शताब्दी पुरुष चित्रपति शांताराम – दो.
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–101
![]() |
प्रभात फिल्म कंपनी का लोगो |
“मन
साफ़ तेरा है या नहीं पूछ ले जी से/
फिर
जो कुछ भी करना है तुझे - कर वो ख़ुशी से/
घबरा ना किसी से”
पिछली
क़िस्त के अंत में आप ने पढ़ा-
“कंपनी
में जो घुन लग गया था उसके परिणामस्वरूप नौ साल के बाद शांताराम महाराष्ट्र
फ़िल्म कंपनी से जुदा हो गया। शांताराम, केशवराव, फत्तेलाल और दामले ने नई कंपनी
बना ली – ‘प्रभात’। नाम सुझाया था मौसेरे भाई बाबूराव पेंढारकर ने।” बाद
में वह कंपनी के मैनेजर बने।
प्रभात फ़िल्म कंपनी
कोल्हापुर
में महादू मिस्तरी का कुश्ती का अखाड़ा और उसके पास कुछ कमरों वाला मकान और बग़ल
में ख़ाली जगह कंपनी के लिए ले ली गई। सड़क के किनारे का आठxबारह
का कमरा बना दफ़्तर। लेकिन पैसे की कमी थी। पांचवें साझीदार बने सीताराम पंत
कुलकर्णी। एक सैकंड हैंड कैमरा ख़रीदा गया। पहली फ़िल्म के लिए आगफ़ा कंपनी से
उधारी पर रॉ स्टॉक मिल गया। काम शुरू ! उम्र में सबसे छोटे सत्ताईस साल के शांताराम ने वहां
अट्ठारह फ़िल्में बनाईं। पहली थी गोपाल
कृष्ण। कृष्ण के बचपन का चित्रण।
गायों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाने की लीला उसका एक दृश्य था। विशेषता यह
थी कि शांताराम ने पौराणिक कथा को पूरी तरह सामयिक बना दिया था। वह स्वयं गांधी की
आंधी में रमे थे। कृष्ण बन जाता है औपनिवेशिक सत्ता का विरोधी। कंस में नज़र आता
था अत्याचारी राज। अपने समय में इस गूंगी फ़िल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। अब
कंपनी के पास पैसे की कमी नहीं थी। इसके पांच और गूंगी फ़िल्म बनाईं कंपनी ने इनमें
से तीन – ‘ख़ूनी खंज़र’, ‘रानी
साहिबा’ (भारत की पहली बाल फ़िल्म), ‘उदय
काल’ – का निर्देशन किया शांताराम ने।
शांताराम
ने इंग्लिश की कई स्वैशबकलिंग फ़िल्म देखी थीं – जिनमें सभी पात्र किसी ऐतिहासिक
या डकैत के शानदार कपड़े पहने तलवारबाज़ी और तमंचेबाज़ी के करतब दिखाते और नायिका
की रक्षा कर के अपना बनाते हैं। मज़े मज़े में ख़ूनी खंज़र बना
डाली। इसका ब्योरा शांताराम ने इस तरह दिया है,“बलात्कार
के दृश्य में मैं हाथापाई नहीं दिखाना चाहता था। मैंने दिखाया खलनायक नायिका की ओर
आने लगता है। वह डर के मारे दीवार की ओर मुंह फेर कर खड़ी हो जाती है। खलनायक तलवार
की नोंक से नायिका की चोली के पीछे के बंद काट देता है। उरोजों को हाथों से ढंके
वह पीठ दीवार से सटा कर खड़ी हो जाती है। वह फिर उसके पास जाता है। तलवार से उसकी
जांघ पर साड़ी फाड़ देता है।”...
