शताब्दी पुरुष चित्रपति शांताराम – तीन.
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–102
बंबई शहर हो गया शांताराम का कर्मक्षेत्र
वी. शांताराम |
अलविदा प्रभात
सन् 1942 हिंदी फ़िल्म उद्योग के इतिहास में परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ। बांबे टाकीज़ से अलग होकर शशघर मुखर्जी ने फ़िल्मिस्तान स्टूडियो बनाया, कारदार ने कारदार स्टूडियो की स्थापना की, महबूब ख़ान ने नेशनल स्टूडियो छोड़ा और अपनी स्टूडियो शुरू किया, फ़ीअरलैस नाडिया के साथ होमी वाडिया वाडिया मूवीटोन से जुदा हुए और बसंत पिक्चर्स की शुरूआत की; और भाई वी. अवधूत के साथ शांताराम ने पुणे की प्रभात फ़िल्म कंपनी त्याग कर बंबई में ‘राजकमल कलामंदिर’ नाम से फ़िल्म निर्माण आरंभ किया।
शांताराम ने लिखा है: “(‘प्रभात’ से अलग होने वाला) दिन मेरे जीवन का सबसे काला, सबसे स्याह...काले से भी काला, बुरे से भी बुरा… आंखें सावन भादो बरसने लगी थीं। दिल टूट जाने की नौबत आ गई थी। उससे रुख़्सतनामे पर मैंने जैसे तैसे हस्ताक्षर कर दिए।….क्या ‘प्रभात’ के बिना मेरा कोई अस्तित्व है? मैं चालीसवां पार कर गया हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं एकदम घोर अंधकार में छलांग लगा रहा हूं। ...‘प्रभात’... मेरी ‘प्रभात’... ‘प्रभात’ की हर ईंट, हर पत्थर, माटी का हर कण मेरे लिए अतीव पवित्र था। मेरा ख़ून, मेरा पसीना, मेरे आंसू, मेरी ख़ुशियां – सब ‘प्रभात’ के साथ एकरूप थे। ‘प्रभात’ ! ‘प्रभात’ मेरे लिए सब कुछ थी। आनंद का झरना, मेरा जीवन, मेरी चेतना, मेरा कार्य.... यही नहीं मेरी आत्मा थी ‘प्रभात’!”
शुभारंभ
राजकमल कलामंदिर
‘प्रभात’ से अलग होकर शांताराम उसी के पास नई कंपनी बनाना
चाहते थे। लेकिन भारत सरकार के लिए कई समाचार तथा डॉक्युमेंटरी बनाने के लिए बंबई
रहना पड़ा तो देखा कि फ़िल्म निर्माण के लिए बंबई अधिक सुविधाजनक है। तमाम तरह की
सेवाएं और सहायताएं यहां आसानी से मिल जाती हैं। तो अब बंबई शहर हो गया शांताराम
का कर्मक्षेत्र। वाडिया मूवीटोन का स्टूडियो किराए पर मिल गया। दिल्ली की नेशनल
फ़ाइनेंस आफ़ इंडिया केश्री गुप्ता ने प्रस्ताव रखा कि नई फ़िल्म के लिए पूरी पूंजी
वह लगाएंगे, बंबई क्षेत्र के अतिरिक्त शेष भारत के वितरण अधिकार उन के पास होंगे,
पूरी आमदनी में से निश्चित राशि घटा कर शेष मुनाफ़ा आधा आधा बांट लिया जाएगा। काम
शुरू! माता-पिता के नामों के
अंश लेकर शांताराम ने पुणे में राजकमल बंगला बनवाया था।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा
– 9 नवंबर 1942 – को नए स्टूडियो में फूल-मालाओं से सुज्जित नया भव्य फलक लगा ‘राजकमल कलामंदिर’।
नई कंपनी के अंतर्गत जो
इक्कीस फ़िल्म बनीं उन सब पर लिखना इस सीरीज़ में सही नहीं रहेगा। कई के बारे में
न लिखना भी अत्याचार होगा। अतः जानकारी के लिए मैं उनके नाम और सांकेतिक विवरण कालक्रमानुसार
लिख रहा हूं –
1943 ‘शकुंतला’
(कालिदास के नाटक से प्रेरित),
1946 ‘डॉक्टर
कोटनीस की अमर कहानी’ (भारतीय डॉक्टर की चीन में सेवा और वहीं मृत्यु
की कहानी),
1947 ‘लोकशायर राम जोशी’ (पेशवा राज्यकाल
में एक कवि का पतन और उत्थान),
1949 ‘अपना
देश’ (देश के विभाजन में पीड़ित एक स्त्री को भारत
में आया उस का परिवार स्वीकार नहीं करता, ऐसे समाज से बदला लेने में उस का स्मगलर
