शताब्दी पुरुष चित्रपति
शांताराम – चार.
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
लीक से हट कर चलता था वह
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता;
भाग–103
लीक से हट कर चलता था वह
(पिछले रविवार आपने पढ़ा :
राजकमल कलामंदिर की स्थापना, ‘शकुंतला’, ‘डॉक्टर कोटनीस की
अमर कहानी’, ‘लोकशायर राम जोशी’, ‘झनक झनक पायल बाजे’...।
इस बार शांताराम पर मेरे लेखों की चौथी और अंतिम कड़ी में...
‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’ और ‘पिंजरा’...)
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दो आंखें बारह हाथ |
दो आंखें बारह हाथ
ऐ मालिक तेरे बंदे हम...
1957 के आस पास पूरे देश में कारागार सुधार की आवश्यकता पर बल दिया जा
रहा था। खुले कारागारों की पैरवी की जा रही थी। मतलब ऐसी जेल जिस की कोई चारदीवारी
न हो, जहां क़ैदियों की मानवीय भावनाएं जगाकर उन्हें स्वस्थ नागरिक बनने की शिक्षा
दी जाए। महाराष्ट्र में एक ऐसा प्रयोग किया भी गया था। उसकी सच्ची कहानी कथाकार
मडगूलकर ने शांताराम को सुनाई थी। ‘झनक झनक पायल बाजे’ के बाद उन्होंने उस पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला कर लिया। फ़ैसला तो कर
लिया पर नृशंस क़ैदियों के पात्र कैसे होंगे, वे कौन होंगे, उनके निर्मम अपराध
क्या होंगे – यह शून्य में था। एक सारी रात सोचते सोचते शांताराम को नींद नहीं आई।
सुबह बाथरूम में उनकी शकल सूरत उभरने लगी। वहीं नोट करना शुरू किया-
“पहले क़ैदी हीरू चौधरी ने पत्नी को सिर पर पत्थर मार पर परलोक सिधार
दिया था। दूसरे क़ैदी तमन्ना बेलदार ने संबल के वार से ठेकेदार मार डाला था। तीसरे
क़ैदी गोसाईं केशवगिरि ने महंत बनने के लिए कुल्हाड़ी से दो छोटे बच्चों की बलि दे
कर गाड़ दिया था। चौथे क़ैदी दलिया नाई ने उस्तुरे से साहूकार का क़त्ल किया था।
पांचवें क़ैदी शंकर पासू डाकू ने जमींदार की हत्या की। छठा क़ैदी किशन भी इसी तरह
का कोई अपराधी रहा होगा।”
रास्ता खुल गया। ‘कोटनीस’ के बाद से तब तक शांताराम ने अपने निर्देशन की किसी फ़िल्म में नायक
की भूमिका नहीं निभाई थी। इस बार सत्तावन साल का शांताराम स्वयं बना जेलर आदिनाथ,
जो खुली जेल का नया प्रयोग करने पर उतारू है। आदर्शवादी आदिनाथ जो ठान लेता है कर
के रहता है, स्वभाव से दयालु है, हमेशा चौकन्ना रहता है, कोई उसे धोखा नहीं दे
सकता। हर ख़तरा उठाने को तैयार है। उसे भरोसा है हर हैवान के भीतर छिपी इंसानियत
पर। जिस जेल में वह काम करता था, उसने उसके एक से एक ख़तरनाक़ छह क़ैदी चुने खुली
जेल के लिए, दूर वीराने में चुना एक परित्यक्त खंडहर होता फ़ार्म हाउस। एक सुबह उन
छहों के साथ वहां पहुंचते ही उनसे कहा, “मुझे तुम पर भरोसा है!”
