प्रतिक्रिया भाग 2
(मित्रो, पिछले बुधवार (25/09/2019) को हमने ‘माधुरी’ के दूसरे संपादक श्री विनोद तिवारी की टिप्पणी प्रकाशित की थी। इस हफ्ते प्रस्तुत हैं कुछ और टिप्पणियां। पिक्चर प्लस पर प्रत्येक रविवार प्रकाशित होने वाले अरविंद कुमार से माधुरी सिनेवार्ता धारावाहिक संस्मरण को लाखों लोग पढ़ रहे हैं, हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। यह धारावाहिक 100वें भाग पार कर हिंदी ब्लॉग/पोर्टल की दुनिया में एक स्मरणीय पड़ाव को पार कर चुका है। अगर आप भी इस ऐतिहासिक धारावाहिक श्रृखंला पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहते हैं तो स्वागत है। अपने संक्षिप्त विचार pictureplus2016@gmail.com पर भेजें।)
अरविंद
कुमार जी के संग माधुरी सिनेवार्ता श्रृंखला के सौ भाग पूर्ण होने पर पिक्चर प्लस
और संजीव श्रीवास्तव जी को हार्दिक शुभकामनाएं।
संजीव जी, आप
बधाई के पात्र हैं, जो आपने अरविंद जी को इस उम्र में भी घेर लिया। वो खुद
अपने आप में किताब हैं। मैं तो कहूंगा कि वो किताब से भी बढ़ कर हैं। क्योंकि किताब जब लिखी जाती
है तो उसमें काट-छांट की गुंजाइश रहती है। जबकि अरविंद जी बात करते हुये अपने
मेरोरी लेन (memory lane) में जाते हैं और वहां से कुछ
ऐसा खोज कर लाते हैं जिसके संदर्भ (reference) में हमने वो घटना नहीं देखी होती है। माधुरी सिनेवार्ता के लिए
आपको एक बार फिर बधाई।
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"मानो गुमशुदा माधुरी पुनर्जीवित हो गई!"
वह समय ही कुछ और था जब ‘माधुरी’ के हर नए अंक आने की प्रतीक्षा हम
करते होते थे। किन्हीं अंको में मेरे पत्र भी पुरस्कृत हुए तो कभी फोटो पर मांगी
गई पंक्तियां छपीं। पोस्टकार्ड लिख प्रतिक्रिया व्यक्त करना, अपनी डायरी में माधुरी से कुछ पंक्तियां नोट करना, मेरा प्रिय शगल था। पैतृक आवास में अभी भी माधुरी के कई
पुराने अंक रखे हैं। बीच में माधुरी ने साइज बदली, कागज
भी चिकना हुआ, और फिर एकदिन अचानक माधुरी ग़ायब हो
गई। पर आपने जो शानदार काम किया है, सोशल मीडिया का यह बहुत
सकारात्मक उपयोग है। इस तरह नई पीढ़ी के लिए भी गुमशुदा माधुरी पुनर्जीवित हो गई है।
साधुवाद आपके सुप्रयास को।
(मित्रो, पिछले बुधवार (25/09/2019) को हमने ‘माधुरी’ के दूसरे संपादक श्री विनोद तिवारी की टिप्पणी प्रकाशित की थी। इस हफ्ते प्रस्तुत हैं कुछ और टिप्पणियां। पिक्चर प्लस पर प्रत्येक रविवार प्रकाशित होने वाले अरविंद कुमार से माधुरी सिनेवार्ता धारावाहिक संस्मरण को लाखों लोग पढ़ रहे हैं, हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। यह धारावाहिक 100वें भाग पार कर हिंदी ब्लॉग/पोर्टल की दुनिया में एक स्मरणीय पड़ाव को पार कर चुका है। अगर आप भी इस ऐतिहासिक धारावाहिक श्रृखंला पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहते हैं तो स्वागत है। अपने संक्षिप्त विचार pictureplus2016@gmail.com पर भेजें।)
"याद आ गया वो ‘माधुरी’
वाला ज़माना!"
