गुरुदत्तावली – चार
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–108
1957 की
प्यासा ने नया इतिहास रचा और गुरुदत्त को सामाजिक मान्यता में चोटी पर बैठा दिया। क्राइम-थ्रिलर (‘बाज़ी’, ‘जाल’, ‘आर पार’) के बाद मिस्टर ऐंड मिसेज 55 में तलाक़ जैसे
सामाजिक विषय को हलके फुलके ढंग से ट्रीट करने के बाद गुरुदत्त का मन कोई अच्छी
सामाजिक फ़िल्म बनाने का हो रहा था। ऐसी फ़िल्म जो भावुकता से लबरेज़ हो, समाज के संघर्षों को
रेखांकित करती हो। अबरार अल्वी के साथ 1947-48 में एक कहानी तैयार की थी – नाम था ‘कशमकश’। अब उस पर फिर काम
किया गया और नाम रखा ‘प्यासा’। उसमें एक गीत में ‘कशमकश’ शब्द आता भी है - ‘कशमशे ज़िंदगी से तंग
आ गए हैं हम’।
साथ साथ तलाश थी भावुकता से लबरेज़ कविताएं लिखने वाले गीतकार की। इसके लिए
सही शायर था साहिर लुधियानवी। उसकी क़लम से समाज को झकझोरने वाली ग़ज़लें और
नज़्में लोकप्रिय थीँ, उनमें लबरेज़ होती थी भावुकता।
‘प्यासा’ को जो कुछ चाहिए था
वह तैयार था। प्यास थी, प्यार था, घुटन थी, रुदन था, स्वार्थ था, त्याग था, टकराव था, हार थी, जीत थी, जीत के बाद हार थी। मैं ‘प्यासा’ को गुरुदत्त की
सर्वोत्तम कृति मानता हूं। और इसे उसकी महानता मानता हूं कि यह फ़िल्म उसने
निर्देशक ज्ञान मुखर्जी की स्मृति को समर्पित की, जिनका सहायक होने के समय उसने बहुत कुछ सीखा था।
‘प्यासा’ उस कवि की कहानी है जिसका दिल एक भंवरे का कुचला जाना देख कर पसीज गया था, जो ज़िंदगी कशमकश से तंग आ गया था, जिसकी मां उसे छिप छिप कर खाना देने को मजबूर है, जिस के भाई स्वार्थी हैं, जिस की प्रेमिका आराम की ज़िंदगी जीने के लिए एक रईस से शादी कर लेती है, जिस के लिए जीवन का सब प्राप्तव्य निस्सार हो गया है (‘यह दुनिया अगर मिल भी
जाए तो क्या है’), निर्देशक के रूप में जो अपने चारों मुख्य कलाकारों (रहमान, वहीदा रहमान, माला सिन्हा और स्वयं
वह गुरुदत्त) से उन का श्रेष्ठतम अभिनय करवा पाया।
फ़िल्म कुछ इस तरह शुरू होती है - कमल के फूलोँ मेँ भरे
सरोवर पर फ़िल्म संबंधी नामावली। हमेँ पढ़ने को मिलती है। नामावली समाप्त होते
ही कैमरा दाहिनी ओर घूमता है। स्थिर चित्र चलचित्र बन जाता है। पार्क। हलके कोहरे
भरी एक प्यारी सी सुबह। कैमरा थोड़ा ऊपर की तरफ़ उठता है। छतनार पेड़ के नीचे एक
युवक (गुरुदत्त) सो कर उठा है, मुग्ध भाव से चारोँ तरफ़ फैले प्रकृति वैभव को निरख रहा है। वातावरण मेँ
उस के मुग्ध भाव को व्यक्त करती हुई एक नज़्म गूंजने लगती है: ‘ये हंसते हुए फूल, यह महका हुआ गुलशन, ये रंग और नूर में
डूबी हुई राहें, ये फूलों का रस पी के
मचलते हुए भंवरे, मैं दूं भी तो क्या
दूं तुम्हें, ले दे के मेरे पास