दो आंखें बारह हाथ |
काम शुरू हो गया। ‘आज़ाद नगर’ (खुली जेल का नाम)
में पहला काम था दफ़्तर बनाना, दूसरा वहां के पुराने जलाशय को एक बार फिर काम
लायक़ बनाना।
अगली सुबह. किताब से पढ़ कर
जेलर प्रार्थना कराता है: “ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे
करम, नेकी पर चलें और बदी से टलें, ताकि
हंसते हुए निकले दम। ये
अंधेरा घना छा रहा, तेरा इन्सान घबरा रहा, हो रहा बेख़बर, कुछ
ना आता नज़र, सुख का सूरज छुपा जा रहा, है तेरी रोशनी में वो दम, जो
अमावस को कर दे पूनम। बड़ा कमज़ोर है आदमी, अभी लाखों हैं इस में कमी, पर तू
जो खड़ा, है दयालु बड़ा, तेरी कृपा से धरती थमी, दिया तू
ने हमें जब जनम, तू ही झेलेगा हम सब के ग़म। जब जुल्मों का हो सामना, तब
तू ही हमें थामना, वो बुराई करें,
हम भलाई करें, नहीं
बदले की हो कामना, बढ़ उठे प्यार का हर कदम, और मिटे बैर का ये भरम। ऐ मालिक
तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें और बदी से टलें, ताकि
हंसते हुए निकले दम।” प्रार्थना का उद्देश्य है क्रूर से क्रूर अपराधी में
भलाई का माद्दा जगाना।
अनुभवहीन रसोइए आदिनाथ के हाथों बने खाने के तीखेपन से क़ैदियों के
दांत खट्टे हो गए। अब से एक क़ैदी खाना बनाया करेगा। अपनी शेव वह अपने आप करता था।
नाई क़ैदी ने कहा कि वह उस की शेव किया करेगा। वह राज़ी हो गया।
(नोट- उस ज़माने में शेव उस्तरे से की जाती थी, वही उस्तुरा ठोढ़ी से थोड़ा नीचे उतर कर गला भी रेत सकता था।)
शहर की तरफ़ जा रही है नख़रीली अदाओं वाली लचकती मटकती खिलौने वाली
(संध्या)। उसके पीछे चलती आती है टपटप बजती मिट्टी की खिलौना गाड़ी। दो हाथों से
खिलौने का इकतारा बजाती गा रही है “सैयां झूठों का बड़ा सरताज निकला!” ये छह मुस्टंडे उसे न छेड़ें, यह हो ही नहीं सकता था। पर वह भी कोई
ऐसी वैसी नहीं है। डट कर जवाब देती है। नित्य प्रति आने से वह कथानक का आवश्यक अंग
बन जाती है।
(नोट- उस ज़माने में शेव उस्तरे से की जाती थी, वही उस्तुरा ठोढ़ी से थोड़ा नीचे उतर कर गला भी रेत सकता था।)
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सैयां झूठों का बड़ा सरताज निकला... |
एक क़ैदी से मिलने आ पहुंची एक बेहद कमज़ोर बुढ़िया और दो नन्हे
बच्चे। यह उस क़ैदी की संतान हैं। जेलर तक पहुंची शिकायत। वह आया, बुढ़िया बच्चों
को ले कर वापस जा रही थी, बच्चे रोते बिलखते मुड़ मुड़ कर पीछे पिता को देख रहे
थे। जेलर का मोम सा दिल पिघल गया। उस ने बच्चों को वापस बुला लिया। जाती बुढ़िया
आदिनाथ को अपने हाथ की बनी मिठाई का टुकड़ा खिला जाती है! अब बच्चे पिता के साथ हैं। खिलौने वाली उन्हें खिलौने देती है। ज़रूरत
पड़ती है तो उनकी देखभाल करती है।
बाक़ी पांच भी मांग करते हैं - उनके घर वालों को भी साथ रहने दिया
जाए। जेलर आदिनाथ तैयार नहीँ है। वे योजना बनाते हैं उस की हत्या की। नाई कहता है,
“मेरे लिए यह बड़ा
आसान होगा। गला रेत दूंगा क्रूर (!) जेलर का।” वह आदिनाथ की शेव कर रहा है। हाथ बार बार गले के टेंटुए की ओर बढ़ता
है, पर बढ़ नहीं पाता। कभी नाई को याद आता है जेलर का वाक्य – “मुझे तुम पर भरोसा
है!” हाथ रुक जाता है। कभी उसे दिखती हैं आसमान में जेलर की आंखें। हत्या
नहीं हो पाती।
षड्यंत्र फ़ेल हो गया। पर उन पांचों की घरवालों से मिलने की भूख बढ़ती
