड़कों की नौकरी के लिए परीक्षा में शांता फ़ेल हो गया। हुबली में रेलवे वर्कशॉप
में फ़िटर की नौकरी में प्रतिदिन आठआने मिलते थे। एक बार वहां हाथ घायल हो गया।
कुछ दिन जा नहीं पाया, तो नौकरी छूट गई। किसी ने फ़ोटोग्राफ़ी की दुकान खोली, साथ
साथ मॉडर्न साइनबोर्ड पेंटिंग काम भी शुरू किया। उस में सहायक बन कर शांता को
फ़ोटो, फ़िल्म, नेगेटिव, पॉज़ीटिव, डेवलपमेंट की मोटी मोटी जानकारी मिली। दिन भर
काम करने के बाद वह डेक्कन सिनेमा में डोरकीपरी करता, मिलता तो कुछ नहीं था, हां,
मुफ़्त देखने को फिल्म मिल जातीं। वहीं उस ने दादासाहब फालके की ‘लंका दहन’, ‘भस्मासुरमोहिनी’ और ‘हरिश्चंद्र’ देखी।
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बाबू राव पेंटर |
‘महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी’
भाग्य
पलटने वाला था।
शांता का मौसेरा भाई बाबूराव
पेंढारकर ‘महाराष्ट्र
फ़िल्म कंपनी’
में मैनेजर बन गया था। वह बाबूराव पेंटर द्वारा कोल्हापुर में
निर्मित ‘सैरंध्री’
डैक्कन सिनेमा में दिखाने लाया। शांता ने बाबूराव से पूछा, “क्या मैं भी तुम्हारे साथ काम कर सकता हूं?” उसने
कहा, “आकर देखो।”
शांता ने बापू से कहा। बापू जानते थे वह टलने वाला नहीं है, जो ठान लेता है, वह कर
के रहता है। शांताराम ने लिखा है, “बापू ने मेरे हाथ पर
रेलवे का टिकट और पंद्रह रुपए रखे और बोले, ‘और पैसों की ज़रूरत पड़ जाए
तो लिखना’।”
सन् 1918: महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी के संस्थापक-संचालक थे ‘सेठ’ बाबूराव पेंटर। ‘सेठ’ माने मालिक।
उन्होंने फ़िल्म कैमरा अपने हाथों बनाया था। उसी पर गूंगी फ़िल्म बनाते थे। कंपनी
में प्रमुख निर्देशक भी वही थे। प्रमुख सहायक और मित्र थे केशवराव धायबर,
विष्णुपंत दामले और फत्तेलाल।
बाबूराव पेंढारकर शांताराम को
‘सेठ’ बाबूराव पेंटर के सामने ले गया। वह कोई पेंटिंग
कर रहे थे। बोला, “यह मेरा मौसेरा भाई है, यहां काम करना
चाहता है, इसे रख लें?”
थोड़ी देर बाद पेंटर ने आंख उठाई, पैनी नज़र से देखा, “हुं” करके
फिर काम में लग गए। शांताराम कंपनी में लग गया! अब बाबूराव उसे ले गया
रसोईघर। खाना बनाने वाली से कहा, “तुलसाबाई, यह
मेरा भाई शांताराम है, यह भी आज से भोजन किया करेगा।”
अब बाबूराव शांता को सब से
मिलाने ले गया। शांता के घुंघराले बाल सभी देखते। एक ने कहा, “वाह काफ़ी स्मार्ट लगता है!”
