‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–104
छत्तीसगढ़ राज्य में है राजनंदगांव नाम का शहर और
ज़िला। कभी बहुत पहले यहां सोमवंशियों, कलचुरियों और मराठों का राज हुआ करता था। बाद में
महंतों का शासन हुआ। जाता महंत आते महंत को नामज़द करता था। सन् 1979 में
अंग्रेजों ने महंतों का वंशागत राज्य बना दिया। अब से चौरानबे साल पहले 22 नवंबर
1915 को महंत राजा के कार्यालय से संबद्ध उच्च अधिकारी कन्हैयालाल साहू के घर जन्म
हुआ किशोर साहू का। मां का नाम था प्रेमवती। वह 22 अगस्त 1980 को संसार से विदा हो
गया।
किशोर ने नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ते पढ़ते
स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। कहानियां भी लिखने लगा। 1937 में
बी.ए. किया। कहानियों के माध्यम से सिने जगत से संबंध हुआ। इस तरह शुरू हुआ जो
एक्टिंग कैरियर वह उसे आचार्य पद तक ले गया,
जवानी से बुढ़ापे तक फ़िल्म पर फ़िल्म
बनाई, अभिनय किया फिर विलीन सा हो गया। कुछ साल पहले
छत्तीसगढ़ सरकार ने उस के नाम से किशोर साहू फ़िल्म सम्मान संस्थापित किया।
अपने जीवन काल में किशोर ने 1837 से 1980 तक 22
(बाईस) फ़िल्मों में अभिनय किया, 1942 से 1974 तक 20 (बीस) का निर्देशन किया।
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बेमिसाल अदाकारी के धनी |
जीवन प्रभात और
बहूरानी
बांबे टाकीज़ की 1937 की जीवन प्रभात में किशोर
साहू नायक था और नायिका थीं देविका रानी।
इसके बाद उसने अपनी कंपनी खोल ली – किशोर
साहू प्रोडक्शंस। पहली फ़िल्म थी बहूरानी (1940)। निर्देशक थे मुबारक और आर.एस.
जुन्नारकर। नायिका रोज़ी और नायक किशोर साहू के सहकलाकार थे अनुराधा, मुबारक, मधूलिका
और नाना पल्सीकर। यह अपने समय की बड़ी क्रांतिकारी फ़िल्म थी। विषय था अछूत लड़की
का ब्याह। लेखक अमृतलाल नागर ने फ़िल्म में अभिनय भी किया था। स्पष्ट है कि समाज
में तहलक़ा मच गया। हर एक की ज़बान पर “किशोर साहू,
किशोर साहू” हो रहा था।
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कुंवारा बाप (1942)
अब किशोर की अगली फ़िल्म का सबको इंतज़ार था।
समझदारी की बात यह कि नई फ़िल्म बहुत हट कर बनाई हंसी से भरपूर - कुंवारा बाप
(1942)। होने वाली मंगेतर (प्रोतिमा दासगुप्ता) के लिए जौहरी की दुकान से अंगूठी
ख़रीद कर प्राणनाथ (किशोर साहू) बाहर आया तो कार में एक बच्चे को पाया। मंगेतर
समझी कि यह प्राणनाथ का ही बच्चा है। तमाम हंसाऊ घटना के बाद समस्या सुलझ जाती है।
मुझे याद है मैं बारह साल का था। मेरठ में वयस्क चाचा लोग उसी की बातें करते थे।
एक चाचा ने तो वह कई बार देखी थी।
कुछ ऐसी ही थी 1955 की डेज़ी ईरानी की बंदिश और
1957 की तमिल फ़िल्म यार पैयां (किसका बेटा)। 1921 की चार्ली चैपलिन की द किड का
तो विषय ही यह था। अनब्याही अभिनेत्री मां बनी तो बच्चे को किसी कार मॆं छोड़
दिया। कार वाला समझा कि चार्ली चैपलिन बच्चा छोड़ कर भाग रहा है। पकड़ कर बच्चा
उसे वापस कर दिया। चैपलिन बच्चे से छुटकारा पाने के कई जतन करता है, असफल
रहता है, पालता है... चार्ली से प्रेरणा लेकर अमरलाल
छाबरिया ने बनाई 1974 में कुंवारा बाप। अमर (विनोद मेहरा) गर्भवती राधा (भारती) को