कुछ आंसू हैं कुछ आहें।’ कभी वह अपने ऊपर छितराए हुए पेड़ को, कभी आसमान मेँ छाए हुए बादलोँ और उड़ती हुई चील को
देखता है, कभी फूलोँ का रस पीते
हुए भंवरोँ को। घास मेँ एक भंवरा आ बैठा। सुबह सबेरे सैर करने वाले किसी आदमी के
जूतोँ से कुचला गया। युवक का मन करुणा से द्रवित हो उठा। मन मेँ एक कसैला स्वाद
लिए वह उठ कर चल पड़ा।
यह छोटा सा सीन पूरी फ़िल्म के कथानक का निचोड़ है।
माधुरी’ में प्रकाशित मेरी ‘हिंदी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख’ सीरीज़ में मेरे पुनरावलोकन के तीसरे भाग का पहला पेज |
विजय शायर है, उस की शायरी पुरानी इश्किया शायरी से जुदा है। वह वही
लिखता है जो जीती जागती दुनिया में देखता है। प्रकाशक उसकी शायरी रद्दी की टोकरी
में डाल देते हैं।
विजय एक मुहल्ले मेँ से दबे पांव, भीड़ मेँ छुपता चला
जा रहा है। कुछ देर के लिए हमेँ उस के चलते हुए पांव दिखते हैँ। एक आवाज़ (“भइया जी, भाजी तौल रहे हो या
सोना?”) सुन कर उस के पांव एक पल को रुक जाते हैँ। उसके पांवोँ
के सहमने से लगता है कि वह इस आवाज़ वाली महिला से कतरा कर निकल जाना चाहता है। यह
आवाज़ उस की मां की है, जो उस से बहुत प्यार
करती है, पर उस के बड़े भाइयोँ के साथ रहने को मजबूर है। मां एक
ठेलेवाले से सब्ज़ी ख़रीद रही थी। एक छोटे लड़के ने विजय को देख लिया। वह चिल्लाने
लगा: “दादी जी, चाचा!”
विजय कई दिनोँ से घर नहीँ गया है और उस की मां उस के लिए चिंतित होगी और
किसी कारण विजय उस के सामने पड़ना नहीँ चाहता। लेकिन बच्चे और मां से बच नहीँ
पाता। मां (लीला मिश्रा) विजय की हालत देख कर द्रवित हो उठती है और ज़बरदस्ती उसे
घर ले जाती है: “मैँ ने तेरे लिए
पकवान बचा कर रखे हैँ…”
घर में एक पूरा कांड हो गया! वही हुआ जिस का विजय को डर था। लाड़ले और भूखे
प्यासे बेटे को बड़ी मुद्दत से बचा कर रखे पकवान मां कमरे मेँ चोरी छिपे खिला रही
थी। रसोई मेँ से मंझले बेटे (महमूद) ने ताना मारना शुरू किया: “क्योँ, मां, आ गया तुम्हारा कालीदास!” और विजय को छेड़ने के
लिए उस ने कहा, “पराई खेती समझ कर सब गधे चरने लगे!”
बड़े भाई ने रोटी खाते खाते ताना कसा, “मैँ तो खाने वाले की
बेशर्मी की दाद देता हूं।”
विजय का मुंह कड़वा हो आया। उस के गले मेँ कौर उतर नहीँ रहा था। मां बेटों
ने अपने बड़े बेटे को डांटा। उन्हेँ डांटते डांटते वह रसोई की तरफ़ चली गई। कैमरा
विजय पर रहता है और उस के भाव परिवर्तन के शौटोँ पर हमेँ बड़े भाइयोँ के साथ मां
के संवाद सुनाई देते हैँ-
“हाथ पैर वाला है! कुछ कमा धमा कर खाए। हमारे टुकड़ोँ
पर क्योँ पड़ा है?” यह बड़े भाई कह रहे
थे।
“बेशर्मो, तुम्हारा सगा भाई है
वह! बाप मरने के बाद तुम उस के बाप की जगह हो!”