अरविंद
कुमार जी ने इस श्रृंखला में जीवन के अनुभवों को साझा किया। हम उनके आभारी हैं।
बरसों से समाज को नई दिशा देते रहे। आज की नौजवान पीढ़ी को पुनः अपने अनुभव से
अवगत कराया है।
सिनेमा, साहित्य, कला के अनेक वृतांत सुनाये। हम सभी उनके आभारी हैं। मेरे
अपने विचार
पत्रिका माधुरी को लेकर प्रस्तुत हैं।
माधुरी--साहित्य, कला, संस्कृति और मनोरंजन से परिपूर्ण पत्रिका मानी गई।
देश के हर वर्ग की पसंदीदा पत्रिका मानी गई। बचपन के
दिनों को याद करता हूं। उच्चवर्गीय परिवार हो या मध्यमवर्गीय, हर
घर के सोफ़े के सामने रखी टेबल पर माधुरी नज़र आ जाती थी। सिनेमा जगत की ख़बरों का
रुझान जनमानस को आरंभ से रहा है। दिलीप कुमार, नरगिस, मधुबाला, राजकपूर, राजेंद्र कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, पृथ्वीराज कपूर, मुराद, बलराज साहनी, जितेंन्द्र, राजेश खन्ना जैसे अनेक
अभिनेता अभिनेत्रियों के निजी जीवन में झांकने की उत्सुकता अवाम में रहती है।
माधुरी ने शूटिंग की ख़बरों के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व, उनके संघर्षों की
कहानियों को जनमानस तक पहुंचने का रास्ता अपनाया।
एक घटना याद आ रही है। जबलपुर शहर में प्लाज़ा टाकीज़
हुआ करती थी। वो शहर का सबसे अधिक सीटों वाला सिनेमा हाल था। साठ के दशक में फिल्म
गाईड रिलीज़ हुई थी। देवानंद वहिदा रहमान मुख्य किरदार में थे। पहले सप्ताह में
दर्शकों की आमद कम हुई थी। किंतु अगले सप्ताह से फिल्म ने ज़ोर पकड़ लिया।
आख़िरकार फिल्म सफलता के सारे आयम पार कर गई। इसी प्रकार शोले फिल्म का भी रहा है।
माधुरी के पाठकों में प्रत्येक अंक में छपी कहानियों
के प्रति उत्सुकता रहती थी। साथ ही उन दिनों मैंने एक अहम बात महसूस की थी। समाज
को नई दिशा प्रदान करती सार्थक कहानियां घर-घर में पढ़ी जाती थीं।
जिस प्रकार आज के युग में टेलीविजन सीरियल की घटानाओं
पर महिलाओं को चर्चा करते देखा जाता है। उसी प्रकार उन दिनो माधुरी की चर्चा
आम बात थी। माधुरी समाज का एक अंग थी। मुझे याद रेलवे
स्टेशन पर लोग हाथों में क़िताबें बेचते थे। ट्रेन में बैठे यात्रियों की मांग माधुरी
पत्रिका होती थी। एक पत्रिका पूरे कंम्पाटमेंट की आवश्यकता बन जाती थी। सिनेमा पर
विचार –विमर्श करते लोगों की बातों में माधुरी के अंक का उदाहरण
दिया जाता था। जिस प्रकार आजकल गूगल सर्च होता है।
समाज के विभिन्न आयामों पर गहन अध्ययन माधुरी करता
रहा। देश के हर घर परिवार का हिस्सा माधुरी, समाज का आईना माधुरी, नौजवानों नवयुवतियों
की समस्यायों का समाधान माधुरी, बच्चों की चहेती माधुरी, जीवन का अहम हिस्सा
माधुरी।
-आनंद मिश्रा, फिल्म अभिनेता व रंगकर्मी, मुंबई
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"मेमोरी लेन में ले जाती है माधुरी सिनेवार्ता"
