पं. मुखराम शर्मा, खंड - दो
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–111
“संघर्ष ही जीवन है और कर्म का गुणगान मेरे लेखन का उद्देश्य है,” कहने वाले पंडित
मुखराम ने बॉलीवुड को समृद्ध किया। अपनी तरह के वह एकमात्र लेखक और ब्रांड थे।
उनकी दसियों फ़िल्में दर्शकों को आकर्षित करती रहीं। उन पर इस दूसरे (और अंतिम)
भाग में पढ़िए उनकी तीन चुनी कहानियों पर चर्चा। ये तीनों तीन तरह की हैं।
पहली है साधना। इसमें “वेश्या कभी किसी से प्यार नहीं कर सकती – उसे तो बस पैसा प्यारा होता
है!” कहने वाला संस्कृत साहित्य का प्रोफ़ेसर अंततः मशहूर तवायफ़ चंपारानी
साधना से प्रेम करता है।
दूसरी है हास्य से भरपूर तलाक़। इसमें स्कूल की प्रिंसिपल कह रही है: “वक़्त बदल रहा है।
अब औरतें मर्दों की ग़ुलाम नहीं रहेंगी।”
तीसरी है “तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा” गीत वाली ‘धूल का फूल’ – इसमें नायक का वादा है “तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं वफ़ा कर रहा हूं वफ़ा चाहता हूं।” पर वह बेवफ़ा
निकलता है।
तो पढ़िए--
साधना 1958
वैजयंती माला 'साधना' में |
निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा और पंडित मुखराम शर्मा की जुगलबंदी
शुरू हुई तो एक के बाद एक सुपरहिट सामाजिक फ़िल्में देखने के लिए दर्शक उमड़ते
रहे। ऐसी ही एक फ़िल्म थी वैजयंती माला और सुनील दत्त की ‘साधना’। उनके सह कलाकार थे
लीला चिटणीस, राधाकृष्ण, मनमोहन कृष्ण आदि। कहानी, पटकथा और संवाद पंडितजी के ही
थे। कहानी के केंद्र में था वैश्या रजनी और प्रौफ़ेसर मोहन का प्यार।
एक वाक्य में कहना हो तो ‘साधना’ पूरी तरह रजनी (वैजयंती माला) की कहानी और फ़िल्म है, ठीक वैसे ही जैसे ‘वचन’ पूरी तरह कमला (गीता बाली) की कहानी और उसी की फ़िल्म थी।
फिल्म शुरू होती है कॉलेज में संस्कृत साहित्य के प्रोफ़ेसर मोहन
(सुनील दत्त) की क्लास में शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक पर चर्चा से। वसंतसेना नाम की वेश्या विवाहित व्यापारी चारुदत्त
से प्रेम करती है। छात्रों ने प्रोफ़ेसर साहब की निजी राय पूछी तो वे साफ़ साफ़
फ़तवा दे देते हैँ: “वेश्या कभी किसी से प्यार नहीं कर सकती – उसे तो बस पैसा प्यारा होता
है!” वह नहीं जानते कि स्वयं उनके जीवन में क्या नाटक घटित होने वाला है।
उनकी बीमार मां (लीला चिटणीस) की बस एक रट है – बेटे की शादी। बेटा मां
पर जान छिड़कता है पर अभी शादी की बात टालता रहता है। उसने यह कह कर छुट्टी पा ली
कि पच्चीस साल का तो हो जाऊं। लेकिन मां है कि अड़ी है! अड़ी है तो अड़ी ही
है। कुछ भी बात हो, हर बात में वही शादी का सवाल उठा ही देती है। बुख़ार से तपती
मां नाराज़ हो कर उठी तो ज़ीने से गिर गई। डॉक्टर साहब ने दवा तो दी, साथ ही बताया
चोट कमर में लगी है इसलिए उन्हें पूरा आराम मिलना चाहिए।
शाम तक हालत और बिगड़ गई, इनजेक्शन लग रहे हैं। कोई सुधार नहीं हो
रहा। हालत बिगड़ रही है, मोहल्ले वाले देखने आने लगे। मां कहे जा रही है – मोहन,
बहु ला दे। डॉक्टर साहब की चिंता बढ़ रही है। लगता है अंत समीप है, लोग कह रहे हैं