गई। एक दिन - सब भाग लिए! कभी कभी आसमान में जेलर की आंखें दिखाई देती हैं। वे आंखें अब उन के
लिए भगवान की आंखें बन गई हैं। भगवान भी अब उन्हें रोक नहीं सकता। वे उड़ ही लिए! बात जेलर आदिनाथ को
पता चली तो उसके हाथों केतोते उड़ गए। दौड़ा दौड़ा सुपरिनेटेन्डेंट के पास गया। उसने
पहले तो आदिनाथ से वक्तव्य लिखवाया – ‘मेरा प्रयोग असफल हो गया है।’ कई धमकियों बाद आदिनाथ ने लिख दिया। हस्ताक्षर करने का आदेश और सिपाहियों
का एक पूरा दस्ता रवाना करने का आदेश दिया भगोड़ों को पकड़ने के लिए। आदिनाथ
हस्ताक्षर नहीं कर पा रहा। आदेश फिर बदला – ‘देखते ही गोली मार दी जाए!’ आदिनाथ का दिल कांप जाता है, उसने हस्ताक्षर कर दिए और अपील की”, “गोली मारने के आदेश
रद्द कर दिया जाए।” सुपरिंटेंन्डेंट ने गोली मारने वाला आदेश रद्द कर दिया। लेकिन जब तक
सिपाही भगोड़ों को पकड़ कर नहीं लाते तब तक के लिए आदिनाथ को एक कोठरी में बंद कर
दिया। सुबह हुई, आदिनाथ को निकाला गया। डरते डरते वह सुपरिंटेंन्डेंट के दफ़्तर
पहुंचा। उसे रिहा किया जा रहा है। वह जो दस्ता गया था अब लौट आया है। सभी भगोड़े
आज़ाद नगर में सो रहे थे! आदिनाथ ने दस्तावेज टुकड़े टुकड़े कर दिया।
तमाम तरह की घटनाएं घटित होती हैं। क़िस्सा कोतह – साल बीत गया है।
क़ैदियों ने जो साग-सब्ज़ियां बोई थीं उनकी शानदार उपज हुई है। माल बेचने आदिनाथ
ख़ुद जाना चाहता था। छहों क़ैदियों का कहना है,“हम पर भरोसा रखो। हम
जाएंगे माल बेचने।” आदिनाथ का आदेश है कि माल सस्ते में बेचना। यह भी आदेश है कि किसी
तरह की मारपीट न करना। ‘तुम पर पहले से ही कई आरोप हैँ, फंस जाओगे!’
मंडी के दलालों को यह सस्ता भाव रास नहीं आता। वे मुंहमांगे भाव पर
माल ख़रीदने को तैयार हैं। पर कोई क़ैदी तैयार नहीं होता। सारा माल बिक गया।
दलालों ने उन्हें...
रात, आज़ाद नगर, खुली जेल। शहर से क़ैदी लौटे नहीं हैँ। क्या वे माल
ले कर भाग गए? आदिनाथ एक बार फिर हताशा की कगार पर है कि पियेले, नशे में धुत छहों
लौट आते हैँ। जान में जान आती है।
अगला दिन। और माल ले कर छहों जा रहे हैं। उन्हें वही पुराने आदेश हैँ
- माल सस्ते में बेचना, किसी तरह की मारपीट न करना। मंडी के दलालों ने उन्हें ‘ठीक’ करने का फ़ैसला कर
रखा है। सारा माल बिखरवा कर मवेशियों से रौंदवा देते हैं। उनकी पिटाई करवाते हैँ।
छहों ने वापस जवाब न देने की क़सम खा रखी है। वे अहिंसक सत्याग्रह का आदर्श उदाहरण
पेश करते हैं। (गांधी जी का अहिंसक नमक सत्याग्रह दर्शकों को याद आता है।) शाम को
क्षत-विक्षत अवस्था में लौटते हैं। मंडी के दलालों ने उन्हें हमेशा के लिए समाप्त
करने का फ़ैसला कर लिया है। रात के घने अंधकार में मवेशियों के रेवड़ों से सारी
फ़सल मटियामेट करवा देते हैं। लाठी बल्लम ले कर मार पीट कर रहे हैँ। फ़सल तो
मटियामेट हो ही चुकी है अब पूरे फ़ार्म में गाय, बैल, सांड कमरों में धंसा दिए
जाते हैं। एक सांड से लड़ते लड़ते आदर्शवादी स्वप्नदृष्टा आदिनाथ मारा जाता है।
फ़िल्म की महान सफलता की कहानी बताने की ज़रूरत नहीं है। केवल एक वाक्य
काफ़ी है – बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल में ‘दो आंखें बारह हाथ’ श्रेष्ठ मानी गई। विश्व के सिने संसार में शांताराम के साथ साथ भारत
का डंका बज रहा था।
अंत में - सांड से लड़ाई वाले दृश्य की शूटिंग में शांताराम की एक आंख