गौतम सिद्धार्थ |
-गौतम सिद्धार्थ, स्क्रीन राइटर,
मुंबई
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“पिक्चर
प्लस ने कराया माधुरी का साक्षात्कार”
सच
कहूं तो फिल्म पत्रकार बन जाने तक भी मैंने 'माधुरी' तो
क्या कोई भी फिल्मी पत्रिका नहीं पढ़ी थी। सिनेमा के बारे में पढ़ते-गुढ़ते हुए
धीरे-धीरे सब पत्रिकाओं के स्तर का ज्ञान हुआ और अरविंद जी की वजह से 'माधुरी' व
ब्रजेश्वर मदान जी के कारण 'फिल्मी कलियां' मेरी नज़रों में
प्रतिष्ठा पाने लगीं। सफर शुरू हुआ तो ब्रजेश्वर मैदान जी, बच्चन
श्रीवास्तव जी, संपतलाल पुरोहित जी, श्रीशचंद्र
मिश्र जी, मनमोहन तल्ख जी, विनोद भारद्वाज जी
जैसे ज्ञानीजनों का सान्निध्य भी मिला लेकिन कसक रह गई कि न कभी अरविंद जी से
मुलाकात हुई, न उन्हें ज़्यादा पढ़ सका। पर जब 'पिक्चर
प्लस' पर 'माधुरी सिनेवार्ता' श्रृंखला शुरू हुई
तो लगा सपना साकार हो उठा है। हफ्ते-दर-हफ्ते यह सिनेवार्ता जेहन पर कब्जा करने
लगी और हर हफ्ते इसका बेसब्री से इंतजार रहने लगा। अरविंद जी के संग चलते-चलते हम
पाठक फिल्म-नगरी की किन-किन गलियों से होकर गुज़रे, क्या-क्या अनुभव
हमें मिले, ये शब्दों में बता पाना मुश्किल है। कई बार लगा
कि अरविंद जी हमें अपने संस्मरणों की टाइम-मशीन के जरिए जहां ले गए हैं, वहां
से हम लौटे ही क्यों। बहुत शुक्रिया अरविंद जी,
बहुत आभार 'पिक्चर प्लस' और
भाई संजीव श्रीवास्तव। दुआ है, यह सफर यूं ही बरसों-बरस जारी रहे।
-दीपक
दुआ
(पूर्व
सहयोगी संपादक 'फिल्मी कलियां')
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“माधुरी सिनेवार्ता की पुस्तक आनी चाहिए”
“माधुरी सिनेवार्ता की पुस्तक आनी चाहिए”
आदरणीय अरविंद सर के साथ माधुरी सिनेवार्ता
के लगभग सभी भाग मैंने पढ़े हैं। इस वार्ता को पढ़ना हिंदी सिनेमा के एक बड़े कालखंड
से पूरी जीवंतता के साथ जुड़ने जैसा है। इसमें फ़िल्मी सितारों से जुड़े प्रसंग नई
पीढ़ी के लोगों को मायानगरी के अनछुए पहलुओं से तो रूबरू कराते ही हैं, संभवतः पुराने लोगों को अपनी स्मृतियां फिर से जीने का मौका
देते होंगे। अरविंद कुमार चूंकि माधुरी जैसी श्रेष्ठ और गंभीर फिल्म पत्रिका
संपादक रहे हैं और मायानगरी मुंबई में उन्होंने लंबा अरसा गुज़ारा है, लिहाजा उनके अनुभव ज़्यादा प्रामाणिक हैं। मुझे लगता है, इस विस्तृत वार्ता को पुस्तक रूप में आना चाहिए।
-राजीव रंजन श्रीवास्तव, फिल्म समीक्षक, दिल्ली
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"मानो गुमशुदा माधुरी पुनर्जीवित हो गई!"
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विवेक रंजन श्रीवास्तव |
-विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
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