बनना और अपराध स्वीकार करना),
1950 ‘दहेज’
(‘दहेज’ के लिए पृथ्वीराज कपूर ने कुल एक रुपया लिया था। पिता को धनी समझ
लड़के वालों ने बेटे की शादी तो कर दी, पर कुछ न मिलने पर बहू को इतना तंग किया कि
वह मर गई),
1951 ‘अमर
भूपाली’ (उन्नीसवीं सदी का आरंभ काल थामराठा शक्ति का पतन
काल. शायर गायक होनाजी की सच्ची कहानी, जिसने अपने गीतों से जन जन को जाग्रत किया
बढ़ते आते विदेशियों के ख़िलाफ़),
1953 ‘तीन
बत्ती चार रास्ता’ (भारत के प्रादेशिक एकीकरण के लिए पंजाबी परिवार
प्रमुख की उत्तर प्रदेशी पत्नी, उनके पांच बेटों की पांच भिन्न प्रदेशों की
लड़कियों वाली गृहस्थी की हास्य कथा, और उनकी ऐसी नौकरानी जो सभी भाषाएं जानती है,
वही बनती है छठे बेटे की दुल्हन),
1953 ‘सुरंग’
(सुरंग – मतलब बारूद का पलीता। विषय था खदान मज़दूरों की दुर्दशा),
1954 ‘सुबह
का तारा’ (रोमांटिक
फ़िल्म में पागल मोहन के नवयुवा विधवा से प्रेम की दुखभरी आत्मगाथा),
1955 ‘झनक झनक पायल बाजे’ (अनेक पुरस्कारों
से अलंकृत, नर्तक गिरधर (गोपीकृष्ण) और नीला (संध्या) की सफल प्रेम कथा),
1956 ‘तूफ़ान
और दिया’ (अनाथ भाई बहन के संघर्षों की सफलता की कहानी, अभी
तक याद की जाने वाली राजेंद्र कुमार की पहली फ़िल्म),
1957 ‘दो
आंखें बारह हाथ’ (खुली जेल की पैरोकारी करती चिरस्मरणीय फ़िल्म -
सुधारवादी जेलर और छह क़ैदियों के संबंधों का चित्रण),
1959 ‘नवरंग’
(कवि दिवाकर को पत्नी जमना में दो रूप दिखाई देते हैं – एक पार्थिव (जमना) और
दूसरा स्वप्निल (मोहिनी)। ‘आधा
है चंद्रमा रात आधी’ गीत वाली फ़िल्म),
1961 ‘स्त्री’
(शांताराम और संध्या के अभिनय वाली कालिदास के शकुंतला नाटक से प्रेरित फ़ैंटेसी),
1963 ‘सहरा’
(राजस्थान के दो क़ुनबों में बैर और उनकी संतान के प्रेम की गाथा),
1964 ‘गीत
गाया पत्थरों ने’ (मूर्तिकार विजय और नर्तकी विद्या की प्रेम
कहानी - जितेंद्र और राजश्री की पहली फ़िल्म), (इस पर मैं विस्तार से लिख चुका हूं)
1966 ‘लड़की
सह्याद्रि की’ (मंदिर
के जीर्णोद्धार के लिए निर्धन नर्तकी रानी (संध्या) के प्रयासों की कथा),
1967 ‘बूंद
जो बन गई मोती’ (स्कूल टीचर सत्यप्रकाश (जितेंद्र) को छोटे भाई
महेश (आकाशदीप) ने हत्या के केस में फंसा दिया, उसे उबारा ग्राम की गोरी शेफाली
(मुमताज) ने), (इस पर भी मैं विस्तार से लिख चुका हूं)
1971 ‘जल
बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ (ऩृत्यप्रेमी
अलकनंदा (संध्या) और राजकुमार कैलाश (अभिजित) की घटनापूर्ण प्रेम कहानी),
1973 ‘पिंजरा’
(गांव के अध्यापक श्रीधर पंत (श्रीराम
लागू) और तमाशा नर्तकी चंद्रकला (संध्या) की प्रेम कहानी – अंत होता है अध्यापक की
हत्या के अपराध में स्वयं अध्यापक को मृत्युदंड),
और लंबे अंतराल के
बाद 86 साल की उम्र में निर्मित निर्देशित 1987 की ‘झंझार’
(पोते सुशांत राय को लेकर बनाई गई फ़िल्म)।
इस भाग में विस्तृत
विवरण केवल ‘शकुंतला’, ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’,
‘लोकशायर
राम जोशी’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘दो
आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’ और ‘पिंजरा’ पर ही लिखूंगा।
-
-शकुंतला
‘कमल
है मेरे सामने, कमल है मेरे हाथ, मन कमल में पिया बिराजे, फिर क्या लिखूं नाथ!’