इसी
फ़िल्म में एक ‘लिंगरिंग शॉट’
(लंबाई में देर तक चलने वाला शॉट) था - नायक का धीरे धीरे बंद कमरे की लंबाई
चौड़ाई नापना। उद्देश्य था नायक का एकाकीपन और न कटने वाला बोर करने वाला समय रेखांकित
करना। (‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ में ऐसा ही एक अद्भुत लिंगरिंग शॉट था – कोटनीस डॉक्टरी पास कर के आया है।
पिता ने उस के लिए पूरा डॉक्टरी कार्यालय बनाया है। पिता उसे एक से कई कमर में ले
जाता है। डॉक्टर की कुर्सी को गोल गोल घुमाता है। साथ में बयान करता जा रहा है। कोटनीस
उसके साथ साथ चल रहा है - यह सब एक ही शॉट में दिखाया गया था। आज तक मेरी आंखों
में वह शॉट दिखने लगता है।)
इस
फ़िल्म के संयुक्त निर्देशक थे केशवराव धायबर। कैमरा चलाया था शेख़ फत्तेलाल और
विष्णुपंत गोविंद गोखले ने। कलाकार थे माने पहलवान, गणपत शिंडे, पी. जयराज,
साखरीबाई और शंकर भोंसले। दर्शकों को भी मज़ा आया। कंपनी की आय बढ़ी, पर इसके बाद
शांताराम ने ऐसी फ़िल्में नहीं बनाई। उसने बस हाथ आज़माया था।
इसी
तरह ट्राई की भारत की पहली बाल फ़िल्म 1930 की रानी साहिबा या बजरबट्टू।
संयुक्त निर्देशक थे केशवराव धायबर। कलाकारों में थे स्वयं केशवराव धायबर के साथ
बाबूराव पेंढारकर, शांताराम और अनंत आपटे। बाल कलाकार अनंत को लोग बजरबट्टू ही
कहने लगे थे।
शांताराम
और केशवराव धायबर ने साथ मिल कर उदयकाल का भी निर्देशन किया। आरंभ में इसका नाम रखा गया था
स्वराज्याचा तोरण (स्वतंत्रता का ध्वज)। ब्रिटिश सरकार के सेंसर को स्वराज्य या
स्वंत्रता शब्दों पर आपत्ति थी। उनके सुझाव पर ही नाम रखा गया उदयकाल (प्रातःकाल
या उत्थान काल) (पर्वतों की दहाड़)। शांताराम ने कहीं कहा है कि नेताजी पालकर और
उदयकाल में पहली बार शिवाजी को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेश किया गया था।
अब
तक प्रभात की सभी फ़िल्म गूंगी थीं। 1932 की अयोध्येचा राजा (हिंदी में अयोध्या
का राजा) कंपनी की पहली बोलती
फ़िल्म थीँ। निर्देशन अकेले शांताराम का था।
विषय
था सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग। गोविंदराव तेंबे बने थे राजा हरिश्चंद्र
और दुर्गा खोटे थीं रानी तारामती। महाजन गंगानाथ की भूमिका की थी बाबूराव पेंढारकर
ने और बाल कलाकार मास्टर विनायक था रोहिताश्व। शांताराम की यह पहली बोलती फ़िल्म
सिनेमाई ककहरे में उल्लेखनीय पड़ाव थी।
अयोध्येचा राजा |
इस भी बड़ा और महत्वपूर्ण प्रयोग थी 1937 की सैरंध्री –
भारत की पहली रंगीन फ़िल्म। शूटिंग में आगफा की रंगीन तकनीक का प्रयोग किया गया
था। जैसा कि इस तस्वीर से स्पष्ट है दाहिनी ओर ऊपर दो अलग रीलों पर दो कैमरों से
एक साथ एक ही गति से शूटिंग की गई। उनके मेल से जो तस्वीर बनी वह बाएं बड़ा चित्र
दरशा रहा है।
यह पूरी तरह साहसी प्रयोग था। शूटिंग आगफ़ा की 35 एमएम श्वेतश्याम नेगेटिव पर की गई थी। रिलीज़ के लिए