“मां, बाप से हम ने तो नहीँ
कहा कि ऐसी निखट्टू औलाद पैदा करेँ!” यह मंझला भाई कह रहा
था।
यहां हम परदे पर मां की प्रतिक्रिया देखते हैँ। विजय अब तक पकवान छोड़ कर
उठ खड़ा हुआ था. उस ने वहीँ से आवाज़ दे कर पूछा: “भाभी, मेरी नज़्मोँ की
फ़ाइल कहां है?”
जवाब मंझले भाई ने दिया, “औरतोँ को क्या दीदे
दिखाते हो? मुझ से बात करो, मुझ से! मैँ ने वो रद्दी वाले बनिए को बेच दीँ!”
“आप जैसा ज़ाहिल ही उन्हेँ रद्दी समझेगा!” विजय ने भुनभुनाते हुए कहा.
भाइयों की नज़र में उस ने जो काग़ज़ ‘बेमतलब की ख़ुराफ़ात’ से भरे थे, वे कबाड़ी को बेचने के ही क़ाबिल थे, और बेच भी दिए गए थे।
वह कबाड़ी के पास गया। कबाड़ी ने कहा कि वह काग़ज़ों की फ़ाइल तो एक औरत ले गई।
-विजय पार्क मेँ पेड़ के नीचे बेँच पर सिर टिकाए उदास
बैठा था। पीठ की तरफ़ एक दूसरी बेँच पर एक नारी आकृति बैठी थी। हमेँ उस आकृति का
सिर ही दिखाई देता है। विजय को देख कर उस औरत ने तरन्नुम मेँ गाना शुरू दिया: ‘फिर न कीजे मेरी गुस्ताख़-निगाही का गिला/ देखिए आप ने फिर प्यार
से देखा मुझ को!’ विजय चौँक उठा, यह तो उस की नज़्म है! इस औरत के पास कहाँ से आई? उस ने गाने वाली की तरफ़ मुड़ कर देखा, उठा, और उस के पास आया। वह
कह रहा था, “सुनिए…”
गाने वाली उठ कर चल दी और एक पेड़ की टहनी के पास खड़ी हो गई। अदा से उस की
तरफ़ देखने लगी। यह गुलाबो (वदीहा रहमान) थी।
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विजय और गुलाबो यानी गुरुदत्त और वहीदा रहमान |
विजय ने अटक अटक कर घबराते हुए कहा, “मैँ ने कहा…” गाने वाली शोख़ी से मुस्कराने लगी, और गाते गाते वहां से
चल दी: ‘जाने क्या तू ने कही/ जाने क्या मैँ ने सुनी/ बात कुछ बन ही गई…/ सनसनाहट सी हुई/ सरसराहट सी हुई/ जाग उठे ख़्वाब कई/ बात कुछ बन ही गई…/ नैन कुछ झुके, उठे/ पांव रुक रुक के उठे/ आ गई चाल नई/ बात कुछ बन ही गई…/जुल्फ़ शाने पे उड़ी/ एक ख़ुशबू सी उड़ी/ खुल गए राज़ कई/ बात कुछ बन ही गई…’
चौड़ी सड़कोँ से गुज़रते वे तंग गलियोँ मेँ पहुंच गए। अब वे एक टूटे पुराने
मकान की लकड़ी की सीढ़ियोँ के नीचे थे। “सुनिए!” विजय ने इस बार मौक़ा
पा कर कहा। वास्तव मेँ उस ने मौक़ा पाया नहीँ था - उस लड़की ने मौक़ा दिया था।
“सुनाइए!” इठला कर गाने वाली ने
कहा। वह खिलखिला कर हंसने लगी। विजय उस लड़की को समझ नहीँ पाया। वह कुछ कहता, लड़की ठठा कर जवाब देती और सीढ़ियोँ पर चढ़ती जाती।
एक जगह वह रुकी और अपने कंधे से विजय के कंधे को टक्कर मारते हुए बोली, “क्या चाहिए!”