‘प्रभात’ से अलग होने के कई कारणों में से एक था जयश्री
से विवाह। “शकुंतला से दुष्यंत के गांधर्व विवाह से उत्पन्न
भरत भारत का चक्रवर्ती सम्राट बन सकता है!” – यह विचार शांताराम के मन से उतर नहीँ रहा था।
उस ने तय कर लिया कि वह महाकवि कालिदास के विश्वविख्यात नाटक ‘अभिज्ञान
शाकुंतलम्’ पर फ़िल्म बनाएगा। नायिका होगी जयश्री।
इससे पहले बनीं सभी
‘शकुंतला’
फ़ेल हुई थीँ। दोस्त और शुभ चिंतक चेताते रहे। जो करना है, वह तो करना ही है – यह
तय था। लेकिन कैसे करना है – यह तय करना था। नाटक के ढेरों मराठी, हिंदी और
इंग्लिश अनुवाद पढ़ डाले। सोचा। फिर फिर पढ़ा। महाभारत में मूल आख्यान पढ़ा।
कालिदास ने कथा में कई परिवर्तन किए थे। ‘मैं भी करूंगा’ – शांताराम ने तय
किया। वह सोचता रहा – शकुंतला में ऐसा क्या था, उसका कौन सा आत्मबल था कि उसका
बेटा भारत का चक्रवर्ती सम्राट बन पाया। शांताराम की शकुंतला दबैल अबला नारी नहीं
है। वह कामना करती है कि उसका बेटा ‘चांद जैसा हो, फूलों सा खिल खिल जाता हो, लहरों
पर चढ़ कर इतराता हो, पर इतना ही नहीँ, वह कमान उठाकर तीर चलाए।’
शकुंतला में जयश्री और चंद्रमोहन |
वह कोई साधारण स्त्री नहीं थी जो हिरनी सी
दुष्यंत के साथ रनिवास में चली आए। शांताराम की शकुंतला धिक्कारती है भुलक्कड़
दुष्यंत को, उलाहने देती है, क्षमा मंगवाती है, तभी उसके साथ जाती है। नायिका
शकुंतला बनी थी जयश्री और नायक बनाया गया था चंद्रमोहन को। दोनों के पुत्र भरत की
भूमिका कुमार गणेश ने निभाई थी। पटकथाकार थे दीवान शरर। कुछ गीत भी उन्हीं ने लिखे
थे। उन में से एक था - ‘कमल है मेरे सामने, कमल है मेरे
हाथ, मन कमल में पिया बिराजे, फिर क्या लिखूं नाथ!’
अमेरीका में कॉमर्शियल स्तर दिखाई
जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी ‘शकुंतला’। ‘न्यू यार्क टाइम्स’ के समीक्षक ने लिखा (कुछ अंश): “कहना नहीं
होगा कि इस का अनोखापन ही काफ़ी नहीं है। ‘शकुंतला’ अपने आप
में जादू है। परीकथा सी कहानी में प्रेमी प्रेमिका को मिलाता है उनका बेटा जिसमें
भारत का टार्जन होने की पूरी संभावना है। निर्देशन की बात करें तो वह हॉलीवुड पर
नज़र गड़ाए दिखता है एक भारतीय निर्देशक! मनमोहक
दृश्यावली, सभी कलाकारों द्वारा (हमारे लिए) अनोखा अभिनय, समृद्ध (अपरिचित) संगीत –
कुल मिला कर हमारे भारतीय मित्रों की ओर से हमारे सिनेमाघरों पर सुदृढ़ दस्तक है
यह फ़िल्म!”
भारत में यह सुपर हिट थी। बंबई के
एक सिनेमाघर में 104 हफ़्ते चली। चल्ती ही रहती, पर हटाना पड़ा, शांताराम की अपनी
नई फ़िल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ के लिए।
-‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’
‘काम करने का ही नाम है ज़िंदगी’
- “इस अंगूठी की लाज रखना, बेटे!”