रंगीन प्रिंट जर्मनी में आगफा की लेबोरेटरी में बाइपैक (Bipack) कलर प्रिंटिंग प्रक्रिया
से की गई थी।
सैरंध्री का एक चित्र |
शांताराम एक पूरे दल के साथ तमाम शूट की गई रीलें साथ
लेकर जर्मनी में आगफा की कार्यशाला गए। आरंभिक परिणाम निराशाजनक थे। दस पंदरह दिन
बाद भी जो प्रिंट हाथ लगे वे बस काम चलाऊ थे। शांताराम अपने साथ पूरा साउंड ट्रैक
ले गए थे। ‘सैरंध्री’ के सब गीतों के हज़ार हज़ार रिकार्ड वहीं अंकित करा
लिए। पहली बार किसी बोलती फ़िल्म के गीतों के रिकार्ड बाज़ार में धड़ाधड़ बिके।
लेकिन भौंडे भड़कीले रंगों के कारण फ़िल्म एक ही सप्ताह चल पाई। बाद में वह ब्लैक
एंड वाइट ही दिखाई गई।
‘सैरंध्री’ की
कहानी वही थी। पांडवों के अज्ञातवास के काल में द्रौपदी विराट के राजमहल में
सैरंध्री (दासी) के वेष में रहती है। राजा का कामुक साला उस पर बलात्कार करना
चाहता है। शांताराम के संस्करण में सैरंध्री पददलित भारत की प्रतीक बन जाती है।
1934 की अमृत मंथन (मराठी और हिंदी) नारायण हरि आपटे के
उपन्यास ‘भाग्यश्री’ से प्रेरित थी।
सुधारवादी राजा कांति वर्मा (वर्डे) ने राज्य में पशु और नर बलि वर्जिक कर दीं।
चंडिका संप्रदाय का क्रोधी और मतांध राजगुरु (चंद्रमोहन – वह शांताराम की ही खोज
था) इसका विरोध करता है। गुप्त मंत्रणा के बाद मठ की ओर से राजा की हत्या के लिए
चुना जाता है यशोधर्म (कुलकर्णी), जो जाने से पहले अपने पुत्र को पत्र में सारी
योजना बता जाता है। महाराज की हत्या के बाद राजगुरु यशोधर्म पर राजहत्या का आरोप
लगा कर उस की हत्या करा देता है। यशोधर्म का बेटा माधवगुप्त और बेटी सुमित्रा
(शांता आपटे) जान बचाते भाग रहे हैं। सुमित्रा पकड़ी जाती है। राजपाट की वारिस
बनती है बेटी मोहिनी (नलिन)। तूफ़ान में मोहिनी और माधव बच निकलते हैं। अब माधव
बहन सुमित्रा की तलाश कर रहा है। राजभक्त मंत्री अवंति की प्रजा और मोहिनी को बता
देता है राजगुरु की करतूत। सब लोग विद्रोह में उठ खड़े होते हैं। राजगुरु कट्टर
मतांध है। चंडी देवी के चरणों में अपना सिर काट कर अंतिम बलि चढ़ा देता है।
यह फ़िल्म याद की जाती है राजगुरु के रूप में चंद्रमोहन की आंख के
प्रभावशाली क्लोज़्प के लिए। शांताराम ने आंखों के क्लोज़प के लिए लैंस जर्मनी में
ख़रीदा था। ‘अमृतमंथन’ के बाद चंद्रमोहन
सोहराब मोदी की ‘पुकार’ में जहांगीर
बना, मेहबूब की ‘हुमायूं’ में रणधीर
सिंह और ‘रोटी’ में सेठ लक्ष्मीदास,
रमेश सहगल की ‘शहीद’ में दिलीप कुमार
का पिता राय बहादुर द्वारकानाथ भी वही था।
चंद्रमोहन से हम फिर मिलते हैं शांताराम की 1935 की धर्मात्मा में।
इसमें वह संत एकनाथ का विरोधी खलनायक था। एकनाथ की भूमिका की थी मराठी रंगमंच के सबसे लोकप्रिय कलाकार और उच्च कोटि के
गायक बाल गंधर्व (1888-1967) ने। उस ज़माने में स्त्रियोँ का मंच पर अभिनय वर्जित
था, इल लिए वह मंच पर नारी भूमिकाएं ही करते थे। शांताराम की ‘धर्मात्मा’ के लिए उन्होंने संत