गंगाजल पिलाओ...रात कटना मुश्किल है।
मोहन का चित्त अशांत है। मां रट रही है बहु बहु...रात में बहु कहां से
ले आए बेटा। एक पड़ोसी जीवन (राधाकृष्ण) अभी तक वहीं है। तमाम सूदख़ोर जीवन से
कर्ज़ अदायगी की मांग करते रहते हैं। वह ताड़ गया – कुछ लाभ उठाया जा सकता है इस
मौक़े पर। बोला, मेरा एक लालची रिश्तेदार पैसे ले कर मदद करवा सकता है। क्या करे
क्या न करे। मोहन राज़ी हो जाता है।
जीवन फटाफट पहुंचा एक कोठे पर। मशहूर तवायफ़ चंपारानी (वैजयंती माला)
के नाच गाने पर रिंद मस्त थे।
ग्राहक गए तो जीवन ने कहा एक शाम किसी की मंगेतर बनने पर वह सौ रुपए
कमा सकती है, पर मुझे पच्चीस देने होंगे। वह बोली तू एक सौ पच्चीस पर बात पक्की
कर, पच्चीस तेरे। नया नाम रखा रजनी (रात)। कुलीन बहु जैसी बनने में चंपा को देर
नहीं लगी।
बहु क्या देखी मां गद्गद हो गई। दोनों को आशीर्वाद देती थकती नहीं
थीँ। लेकिन चंपा उकता रही थी। लौटने का इशारा किया तो जीवन ने रोक लिया। उसने मोहन
से मांग की 200 रुपए की। वे मिले तो मुंह से निकल गया ‘आदाब!’ पर संभल गई।
बहु क्या आई, मानों मां को संजीवनी मिल गई। ‘पिछली रात बहु को
पूरी तरह कहां देख पाई मैं!’ बेचारा मोहन फंस गया था। कॉलेज जाते रास्ते में जीवन के घर गया और
रजनी को मां के पास अभी ले आने को कहा। पैसे के नाम पर जीवन राज़ी तो हुआ पर बोला
उसका बाप बस रात में ही भेज सकता है।
चंपा को वहां फिर जाना अच्छा नहीं लगता। बात डेढ़ सौ में पक्की हुई। और जब सुना, मां मोहन की बहु को कितना पैसा और ज़ेवर चढ़ाएगी।
चंपा को वहां फिर जाना अच्छा नहीं लगता। बात डेढ़ सौ में पक्की हुई। और जब सुना, मां मोहन की बहु को कितना पैसा और ज़ेवर चढ़ाएगी।
मां रजनी पर रीझ गई। उसे बहु पसंद है। वह रजनी को बता रही है शादी पर
कितना धन और ज़ेवर चढ़ाएगी तो चंपा ने चाल बदल दी। उसकी दूरदर्शी आंख धन दौलत पर
है। मीठी बोली वाली सुंदर रजनी अब मोहन को भी जंचने लगी। मोहन पैसे देने लगा तो
लेने से इनकार कर दिया।
अंत तक घटना क्रम न लिख कर मैं इतना ही कहूंगा कि
रजनी का भेद खुल ही जाता है। लेकिन तब तक वह मोहन से और मोहन उससे उत्कट सच्चा
प्रेम करने लगे हैं। वैश्या चंपरानी से बेटे की शादी के नाम पर मां भड़क उठीं, पर
अंत सुखांत ही रहा।
साहिर लुधियानवी का गीत था: “ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के/ ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के/
कहां हैं,
कहां हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के/ जिन्हें नाज़ है
हिन्द पर वो कहां हैं/ कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं…/ये पुरपेंच गलियां, ये बदनाम बाज़ार/ ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झनकार/ ये इसमत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं”
साधना में साहिर लुधियानवी का गीत है: “औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार
दिया/ जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया/ तुलती है कहीं दीनारों में, बिकती है कहीं बाज़ारों में/ नंगी नचवाई जाती है, ऐय्याशों के दरबारों में/ ये वो बेइज़्ज़त चीज़ है जो, बंट जाती है इज़्ज़तदारों में/ मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां, औरत के लिए रोना भी ख़ता/ मर्दों के लिए लाखों सेजें, औरत के लिए बस एक चिता/ मर्दों के लिए हर ऐश का हक़, औरत के लिए जीना भी सज़ा…”
अंत में- ‘साधना’ सन् 1958 की फ़िल्म थी तो सन् 1977 की ताराचंद बड़जात्या की राजश्री
के लिए लेख टंडन निर्देशित ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’ की कहानी भी ‘साधना’ जैसी ही थी। ‘साधना’ नायक की शादी होती है बीमार मां के लिए तो ‘दुल्हन वही जो पिया
मन भाए’ में बीमार उद्योगपति दादा के लिए। हां, घटनाक्रम दोनों का स्वतंत्र
है।
तलाक़ 1958
बात उन दिनों की है जब हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 (हिंदू विवाह
अधिनियम) दिन रात चर्चा का विषय था। इससे पहले इस ऐक्ट पर गुरुदत्त ने ‘मिस्टर ऐंड मिसेज 1955’ बनाई थी, जिसमें ललिता पवार
तुली है गुरुदत्त और मधुबाला का तलाक़ कराने पर। इस ‘तलाक़’ के निर्देशक महेश
कौल गुरुदत्त की ‘काग़ज़ के फूल’ में गुरुदत्त के कठोर ऐरिस्टोक्रैट ससुर बने थे। इन्हीं महेश कौल ने
एक साल पहले निर्देशित की थी 1957 की ‘अभिमान’, जिसमें मुख्य कलाकार थे शेखर और अमिता। राज कपूर और हेमा मालिनी ‘सपनों का सौदागर’ के निर्दशक भी यही
महेश कौल थे। समांतर सिनेमा के अंतर्गत ‘उस की रोटी’ का निर्देशक मणि कौल इन का भतीजा था।
पंडित मुखराम शर्मा की कहानी पर अनुपम चित्र बैनर के अंतर्गत महेश कौल
और पंडित मुखराम शर्मा के साझे में बनी महेश कौल निर्देशित ‘तलाक़’ हास्य से भरपूर लोकप्रिय
रोमांटिक कॉमेडी है। फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कारों में इसे श्रेष्ठ फ़िल्म और श्रेष्ठ
निर्देशक के लिए नामांकित किया गया था। गर्ल्स स्कूल की प्रिंसिपल एक अध्यापिका को
बददिमाग़ मर्दों के ख़िलाफ़ स्त्रियों के हाथ आए नए हथियार तलाक़ के लाभ बता रही
है: “वक़्त बदल रहा है।
पारिवारिक मूल्यों की रक्षा की जिम्मेदारी अकेली औरतों की नहीं है। अब औरतें
मर्दों की ग़ुलाम नहीं रहेंगी।”
संगीत अध्यापिका इंदु (कामिनी कदम) एक गीत के ज़रिए बताती है कि घर की
ख़ुशहाली की जिम्मेदारी लड़कियों की है। नायिका इंदु के साथ नायक है रवि शंकर चौबे
(राजेंद्र कुमार)। खलनायक है इंदु का पिता चिड़चिड़ा, तकरारी और चखचखिया मूलचंद
छब्बे (राधाकृष्ण)। पत्नी मर चुकी है, कामधाम है नहीं चारख़ाने के सूट पहनता है,
शाम को क्लब में रमी और ब्रिज खेलता है।
उनके विरोध के बावजूद इंजीनियर रवि ग्राउंड फ़्लोर पर आ ही बसा। छब्बे
जी को सबक़ सिखाने के लिए रवि एक दिन सारे नल खुले छोड़ गया। ऊपर वालों के नलों
में दिन फर पानी नहीं आया। इस तरह शुरू हुई ऊपर वाले की सुंदर बेटी इंदु से नोंक
झोंक। इंदु भी कुछ कम नहीं है। अपनी नौकरानी तारा से मिल कर रवि के सब पाइप रूंझ
दिए। रवि लौटा तो घर में पानी भरा था। रवि को समझ में आ गया कि इंदु से उलझना भारी