परदे पर भारतवर्ष का नक़्शा।
क्लोज़प होते होते हम देखते हैं महाराष्ट्र के शोलापुर में सुबह की ग्राम्य गतिविधि।
निर्देशक बस वही दिखाता है जिसमें कुछ काम हो रहा। एक तांगा स्टेशन के बाहर रुकता
है। तांगेवाला मालूम कर रहा है - ट्रेन कब आएगी। सब चौकन्ने हो जाते हैं। “डॉक्टर बन कर अपना द्वारका आ रहा है!” ट्रेन आई, रुकी, डिब्बों से असबाब फेँका जा रहा है। नौजवान डॉक्टर
द्वारकानाथ नाथ कोटनीस (शांताराम) चुस्ती से उतरता है, बाहर आता है। घोड़े को
आवाज़ लगाता है, “मोती!” तांगा लेकर घोड़ा आ जाता है। उछलकर
द्वारका तांगेवाले की जगह बैठता है, तांगा
हांकता है। तांगेवाला पीछे बैठता है।
शुरू होती है एक और चलती
दृश्यावली, लोगों के प्रातःकालीन गीतों की मधुर घ्वनियां। द्वारकानाथ तांगेवाले को
बता रहा है कि वह घोड़ों का नहीं आदमियों का डॉक्टर है, समाज की सेवा में अपना
जीवन लगा देगा। अपने जीवन का मर्म गा कर बता रहा है- ‘कोई सपना नहीं ज़िंदगी, घर में छुपना नहीं, आओ मैदान में, काम करते
चलो, नाम करते चलो, काम करने का ही नाम है ज़िंदगी’...
(कुछ पंक्तियों के बाद गांधी जी के नारे ‘करो
या मरो’ का उल्लेख) ‘कुछ करे या मरे - देश पर जान दे, जान देने का ही नाम है ज़िंदगी!’
एक बंगला, नौजवान उछल कर उतरता है।
बच्चे उससे चिपट जाते हैं। सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर की मंज़िल पर पहुंचता है। टोकरी से
लड्डू उठा कर मां उसे देती है, बताती है, ‘पिताजी
ने उसे बुलाया है। क्यों बुलाया है, यह वहां पहुंच कर ही पता चलेगा!’ उसी तांगे से दोनों बाज़ार पहुंचते हैं। नया बड़ा साइनबोर्ड लगा
है – ‘द्वारकानाथ का अस्पताल’। नौजवान का माथा ठनकता है। बापू बड़े शौक़ से ले जाते हैं भीतर।
अब शुरू होता है एक लिंगरिंग शॉट - लगभग सात-आठ सौ फ़ुट लंबा शॉट! (इस का ज़िक्र मैंने ‘पड़ोसी’ फ़िल्म पर टिप्पणी में भी किया था।)
बाप बेटे के साथ हम एक के बाद दूसरे कमरे में जाते हैं। बापू बड़े उत्साह में हैं
और द्वारकानाथ बेमन से साथ चल रहा है। जो कमरा डॉक्टर का मंत्रणा कक्ष होगा उसकी
कुरसी को बापू ज़ोर से घुमा देता है। शॉट पूरा होने पर नौजवान डॉक्टर बापू को बता
ही देता है चिकित्सक मंडली के साथ चीन के युद्ध में हताहतों की सेवा में जाने का
निश्चय। वह बताता है कैसे बंबई के आज़ाद मैदान में देश के नेता ने डॉक्टरों से अपील
की जापान के आक्रमण से हताहात होते चीनी सैनिकों के उपचार में सहायक होने की। और कैसे
उस ने अपना नाम लिखा दिया था। बापू निराश तो हुए साथ ही गौरवान्वित भी। चीन जाते
समुद्री जहाज़ में जाते द्वारका को विदा करने आया पूरा परिवार। बापू ने उसे भेंट
की भारत के नक़्शे वाली अंगूठी। कहा, “इस की
लाज रखना, बेटे!”