एकनाथ (1533-1599) बनना स्वीकार किया – यह अपने आप में बड़ी ख़बर थी। महाराष्ट्र
में बेसब्री से इंतज़ार था। सोलहवीं सदी के भक्त कवि समाज में सबकी समानता की पैरवी
करते थे। जात-पांत पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि
का होई अपने आप में क्रांतिपूर्ण संदेश था। यह संदेश था संत एकनाथ का महाराष्ट्र
में। अछूतों को समाज में समान अधिकार के समकालीन भक्त आंदोलन का का विरोध कर रहे
थे कट्टर पुरातनपंथी पंडे पुजारी, सामंत और महंत। एकनाथ के प्रमुख विरोधी के तौर
पर फ़िल्म में चंद्रमोहन।
एक बार अपने घर भोज में संत
एकनाथ ने अछूतों को महत्व दे कर पहले भोजन परोसा, ब्राह्मणों को बाद में। इस पर
महंत ने उन्हें जाति से बाहर करवा दिया। एकनाथ जी का बेटा हरि पंडित भी महंत का
समर्थक बन गया। सुखद अंत होता है – काशी में प्रज्ञानंद शास्त्री को अपने भजन सुना
रहे हैं। फ़िल्म के कहानीकार काले ने इसकी रूपरेखा राजनीतिक वातावारण में कल्पित
की थी। चमत्कारों को कम महत्व देकर एकनाथ और गांधीजी की एकरूपता पर बल दिया था।
इसीलिए इसका मूल नाम था महात्मा। महंत की एक आंख बार बार खटकती दिखाने के लिए ने
अनेक हाई-ऐंगल क्लोज़पों का सहारा लिया था, जिस महंत की खलनायकता और भी उभर कर
दिखती थी।
दुनिया ना माने (1937)
समसामयिक
समय में समाज सुधार की शांताराम की पहली फ़िल्म थी ‘दुनिया ना माने’। मैंने ‘माधुरी’ में
इसे ‘हिंदी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख’ में
सम्मिलित कर के लंबी समीक्षा लिखी थी। कहानी एक सत्यकथा पर आधारित थी। लालची मामा
मामी ने पैसे लेकर निर्मला (शांता आप्टे) को बूढ़े विधुर वकील केशवलाल (केशवराव
दाते) के पल्ले बांध दिया। मुझे याद है जब वह विदा हो रही है घर में बंधी गाय करुण
स्वर में रंभा रही है। वकील का घर चलाती है चाची विमलाबाई वशिष्ठ (विमली वशिष्ठ)। शांताराम
ने इस फ़िल्म में अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका और समाजसुधारक नेता शकुंतला परांजपे
को वकील की बेटी की भूमिका रख कर कथानक को विश्वसनीय बना दिया था। बेटी सुशीला
(शकुंतला परांजपे) कई साल बाद मैके आई है और निर्मला की सहायक बन जाती है।
उल्लेखनीय है कि शकुंतला परांजपे महाराष्ट्र में विधायक रही थीं और राज्यसभा में 1964 से 1970 तक नामांकित
सांसद थीं। 1991 में उन्हें सन् 1938 से ही परिवार नियोजन मे सेवाओं के लिए पद्मभूषण
से अलंकृत किया। वर्तमान कालीन फ़िल्म निर्माता सई परांजपे
उनकी बेटी हैं।
अपनी कोई समीक्षा न
लिख मैं यहां उद्धृत कर रहा हूं श्री प्राण नेविल के लेख से कुछ अंश। इसका महत्व
आप लेख की कुछ पहली पंक्तियों से ही समझ जाएंगे:
[मुझे अभी तक याद
है ‘दुनिया ना माने’। 1937 में मैं लाहौर में पढ़ता था। भारतीय
सिनेमा पौराणिक कथानकों से उबर चुका था। कलकत्ते से न्यू थिएटर्स की ‘देवदास’, ‘मुक्ति’ और ‘प्रैसिडैंट’ जैसी फ़िल्में आ रही थीं। इनका विषय समकालीन
समाज था। पुणें की शांताराम के नेतृत्व में प्रभात फ़िल्म कंपनी पीछे रहने वाली
नहीं थी। उन्होंने लंबी छलांग लगा कर पेश की ‘दुनिया ना माने’ – महान सामाजिक क्लासिक – कालजयी कृति।
स्त्रियों के सशक्तिकरण की पहली पुकार। दहेज़ प्रथा पर प्रहार। बूढ़ों से विवाह के
लिए कम उम्र की लड़कियों की ख़रीद। आठ दशक बीत चुके हैं। अभी तक मुझे ऐसी किसी और
फ़िल्म का इंतज़ार है। उसकी इसी तरह की एक और फ़िल्म थी ‘अमर ज्योति’ लेकिन उसका घटना क्रम प्राचीन काल में था।]
आदमी (1939)
1939 की हिंदी ‘आदमी’ (मराठी ‘माणूस’) और 1941 की
हिंदी ‘पड़ोसी’ (मराठी ‘शेजारी’) प्रभात फ़िल्म कंपनी के लिए शांताराम की अंतिम दो फ़िल्म थीँ। ये दोनों
भी ऑल टाइम क्लासिक मानी जाती हैं। मैंने ‘दुनिया ना माने’ सहित इन दोनों को भी ‘माधुरी’ में ‘हिंदी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख’
लेखमाला में सम्मिलित किया था।
शांताराम ने लिखा
है, “चित्रपट के रूप में प्रमथेश चंद्र बरुआ का ‘देवदास’ वह बहुत ही सुंदर था। उसमें सहगल का गाया गीत ‘दुख
के अब बीतत नाहीं’ अत्यंत सुंदर था।... किंतु वह निराशावादी
चित्रपट युवा पीढ़ी के मन पर एक तरह की हताशा निर्माण करता जा रहा था। देवदास शराब
का आदी हो गया है। वेश्या के यहां जाने लगता है और अंत में प्यार की ख़ातिर अपने
आप को शराब में डुबा देता है, इसी से उसका अंत होता है...देख कर युवा लोग रोने
लगते थे। ‘सच्चे प्रेम के लिए
मर जाना चाहिए’... यह खोखला आदर्शवाद हावी होने लगा था। किंतु हमारे
समाज को इस तरह हताश निष्क्रिय तरुणों की आवश्यकता नहीं थी।...कथानक तो ऐसे
आदमियों का होना चाहिए जो बिल्कुल सादा जीवन जीते हैं, उनका सुख दुख भी साधारण
होता है। अपने भय, साहस, गुण, दोष आदि के कारण वे लोग आदमी कहलाते हैं, आदमी लगते
भी हैं। हमारा प्रयास था कि उनके जीवन पर कथानक हो, इस तरह जाने अनजाने में ही नए
चित्रपट का नाम ‘आदमी’ हो गया।”
तो यह था ‘आदमी’ का आधार। जो फ़िल्म निकल कर आई वह भारत की
श्रेष्ठ फ़िल्मों में गिनी जाती है। जब शांताराम फ़िल्म का वातावरण सृष्ट करने के
लिए वेश्यालयों में गुमनाम जा रहे थे, तो एक वेश्या ने कहा, साब, कभी कभी लागे है,
ई गंदा काम छोड़छाड़ के चंगी ज़िंदगी जीवें, पर दो जून खाने को कौम देगा। उधर गांव
में हमारे मां-बाप हैं, छोटे भाई बहन हैं, सबै को लाले पड़ जावेंगे ना...
शांताराम ने देखा कि
वे औरतें सुबह सुबह बाक़ायदा पूजा वंदना करती हैं।
उन का मन इतना भुथरा
गया था कि जीवन में घटीं और घट रही गंदी-घिनौनी बातें वह बेशरमी से खुलेआम कहती जा
रही थी। उसकी भाषा बहुत ही भद्दी और अश्लील थी, भाव भंगिमा तो इतनी विकृत थी वह जो
कुछ बता रही थी वह जो कुछ दिखा रही थी उस का दस प्रतिशत भी मैं अपने चित्र पट में
नहीं ला सकता था...