बुरी तरह क्षत हुई थी। इसी से जुड़ी है उस की अगली फ़िल्म नवरंग की कहानी।
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नवरंग की एक तस्वीर |
नवरंग
देश की
एकमात्र अतियथार्थवादी फ़िल्म
सुपरहिट मूवी नवरंग को कई लोगों ने कई तरह से
व्याख्यायित किया है। मेरी नज़र में यह भारत की एकमात्र अतियथार्थवादी (surrealist) फ़िल्म है। पहले हम काला चश्मा पहने शांताराम
को देखते हैं। दो आंखें बारह हाथ की शूटिंग के समय से चली आती अपनी आंख को लगी चोट
के बारे में अफ़वाहों की पुष्टि करते हैं, और बताते हैं, “उस अंधकार काल में मेरे मस्तिष्क में अनेक
छवियां उभरती रहीं। यह फ़िल्म उन का चित्रण है।”
ध्यान दें ‘मस्तिष्क में उभरती अनेक छवियों पर’। ये यथार्थ से बहुत बढ़ कर होती हैं। अपने
समय की सब से महंगी नवों रसों से संपन्न ‘नवरंग’ भौतिक संसार से अलग मनमोहक मायावी ऐंद्रिक
रचना है। हर चीज़ और घटनाओं को चलचित्र के रूप में देखने वाले मनीषी निर्देशक के
मन की विलक्षण उड़ान! यह उड़ान बन जाती है ‘नवरंग’ फ़िल्म के नायक कवि दिवाकर के तिलिस्मी सपने। सामान्य सी पत्नी जमना में
उसे दिखती है मोहिनी (जमना / मोहिनी = संध्या)। रातों को सपनों में वह मोहिनी से
बात करता है। जमना समझती है उसे किसी मोहिनी नाम की स्त्री से प्यार है। मोहिनी को
लेकर जो दिवाकर की विविध उड़ानों का चित्रण कर पाना आसान नहीं था। विस्मय की बात
यह है कि शांताराम अपने और दिवाकर के मस्तिष्क की ये छवियां आम आदमी तक संप्रेषित
करने में इतने सफल रहे कि समीक्षकों की तीखी आलोचनाओं के बावजूद फ़िल्म सुपरहिट हो
गई।
अट्ठारहवीं सदी, भारत पर अंगरेजों के बढ़ते क़दम। अंगरेजियत
में ढल रहा है हमारा अस्तित्व। दुकानों के हिंदी नाम बदल कर अंगरेजी हो रहे हैं। छोटी छोटी रियासतों को
अंगरेज हड़प रहे हैं। अंगरेज सिपाही जब चाहे देसियों को ठोकर मारते हैं। ऐसी ही ठोकर मारता है एक अंगरेज सिपाही
पागल बूढ़े को। दूसरी ठोकर लगने से पहले डबल रोटी बनाने वाला अंगरेज बेकर सिपाही
को रोक देता, पाव जैसी डबल रोटी बूढ़े को देता है। इंग्लैंड की रानी का गुणगान
करने के आदेश दिए जा रहे हैं। बूढ़ा गाने लगता है: “न राजा रहेगा न रानी
रहेगी, ये दुनिया है फ़ानी फ़ानी रहेगी, ना जब एक भी ज़िंदगानी रहेगी, तो माटी सभी
की कहानी कहेगी।”
दीवाकर और जमना - दीवाकर और मोहिनी |
लोग बूढ़े को जानते हैं, उस दर्द को समझते
हैं:“ये क्या थे? क्या हो गए!”
शुरू होता है बूढ़े की यादों का सिलसिला...
शुरू होता है बूढ़े की यादों का सिलसिला...
कभी वह दिवाकर (महीपाल) मस्तमौला जवान हुआ
करता था। नाटक मंडली के दोस्तों का प्यारा कवि। कुछ नया लिखता तो नया नाटक बन
पाता। घर पहुंचता तो मिलती वही सीधी-सादी काव्य प्रेम से कोसों दूर पत्नी जमना
(संध्या)। मन की कल्पना में अपनी प्यारी जमना में देखता स्वर्गसुंदरी मायाविनी
मोहिनी (संध्या)। मोहिनी को पता ही नहीं है कि कोई जमना भी है। जमना नहीं जानती किसी
मोहिनी को। वह समझती है किसी मोहिनी ने दिवाकर को फंसा लिया है। दिवाकर के लिए जमना
ही है लिए मोहिनी। उसकी कविता की प्रेरणा, उसकी सब कुछ। यह द्वैध ही है अतियथार्थ
का स्रोत। समकालीन समाज की गतिविधियों - स्थानीय राजसत्ता पर अंगरेजों की नज़र,
दिवाकर की नौकरी, उस का कविराज बनना, विदेशी सत्ता के आगे राजा का झुकना, दिवाकर