चीन में जब भी मन उचटता है तो
द्वारका वह अंगूठी देखता है। कुछ समय बाद चीन पहुचा घर से एक पत्र – “बापू नहीं रहे!” पूरा चिकित्सक मंडल उसे घर वापस लौटने
को कहता है। वह सामान बांध लेता है। अंगूठी पर देश के नक़्शे पर नज़र पड़ते ही
फ़ैसला कर लेता है कि ‘वह वापस नहीं जाएगा’।
(सन् 1944 में ख़्वाजा अहमद अब्बास ने पढ़ी थी चीन में शहीद द्वारकानाथ की ख़बर व कहानी और लिख डाला था उपन्यास ‘वन हू डिड नॉट कमबैक’। शांताराम की फ़िल्म उसी पर आधारित थी, पटकथा भी अब्बास ने लिखी थी।)
(सन् 1944 में ख़्वाजा अहमद अब्बास ने पढ़ी थी चीन में शहीद द्वारकानाथ की ख़बर व कहानी और लिख डाला था उपन्यास ‘वन हू डिड नॉट कमबैक’। शांताराम की फ़िल्म उसी पर आधारित थी, पटकथा भी अब्बास ने लिखी थी।)
हम देखते हैं कोटनीस की मेहनत, जान पर खेल
रोगियों की अनवरत सेवा, एक अनोखे असाध्य रोग से सैनिकों का मरते जाना, कोई दवा काम
में न आने पर कोटनीस का अपने आप को संक्रमित कर के रोग का निदान करना और नई दवा
बना पाना। लेकिन वह स्वयं अब लाइलाज है! चिंगलान ने एक बच्चे को जन्म दिया है। वही उनका
एकमात्र उल्लास है। कोटनीस की हालत बिगड़ती जा रही है। एक बुरा समाचार मिलता है,
“जापान
ने भारत पर हमला कर दिया।” कोटनीस लौट कर भारत में हताहतों की सेवा करने को
उतावला हो जाता है। वह वापस जा भी पाएगा – यही चिंता है।
एक दिन वह चिंगलान को पास बुलाता है, कहता है,“बच्चे
को लेकर मेरे पास बैठ जाओ...” बेहोशी में कहे जा रहा है, “बैठो,
ज़रा इधर, जहां से मैं तुम दोनों को देख सकूं, चिंग, तुम्हारी आंखों में आँसू
क्यों हैं? अब तो तुम्हें खुश होना चाहिए, हम हिंदुस्तान
जाएंगे... चिंग, देखो, वह देखो, उस की ऊंचीऊंची पहाड़ियां, बलखाती नदियां, हरेभरे
खेत, छोटे छोटे गांव – बिल्कुल तुम्हारे चीन जैसे... और, यह देखो, यह है अपना गांव...
गाड़ी रुक गई... बच्चे को संभाल कर उतरना... तुम्हारे नए देश की ज़मीन पर यह पहला
क़दम है तुम्हारा... देखो वह स्टेशन मास्टर… वही उनके ऐसिस्टैंट… वही रामू पोर्टर...मुझे
बचपन से जानते हैं! ... और देखो यह है
अपना बुंदू...उस का पुराना तांगा और घोड़ा... यह हमें घर ले जाएगा... जल्दी,
बुंदू, हमें जल्दी घर ले चलो... माता जी आरती के लिए राह देखती होंगी… हां,
चिंगलान, यह है तुम्हारा घर...भीतर चलो... मां, हम आ गए... यह है तुम्हारी
बहू...और यह अपना नन्हा... हम अपने घर आ गए...”
यह संवाद अभिनेता शांताराम ने अनेक भाव
परिवर्तनों से इस तरह अदा किया कि मार्मिकता की चरम सीमा तक पहुंच गया। और जब
चिंगलान भारत पहुंचती है तो हवा में गूंज रहा है यही संवाद। दर्शकों के आंसू थामे
नहीं थमते।
-‘लोकशायर राम
जोशी’ (मराठी) – ‘मतवाला शायर राम
जोशी’ (हिंदी)
फ़िल्म पर पढ़ने से पहले ज़रूरी है
महाराष्ट्रीय नाट्य परंपरा में ‘तमाशा’ शैली के बारे में जानना। प्राचीन काल से ही नाचते गाते तमाशा
खेलने वाले गांव गांव घूमा करते थे। उन के गीत लावणी कहलाते हैं। पारंपरिक तमाशा
पर समकालीन कावेली, ग़ज़ल, कथक नृत्य, दशावतार, ललित और कीर्तन विधाओं का समावेश
होता रहा था। इस के दो मुख्य प्रकार हैं – ‘ढोलकी
भारी’ (ढोलकी फाड़्चा) और ‘संगीत भारी’ (संगीत बारीचा)। संगीत भारी में
नाटक से अधिक नाच और गीत अधिक होते थे। और होते थे सवाल जवाब – किसी भी विषय पर
तीखी टिप्पणियां। अठारहवीं सदी में महाराष्ट्र में पेशवाई राज में यह स्वतंत्र कला
के रूप में मान्य हुआ। पारंपरिक तमाशा में लड़के नर्तक नाच्या कहलाते थे और स्त्री