“वो…. वो फ़ाइल, जिस मेँ आप को वो गीत मिला…”
“बस्स! और कुछ नहीँ?”
“देखिए, मुझे बेतुका मज़ाक़
पसंद नहीँ है.”
“अहंहं… अहंहं...” गाने वाली ने पूछा: “मैँ पसंद हूं!”
“जी, नहीँ!”
इस पर वह लड़की बिगड़ उठी और ग़ुस्से से बोली, “तो मेरे पीछे क्योँ
आए?”
विजय ने बताया कि वह यह जानना चाहता है कि उस के पास वह गीतोँ वाली फ़ाइल
है या नहीँ, और जब उस के पास पैसे
होँगे, तो…
इस पर तो वह लड़की आग बबूला हो उठी: “तू ख़ाली हाथ आया मेरी पीछे! इस गोदी को ख़ाला जी का घर समझा है क्या? चल, निकल यहां से!”
गुलाबो की सारी शाम बेकार हो गई थी. मुश्किल से एक ग्राहक पटा था. वह भी
भूखा निकला!
अपने कमरे मेँ गई तो नज़र पलंग पर पड़ी नज़्मोँ की फ़ाइल पर गई। अचानक उसे
समझ मेँ आया कि उस के पीछे आने वाला वही शायर था, जिस की नज़्मोँ की
फ़ाइल वह रद्दी ख़रीद लाई थी। उस का जी मलाल से भर उठा। भागी भागी वह बाहर आई।
शायद वह शायर अभी तक वहीँ खड़ा हो। लेकिन वह नहीँ था। पर वह उस की दीवानी हो चुकी
थी।
-एक दिन निठल्ले विजय
को पार्क में मिलती है पुरानी सहपाठिन पुष्पलता (टुनटुन)। जाते जाते कह गई कि आज
शाम को कालिज मेँ जलसा है, सब पुराने स्टूडैंट आएंगे, तुम भी ज़रूर आना। वहां उसे मिलती है कालिज के दिनों
की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा)।
विजय कविता शुरू करता है: ‘तंग आ चुके हैँ
कशमकशे ज़िंदगी से हम… ठुकरा न देँ जहां को कहीँ बेदिली से हम'।
दर्शकोँ मेँ से एक आदमी ने चीख़ कर कहा, “ख़ुशी के मौक़े पे क्या
बेदिली का राग छेड़ा हुआ हैँ… कोई ख़ुशी का गीत
सुनाइए!”