पड़ेगा। स्वतंत्रता दिवस के जश्न में इंदु ने सुना रवि का गीत: “बिगुल बज रहा आज़ादी
का - गगन गूंजता नारों से/ मिला रही है आज हिंद की मिट्टी नज़र सितारों से/ एक बात कहनी है
लेकिन आज देश के प्यारों से/ जनता से नेताओं से/ फ़ौज़ों की खड़ी क़तारों से/ कहनी है इक बात हमें इसदेश के पहरोदारों से/ सम्भल के रहना अपने
घर में/ छिपे हुए ग़द्दारों से…. /...जागो तुमको बापू की जागीर की रक्षा करनी है/ जागो लाखों लोगों की
तक़दीर की रक्षा करनी है/ झांक रहे हैं अपने दुश्मन अपनी ही दीवारों से/ सम्भल के रहना अपने
घर में छिपे हुये ग़द्दारों से…” सुना तो पहली बार उसे रवि अच्छा लगा। प्रेम पनपने लगा। दोनों अपने
में मगन हैं।
रवि के दोस्त और उसकी बीवी ने छब्बे जी को मना लिया दोनों की शादी के
लिए। समस्याएं आन खड़ी हुईं। छब्बे जी अड़े हैं बेटी और दामाद के साथ रहने पर। रवि
चाहता है इंदु नौकरी छोड़ दे।
जल्दी ही नवदंपती को सुंदर सा बेटा हो गया अश्विनी (हनी ईरानी)। रवि
ठहरा शौक़ीन। छुटपन से ही अश्विनी घुड़सवारी और तैराक़ी सिखा रहा है। छब्बे जी
इंदु को भड़काते रहते हैं रवि पैसा बर्बाद कर रहा है। इससे तो क्लब में रमी खेले।
छब्बे जी हरक़तों से ग़लतफ़हमियां पैदा होना स्वाभाविक ही था। रवि इंदु को कंजूस
कहता है। छब्बे जी इंदु को भड़काते हैं, उसकी दशा सारी ज़िम्मेदारी रवि पर थोपते
हैं। नौकरी न छोड़ती तो स्वतंत्र रहती। हर दम बेटी और दामाद के जीवन में ज़हर
घोलते रहते हैं। पति पत्नी में तकरार होने लगी। इंदु ने उसी स्कूल में पढ़ाना शुरू
कर दिया। दक़ियानूसी रवि को यह पसंद नहीं है। वह बेटे अश्विनी को लेकर अलग चला
गया। सुख संसार उजड़ गया। कटुता ही कटुता थी अब। दोनों ही अपने को सही समझ रहे
हैं। और बच्चा अश्विनी – उसे मां की याद सताती है, बाप के हुक्म पालने होते हैं।
मां बाप लड़ते हैं, वह डरता है, सहमता है। उसका बचपन तड़प रहा है। तारा उसे दूध
पिलाना चाहती है। वह मां के हाथों ही पिएगा। मां आती है तो बाप उस से झगड़ने लगता
है। बच्चा समझ नहीं पाता। आख़िर स्वयं गिलास उठा कर पीने लगता है।
‘द हिंदु’ के 25 मई 2017 के अंक में अनुज कुमार ने इस तलाक़ फ़िल्म के बारे में
लिखा था:
“’आखरी दाव’ और ‘प्यार की प्यास’ जैसी फ़िल्मों के निर्देशक ने यहां बदलते समाज की कशमकशों का अच्छा
चित्रण किया है। इंजीनियर ओर कवि को पत्नी का काम करना पसंद नहीं है। शुरू में
इंदु ने काम करना बंद कर दिया, लेकिन धीरे धीरे उसका आत्मसम्मान आहत होने लगा।
कहानी के दो स्तर और हैं – बढ़ती आबादी रोकने के लिए रवि का आदर्शवादी दोस्त बच्चे
नहीं चाहता। उसका नौकर मंगल (सज्जन) सारी स्थिति का निचोड़ पेश करता है। क़ानून उन
परिवारों के लिए बना है जिनके रिश्ते सुधर ही नहीं सकते, उन के लिए नहीं जो छोटी
छोटी बातों पर अलग होने को उतावले हो जाते हैं।”
एक और समीक्षक ने लिखा है- “स्थिति की गंभीरता समझ कर अश्विनी का दूध का गिलास उठाकर अपने आप पीने
लगना – इसका निर्देशक कौल ने कमाल का चित्रण किया है...असली विनर तो हनी ईरानी ही
है। उस की हंसी, उसके आंसू, बॉडी मुवमेंट, उसके काम...वाह वाह!!!”