बनते थे। गीत लिखने वाला कथावाचक या सूत्रधार शाहिर या शायर कहलाता था। वही हंसोड़
(भांड) या सोंगाड्या होता था। तब तमाशा कलाकार तथाकथित नीच जातियों के ही होते थे।
समाजसुधारक ज्योतिराव ने ‘सत्यशोधक समाज’ के अंतर्गत ‘सत्यशोधकी’ जलसों में तमाशा का उपयोग शुरू किया था। महाराष्ट्र
के तमाशा, लावणी और पवाड़ा (देशभक्ति गीत) का सफल उपयोग करने के लिए मराठी ‘लोकशायर राम
जोशी’ और हिंदी ‘मतवाला शायर’ का सिने
इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
कहानी है पेशवाई काल में ब्राह्मण कवि राम जोशी (1758-1812) की। मराठी में राम जोशी की भूमिका जयराम शिलेदार ने की थी और हिंदी में मनमोहन कृष्ण ने। तमाशा कलाकारों से मेलजोल के कारण नृत्य-गीत-प्रेमी राम जोशी को नीच जाति की तमाशा नर्तकी बया (हंसा वाडकर) से प्रेम हो गया। इस पर उसे
कहानी है पेशवाई काल में ब्राह्मण कवि राम जोशी (1758-1812) की। मराठी में राम जोशी की भूमिका जयराम शिलेदार ने की थी और हिंदी में मनमोहन कृष्ण ने। तमाशा कलाकारों से मेलजोल के कारण नृत्य-गीत-प्रेमी राम जोशी को नीच जाति की तमाशा नर्तकी बया (हंसा वाडकर) से प्रेम हो गया। इस पर उसे
जातिच्युत कर
दिया गया। मध्यांतर के बाद वह मद्यपान का आदी हो गया। प्रतिभा मंद होने लगी। दो
जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती थी। बया ने समझाया, तो मद्य से मुक्त होने की
कोशिश की, पर कुछ दिन बाद छिप कर पीने लगा। भजनों की रचना में जो मगन हुआ तो एक
बार फिर समाज में उसे स्वीकृति मिल कर ही रही।
(संदर्भवश.
श्याम बेनेगल की फिल्म ‘भूमिका’ का आधार थी मराठी-हिंदी फ़िल्मों की अभिनेत्री हंसा
वाडकर की 1971 में प्रकाशित आत्मकथा ‘साङ्त्ये ऐका’ (पूछो सुनो)। फ़िल्म के शुरू में राम जोशी वाला दृश्य
दिखाया गया है। बया नाच रही है।)
‘लोकशायर राम जोशी’ मराठी की सफलतम
फ़िल्मों में गिनी जाती है। हिंदी ‘मतवाला शायर’ भी पीछे नहीं रही। कथा, पटकथा और गीत थे
जी.आर. मडगूलकर के। बाद में शांताराम ने ‘दो आँखे बारह हाथ’ भी मडगूलकर से लिखवाई
थी।
आरंभ में फ़िल्म के
निर्देशक थे शांताराम के गुरु बाबूराव पेंटर। फ़िल्म पूरी होने से पहले ही बाबूराव
पेंटर अंतर्धान हो गए। शांताराम ने शूट किया तमाम मैटर देखा। जो पसंद नहीं आया वह
काट दिया और फिर से शूटिंग की। इसलिए इस के निर्देशन के लिए दो नाम हैं - बाबूराव
पेंटर और शांताराम।
-‘जय भेरी’ (‘राम जोशी’ से प्रेरित तेलुगु और तमिल
फ़िल्म)
इसके बारे
में मैं ‘द हिंदू’ में छपी समीक्षा से कुछ उद्धरण दे रहा हूं -
'जय भेरी' में नागेश्वर राव |
निर्माता
टी.वी.ऐस. (प्रतिभा) शास्त्री ने ‘लोकशायर राम जोशी’ देख कर सोचा तेलुगु
में भी गीत संगीतमय फ़िल्म के द्वारा सामाजिक संदेश दिया जाना चाहिए। बारह साल बाद
उनकी इच्छा पूरी हुई ‘नवयुग’ नामक फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी के प्रमुख
श्रीनिवास के सौजन्य से। उन्होंने इस पर फ़िल्म बनाने का सुझाव दिया वशीरेड्डी
नारायण राव को। ‘शारदा फ़िल्म्स’ की स्थापना से बनी ‘राम जोशी’ से प्रेरित ‘जय भेरी’।
बड़े भाई
विश्वनाथ शास्त्री और भाभी अन्नपूर्णम्मा ने बेटे की तरह पाला है काशीनाथ शास्त्री
को। गुरु विश्वंभर शास्त्री ने उसे शास्त्रीय संगीत में पारंगत किया है। बचन्ना
भगवत्थुलू मंडली की गान सभा हो रही है। उनकी स्टार नर्तकी मंजुवाणी ने चुनौती दी
तो काशीनाथ ने उसे हरा दिया। लेकिन नीच जाति की मंजु के साथ मंच पर सहभागिता का