एक पल को ख़ामोश हो कर विजय ने फिर गाया: ‘हम ग़मज़दा हैँ, लाएं कहां से ख़ुशी
के गीत/ देँगे वही जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम/ उभरेंगे एक बार कभी दिल के वलवले/ माना कि दब गए हैँ ग़मे ज़िंदगी से हम/ लो, आज हम ने तोड़ दिया रिश्ताए उम्मीद/ लो, अब कभी गिला न करेँगे किसी से हम।’
विजय अपना क़लाम पढ़ रहा है, और मीना के चेहरे पर साफ़ पढे जा सकते हैं अपनी
बेवफ़ाई के पछतावे पर उतरते चढ़ते भाव। ग़रीब विजय को त्याग कर उस ने धनी प्रकाशक
मिस्टर घोष (रहमान) से शादी कर ली थी। विजय फ़िल्म में उस जैसियों के लिए कहीँ
कहता भी है- “अपने शौक़ के लिए
प्यार करती हैं और अपने आराम के लिए प्यार बेच भी देती हैं।”
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मीना यानी माला सिन्हा |
जलसे में शक़्क़ी और ईर्ष्यालु मिजाज़ मिस्टर घोष के लिए मीना के चेहरे पर
उतरते चढ़ते भाव देख कर मीना और विजय के पुराने प्यार की कहानी पढ़ना आसान था।
बदले की भावना से विजय को नीचा दिखाना अब मिस्टर घोष का शौक़ बन गया। एक
शाम घर पर पार्टी रखी। शेरो शायरी की महफ़िल। शराब के दौर पर दौर चल रहे हैं। नौकर
विजय का काम है उनके प्याले भरना। मेहमान शायरों का पुराने ज़माने का इश्क़िया
क़लाम सुन कर वह जवाब में इश्क़ के निरर्थकता पर अपनी नज़्म पढ़ने से अपने को रोक
नहीं पाया। खड़ा खड़ा गुनगुनाने लगा: ‘जाने वो कैसे लोग थे जिन के प्यार को प्यार मिला।’ मेहमान मिस्टर घोष
के चमचे एक मेहमान ने उन्हेँ खु़श करने के लिए कहा, “भई, बहुत खब, भई, वाह!… बहुत सुख़ननवाज़ है
घर आप का… नौकर चाकर भी शायरी
करते हैँ!” एक बड़े मियां ने
विजय की ओर मुड़ कर कहा, “तुम कुछ कह रहे थे, बरख़ुरदार? चुप क्योँ हो गए? कहो! कहो!” किताबोँ की अलमारियोँ
के एक कोने मेँ खड़े हो कर दोनोँ हाथ किताबोँ की अलमारियोँ पर टिका कर विजय ने
कहना शुरू किया: “जाने वो कैसे लोग थे
जिनके प्यार को प्यार मिला/ हम ने तो जब कलियां मांगीँ कांटोँ का हार मिला… खु़शियोँ की मंजिल ढूंढी
तो ग़म की गर्द मिली/ चाहत के नग़मेँ चाहे तो आहेँ सर्द मिली/ दिल के बोझ को दूना कर गया जो ग़मख़्वार मिला/ हम ने तो जब कलियां... /बिछड़ गया, बिछड़ गयाऽऽऽ/ बिछड़ गया हर साथी दे
कर पल दो पल का साथ/ किस को फ़ुरसत है जो थामे दीवानोँ का हाथ/ हम को अपना साया तक
अक़सर बेज़ार मिला/ हम ने तो जब कलियाँ…” मीना के मन और तन की सारी ताक़त जैसे किसी ने निचोड़ डाली थी। विजय गा रहा
था: “इसको ही जीना कहते
हैँ तो यूं ही जी लेँगे/ इसको ही जीना कहते हैँ तो यूं ही जी लेँगे/ उफ़ न करेँगे, लब सी लेँगे, आंसू पी लेँगे/ ग़म से अब घबराना
कैसा… ग़म सौ बार मिला/ हम ने तो जब कलियां…”।
मीना नहीं चाहती कि विजय यहां नौकरी करता रहे। यही वह विजय को समझा रही थी।
घोष साहब उसे प्यार की गुफ़्तगू समझे, विजय को निकाल दिया।
तमाम घटनाओं का ब्योरा न दे कर मैं अंत की ओर आता हूं।
--गुलाबो का कमरा। विजय गहरी नीँद मेँ हैँ। गुलाबो उसे
चादर उढ़ाती है और कमरे के दरवाजे़ के सहारे बैठ जाती है। लंबी नीँद के बाद विजय
ने आंखेँ खोलीँ। गुलाबो पीठ टिकाए बैठी बैठी सो रही है। विजय के कानोँ मेँ तरह तरह
की आवाज़ेँ गूंज रही हैँ। शेख़ साहब की आवाज़, “क्योँ छापूं, साहब! मेरा दिमाग़ ख़राब हुआ है क्या? आप की बकवास कोई शायरी है…!” इस आवाज़ पर उसे
गुलाबो की आवाज़ सुनाई देती है, “दुनिया को तुम्हारी शायरी
की ज़रूरत है!” गुलाबो की आवाज़ पर मिस्टर घोष की आवाज़ सुपरइंपोज
होती है, “हमारी मैगज़ीन मेँ मशहूर शायरोँ की चीज़ेँ छपती हैँ, किसी नौसिखिए की बकवास नहीँ!” इसी आवाज़ में मीना
की आवाज़ मिल जाती है, “तुम ख़ुद अपना पेट नहीँ पाल सकते थे, तुम से मैँ ब्याह करती?”
विजय को अपना जीवन निरर्थक मालूम पड़ता है। उस के कानोँ मेँ मंझले भाई की
आवाज़ गूंज रही है: “माताजी, बाप से हम ने तो नहीँ
कहा था कि ऐसी निखट्टू औलाद पैदा करेँ!”
घबरा कर विजय उठ बैठा। इधर उधर कुछ तलाशता हुआ सा देखने लगा। आख़िर उसे
अपनी जेब मेँ एक काग़ज़ का पुर्ज़ा मिल गया, जिस पर वह कुछ लिखने
लगा, दरवाजे़ पर सोती हुई गुलाबो को देखा। पुर्ज़े को तह
कर के अपनी जेब मेँ रखा। दबे पांव कमरे से निकल आया। बाहर जाते जाते मुड़ कर
गुलाबो को देखा। पल भर को रुका। चला गया।
--रात। रेलवे यार्ड के ऊपर से। पैदल चलने वालोँ के लिए
एक लंबा चौड़ा पुल। विजय उस पुल पर चल रहा है। पुल के नीचे रेल के डिब्बे शंटिंग
कर रहे हैँ। पास ही प्लेटफ़ार्म पर एक गाड़ी। विजय पुल पर चलता हुआ हमारी ओर आ
रहा है। पुल से उतरती सीढ़ियों पर बैठा फ़कीर सर्दी मेँ ठिठुर रहा है। विजय उस के
पास से गुज़र जाता है। फिर लौट कर उसे अपना कोट दे देता है। ख़ुश हो कर फ़कीर ने
कोट पहना। विजय पुल की सीढ़ियोँ से नीचे उतरने लगा। विजय की उदास मुद्रा, इस तरह उस का अपना कोट उतार कर दे देना और पुल की
सीढ़ियां उतर कर रेल की पटरियोँ की तरफ़ चले जाना… यह सब फ़कीर को बड़ा
संदेहजनक लगा। वह फुरती से उठा और विजय के पीछे पीछे चल दिया। विजय एक के बाद एक
पटरियां पार करता हुआ या कभी दो मालगाडि़योँ के बीच बढ़ता चला ही चला जा रहा था।
उस के पीछे पीछे वह फ़कीर आ रहा था।
फ़कीर का पैर बदलती हुई पटरियोँ के बीच फंस गया। वह चीख़ उठा। उन्हीँ पटरियोँ
पर दूर से एक ट्रेन आ रही थी जिस के आने की आवाज़ धीरे धीरे भयानक रूप से बढ़ती जा
रही थी। विजय ने फ़कीर को इस संकट से देखा तो उसे बचाने की गरज़ से वहीँ आ गया।
ट्रेन आ रही थी। विजय फ़कीर को पटरियोँ से निकालने की कोशिश कर रहा था। ट्रेन आ
गई। फ़कीर की चीख़।
--सुबह। मिस्टर घोष अख़बार
मेँ छपी एक ख़बर बोल बोल कर पढ़ रहे हैँ। उन की मंशा पास ही बैठी और चाय बनाती
मीना को यह ख़बर सुनाना है। वह ख़बर पढ़ रहे हैँ: “शकल पहचानना भी मुश्किल हो गया है। उस नौजवान की जेब मेँ एक ख़त पाया गया
जिस मेँ वह एक नज़्म अपने आख़िरी पैग़ाम की सूरत मेँ दुनिया के लिए छोड़ गया… शायर का नाम… विजय था!”