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धूल का फूल 1959
“तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा”
यश चोपड़ा के निर्देशन की पहली फ़िल्म थी ‘धूल का फूल’। बड़े भाई बी. आर.
चोपड़ा की फ़िल्मों से थोड़ा हट कर, पहला पहला अभ्यास! कुछ नयापन था उसमें
जो बी. आर. की कंपनी में उनकी अंतिम फ़िल्म ‘वक़्त’ तक पहुंचते पहुंचते उसके चरम से कुछ ही पायदान नीचे रह गया था। कहानी
यश ने नहीं चुनी थी। यह उस ‘नया दौर’ से बहुत अलग थी जिस में वह सहायक निर्देशक थे।
कॉलेज के बोर्ड पर इम्तहान के नतीजा लगा हैं। महेश (राजेंद्र कुमार)
अपनी सफलता पर ख़ुश है। मस्ती में साइकिल चला रहा है। लड़कियां अलग साइकिलों पर
हैं। धीरे धीरे मीना (माला सिन्हा) उनसे अलग हो जाती है। उसकी साइकिल से महेश की
साइकिल से टकरा जाती है। तकरार होती है। मीना को बैठा कर और उस की साइकिल पकड़ कर
महेश उसे घर तक छोड़ने जाता है।
मीना घर पहुंचती है। चाची टूटी साइकिल पर उलाहने देती है उन बीस हज़ार
की बड़ी दौलत का जो मीना का बाप उस की पढ़ाई लिखाई के लिए छोड़ गया था। दाई मां
उसे सांत्वना देती है। इतने से हमें मीना के पारिवारिक संबंधों की पूरी जानकारी
मिल जाती है। कॉलेज के हाल में एक तरफ़ लड़कियां बैठी हैं दूसरी तरफ़ लड़के। मंच
पर घोषणा होती है – आज के मुशायरे का विषय है ‘प्यार’। लड़कों की राय रखेगा महेश और लड़कियों की मीना। महेश शुरू करता है, “तेरे प्यार का आसरा
चाहता हूं वफ़ा कर रहा हूं वफ़ा चाहता हूं।” मीना जवाब देती है, “बड़े नासमझ हो हसीनों से अहदे वफ़ा चाहते हो…।” मीना की शोख़ियां
महेश का ही नहीं दर्शकों का भी दिल जीत लेती हैं।
आज की पीढ़ी यह फ़िल्म देखेगी तो उसे याद आएगी यश चोपड़ा की ‘कभी कभी’ और उस का शायर
अमिताभ। जो भी हो ‘धूल का फूल’ का महेश बेवफ़ाई करता है और मीना बन जाती है ‘धूल के फूल’ की मां। कहानी इस ‘धूल के फूल’ की है, उसके पालनकर्ता
अब्दुल रशीद की है जिसे उस ‘फूल’ के मज़हब की जानकारी नहीं है, जो गाता है “तू हिंदू बनेगा न
मुसलमान बनेगा, इनसान की औलाद है इनसान बनेगा।”
यश चोपड़ा के निर्देशन की बात करें तो एक दो शॉटों की बात करना चाहता
हूं। दोनों के छोटे से प्रेम प्रसंग में हम देखते हैं ढलान पर साइकिल से वे नीचे
उतर रहे हैं, सड़क सीधे आगे भी जा रही है, पर तीखे मोड़ पर साइकिल इस मोड़ पर नीचे
उतरने लगती है। हम साइकिल दूर नीचे जाते देखते हैं एक ही शॉट में। अब वे बाग़ में
हैँ। उस ज़माने में प्रथा थी प्रेमी जोड़ों को बाग़ों में पार्कों में नाचते गाते
दिखाना। तो हम एक और शॉट में देखते हैं उन्हें ऊपर से नीचे बहुत दूर जाते। दोनों
शॉटों में वे कहीं भी फ़ोकस से बाहर नहीं होते। अचानक बारिश होने लगती है। दोनों