आरोप लगा कर गुरु विश्वंभर शास्त्री ने काशीनाथ को त्याग दिया। बहस हुई। काशीनाथ
का कहना था कि संगीत और साहित्य में नीच ऊंच नहीं होती। लेकिन ब्राह्मण धर्माधिकारी
ने उसे जाति से निष्कासन का आदेश दिया। बड़े भाई विश्वनाथ शास्त्री को भी उसे
त्यागना पड़ा। अब पति-पत्नी काशीनाथ और मंजुवाणी लोकगीतों और नाटकों से अपना संदेश
गांव गांव फैलाने लगे। राजा विजयानंदरामा गजपति ने दोनों को अपने दरबार में शामिल
कर लिया। लेकिन धर्माधिकारी यहां भी काशानाथ के पीछे पड़ा है। राजनर्तकी अमृतांबा
से मिल कर काशीनाथ को बदनाम करने का षड्यंत्र रचता है। अमृतांबा उसे आकर्षित करती
है, मद्यप बना देती है, राज दरबार से भी निकलवा देती है। शेष फ़िल्म का विषय है
भाभी अन्नपूर्णाम्मा की सहायता से काशीनाथ का एक बार फिर सर्वमान्य हो जाना।
-‘झनक झनक पायल बाजे’
राजकमल कलामंदिर की आठवीं फ़िल्म ‘झनक
झनक पायल बाजे’ नवरस से संसिक्तनृत्य-गीत-संगीत का महोत्सव थी। फ़िल्म
क्या थी कथक, भरतनाट्यम्, मणिपुरी जैसे नृत्यों भारत की समृद्ध नृत्य परंपरा को
शांताराम की निष्ठा का उद्घोष थी। इस ख़र्चीली कृति के निर्माण का व्यय उठाने के
लिए शांताराम को अपनी पत्नी के ज़ेवर तक गिरवी रखने पड़े थे - कथावस्तु में
शांताराम का विश्वास निराधार नहीं था। इस से राजकमल का ख़ज़ाना लबरेज़ हो गया था। एक
सिनेमाघर में तो यह लगातार दो साल चली थी। कहानी और संवाद लिखे थे दीवान शरर ने,
संगीतकार थे वसंत देसाई, सभी दस गीत लिखे थे हसरत जयपुरी ने, पहला टाइटल गीत ‘झनक
झनक पायल बाजे, पायलिया की रुनक झुनक पर छम छम मनवा नाचे, नील गगन भी सुन कर झूमे
सोई धरती जाग उठी है, गूंज उठा संसार, नील गगन भी सुन कर झूमे मधुर मधुर झनकार’ गाया था उस्ताद अमीर ख़ां ने, इसके बाद सभी
गीतों में लता मंगेशकर थीं और उनके साथ किसी में थे हेमंतकुमार और किसी में मन्ना
डे। मीराबाई के भजन से प्रेरित गीत ‘जो
तुम तोड़ो पिया मैं नाहीं तोड़ूं रे तोरी प्रीत तोड़ी कृष्णा, कौन संग जोड़ूं रे’
में संतूर का उपयोग पहली बार किया गया था और यह बजाया था संतूरवादक शिवकुमार शर्मा
ने। (उल्लेखनीय बहुत बाद अमिताभ की ‘सिलसिला’ में भी यह गीत शामिल किया गया था।)
फिल्म शुरू होते ही एक के बाद एक नृत्य-गीत की
झड़ी लग जाती है। दर्शक गोपीकृष्ण और संध्या का कौशल देख कर विभोर हो जाते हैं।
दीवार पर नर्तकी रूपकला की नृत्य प्रस्तुति का
पोस्टर देख नृत्य गुरु मंगल महाराज (केशवराव दाते) भड़क उठते हैं – उनकी पुरानी
शिष्या पैसे के लिए ऐसा घटिया गंदा नाच कर रही है! पुत्र गिरधर
(गोपीकृष्ण) उन्हें रोकने की नाकाम कोशिश करता है। रूपकला की प्रस्तुति रुक जाती
है। जल्दी ही वह देखते हैं –एक बड़ी हवेली, युवती नीला (संध्या) रियाज़ कर रही है।
असली कला क्या होती है यह दर्शाने के लिए वह अपने शिष्य गिरधर को आदेश देते हैं।
और -- गिरधर जो नाचता है, जो नाचता है, तो यहां से वहां, उधर से इधर, कभी वादक
मंडली के पार, कभी दूर खुले असमान में, चक्कर पर चक्कर, अप्रतिम पद संचलन- तबले और
पैरों की अद्भुत जुगलबंदी। नीला चमत्कृत हो जाती है। (तब गोपी बीस साल का था,
संध्या बाईस की। दोनों यौवन से भरपूर!) उसे शिष्या बनाने से पहले मंगल महाराज दो शर्त
रखते हैं – ‘1-वह पूरा जीवन कला को समर्पित करेगी,
और 2-आगामी नृत्य प्रतियोगिता में तांडव नृत्य में गिरधर के साथ पार्वती बनेगी।’
अब शुरू होता है एक के बाद एक और नए रियाज़ों का