कंपनी में अजब मंज़र था। सब
सभी काम करते थे। शांता ने बाबूराव से पूछा, “मुझे क्या काम
करना है?” जवाब मिला, “यहां कोई किसी को कोई काम नहीं बताता। जो काम होता देखो उसी में लग जाओ।”
शांता ने यही किया। धीरे धीरे वह सब सीखने लगा और मुस्तैदी व मेहनत
से लोकप्रिय हो गया।
उसी दिन बाबूराव शांता को ले
गया रसोईघर। खाना बनाने वाली से कहा, “तुलसाबाई यह
मेरा भाई शांताराम है, यह भी आज से भोजन किया करेगा।"
बाद में पता चला कि शांता के खाने के पैसे कंपनी नहीं बाबूराव देता था। मतलब शांताराम
कंपनी में अवैतनिक ऐप्रैंटिस होने के साथ साथ भोजन भी मौसेरे भाई के वेतन में से
करता था।
नई फ़िल्म ‘सुरेखा हरण’ की आरंभिक तैयारियां होने लगीं।
पृष्ठभूमि के परदों की पेंटिंग, पटकथा लेखन आदि काम हो रहे थे। अपनी कल्पना से बाबूराव
पेंटर कुछ दृश्यों के चित्र बना रहे थे। घीरे धीरे बरसात बीत गई। अब खुले मैदान
में शूटिंग हो सकती थी। खड़े खंभों पर परदे लगा दिए गए। एक दिन सब पेंटर के कमरे
में जमा हुए। जिस को जो पार्ट करना था उस का मेकअप करवाने के आदेश दे दिए गए।
शांताराम बचा था। पेंटर की पैनी नज़र का भेद खुला। बोले, “शांताराम, तुम भी मेकअप करवा आओ।” किशोर शांताराम दौड़ पड़ा।
पेंटर ने टोका, “यह स्कैच तो लेते जाओ, मेकअप का!” यह स्कैच था विष्णु भगवान का। मतलब बाद में शांताराम कृष्ण का भी रोल
करेगा – ‘सुरेखा हरण’ का हीरो -
शांताराम!
बाबूराव पेंटर ने बताया,“शांताराम, अब तुम्हें वेतन भी मिलेगा – नौ रुपए!”
शांताराम ख़ुश – “भोजन के लिए आठ रुपए, और साबुन तेल के लिए
एक रुपया। और क्या चाहिए!” हुबली में बापू ने आदर्श वाक्य
दिया था – “जो भी करो मेहनत से करो।”
शांताराम को वह याद आया। फ़िल्म की ऐडिटिंग में शांताराम ने पेंटर का हाथ बंटाया।
उस में बड़ी ग़लती हो गई। वह पेंटर ने सुधरवाई। शांताराम ने सिनेकला के ककहरे का
नया पाठ सीखा। इस तरह धीरे धीरे वह सिनेकला का विशारद होता गया। “ग़ल्तियों से डरो मत, सीखो!”
और
एक दिन बड़ी दुर्घटना हो गई। ऐडिटिंग रूम में आग लग गई। गूंगी ‘सैरंध्री’ और ‘सुरेखा
हरण’ के नेगेटिव जल गए। कैमरा भी वहीँ रखा था। एक बलिष्ठ
कर्मचारी बड़ी मुश्किल से निकाल पाया। कुछ मशीनी पुरज़े पिघल गए थे। तटस्थ
निर्विकार योगी की तरह बाबूराव पेंटर एक एक पुरज़ा निकालते, अगल रख देते।
हृदयद्रावक दृश्य से सब रुआंसे हो रहे थे।
इस
घटना/दुर्घटना से कंपनी में परिवर्तन शुरू हुए। सिनेमा उद्योग
बनने की तरफ़ बढ़ रहा था। कंपनी में नया साझीदार आया। कोल्हापुर राज्य के श्रीमंत
सरदार नेसरीकर ने पूंजी लगाई। नया कैमरा आया। यह हलका था, कई और अच्छी बातें थीं
इस में। ‘सिंहगढ़’ की शूटिंग शुरू हो गई... ऐडीटिंग में दामले का हाथ बंटा
रहा था शांताराम। ककहरे में आगे पढ़ा एक और पाठ। बंबई से फ़िल्म प्रदर्शन के बाद
बाबूराव पेंटर कोल्हापुर लौट आए। शांताराम का वेतन अब पंद्रह रुपए हो गया। ‘सुरेखाहरण’ को
नए नाम ‘मायाबाज़ार’ से दोबारा बनाया। शांताराम हीरो तो था ही, एडिटिंग
भी उसी ने की। कंपनी की आर्थिक अवस्था सुधर गई। शांताराम के पिता को अकाउन्टैंट
बना कर पच्चीस रुपए महीना मिलने लगे, शांताराम को पचास रुपए!
“यही था हमारा रोमांस!”