छोड़ कर चला गया। राधा ने नवजात को मंदिर के बाहर छोड़ दिया। रिक्शावाले महेश (मेहमूद)
ने उठा लिया और पाला। नाम रखा हिंदुस्तान (मेहमूद का बेटा मैकी अली)। फ़िल्म में
समांतर थीम थी बच्चों को पोलिय़ो का टीका लगवाओ। बच्चे के असली मां बाप छोड़े गए
बच्चे की तलाश करवाते हैं। पुलिस वाले के कहने पर महेश बच्चा मां बाप को सौंप देता
है। लेकिन बच्चा फिर पालक पिता महेश के पास आता है। महेश मर रहा है, दर्शकों
से कह रहा है, “मैं तो कैमरे के लिए मर रहा हूं, पर
भयानक पोलियो बीमारी ज़िंदा है, बच्चों को उस का टीका अवश्य लगवाएं।”
राजा (1943)
1943 की राजा भारत में बने सामाजिक व्यंग्यों की
सरताज मानी जाती है। किशोर साहू और प्रोतिमा दासगुप्ता वाली फ़िल्म की निर्माता था
नई नई पूर्णिमा प्रोडक्शंस। ख़ान मस्ताना के संगीत में अपने गीत स्वयं किशोर साहू
ने ख़ुद गाए थे, निर्देशक भी वही थे। उस ज़माने की शीर्ष फ़िल्म
पत्रिका के शक्तिशाली प्रकाशक-संपादक बाबू राव पटेल ने लिखा था, "(Raja) remains a milestone of art and skill in
motion pictures"। आज की
पीढ़ी को अंदाज़ा नहीं हो सकता कि बाबूराव की क़लम किसी फ़िल्म, फ़िल्मकार, कलाकार
को बना या बिगाड़ सकती थी। एक बार सुनील दत्त ने मुझे बताया था कि पटेल साहब के
सामने पड़ने तक से फ़िल्म वाले डरते थे।
विकिपीडिया के अनुसार “The magazine
(filmindia)‘created a sensation’ on its launch with its ‘canny mix of rumour
and review, observation and opinion’ and Patel became a ‘celebrity’ equal to
the film stars he wrote about.”
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वीर कुणाल (1945)
1945 की वीर कुणाल हिंदी की ईपिक फ़िल्मों में
गिनी जाती है। कहानी है सम्राट अशोक की नवयुवा पत्नी तिष्यरक्षिता की सम्राट के
बेटे कुणाल पर आसक्त होने की और कुणाल के उसे इनकार करने की, और
तिष्यारक्षिता द्वारा उसे अंधा करवा देने की। रमणीक प्रोडक्शन के बैनर तले किशोर
साहू निर्मित फ़िल्म की कहानी, पटकथा और संवाद सब साहू ने ही लिखे थे। सभी
सहकलाकार समर्थ थे - जैसे शोभना समर्थ, दुर्गा खोटे,
मुबारक और माया बनर्जी। निर्माण के दौरान
ही हर तरफ़ इस का चर्चा था। दर्शकों की उत्सुकता चरम पर थी। पहली दिसंबर 1945 को नॉवेल्टी
सिनेमा में प्रीमियर फ़िल्म का उद्घाटन किया सरदार पटेल ने। सभी पत्र-पत्रिकाओं ने
इसे महानतम फ़िल्म कहा। बाबूराव ने विशेष स्तुति के तौर पर लिखा, “शोभना
समर्थ को खलनायिका (तिष्यरक्षिता) बना कर साहू ने कमाल कर दिखाया है।”
कुणाल और तिष्यरक्षिता |
मयूरपंख 1945
अगर किशोर साहू निर्देशित वीर कुणाल ऐतिहासिक
विषय पर थी, तो मयूरपंख वर्तमान थी। देशी और विदेशी कलाकारों
को एक मंच पर ला कर राजस्थान में भारतीय नायक रणजीत (किशोर साहू) और ब्रिटिश
नायिका जोन डैविस (ओडेत फ़र्गुसन) की प्रेम कथा थी मयूर पंख। फ़िल्म में गीत शैलेंद्र
और हसरत जयपुरी के थे संगीत शंकर जयकिशन का। कहानी, पटकथा, संवाद
के साथ निर्देशन सब कुछ किशोर साहू का था। फ़िल्म आंशिक रूप घटनाओं का वर्णन है और
अंशतः संवाद है। प्रसिद्ध लेखिका जोन अपने बॉय फ़्रैंड के साथ भारत आई है। संयोगवश
उस की मुलाक़ात होती है घने जंगलों में शिकार के शौक़ीन रणजीत से, उससे
प्रेम करने लगती है पर पता चलता है कि रणजीत विवाहित है। एक बार फिर वे मिलते हैं – जयपुर
में। रणजीत का महल। उसकी बहन की शादी में। जोन को मिलती है रणजीत की पत्नी शांति
(सुमित्रा देवी)। दोनों एक दूसरे को पसंद हैँ। रणजीत का पिता खदानों का धनी मालिक
है, जोन का बॉय फ़्रैंड माइनिंग इंजीनियर है। दोनों
मिल कर चाल चलते हैं। रणजीत को उनके संग इंग्लैंड जाना होगा।
सब कुछ शानदार था, भारत की सघन वन
संपदा और भव्य राजसिक भवन का चित्रण पराकाष्ठा पर था। 1954 के कान फ़िल्म
फ़ेस्टिवल में प्रदर्शिक गई थी और वहां के ग्रांड प्राइज़ के लिए नामांकित भी की
गई थी।
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काली घटा (1951)
दो नई कलाकार आशा माथुर और बीना राय को लेकर
किशोर साहू ने बनाई काली घटा। मुझे याद है इक्कीस बाईस साल की उम्र में मैंने यह
देखी थी कनाट प्लेस के ओडियन में। दर्शकों में उत्साह था। उन दिनों यूं भी अच्छी
फ़िल्मों के लिए किशोर मशहूर थे। किसी बलखाती पहाड़ी सड़क पर शानदार कार ऊपर की ओर
चली जा रही है। फ़ैशनेबल नौजवान चला रहा है। उसकी आंखों के सामने सच है या भ्रम -
एक नारी आकार उभरता है। वह बचाने की कोशिश करता है। कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती
है। उसकी पिटाई भी हो जाती है। आलीशान महल जैसे घर में एक पलंग पर बीमार सा बाप और
दूसरे पर मां लेटे अधलेटे से हैं। अस्त व्यस्त से चेहरे पर चोट के निशान वाला
नौजवान राम (किशोर साहू) आता है। बाप की डांट खाता है। हमें पता चलता है राम के
जन्म पर ही मां मर गई थी, यह उस की सौतेली मां है। असली मां के मरने पर जिस
औरत ने बच्चे को दूध पिलाया था उस का बेटा गोप अब मुंहलगा नौकर है, क्योंकि
वह राम का दूधभाई है। नए दृश्य में राम बन ठन कर किसी बड़े आदमी के बेटे की सगाई
में जाता है। डांसर नाच रही है। धनी परिवार का राम बड़े से सोफ़े पर बैठा है। कुछ
ही दूर एक लड़की (आशा माथुर) उसे देख मुस्कराए जा रही है। नाच ख़त्म हुआ, लड़के
के बाप ने कहा, “अब सगाई होगी। लड़की को बुलाओ।” देखा
तो न वह लड़की थी, न राम। दोनों पत्थर पर बैठे इश्क़िया बातें कर
रहे थे। राम की आंखों में दिख रहा है एक और भ्रम। नारी हाथ उस के चेहरे तक उभरता
है। फिर किसी विदेशी बनाव की सैंडिलों वाले पैर चलते दिखाई देते हैं। अगले दृश्य
में वही पहले वाला बंगला। लड़के का बाप राम की शिकायत कर रहा है। राम के मां-बाप
उसे भगा देते हैं। जल्दी ही हम देखते हैं वह लड़की राम के बहुत क़रीब आ जाती है।
लेकिन जब राम का बाप मरा और सारी ज़ायदाद नई मां के बेटे के नाम कर गया, तो
उस लड़की ने सौतेले बेटे से शादी कर ली।
घरबार छोड़ कर दूधभाई के साथ राम निकल पड़ा।
दूरदराज़ रेलवे स्टेशन पर मिलता है दढ़ियल विदेशी जो प्राचीन कलाओं और संस्कृतियों
में शोध कर रहा है। दढ़ियल ट्रेन में बैठ कर चला गया। राम को अगली ‘किसी
भी’ ट्रेन में चढ़ना है। इस बीच वह पटरी के पार बैठे
साधु के पास जाता है। उसे देखते ही साधु कहता है, “जल्दी ही मिलेगी
तुझे तेरी मंज़िल और मिलेगी “काली घटा”!
टैक्सी वाले से लुट कर पथरीले दुर्गम पथ
पर चढ़ते दोनों पहुंचे प्राचीन मंदिरों वाली गुफाओं मे। वहां पहले जो मिली वही है ‘काली
घटा’ (बीना राय)- उस दढ़ियल की बेटी। पहली मुलाक़ात में
ही दोनों में प्यार हो जाता है। दक्षिण भारत की गुफाओं में और अंत में पूर्वोत्तर
भारत में वन्य जातियोँ के बीच प्यार बढ़ता गया। अंत में हम देखते हैं किशोर साहू
और बीना राय नाव में प्रेम का गीत गा रहे हैं।
दिल अपना और प्रीत
पराई 1960
अजीब दास्तां है ये वाली फ़िल्म दिल अपना और
प्रीत पराई सचमुच विलक्षण थी। द हिंदू समाचार पत्र में एक लेख में लिखा गया था, “यह
किशोर साहू की बाईस निर्देशित कृतियों में सर्वाधिक भावुक थी।“ बनाई
थी महल मूवीज़ बैनर के अंतर्गत कमाल अमरोही ने। इस में सब से प्रभावशाली थी मीना
कुमारी - आरंभ से अंत तक। मल्होत्रा अस्पताल में रैज़िडैंट सर्जन है सुशील (राज
कुमार)। नई नई नर्स है करुणा (मीना कुमारी)। पहले ही दिन ऑपरेशन थिएटर में दोनों
में प्यार हो जाता है। सागर तट पर घायल लड़की को देख करुणा उसे उस के घर तक ले गई।
लड़की डॉक्टर सुशील की बहन थी। करुणा की करुण दास्तान सुन कर डाक्टर की मां का दिल
भर आया। अब करुणा और डॉक्टर सुशील घर पर और अस्पताल में क़रीब और क़रीब आते गए।
अस्पताल में रोगियों से सहृदय बर्ताव से करुणा सबकी चहेती बन गई। मां को पता नहीं
था बेटे का करुणा के प्रति लगाव। उस ने परिवार के कश्मीर निवासी हितैषी की बद-दिमाग़
बेटी कुसुम (नादिरा) से बेटे की शादी करवा दी।
फ़िल्म को प्रबल भावुकता मिलती है संगीतकार शंकर
जयकिशन के लिए लिखे गए शैलेंद्र के पांच और हसरत जयपुरी के दो गीतों से। उनमें भी
शैलेंद्र लिखित लता मंगेशकर की आवाज़ में ‘अजीब दास्तां है ये’।
इसका वर्णन शैलेंद्र के निर्देशक बेटे दिनेश ने
इस प्रकार किया है:
“फ़िल्म निर्देशन है ही क्या! बस परदे पर कहानी
दिखाना। पर ऐसा है नहीं। निर्देशक का दायित्व मूलतः सामाजिक है। वह दर्शकों के
प्रति जवाबदेह है। दर्शकों के दिल तक पहुंच कर ही वह सफल हो सकता है।
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ कहानी
है एक आदमी और एक औरत की प्रेम कहानी...और कुछ बाध्यता के कारण आदमी के किसी और से
शादी हो जाने की। शादी का जश्न मनाया जा रहा है नाव पर... आदमी की प्रेमिका करुणा
को कुछ गाने को मज़बूर किया जाता है। वह गाती है... सिचुएशन पेचीदा है। गीत ख़ुशी
का होना चाहिए, लेकिन प्रेमी के दिल तक पहुंचना चाहिए।
“शैलेंद्र ने एक एक शब्द, हर
पंक्ति बड़े ध्यान से चुनी। गीत गाया लता जी ने। दर्शकों के दिलों को छूता गीत
बहुप्रशंसित और कई अवॉर्ड जीतता रहा। किशोर साहू ने शूटिंग में कोई कलाबाज़ी नहीं
की। बस मीना कुमारी और राज कुमार के भावों को पकड़ा और परिपूर्णता तक पहुंचा दिया।
गीत के परिचय के तौर पर कोरस में हवाई द्वीप की
गिटार और अकॉर्डियन और, हां, वायलिन
‘अजीब दास्तान है यह / कहां शुरू कहां ख़तम
‘ये मंज़िलें हैं कौन सी / ना वो समझ सके ना हम’
मुखड़े के बाद
अंतराल में शोकपूर्ण ट्रंपट, कोरस, अकॉर्डियन और गिटार
‘यह रोशनी के साथ क्यों / धुआ उठा चिराग़ सा
‘यह ख़्वाब देखती हूं मैं / के जग पड़ी हूं ख़्वाब
से
‘मुबारकें तुम्हें कि तुम / किसी के हो गए
‘किसी के इतने पास हो / कि सब से दूर हो गए
‘किसी का प्यार ले के तुम / नया जहां बसाओऽगे
‘यह शाम जब भी आएगी, तुम हम को याद आओगे’
मीना कुमारी की
आंखें नम हैं, पर रो नहीं रहीं...राज कुमार मुस्कराता है पर
जानता है शब्दों के पीछे क्या है. नादिरा और बाक़ी सब बेख़बर है। सोचिए ‘यह
रोशनी के साथ क्यों दिया उठा चिराग़ से’ का मतलब!”
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गाइड में देवानंद और वहीदा रहमान के बीच में किशोर साहू |
विद्वान किशोर साहू ने 1954 शैक्सपीयर के ‘हैमलेट’ पर
भी फ़िल्म बनाई थी और स्वयं हैमलेट की भूमिका निभाई थी।
मेरे ‘माधुरी’ काल में आईं उसकी 1965 की पूनम की रात, हरे
कांच की चूड़ियां’ और पुष्पांजली। पता नहीं क्यों किसी में पुराने
किशोर साहू का टच नहीं था।
‘पूनम की रात’
तथाकथित हॉरर थ्रिलर थी। मनोज कुमार के
साथ कलाकार थे नंदिनी, शिव कुमार और कुमुद छुगानी। संगीतकार सलिल चोधरी
के लिए गीत शैलेंद्र ने लिखे थे।
1967 की ‘हरे कांच की चूड़ियां’ मुख्यतः
बेटी नैना साहू को लांच करने के लिए बनाई गई थी. कहानी सामाजिक स्तर पर विद्रोहपूर्ण
थी। कुंवारी नायिका तमाम ताने उलाहने सह कर संतान का लालन पालन करती है।
1970 की ‘पुष्पांजलि’
में दिनेश खन्ना (संजय ख़ान) के बेटे
पप्पू (शाहिद) को ब्रेन कैंसर है। हर तरह की चिकित्सा उसे ठीक नहीं कर पाती। बेटे
ब्रेन ऑपरेशन न करा कर दिनेश उसे रोगमुक्त करवाचा है शिव मंदिर में पुष्पांजलि
चढ़ा कर इस भाग में मैं न किशोर साहू के केवल निर्माता-निर्देशक पक्ष का ब्योरा
दिया है, उनके अभिनय के लिए कभी और एक पूरा भाग लिखूंगा।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
किशोर साहू अपने समय के महान् कलाकार थे,उनका उचित मुल्याकंन नहीं हो सका यह बड़े दुःख की बात है, आपने किशोर साहू पर लेख कर बड़ी जानकारी दी है
जवाब देंहटाएंJahan tak mujhe yaad hai, Kishor Sahu ne Madhuri ke liye apne sansmaran bhi likhe the jo Kai ankon mein dharawahik ke room mein chhape the..
जवाब देंहटाएं@roop
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