प्रतिक्रिया भाग 3
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नोट- पिक्चर प्लस पर अरविंद कुमार से माधुरी सिनेवार्ता श्रृंखला आपको कैसी लगती है? आप भी अपनी प्रतिक्रिया तस्वीर समेत भेज सकते हैं। Email : pictureplus2016@gmail.com
“श्रृंखला
जारी रखें, चौदहवीं के चांद की
तरह लाजवाब है माधुरी सिनेवार्ता”
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डॉ. इंद्रजीत सिंह |
‘पिक्चर प्लस की माधुरी सिनेवार्ता' की 100 कड़ियां पूरी होने पर
अप्रतिम शब्द साधक आदरणीय अरविंद कुमार जी और पत्रिका के ऊर्जावान जुनूनी संपादक प्रिय
भाई संजीव श्रीवास्तव जी को हार्दिक बधाई। एक जमाना था जब हम सभी साप्ताहिक
हिंदुस्तान, धर्मयुग और माधुरी का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार
करते थे, या हर रविवार महाभारत सीरियल को
देखने के लिए मन बेचैन रहता था। लगभग वैसा ही इंतज़ार रहता है आदरणीय अरविंद जी
सिनेवार्ता का। सिने वार्ता की प्रत्येक कड़ी पाठकों को जोड़ने में,
उनमें उत्सुकता जगाने में, नई बातों को बताने में अरविंद जी प्रेमचंद और
शैलेन्द्र की तरह सरल-सहज प्रवाहमयी जीवन्त भाषा, राजेन्द्र सिंह बेदी
और कृष्णचन्दर की सी जादुई शैली और अपने निराले अंदाज में सिनेवार्ता इस तरह
प्रस्तुत करते थे कि पाठक उस स्वर्णिम दौर का अभिन्न हिस्सा बन जाता था। सिनेवार्ता
में अनेक अभिनेताओं, गीतकारों, अभिनेत्रियों, निर्देशकों और
लेखकों और फिल्मों की दिलचस्प बातों को, मार्मिक घटनाओं को करीब से जानने समझने का
मौका मिलता है।
सिनेवार्ता भाग 61 में अरविंद जी ने अपने मित्र
कवि-गीतकार शैलेन्द्र जी और उनके द्वारा निर्मित फ़िल्म – ‘तीसरी
कसम’ पर बहुत गहराई से और मार्मिक तरीके से प्रकाश
डाला है। शैलेन्द्र जी और ‘तीसरी कसम’ दोनों मेरे दिल के करीब हैं। मेरा मानना है कि
कथाजगत में जो स्थान प्रेमचंद जी का है, फ़िल्म निर्देशन में जो प्रतिष्ठा सत्यजीत रे की
है,
गायन जगत में जो रुतबा लता मंगेशकर का है,
वहीं मान-सम्मान फ़िल्म गीत लेखन की दुनिया में शैलेन्द्र जी का है। शैलेन्द्र इश्क़,
इंक़लाब और इंसानियत के अप्रतिम कवि थे जिनके गीत स्तरीयता और लोकप्रियता के जीवंत
दस्तावेज हैं। शैलेन्द्र ने "किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया"
जैसा कालजयी प्रेम गीत लिखा उसी तरह "है आग हमारे सीने में हम आग से खेलते
आते हैं" जैसा इंक़लाबी गीत रचा। "किसी की मुस्कुराहटों पे हो
निसार" गीत इंसानियत की पराकाष्ठा है। अरविंद जी ने इस कड़ी में एक गीत
-"होठों पे ऐसी बात में दबा के" को शैलेन्द्र की रचना माना है,
वास्तव में यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी का है। ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म गोलचा में नहीं डिलाइट सिनेमा में
प्रदर्शित हुई थी। जिसे 2 दिन बाद उतार लिया गया था।
आदरणीय अरविंद जी प्रिय भाई संजीव श्रीवास्तव जी
से प्रार्थना है कि इस सिनेवार्ता को जारी रखे। यह वार्ता सिनेमा के स्वर्णिम अतीत
की खूबसूरत झांकी प्रस्तुत करती है जो चौदहवीं के चांद की तरह लाजवाब है। आप दोनों
को पुनः बधाई।
-डॉ. इंद्रजीत सिंह, शैलेन्द्र सम्मान के फाउंडर हैं हाल ही में शैलेन्द्र पर किताब लिखी है ‘धरती
कहे पुकार के’ जिसकी बड़ी चर्चा है। देहरादून में रहते हैं।
“माधुरी
ने मेरा नजरिया ही बदल दिया था”
'माधुरी' मेरी पसंदीदा फ़िल्मी पाक्षिक थी, जिसका मैं हर पखवाड़े प्रतीक्षा करता
था। पत्रिका हाथों में आते ही सबसे पहले 'पाठकों के पत्र' स्तंभ देखता था कि मेरा पत्र
प्रकाशित हुआ है या नहीं? मेरे चुनींदा
पत्र ही ‘माधुरी' में छपे थे, जिसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं।
फ़िल्मी गॉसिप से कोसों दूर, साफ-सुथरी
पत्रिका होती थी, जिसे पूरे
परिवार के साथ बैठकर पढ़ा जा सके।
फ़िल्म विधा की हर विधा से परिचय हो जाता था। फ़िल्म की
घोषणा से लेकर, बनने प्रदर्शित होने और फ़िल्म के प्रचार – प्रसार तक की विश्वसनीय जानकारी का जखीरा थी। जब श्री
अरविंद कुमार जी पत्रिका के संपादक थे, तब से लेकर श्री विनोद
तिवारी जी संपादक बने, तब तक नियमित पढ़ता था। माधुरी का प्रकाशन बंद होने पर जो दुख हुआ, उसे शब्दों में बयान करना
कठिन है। ऐसे प्रतीत हुआ मानो बचपन का कोई सच्चा मित्र हमसे रूठ कर, हमेशा के लिए गायब हो चुका हो। मुझे आज भी याद है
माधुरी में एक आलेख छपा था कि फ़िल्म देखना भी एक कला है। उस आलेख में छपी बातें
पढ़कर फ़िल्म देखने का मेरा नज़ररिया ही बदल गया। काश! माधुरी आज भी पढ़ने को मिलती तो
कितना सुकून मिलता।
- अशोक वाधवाणी, गांधी नगर, महाराष्ट्र
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