लेकिन विजय मरा नहीं है। पागलख़ाने में है। किसी को यह पता नहीं है।
-गुलाबो का अब एक ही
मक़सद है - विजय की किताब
छपवाना। उस ने मिस्टर घोष के सामने अपने ज़ेवरोँ की पोटली खोल दी: “मेरी ज़िंदगी की सारी
पूँजी… इन्हेँ छपवाने की
क़ीमत मैँ इस से ज़्यादा और कुछ नहीँ दे सकती… इन का छपना मेरे लिए बहुत ज़रूरी है… अगर आप इन्हेँ छाप
देँ… तो उमर भर आप का
अहसान मानूंगी।”
किताब छप गई है, धड़ाधड़ बिक रही है। एक दुकान के कोने मेँ गुलाबो। उस का स्वगत भाषण: “काश! तुम यह अपनी
आँखोँ देखते!” आँखोँ मेँ आँसू।
--अस्पताल। पलंग पर मरीज़ लेटा है। नर्स ‘परछाइयाँ’ की नज़्म बोल बोल कर
पढ़ रही है। सुन कर मरीज़ के बदन मेँ हरक़त होती है। विजय को उठते देख कर नर्स
चौँक पड़ती है। महीनोँ से अचेत पड़े इस रोगी का जाग उठना निश्चय ही नर्स के लिए
एक बहुत बड़ी घटना थी। “डाक्टर! डाक्टर!” चिल्लाती वह डाक्टर को बुलाने भाग गई। नर्स डाक्टर
को ले कर आ गई। विजय उन्हेँ बताने लगा कि ये उस की नज़्मेँ हैँ। डाक्टर ने कहा, “अजी साहब, जिस विजय ने यह किताब
लिखी है, वह न जाने कब का मर चुका है! ठीक से याद कीजिए… क्या नाम है आप का?” पर विजय अपने विजय
होने का दावा किए जा रहा था… भीड़ जमा होने लगी।
विजय लोगोँ से कह रहा था, “मुझे यहाँ क्योँ रख
छोड़ा है? जाने दो मुझे?” शिनाख़्त के लिए
मिस्टर घोष को बुलाया गया।
पागलख़ाने के मैदान और सड़क के बीच लोहे का ऊंचा जंगला बना था। एक दिन अन्य पागलोँ के साथ विजय ने
सड़क पर अब्दुल सत्तार मालिश वाले को जाते देखा। उसे आवाज़ दी। पहले तो अब्दुल
सत्तार उसे भूत समझा। बाद मेँ उस के जीवित होने का पूरा भरोसा होने पर अब्दुल
सत्तार ने अपनी चालाकी से विजय को पागलख़ाने से निकाल लिया।
पागलख़ाने से निकल कर विजय भाइयोँ के घर गया। दोनोँ ने उसे पहचानने से
इनकार कर दिया। मंझले ने तो यहां तक कहा, “मान न मान – मैँ तेरा मेहमान! हमारा भाई बनते तुम्हेँ शरम नहीँ आती!”