सिलसिला। एक के से एक बेहतरीन नृत्य, गीत और संगीत। दर्शक मुग्ध होते रहते हैं, नीला
और गिरधर मुग्ध होते रहते हैं एक दूसरे पर। जो मुग्ध नहीं होता वह है खलनायक मणिलाल
(मदन पुरी) - नीला का सरपरस्त, नीला का सहारा और नीला को अपने लिए चाहने वाला। वह
आशंकित तो पहले से था नीला और गिरधर के रिश्ते पर, अब उसे भरोसा हो गया है नीला
हाथ से गई और वह गुरु मंगल महाराज से शिकायत करता है। गुरु जी शिकायत को नज़रंदाज़
कर देते हैं। तांडव नृत्य प्रतियोगिता की तैयारियां करनी हैं। वेशभूषा, घुंघरू आदि
लाने गुरु जी बनारस जा रहे हैं। शिष्य गिरधर को नसीहत देते हैं - प्रेम जैसे
बंधनों में न बंधने की। चेला उन्हें भरोसा दिलाता है।
झनक झनक पायल बाजे |
गुरु जी गए, एक और सिलसिला शुरू हुआ - एक के बाद
एक और नए नृत्य का रियाज़... हर नृत्य पहले से बेहतर, कभी खुले आसमान के नीचे, कभी
मैसूर के वृंदावन गार्डन में। नीला और गिरधर अपने को रोक नहीं पाते। एक दूसरे से
प्रेम कर ही बैठते हैं। गुरू जी लौटते हैं, देखते हैं, लाठी घुमा कर जो फेंकते हैं
वह गिरधर के पैर पर पड़ती है। नीला सेवा कर के उसे ठीक करती है। अब गिरधर के लिए
कला से भी बढ़ कर है नीला। वह समझ गई है कि गिरघर की कला का भविष्य ख़तरे में है।
अजब दुबधा है। गिरधर की प्रगति की ख़ातिर वह उसे विश्वास दिला देती है कि मणिलाल के
साथ वह... । पतिता नीला को हमेशा हमेशा के लिए त्याग कर गिरधर चला गया वापस गुरु-पिता
के घर– अपनी कला को चरम तक पहुंचाने।
नीला समझ नहीं पाती क्या करे। नदी में कूदी, बहती
रही, दूर एक साधु ने उसे निकाल लिया। वह जोगन मीरा बनी, भक्त इकट्ठा होने लगे। एक
दिन गिरधर भी आया। वह रह नहीं सकता उस के बग़ैर। नीला उसे न पहचानने का नाटक करती
है, वह अटल है। आख़िर गुरु जी गिरधर को ले ही गए। साधु और सेविका बिंदिया बीमार
नीला को अनजाने में उसी मंदिर के पास ले गए जहां तांडव नृत्य की परीक्षा होनी है।
गुरु जी ने एक और सहनर्तकी रख ली है गिरधर के साथ प्रतियोगिता में नृत्य के लिए। वह
जो मणिलाल था वह अब तक सक्रिय है, हर कोशिश कर रहा है गिरधर को हरवाने की। उसने
सहनर्तकी को पैसा दे रखा है गिरघर के तांडव को अधबीच छोड़ देने के लिए। नृत्य में
गिरधर पदसंचलन कर रहा है, तबला उसकी जुगलबंदी कर रहा है। निकट वन में अचेत नीला के
पैरों में हरक़त होती है, पूरा बदन सचेतन होता है, वह उठ खड़ी होती है, दौड़ती है,
तांडव में गिरधर का साथ देने। पतिता नीलाको गिरधर धकेलता है, नाच से उसे हटाने की
कोशिश करता है, पर गुरु जी के संकेत पर नाच में तन्मय हो जाता है। उस के साथ आ
जाती है नीला। अब जो तांडव हो रहा है वह अभूतपूर्व है, कल्पनातीत है। जल, धरती, कण
कण - सब वैश्विक नृत्य का अंग बन जाते हैं। देवी देवता देखने आते हैँ। गिरधर अब
तांडव सम्राट है। पर नीला को स्वीकारने को तैयार नहीं है। अंततः गुरु के समझाने पर
दोनों का मिलन होता है।
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अरविंद कुमार |
अगला भाग 103 शांताराम पर मेरा अंतिम संस्मरण
होगा। उसमें आप पढ़ेंगे ‘दो
आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’ और ‘पिंजरा’ की समीक्षा के साथ मेरे तथा अन्य लोगों के
संस्मरण।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की
ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना
कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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