का विद्रोही कविताएं लिखना। यथार्थ कब अतियथार्थ बन जाता है पता नहीं चलता। मुग्ध
दर्शक देखते रह जाते हैं।
होली आ रही है। अंगरेजी फ़ौज़ के हमले का
ख़तरा टल गया है। ठाकुर बहादुर सिंह ने कवि लीलु को होली पर रंगारंग गीत लिखने का
आदेश दिया। लीलु ने वह दिवाकर से लिखवा लिया। जब असली लेखक का पता चला तो दिवाकर
को राजकवि बना दिया गया। दिवाकर का निर्धन परिवार धनधान्य से लहरा उठा। राजनर्तकी
मंजरी नए राजकवि की दीवानी हो गई, पर दिवाकर तो अपनी पत्नी का ही है। इस पर मंजरी
उस की सहायक-मित्र बन जाती है।
एक साथ कई घटनाएं-दिवाकर और जमना के बेटे का
जन्म, ठाकुर की मृत्यु, अंगरेजों द्वारा राज्य में नए राजा की स्थापना, राजकवि
दिवाकर को आदेश राजा के नाम बधाई गीत लिखने का। भरी सभा में जो गीत दिवाकर ने गाया
उस में पूरब और पश्चिम के कभी न मिल पाने का संदेश था, सूरज के पूरब में उगने और
पश्चिम में ढलने की बात थी। उसमें पूरब की हवा मंगल संदेश सुनाती है तो पश्चिम की
हवा में ज़हर भरा है, पश्चिम के लोग देश को तोपों से, बाणों से, गोली से, चलाना जानते हैं, जब कि हम अपने गीतों से
राज्य करते हैं लोगों के दिलों पर, हमारे पूरब के हिमालय को पश्चिम की आंधी के
थपेड़े हिला नहीं सकते, सूरज पश्चिम में उग नहीं सकता, अंगरेज भक्षक हैं, हम रक्षक
हैं, हमारा साथ कभी पनप नहीं सकता।
खचाखच भरे दरबार में एक एक पंक्ति पर लोग वाह वाह कर रहे हैं।
विद्रोहपूर्ण कविता के बावजूद नए राजा के भ्रष्ट दौलत राम ने दिवाकर को
निकाला नहीँ। वह चाहता था दिवाकर उसकी प्रशंसा में ऐसा गीत लिखे जिस से ‘पूरे देश में मेरी कीर्ति’ फैल जाए। दिवाकर ने राजकवि पद त्यागना बेहतर समझा। आय का स्रोत सूख गया।
घर ग़रीबी में डूब गया। मोहिनी से ईर्ष्या तो थी ही, बेटे को भूख से बिलखता देख जमना
मायके चली गई। बिरहा के चार साल कैसे बीते यह दिवाकर ही जानता था। वह गया ससुराल
जमना को लेने, ससुर ने लताड़ कर वापस भेज दिया।
दिवाकर की प्रतिभा विलीन हो चुकी है। कुछ लिख गा नहीं सकता। इधर उधर दीवानों
जैसा डोलता रहता है। मन में कुछ है तोजमना (मोहिनी) से बिछुड़ाव। दरबार के विशेष
अधिवेशन में उसे गाने के लिए बुलाया गया है। वह जाना नहीं चाहता। मंजरी जानती है
उस के दिल का हाल। वह जमना के लालची पिता को थैली भर सिक्के भिजवा देती है और साथ
में भेजती है जमना को निमंत्रण दरबार में पधारने का। जमना ने निमंत्रण पढ़ा। जाने
से इनकार कर दिया।
दरबार जुड़ गया है। दाएं, बाएं मरदों की, और ऊपर बालकनी में औरतों की भीड़
है। सब दिवाकर की कविता सुनने आए हैं। फटेहाल दिवाकर के मुंह से बोल निकल नहीं
रहे। राजा साहब बार-बार आदेश दे रहे हैं। धमका रहे हैं। सिपाहियों का हुक्म दिया
जा रहा है, उसे पकड़ कर कारागार में डालने का। दिवाकर गा नहीं पा रहा। सचमुच या उसके
मन में पायल की जानी पहचानी झंकार आहिस्ता से झंकारती है। दिवाकर में कुछ जान
पड़ती है। सिपाहियों को झटक कर उठता है, उस का स्वर फूटना शुरू होता है. पहले
आहिस्ता, फिर तीव्र: “महेंद्र कपूर:तू छुपी है कहां मैं तड़पता यहां, तेरे
बिन फीका फीका है दिल का जहां,”
धीरे धीरे यह क्लाइमेक्स गीत दो गाना
बन जाता है।
गीत क्या है अतियथार्थ फ़िल्मांकन की इंतिहा है। दिवाकर
और मोहिनी का अमर प्रेमगीत, उनके मन सपने जैसे बिंबों का अप्रतिम विधान। यह हिंदी
के श्रेष्ठ गीतों में गिना जाता है। गीत चल रहा है...