उसकी व्यथा और वेदना
ने मेरे दिल को हिला दिया। आदमी की नायिका अपनी समस्त लज्जाजनक मनोव्यथा के साथ
मेरे सामने सजीव हो कर खड़ी थी।
भास्कर राव के साथ मेरी कई बैठकें होने लगीं और आदमी
साकार होने लगा।... आदमी का नायक आम आदमी जैसा हो...वह एकदम ऐंटी-हीरो हो। नायिका
थी एक वेश्या, मज़बूरी के कारण उस पेशे में पड़ी, जीवन के अनेक थपेड़े खा चुकने के
कारण पथराई सी, कुछ चालू, स्वार्थी, किंतु फिर भी उतनी ही भोली-भाली और दूसरों की
भावनाओं का ख़्याल रखने वाली, किसी ख़ानदानी महिला की भाँति जीवन व्यतीत करने के
सपनों में खोने वाली, इस तरह परस्पर विरोधी रंगों में रंगी नायिका का मैंने वर्णन
किया।
चित्रपट
का नायक गणपत अपने सीनियर अघिकारियों के साथ जुए के अड्डे पर छापा मारता है। वहां
वह केसर नाम की वेश्या को पकड़ लेता है। ऐसे शुरू होती है आदमी। गणपत का नंबर है
255 । केसर उसे दो सौ पचपन कह कर ही पुकारती है। गणपत की भूमिका निभाई थी शाहू
मोडक ने, केसर बनी थी बनी थी शांता हुबलीकर। वेश्यालय में हर प्रदेश के गाहक आते
हैं।
हर
फ़िल्म में कुछ नया करने वाले शांताराम ने इस में भारत में पहला छह भाषाओं के अंतरों वाला गीत डाला था।
केसर
शुरू करती है: “किस लिए कल की बात, कटे हंसी खुशी में
रात...” मियां साहब के पास जाकर
उनके सिर की टोपी अपने सिर पर रख ली। अलमारी के पास पहुंचकर ठुमकने लगी। अपने
ब्लाउज़ में से मोती का स्कार्फ़ निकाला: “ये हुस्न की
बहार, लूटो, यार, हुस्न का भरोसा क्या, दो दिन है साथ, साथ में है घात, फूल सा
जिस्म पुरबहार में है, आ लिपट, इसका लुत्फ़ प्यार में है, इस जवानी का एतबार
नहीं, जईफी भी इंतजार में है”…ग्राहक खुश होकर मांग कर रहे
थे: “अब, पंजाबी बोली में गाना होने दो!” ‘‘नहीं, बंगाली में!’’ ‘‘नहीं, नहीं, गुजराती भाषा
में होने दो!’’ ‘‘नहीं, नहीं!’’ सब लड़
रहे थे। केसर ने गुजराती सेठ की टोपी उतार ली। अलमारी पर से दो खाली प्लेटें ले
आयी। दरी पर बैठकर उन्हें अपने सामने रख दिया। और दोनों हाथों में उनमें रखे काल्पनिक
पदार्थ खाने का नाटक करती हुई गुजराती भाषा में गाने लगी: “कंसार
राखिया घेबर तारे काजे, पकवान पड्यां सामी खायो आजे, कारण... ते दांत हशे नहीं...
ते स्वाद हशे नहीं!”
मैं चाहूं तो पूरी फ़िल्म इसी अंदाज़ मॆं बयान करता चला जाऊं, पर तनिक
आइडिया देने के लिए इतना काफ़ी है।
पड़ोसी (1941)
मुस्लिम लीग की स्थापना सन् 1906 में हुई थी, लेकिन 1937 में
पाकिस्तान की मांग के कारण वह आम मुसलमानों तक पहुंच शक्तिशाली हो गई। विदेशी
शासकों के उकसावे से हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ा और दंगे फ़साद में बदल गया। शांताराम
ने समय की मांग को समझा और सांप्रदायिक एकता के लिए बनाई हिंदी ‘पड़ोसी’ (मराठी ‘शेजारी’)। कहानी दो हिंदू मुसलमान पड़ोसियों के मेलजोल
भरे जीवन के दुश्मनी में बदल जाने, और अंत
में एक साथ शहीद हो जाने की थी। अपने संदेश को सुदृढ़ बनाने के लिए हिंदू की
भूमिका दी मुसलमान मज़हर को और मुसलमान बनाया हिंदू जागीरदार को।