शादी
की बात चली। मौसेरा भाई बाबूराव पेंढारकर और शांताराम गए लड़की देखने। इस तरह बारह
साल की विमल से शादी हो गई। उन दिनों रिवाज़ था पति की जूठी थाली मॆं पत्नी खाती
थी। जब कोई अच्छा व्यंजन या मिठाई बनती, शांताराम उसका ज़्यादा भाग छोड़ दिया करता
था। “यही था हमारा
रोमांस!” शांताराम
ने लिखा है।
शादी
से कुछ दिन पहले शांता के घर के सामने ‘लक्ष्मीप्रसाद’
सिनेमाघर खुला था। उस के मालिक बेलगांव के धनी कृष्णराव हरिहर ने शांताराम को
मैनेजर बनने के लिए राज़ी कर लिया। शांताराम को आकर्षण था - फ़िल्म व्यवसास के
आख़िरी पड़ाव सिनेमाघर व्यवसाय को भीतर से समझना। फ़िल्मी ककहरे का यह अंतिम अक्षर
‘ह’ था।
बाबूराव पेंटर की नई फ़िल्म ‘कल्याण का ख़ज़ाना’ में
शांताराम की कोई प्रमुख भूमिका नहीं थी। अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए वह बाबूराव
पेंटर के सहायक के रूप में सारी प्रक्रिया आत्मसात् करता रहा। अनुभव से बड़ा कोई
शिक्षक नहीं होता। एक के बाद एक कई फ़िल्में बनती रहीं।
1935
में बनी आख़िरी फ़िल्म थी – ‘सावकारी पाश’। इसी
से शांताराम का अपना निजी दृष्टिकोण विकसित हुआ था। इसी समय उसने लेखक हरिनारायण
आपटे के उपन्यास ‘न पटणारी गोष्ट’ पर
विस्तार से चर्चा की थी। बाद मॆं यही उपन्यास शांताराम की पहली सामाजिक फ़िल्म ‘दुनिया
न माने’ का आधार बना।
अब बचा था फ़िल्मी ककहरे का
सबसे महत्वपूर्ण पाठ – निर्देशन।
उसका
अवसर अपने आप आ गया। एक शाम कोल्हापुर राज्य के श्रीमंत सरदार नेसरीकर पेंटर जी के
साथ बैठे थे। उन्होंने शांताराम को बुलवा भेजा। बोले, “क्यों,
शांताराम, आप और केशवराव धायबर मिल कर एकाध फ़िल्म का निर्देशन
करने को तैयार हो?” शांताराम ने कहा, “यदि बाबूराव
पेंटर को पसंद हो, तो...। ”सरदार नेसरीकर के सामने पेंटर मना नहीं कर पाए।
चुनौती
शांताराम ने स्वीकार कर ली। केशवराव धायबर के साथ मिलकर शिवाजी के नायक ‘नेताजी
पालकर’ पर कहानी बना ली। कारण था कि शिवाजी संबंधी सामग्री
सब कंपनी में थी। ख़र्चा कम होगा। लड़ाई के दृश्यों में नए प्रयोग किए। इससे पहले
रात के समय लड़ाई के लिए आतिशबाज़ी की रोशनी से काम चलाया जाता था। शांताराम और
केशवराव ने एक के बाद एक तोप दागी और तेज़ी से गोले चमके भड़के।
पूरी सेना दिखाई देने लगी। फ़िल्म पूरी हुई। मुंबई में
प्रदर्शन के लिए पेंटर जी निर्देशकों को नहीं ले गए। सारी प्रशंसा अपने आप बटोरी
और स्वर्ण पदक भी उन्होंने लिया। शांताराम और केशवराव को दिखाया तक नहीं। मन में
वितृष्णा जागी। पर दोनों चुप रहे।
कंपनी
में भारी परिवर्तन हो रहे थे। लंदन पलट गिडवानी दिग्दर्शक नियुक्त हुए। उसी समय
बाबूराव पेंढारकर कंपनी छोड़ गए। असंतोष शांत करने के लिए मालिकों ने वेतन बढ़ाए।
शांताराम का वेतन पचास से बढ़ कर एक सौ तीस हो गया।
कंपनी
में जो घुन लग गया था उसके परिणामस्वरूप नौ साल के बाद शांताराम महाराष्ट्र फ़िल्म
कंपनी से जुदा हो गया। शांताराम, केशवराव, फत्तेलाल और दामले ने नई कंपनी बना ली –
‘प्रभात’ ।नाम
सुझाया था मौसेरे भाई बाबूराव पेंढारकर ने।
अगली क़िस्त - शताब्दी
पुरुष चित्रपति शांताराम (2) प्रभात
फ़िल्म कंपनी - कोल्हापुर से पुणे
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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