”म : तू
गया, उड़ गया रंग जाने कहां, तेरे बिन फीका फीका है दिल का जहां, तू छुपी
है कहां, मैं तड़पता यहां।
ऐतिहासिक गीत की कुछ छवियां |
आशा भोंसले: दिल की महफ़िल में जब ना
मुझे तुम मिले, सांस लेती हूं आ के इस सुनसान में, इन
बहारों में जब ना तुझे पा सकी,
तो तड़पती हूं आ के इस वीरान में, तेरे
बिन फीका फीका है दिल का जहां।
म: छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां।
आ: ये नज़रें दीवानी खोई हुईं, तेरे
रंगीन सपनों के रंगों में, उमंगों में, जब ना तुझे पा सकी, ढूँढती हूँ मैं ग़म की
तरंगों में, तेरे बिन फीका फीका है दिल का जहां।
म: छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां, तू
छुपी है कहां...।
आ: मैं छुपी हूं पिया तेरी पलकन में,
तेरी धड़कन में, तेरी हर सांस में, तेरी हर आस में, मैं छुपी हूं कहां -
मेरा ये राज़ सुन, दर्द के हाथों ग़म से भरा साज़ सुन, मेरे रोते हुए दिल की आवाज़
सुन। जब तलक तेरा मेरा न होगा मिलन, मैं ज़मीं आसमां को हिलाती रहूंगी, आख़िरी आस तक,
आख़िरी सांस तक, ख़ुद तड़पूंगी और तड़पाती रहूंगी।
म: ये कौन घूंघरू झमका, ये कौन चांद
चमका, ये धरती पे आसमान आ गया पूनम का, ये कौन फूल महका, ये कौन पंछी चहका, महफ़िल
में कैसी ख़ुश्बू उड़ी दिल जो मेरा बहका, लो तन में जान आई, होंठों
पे तान आई, मेरी चकोरी चांदनी में कर के स्नान आई, बिछड़ा वो मीत आया, जीवन का
गीत आया, दो आत्माओं के मिलन का दिन पुनीत आया, सूरत है मेरे सपनों की तू सोहनी,
जमना तू ही है तू ही मेरी मोहिनी, तेरे बिन फीका फीका है दिल का जहां, छुपी है कहां
मैं तड़पता यहां, तू छुपी है कहां...”
यूं तो मैं लगभग सभी गीत यहां दर्ज़ करना चाहता था, पर एक
और गीत जो फ़िल्म की पहचान बन गया, वह ज़रूर पढ़वाऊंगा: “आधा है चंद्रमा रात आधी, रह
न जाए तेरी मेरी बात आधी, मुलाक़ात
आधी, आधा है चंद्रमा...। आस कब तक रहेगी अधूरी, प्यास होगी नहीं क्या ये पूरी,
प्यासा-प्यासा गगन, प्यासा-प्यासा चमन. प्यासे तारों की भी है बारात आधी, आधा है
चंद्रमा...। सुर आधा है, श्याम ने बांधा, रहा राधा का प्यार भी आधा, नैन आधे खिले,
होंठ आधे मिले, रही पल में मिलन की वो बात आधी, आधा है चंद्रमा...। पिया आधी है
प्यार की भाषा, आधी रहने दो मन की अभिलाषा, आधे छलके नयन, आधी पलकों की भी है
बरसात आधी, आधा है चंद्रमा...। आधा है चंद्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात
आधी, मुलाक़ात
आधी, आधा है चंद्रमा...।”
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पिंजरा फिल्म के दो दृश्य, श्रीराम लागू की भावुक भुूमिका वाली फिल्म |
पिंजरा
नैतिकता
किसके लिए कब क्या?