सुबह हुई, गांव जागा। ठाकुर रामचरित मानस का पाठ कर रहा है: ‘अवधपुरी सब प्रेम ही छाया’।
उधर मिर्ज़ा जानमाज़
(नमाज़ पढ़ने की दरी) लिए आ रहा है। ठाकुर ने रामायण पाठ पूरा किया, दोस्त से
बोला, ‘तुम्हारा
नमाज़ का वक़्त हो गया, पढ़ लो।’ यह था दोनों पड़ोसियों का
परस्पर सहयोग का भाव। दोनों का एक ही शौक़ है – शतरंज। खेलते खेलते लड़ते हैं किस
ने छल किया, फिर खेलने लगते हैं। उनके बच्चे भी शतरंज खेलने का नाटक करते हैँ।
घरवावालियां खाने के लिए बुलाती हैं, दोनों का एक ही जवाब है, अब ही तो खेल शुरू
किया है। जब दोनों में झगड़ा हो जाता है, मिर्ज़ा गांव छोड़ कर कहीँ और जा बसता
है, तब शतरंज याद आती है दोनों को। ठाकुर ग़म में पागल हो जाता है। अंत की ओर जब
पगलाया सा बांध को टूटने से बचाने को निकल पड़ता है, तो कोयले से तीन चार ख़ाने
खीँच कर पत्थरों से शतरंज खेलता है। यह लेख फ़ाइनल करने से पहले यू-ट्यूब पर ‘पड़ोसी’
देख रहा था। मुझे याद आए सत्यजित राय की ‘शतरंज
के खिलाड़ी’
के दृश्य। मुझे ‘पड़ोसी’ के दृश्य
बेहतर लगे।
फ़िल्म का कथानक
उस ज़माने के दृष्टिकोण से है। (आज इसे विकास और विकास विरोध के बीत टकराव कहा
जाता।) कंपनी बांध से कुछ आगे और ऊंचाई वाला बांध बनाना चाहती है। उस में यह गांव
डूब जाएगा। कंपनी ज़मीन के लिए क़ीमत देने को तैयार है। सब गांव वाले वही करेंगे
जो ठाकुर और मिर्ज़ा कहें। दोनों ने फ़ैसला सुना दिया –“हम
ज़मीन नहीं बेचेंगे!” अब कंपनी के मालिक के पास एक ही रास्ता
है – दोनों दोस्तों का लड़वा दे। उस का गुर्गा उन्हें लड़वा कर ही रहता है। ठाकुर
का बेटा झगड़े की जड़ बांध को ही मिटा देना चाहता है। वह जगह जगह छेद कर के बारूद
भर देता है। पलीते को माचिस लगा दी, जगह जगह बारूद फटने लगा, बांध ढहने लगा।
पगलाया ठाकुर बांध पर बैठा है। बारूद फटे जा रहा है। जगह जगह पानी भर्रा कर बह रहा
है। सारा गांव और मिर्ज़ा ठाकुर को पुकार रहे हैं, वह हिल नहीं रहा। आख़िर जान की
बाज़ी लगा कर मिर्जा ठाकुर के पास पहुंचता है। ठाकुर वहां से हटने तो तैयार नहीं
है। दोनों पानी में बह जाते हैं। पानी कम हुआ, हाथ से हाथ पकड़े दोनों के शव मिलते
हैं। कुछ समय बाद ठाकुर की समाधि और मिर्ज़ा की मज़ार पर फूल मालाएं और चादरें
चढ़ा रहे हैं गांव वाले।
बांध के धराशायी
होने वाले दृश्यों का फ़िल्मांकन तो उत्कृष्ट है ही, विशेष उल्लेख नीय हैं: नदी
किनारे प्रेमी-प्रेमिका की नीचे जल में छाया, एक बार दोनों खड़े हैं लेकिन छायाएं
बाईं ओर चलने लगती हैं। वहीं एक शॉट है हम छाया को जल में देखते हैं उलट कर अब हम
तट पर खड़े प्रेमी युगल को देखते हैं। मुझे याद आया एक ऐसा ही शॉट लेख टंडन की
फ़िल्म ‘दुल्हन
वही जो पिया मन भाए’ में।
(सभी फोटो नेट से साभार)
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शताब्दी पुरुष चित्रपति शांताराम (तीन)
बंबई. राजकमल कलामंदिर की स्थापना – एक नया युग
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट
का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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