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अरविंद कुमार |
कलकत्ता की ट्राम। विजय ट्राम मेँ सवार होता है। आज विजय की तथाकथित मृत्यु
को पूरा एक साल हो गया है। किसी विशाल हाल मेँ बड़ी शान शौक़त से उस की पहली बरसी
मनाई जाने वाली है। ट्राम मेँ बैठा एक शख़्स अपने दोस्त कह रहा है: “विजय बहुत बड़े शायर तो थे ही, साथ मेँ मेरे दोस्त
भी थे… अक़सर मेरे पास मदद मांगने आया करता था। मैँ न होता
तो छ: महीने पहले ही आत्महत्या कर के मर गया होता!” विजय सुन रहा है।
--विशाल सभा भवन। लोगोँ की भीड़। मंच पर मिस्टर घोष, मीना तथा अन्य गणमान्य जन बैठे हैँ।
श्रोताओँ मेँ अब्दुल सत्तार, जूही और गुलाबो… वह गुलाबो, जिस के कारण विजय की
नज़्मेँ प्रकाश मेँ आई थीँ, श्रोताओँ मेँ है। एक
तरफ़ शेख़ साहब भी हैँ। विजय हाल मेँ सब से पीछे है। मंच से मिस्टर घोष भाषण कर
रहे हैँ: “साहिबान, आप लोग तो जानते हैँ कि शायरे आज़म विजय मरहूम की
बरसी मनाने हम लोग यहाँ जमा हुए हैँ। पिछले साल, इसी दिन, वह मनहूस घड़ी आई थी जिस ने दुनिया से इतना बड़ा शायर
छीन लिया… अगर हो सकता तो मैँ अपनी सारी दौलत लुटा कर भी, ख़ुद बिक कर भी, विजय को बचा लेता… लेकिन ऐसा न हो सका। क्योँ…? आप लोगोँ की वज़ह से!
कहने को तो दुनिया कहती है विजय ने अपनी जान दे दी, लेकिन दरअसल आप लोगोँ
ने उस की जान ले ली। काश! आज विजय मरहूम ज़िंदा होते तो वह देख लेते कि जिस समाज
ने उन्हेँ भूखा मारा, आज वही समाज उन्हेँ
हीरे और जवाहरात मेँ तौलने के लिए तैयार है। जिस दुनिया मेँ वह गुमनाम रहे, आज वही दुनिया उन्हेँ अपने दिलोँ के तख़्त पर बैठाना
चाहती है। उन्हेँ शोहरत का ताज पहनाना चाहती है। उन्हेँ ग़रीबी और मुफ़लिसी की
गलियोँ से निकाल कर महलोँ मेँ राजा बनाना चाहती है।”
जो लोग जानते हैं, वे इस तकरीर पर मन ही
मन हंस रहे हैं। और जब मिस्टर घोष कह रहे थे, “काश! आज विजय मरहूम
ज़िंदा होते।” तो विजय उन की इस मुंहज़ोरी
सहने की ताब अपने मेँ न पा कर हाल मेँ पीछे की तरफ़ फ़र्श पर बैठ गया था। उन का भाषण समाप्त होते
होते विजय ने दोनोँ हाथ चौखटोँ पर रख लिए। चौखट के पीछे रोशनी है और इस रोशनी मेँ
उस की आकृति बड़ी भव्य लग रही है। मिस्टर घोष के भाषण के जवाब मेँ वह गा रहा है: “ये महलोँ, ये तख़्तोँ, ये ताजोँ की दुनिया!”
उसे देख कर मिस्टर घोष परेशान हो उठते हैं। सब दर्शक मुड़ कर पीछे की तरफ़
देखने लगते हैँ। वह गा रहा है: “ये महलोँ, ये तख़्तोँ, ये ताजोँ की दुनिया/ ये इन्सां के दुश्मन समाजोँ की दुनिया/ ये दौलत के अंधे
रिवाज़ोँ की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!/ हर इक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी/ निगाहोँ मेँ उलझन, दिलोँ मेँ उदासी/ ये दुनिया है या आलमे बदहवासी/ ये दुनिया अगर मिल भी
जाए तो क्या है!/ यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती/ ये बस्ती है मुर्दापरस्तोँ की बस्ती/ यहां पर तो जीवन से
है मौत सस्ती/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!/ जवानी भटकती है बदकार बन कर/ यहां जिस्म सजते हैँ
बाज़ार बन कर/ यहां प्यार की क़द्र ही कुछ नहीँ है/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!/ जला दो इसे, फूंक डालो ये दुनिया.
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर
प्लस)
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