नैतिकता किसके लिए कब क्या है-विषय पर शुरू
से आख़िर तक बांधे रखने वाली फ़िल्म में तमाशा कलाकार चंद्रकला (संध्या) ने
तथाकथित आदर्शवादी मास्टर श्रीधर पंत (श्रीराम लागू) को बांध लिया था। मुझे और मेरी
पत्नी कुसुम को भी बांध लिया एक शाम। शांताराम ने हमें शाम के भोज पर बुलाया था,
शुद्ध मराठी निरामिष और स्वादिष्ठ खाने के बाद उन के साथ हमने देखी थी मूल मराठी‘ पिंजरा’ मैंने कहा था,“यह हिंदी में भी बननी चाहिए।” उन्हों ने कह था, “काम जल्दी शुरू होगा।”
यह शांताराम की अंतिम फ़िल्म बन कर रह गई। इसके
बाद उनकी बीमारी की ख़बरें आने लगी थीं। ‘पिंजरा’ के चौदह साल बाद 1987 में आई थी ‘झंझार’। धेवते सुशांत राय और पत्नी संध्या की भतीजी
रंजना देशमुख के लिए बनी पिचासी वर्षीय यह फ़िल्म चल नहीं पाई थी।
तो हिंदी ‘पिंजरा’:
बड़ा सा गांव। उस में सब के प्यारे पूजनीय गुरुजी
श्रीधर पंत। गुरुजी गांव के हर नर नारी के चाल-चलन पर नज़र रखते हैं। उनके साथ हैं
गांव के ज़मींदार। उधर ही चली आ रही है तमाशा नाटक करने वालों की मंडली और उस की
प्रमुख नर्तकी चंद्रकला। गांव में डेरा डालना है तो गुरुजी की अनुमति लेनी पड़ेगी।
वह उन के स्कूल पहुंचती है। गुरु जी गांव में अनैतिकता का अड्डा खुलने दें? नामुमकिन ! चंद्रकला कुछ न करे? नामुमकिन! नदी के उस पार उधर जहां से गांव
दिखता है, वहां मंडली ने डेरा जमा दिया। गांव के लोग उस पार तमाशा न देखने जाएं? नामुमकिन! शाम को गुरुजी जो प्रौढ़
शिक्षा सत्र चलाते थे, वहां के सारे छात्र चंद्रकला
का नाच
देखने न जाएं? नामुमकिन! वहां पहुच कर गुरुजी लंबा चौड़ा भाषण न झाड़ें? नामुमकिन! उन के कहने पर गांव वालों ने
तमाशा वालों के तंबू और पंडाल उखड़वा दिए। चंद्रकला गुरुजी से बदला न ले? नामुमकिन! वह किसी से कम चालाक नहीं है
ना! एक शाम
वह नाचते नाचते गिर पड़ी। घुटने और जांघ पर चोट लगी। गांव के चिकित्सक भी गुरुजी
हैं। गुरूजी को बुलाया गया। पीड़ित चंद्रकला उनके लिए रोगी है। चोट दिखाने के लिए
घुटना उघाड़ती है। ऊपर जांघ भी कुछ नंगी करती है। गुरुजी छूते हैं, सहलाते हैं।
सुंदरी चंद्रकला की कोमल चिकनी देह का स्पर्श उनके लिए नया अनुभव है। मरहम पट्टी
के लिए जो भी पदार्थ वहां उपलब्ध थे, उनसे काम चला कर वह अगले दिन घर से लेप बना
कर लाने का वादा कर के चले जाते हैं। चंद्रकला की साथिनें और पूरी मंडली ख़ुश है।
(फोटो)
पाठशाला गुरुजी के घर में ही
लगती है। बार बार वह भीतर चले जाते हैं सिलबट्टे पर जड़ी बूटियां पीसने। पढ़ाने
में मन नहीं लग रहा। शाम हुई। छिपते छिपाते गुरुजी पहुंचे। चंद्रकला ने वही घुटना
और जांघ खोल दी। परदे की ओट से साथिनें और मंडली वाले उचक उचक कर तमाशा देख रहे
हैं। उन के लिए गुरुजी चंद्रकला का नया शिकार हैं। बड़े मनोयोग से गुरुजी मरहम लगा
रहे हैं। नारी देह की गरमाहट उन्हें आकर्षित कर रही है। चंद्रकला के आकर्षक नाच
देख कर उन्हें उन में नाट्यशास्त्र के गुण नज़र आने लगे। तमाशा अब पहले जैसी
गर्हित चीज़ नहीँ रहा। छिप छिप कर नित्य आते जाते रहने लगे। जमींदार का कामुक बेटा
बाजीराव देखता रहता है छिप छिप कर गुरुजी का चंद्रकला के पास जाना। एक दिन उस ने
अपने बाप ज़मींदार और गांव वालों को इकट्ठा कर ही लिया। गुरुजी के ख़िलाफ़ विष वमन
किया जा रहा है। छिपे छिपे वह सुन रहे हैं। ‘मैं गांव वालों को धोखा दे रहा
हूं’ – इससे
उनके मन ग्लानि के भाव जाग्रत हो रहे हैं। बाजीराव के उकसाने पर सब गुरुजी को रंगे
हाथ पकड़ने निकलते हैं। पर गुरुजी तो घर के एकांत में सोए मिलते हैं। बात टल गई।
गुरुजी चंद्रकला से प्रेम करते हैं या उस पर आसक्त हैं?
फिर एक शाम चंद्रकला उन के घर ही
आ गई। गुरुजी मानसिक संकट में – कोई देख ले तो!
