प्रतिक्रिया भाग 1
{मित्रो,
अरविंद कुमार की माधुरी सिनेवार्ता संस्मरणमाला ने हिंदी फिल्म पत्रकारिता की पुन: एक नई गरिमामयी उपस्थिति का अहसास कराया है.
मैंने माधुरी युग की फिल्म पत्रकारिता के बारे में सुना है, पढ़ा भी है. हां, उस
दौर को जीया नहीं है. इसकी वजह मेरी उम्र है. लेकिन पुस्तकालयों में मैंने माधुरी
के कई अंक देखे हैं. मेरे घर पर भी आती थी. मैंने वैसी रचनात्मक, मौलिक, ऊर्जावान,
पारिवारिक - सांस्कृतिक फिल्म पत्रकारिता कहीं और नहीं देखी जिसे हाउस वाइफ भी
पढ़ती थीं तो साहित्यकार भी. तब के दौर में साहित्यकारों को शायद इस बात की कुंठा
नहीं थी कि हाउस वाइफ द्वारा पढ़ा जाने वाला साहित्य गंभीर नहीं होता. खैर यह एक
अगल प्रश्न है. मेरे मन में अक्सर ये सवाल कौंधते रहे हैं कि क्या हम केवल
नॉस्टेल्जिया के शौकीन ही बने रहने को मजबूर हैं. और इन्हीं सवालों के जवाब की तलाश में अरविंद
जी की यह संस्मरणमाला देखते देखते अब सौ भाग पार कर गई है. हमारा सौभाग्य है कि इस
पर ख्यात फिल्म पत्रकार, लेखक और संपादक श्री विनोद तिवारी जी की टिप्पणी मिली है.
आपको बता दें कि विनोद तिवारी माधुरी के दूसरे संपादक रहे हैं. आप को यह लेखमाला
कैसी लगती है, इस अपने विचार भी भेज सकते हैं…संजीव श्रीवास्तव}
बड़ा नशा और बड़ी सभावनाएं हैं इन स्मृतियों में...
·
विनोद तिवारी
माधुरी के दूसरे संपादक विनोद तिवारी फोटो सौ.- फेसबुक वॉल से |
अतीत की मधुर स्मृतियों में बड़ा नशा है. इनके खुमार में डूबे रहो, बहते रहो, अतीत वर्तमान बन कर सामने खड़ा हो जाता है. समय-काल सब एक हो जाते हैं और जब उस अतीत का स्मरण अरविंद
कुमार जैसा व्यक्तित्व अपने अनुभवों
के खजाने से मोती निकाल निकाल
कर लुटाता हुआ करा रहा हो तो कौन समृद्ध
होना नहीं चाहेगा? संजीव श्रीवास्तव द्वारा
संपादित ई मैग्जीन
`पिक्चर प्लस' पर आ रही लेखमाला एक बार फिर अरविंद
जी द्वारा रचा जा रहा इतिहास
है. इसके पहले अरविंद
जी `माधुरी' में अपनी लेखमाला `हिंदी
फिल्मों के शिलालेख' के जरिये ऐसा इतिहास रच चुके हैं जिसका हिंदी
पत्रकारिता ही नहीं खुद को समृद्ध
मानने वाली इंग्लिश
फिल्म पत्रकारिता में तक कोई जोड़ नजर नहीं आता.
एक और इतिहास अरविंद
जी ने रचा था `माधुरी' (जो `सुचित्रा' नाम से शुरू हुई थी) को वह आधार दे कर जिसकी परिकल्पना हिंदी फिल्म
पत्रकारिता में अभूतपूर्व थी और अभूतपूर्व ही रहेगी. `पिक्चर प्लस' की लेखमाला में जो अब सेंचुरी
मार कर और और आगे बढ़ती
चली जा रही है, अरविंद जी ने `माधुरी' की स्थापना के समय की अपनी विचारधारा को बड़े ही सुलझे ढंग से स्पष्ट किया है. उन्हीं प्रारंभिक कड़ियों
से यह तथ्य उजागर हो चला था कि यह लेखमाला अपने आप में अनूठी होने जा रही है. होती भी क्यों न? `माधुरी' को नित नये कलेवर में प्रस्तुत करने का अरविंद जी का अंदाज और सूझबूझ
थी ही ऐसी जिससे संजीव श्रीवास्तव भी प्रभावित थे.
नयी पीढ़ी
को `माधुरी' पढ़ने
का सौभाग्य नहीं मिला तो क्या हुआ! संजीव श्रीवास्तव और `पिक्चर
प्लस' ने उसे अंक दर अंक इस प्रकार सजीव किया है कि ये संस्मरण अब जब पुस्तकाकार प्रकाशित होंगे तो `माधुरी' का रस सागर गागर में भरा हुआ प्रतीत होगा.
अरविंद
जी के `सुचित्रा' के संपादक नियुक्त
होने और वर्षों
बाद फिर हिंदी
की सार्थक सेवा के लिए स्वेच्छा से इस गरिमामय पद को त्याग `माधुरी' से अवकाश ले लेने तक मुझे अरविंद
जी की छत्रछाया में माधुरी
के संपादन विभाग
में विभिन्न पदों पर रहते हुए उनसे जुड़े रहने का सौभाग्य मिला. कुछ अंकों-विशेषांकों के लिए अरविंद जी ने पूरी पूरी रात जाग कर काम किया और करवाया. लेकिन उस समय हमारे लिये यह कल्पना संभव नहीं हुआ कि अरविंद
जी के जिन प्रयत्नों के हम सहभागी बन रहे हैं, एक दिन वही क्षण फिल्म
इतिहास की धरोहर
बन जाएंगे. और यह भी कि जिन व्यक्तित्वों के साथ हमारा नितप्रति का संबंध
प्रगाढ़ करने में अरविंद जी महत् भूमिका निभा रहे हैं, एक दिन वे ही हमारे
लिए भी अमूल्य
निधि बन जाएंगे.
`पिक्चर प्लस' की इस लेखमाला
में मैं बार बार यह देख कर चमत्कृत हुआ कि अरविंद जी को दशकों पुरानी
अनेक घटनाएं इस तरह याद रह गई हैं जैसे वे अभी कल की ही बात हों. `पिक्चर
प्लस' के संपादक संजीव
श्रीवास्तव ने उनके साथ छेड़छाड़ न करके जिस तरह उनका मूल स्वरूप
ही रहने दिया है, उससे पूरी सीरीज के प्रस्तुतिकरण में नया ही निखार आया है.
यह लेखमाला अपने आप में इतिहास समेटे
है, स्वस्थ फिल्म
पत्रकारिता का इतिहास, गीतकारों, गायकों, संगीत
निर्देशकों, लेखकों, सजग निर्देशकों और समांतर
सिनेमा का सुनहरा
इतिहास.
ऐसे ही राजनैतिक इतिहास को निर्देशक श्याम बेनेगल
ने `भारत एक खोज' में अपने स्टाइल में बांध कर एक अमर कृति पेश की. कल किसी न किसी सबल, कल्पनाशील और संजीव श्रीवास्तव की तरह स्वस्थ फिल्म
पत्रकारिता के दीवाने
फिल्मकार की नजर अरविंद-संजीव की इस कृति पर भी पड़ेगी और तब स्वस्थ फिल्म
पत्रकारिता-स्वस्थ फिल्म
आंदोलन पर भी `भारत एक खोज' की तर्ज पर कोई धारावाहिक बदलते युग के बदलते चैनलों
में से किसी एक पर उसी तरह इतिहास रचेगा
जैसा कभी `माधुरी' ने रचा था.
000
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें