गुरुदत्तावली – एक
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–105
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गुरुदत्त : जिंदगी की प्यास |
मुझे 1964 की वह 9 अक्तूबर अच्छी तरह याद है। तीसरा पहर। तीन-चार बजे। गुरुदत्त
से मेरी पहली और आख़िरी मुलाक़ात। उनका दफ़्तर। मेज़ के उस तरफ़ वह बैठे थे। इस
तरफ़ था मैं और मेरे साथी महेंद्र सरल। तब गुरुदत्त उनतालीस साल के थे। 1951 की बाज़ी
से शुरू करके उनकी लगभग सभी फ़िल्में मैंने दिल्ली में देखी थीं। और 1957 की प्यासा! – अनबुझी प्यास का ऐसा चित्रण जिसका
हर शॉट एक स्वतंत्र कहानी था। गुरुदत्त, माला सिन्हा, वहीदा रहमान। साहिर
लुधियानवी और शचिनदेव बर्मन। सुबह सुबह बाग़ में एक भंवरे के किसी के पैरों तले
कुचले जाने पर कवि के मन में उपजी करुणा की कहानी।
तो—
उस तीसरे पहर मेज़ के उस तरफ़ बैठे थे वही गुरुदत्त जिन्होंने प्यासा बनाई
थी, जो प्यासे थे। उस दिन वह अन्यमनस्क थे, मन पर कुछ भारी था, अपरिभाषित सा। वह
खुल नहीं पा रहे थे। कुछ ख़ालीपन, कुछ खोयापन। खोई खोई बातचीत शुरू हुई...
अगला दिन। 10 अक्तूबर। टाइम्स ऑफ़ इंडिया का मुखपृष्ठ। उनकी मृत्यु का शोक समाचार।
दुनिया के साथ साथ मैं भी हिल गया। यह कैसी विदाई!
‘माधुरी’ के अगले अंक के कुछ पन्ने – सारी
कहानी कह रहे हैं...$
माधुरी के पन्ने
माधुरी के पन्ने
उस रात क्या हुआ – यह कोई नहीं
जानता, कभी जानेगा भी नहीं।
पत्नी गीता दत्त से अलग होकर
गुरुदत्त ने अपना मकान बेच दिया था और दक्षिण बंबई की रईसों की सड़क पैड्डर रोड पर
किराए पर रहने लगे थे। अख़बारों में गीता और गुरुदत्त के मिलन और अलगाव को लेकर
तरह तरह के क़िस्से कहानियां छप रहे थे। शव परीक्षा के बाद पता चला कि मृत्यु का
कारण था शराब पीते पीते ढेरों नींद की गोलियां खा लेना।
कुछ लोगों ने इसे आत्महत्या
कहा, यह भी कहा कि वह पहले भी तीन बार ऐसी कोशिश कर चुके थे। यह भी कहा जा रहा था
कि उनकी मनोदशा में विषाद एक तरह से स्थायी भाव बन गया था।
गीता राय बनी गीता दत्त
अपने निर्देशन की पहली फ़िल्म
1951 की बाज़ी
की शूटिंग के दौरान
छब्बीस वर्षीय गुरुदत्त की मुलाक़ात हुई थी बंगालन गायिका गीता राय से। गीता की
आवाज़ ने तो उसे पहले ही मोह लिया था, पर इस से भी बढ़ कर उस की अलौकिक सुकुमारता और
अनोखे आकर्षण से गुरुदत्त बच न सका।
तब गीता इक्कीस साल की थी। उसे संगीत की शिक्षा नहीं मिली थी, पर गाती बहुत अच्छा थी। कहते हैं संगीतकार के. हनुमान प्रसाद ने उसकी आवाज़
सुनी तो भक्त प्रह्लाद के कोरस में दो स्वतंत्र लाइनें गवा लीं। शचिन देव बर्मन ने
वे सुनीं तो उसके घर दादर जा पहुंचे, और दो भाई में गाने के लिए राज़ी कर लिया। लेकिन फ़िल्मिस्तान स्टूडियो वाले
नई गायिका से गवाने के पक्ष में नहीं थे। शचिन देव भी अड़ गए। अपनी साख दांव पर
लगा दी –‘गीता नहीं तो मैं नहीं!’ फ़ैसला हुआ एक गीत रिकार्ड करा
लें, फिर देखेंगे। पहला गीत
‘हमें छोड़ पिया किस
देश गए’ रिकार्ड हुआ। जीत
शचिन देव की हुई। फिल्म के नौ गीतों में से छह गीता ने गाए! गीता का पहला सुपरहिट गीत था ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’।
बाज़ी की शूटिंग के बाद गुरुदत्त उससे
मिलते जुलते रहे। कुछ ही महीनों की कोर्टशिप का अंत हुआ शादी की चर्चा पर। दोनों
के घर वाले राज़ी नहीं थे। अंत में ‘हां’ पहले गीता की मां ने की। 26 मई
1953 को शादी की रस्म हुई गीता के घर में। दोनों के घर वालों के सामने। अगले ही
साल 1954 में पैदा हुआ तरुण, दो साल बाद 1956 में अरुण, और बेटी नीना हुई छह साल
बाद 1956 में।
गुरुदत्त के लिए काम सब से पहले
था। घर में वह कम ही रहते। अनबन बढ़ती गई। गीता को अवसाद घेरने लगा। गाने में मन हटने
लगा। वह पिछड़ने लगी। दांपत्य कमज़ोर पड़ने लगा। यही नहीं, वहीदा रहमान के साथ
बढ़ती गुरुदत्त की नज़दीकियों ने रही सही क़सर पूरी कर दी। आप को याद होगा ‘काग़ज़ के फूल’ का गीत ‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम - तुम रहे ना तुम - हम रहे ना हम।’ एक बार फिर सुनें यह गीत।
महसूस करें दर्द क्या होता है। गीता ने अपने तमाम ग़म उंडेल दिए थे गीत में।
वहीदा के साथ रोमांस गुज़रे
ज़माने की बात हो चुका था। गुरुदत्त अपने ग़मों की दुनिया में रहने लगे। 1962 में
नीना के जन्म के बाद जुदाई हो कर रही। मकान की मिल्कीयत पर फ़ैसला नहीं हो पाया।
वह बेच दिया गया। गीता मायके में रहने लगी। गुरुदत्त ने पैड्डर रोड पर शानदार
फ़्लैट किराए पर ले लिया। अकेलापन उसे सालता रहता था। बच्चों से मिलना चाहता, रूठी
गीता अकसर भेजने से इनकार कर देती। गुरुदत्त मयकशी में ग़म ग़लत करने लगे।
मृत्यु के समाचार से फ़िल्म जगत
सहम गया। गीता आई, वहीदा आई। संगीत निर्देशक ओ.पी. नैयर आ पहुंचे। और ख़ास दोस्त
देव आनंद आया। कई दिन तक सदमे से उबर नहीं पाया। मित्र राज कपूर ने शव परीक्षा आदि
क़ानूनी कार्रवाई संभाली।
और गीता भारी सदमे में समा गई। अब
कोई संगीतकार उससे गवाना नहीं चाहता था। उसका अंतिम हिंदी गीत बासु भट्टाचार्य की
1971 की ‘अनुभव’ में था। वह पीने भी लगी।
एकतालीस साल की उम्र में वह 20 जुलाई 1972 को चली गई। ख़ुशी ख़ुशी चाव से शुरू
होने वाली प्रेमकथा का अंत रिमझिम बरसते आंसुओं और दुखों के सागर में हुआ।
गुरुदत्त आत्महत्या नहीं कर
सकते थे
गुरुदत्त की बहन
थी ललिता लाजमी, तीन भाई थे आत्मा राम, देवी और शशिधर। इनमें से देवी का कहना है
मैंने भाई के साथ ग्यारह साल काम किया। वे आत्महत्या कर ही नहीं सकते थे। हो सकता
है उस रात देर तक पीने के बाद भी नींद न आने के कारण कई स्लीपिंग ले ली हों। उनकी
मृत्यु को दुर्घटना ही माना जाना चाहिए। देवी को याद है- वे दोनों निर्माणाधीन ‘बहारें फिर भी
आएंगी’ के सैट पर थे।
भाई पूरी तरह फ़िटम फ़िट थे। शाम को दोनों ने कोलाबा जाकर तरुण और अरुण के लिए
खिलौने ख़रीदे। वहां से दोनों पैड्डर रोड वाले फ़्लैट आए। देवी को यह भी याद है कि
फ़िल्म पर चर्चा के लिए लेखक अबरार आने वाला था। इसलिए मैं अपने घर चला आया। अबरार
और भाई बात करते और पीते रहे। अबरार ने कहा है, “कुछ देर बाद
मैं वहां से चला आया। बाद में क्या हुआ – यह मैं नहीं जानता।”
अगले भाग से
शुरू होगा – गुरुदत्त का जीवन और कलाकर्म...
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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