कामुक बाजीराव एक दूध वाले की
घरवाली पर ज़बरदस्ती करने की कोशिश में था। दूध वाले ने भारी पत्थर उठा लिया और भागा
उस के पीछे। भागता बाजीराव उसकी पकड़ में आ पाया गुरुजी के दरवाज़े पर। दूध वाले
ने भारी पत्थर से उस का सिर चकनाचूर कर दिया। भीतर चंद्रकला और गुरुजी थे। दरवाज़ा
खोला तो सहम गए। चंद्रकला ने तत्काल बुद्धि से काम लिया, गुरुजी का चश्मा बाजीराव
के सिर के पास डाल दिया, टोपी सिर के पास डाल दी। गुरुजी को बाजीराव के कपड़े पहना
कर घर से भाग निकली। लोग समझे गुरुजी को मार कर बाजीराव फ़रार हो गया है।
इस तरह शुरू हुआ चंद्रकला और
गुरुजी के जीवन का घटनापूर्ण नया अध्याय। मंडली में वे दोनों एक साथ रहते हैं।
दोनों का संबंध अपरिभाषित है। गांव वाले गुरुजी की मूर्ति की पूजा करते हैं, उनका
गुणगान करते हैं। मंडली गांव से गांव जा रही है। कहीं कहीं पुलिस बाजीराव को तलाश
रही है। एक जगह पुलिस वाले मंडली के हर सदस्य के हाथ की छाप ले जाते हैं।
गुरुजी अब मंडली के सदस्य हैं।
उस के काम करते हैं। वह दारू पीते हैं, तंबाक़ू चबाते हैं। यहां एक ग्राहक से
चंद्रकला के साथ एक रात बिताने पर सौदेबाज़ी गुरुजी की नैतिकता को अखरती है। यहां
की नैतिकता में यह सामान्य है। गुरुजी अड़ जाते हैं। मंडली की मैनेजर की कठोर
फटकार सुन कर चुपचाप सिमट कर रह जाते हैं। चंद्रकला यह सह नहीं पाती। मंडली छोड़
कर गुरुजी के साथ भटक रही है। भटकते भटकते वे मास्टर जी के गांव पहुंच जाते हैं।
गुरुजी की याद में समारोह हो रहा है। हत्यारे को खोजते पुलिस पहुंच जाती है। एक
जगह मार खाकर मास्टर का आधा चेहरा विकृत हो गया है। कोई उसे पहचान नहीं सकता।
उंगलियों के निशान तो पहचाने जा सकते हैं। ये वही हैं जो उन के दरवाज़े पर पड़े शव
की हत्या के सामान पर अंकित थे। अब वह अपने हत्यारे का हत्यारा होने के आरोप में
पकड़ लिए जाते हैं। मास्टर को बचाने के लिए चंद्रकला उन से जेल में मिलती है। वह
चाहती है - सब को बता दे यह कोई हत्यारा नहीं बल्कि स्वयं गुरुजी हैं। गुरुजी सहमत
नहीं हैं। गांव के लोग उनकी पूजा करते हैं। अपने देवता की महिमा खंडन से उनका
विश्वास मानवता पर, उनके देवता की नैतिकता पर क्रूर प्रहार होगा। चंद्रकला नहीं
मानती। अदालत में सही कहानी बताने पर तुली है। पर – अचानक उसकी बोलती बंद हो गई।
मुंह से एक भी शब्द नहीं निकलता। मास्टर ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है। विनती
की है मुझे कठोर से भी कठोर दंड दिया जाए। अदालत ने उन्हें मृत्यु दंड सुना दिया।
सुन कर चंद्रकला वहीं मर जाती है। मास्टर ने उसे देखा। हां, वह मौत के बाद उस से
मिलने की घड़ी का इंतज़ार कर रही है। हम देखते हैं मास्टर को फांसी के फंदे की
तरफ़ ले जाया जा रहा है। स्पष्ट है वह फांसी पर मर जाएगा।
चंद्रकला (संध्या) |
आख़िर यह पिंजरा क्या है? हमारी देह? हमारी मान्यताएं? हमारी नैतिकता? हमारे मन में अपनी छवि? लोगों के मन में हमारी छवि की
हमारी अपनी कल्पना?
जो भी हो, हमारी मृत्यु हमें
हमारे पिंजरे से मुक्त कर देती है।
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जब मैंने सौवीं कड़ी के लिए
सुझाव मांगे थे तो दो नाम आए थे – शांताराम और गुरुदत्त।
जल्द ही शुरू होगा –गुरुदत्त
प्रकरण।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद
कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई
है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक -
पिक्चर प्लस)
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