किसी एकांत जगह में शरण लेते हैं और ‘धूल के फूल’ का बीज पड़ जाता है। महेश ने वादा किया जल्दी ही शादी करने का।
कई दिन से महेश के पास चिट्ठियां आ रही थीं घर आने की। इस बार चिट्ठी
में लिखा था तुम्हारी नौकरी पक्की हो गई है, भारी भरकम तनख़्वाह मिलेगी साथ में
कार। इससे बढ़ कर और क्या चाहिए महेश को – पक्की नौकरी और मीना जैसी होने वाली
पत्नी! महेश घर जाने की तैयारी कर रहा है। मीना भी आ गई। वह मां बनने वाली
है। जल्दी लौटकर शादी करने का वादा कर महेश चला गया। यह जो भारी भरकम तनख़्वाह के
साथ कार मिलने वाली थी तो उस के साथ पत्नी भी मिलने वाली थी। महेश लौटा नहीं। समय
बीत रहा था। मीना पहुंची उसके शहर – देखती है महेश की बारात निकल रही है।
पत्नी मालती (नंदा) के साथ महेश का नया जीवन शुरू
होता है। इधर मीना जीवन से हताश है। चाचा चाची ने ‘कुल्टा’ को घर से निकाल दिया। पहाड़ से कूद कर आत्महत्या करना चाहती है, दाई
ने बचा लिया। उसे अपनी झोंपड़ी में शरण दी। समझाया, ‘तूने पाप किया है तो
ख़तावार महेश है। जब तक चाहे मेरे साथ रह और बच्चे को पाल पोस।’ वह बेटे को पाल पोस
रही थी, बूढ़ी दाई सड़क पर ही मर गई। अब मीना गई महेश के पास। महेश ने उसे दुत्कार
कर भगा दिया। मीना क्या करे। कुछ सूझ नहीं रहा। क्रोध से उबलती मीना ने पांच महीने
के बेटे को जंगल की पगडंडी पर छोड़ दिया।
उधर से गुजर रहे अब्दुल रशीद ने अजीब करिश्मा देखा। फन फैलाए नाग एक
बच्चे की रक्षा कर रहा है। उस ने बच्चा उठाया। कोई उसे लेने वाला न मिला। लोग कहते
क्या पता किस का है, हिंदू है या मुसलमान। अब्दुल चाचा ख़ुद पालने लगे। वे गाते: “तू हिंदू बनेगा ना
मुसलमान बनेगा/ इनसान की औलाद है इनसान बनेगा/ क़ुदरत ने तो बनाई थी एक ही दुनिया/ हमने उसे हिंदू और मुसलमान बनाया/ तू सबके लिए अमन का
पैग़ाम बनेगा/ इन्सान की औलाद है इनसान बनेगा/
ये दीन ये ईमान धरम बेचने वाले/ धन-दौलत के भूखे वतन
बेचने वाले/ तू इनके लिए मौत का ऐलान बनेगा/
इनसान की औलाद है इनसान बनेगा।”
उन का यह गीत फ़िल्म की हाईलाइट है और देशवासियों के लिए संदेश।
वक़्त के महेश और मीना बड़े हो रहे हैं। महेश और मालती का सुखी जीवन
फलफूल रहा है। उन का बेटा रमेश (डेज़ी ईरानी) आफ़त की परकाला है, मां बाप की आंखों
का तारा है। कम उम्र में ही महेश के बाल सफ़ेद हो गए हैं। आंखों पर मोटे शीशों का
चश्मा लगा है। वह मजिस्ट्रेट बन गया है। समाज में उस का बड़ा आदर है।
आठ साल बीत गए हैं। मीना जैसे तैसे कर के आगे बढ़ी है। एडवोकेट जगदीश चंद्र (अशोक कुमार) की सैक्रेटरी बन गई है। पश्चात्ताप के मारे जंगल में छोड़े बेटे को ढूंढने गई थी लेकिन वह मिला नहीं था। तबसे अपराध भावना से ग्रस्त रही शुरू। टाइपिंग शुरू की तो ग़लती से बार बार इंग्लिश में एक चिट्ठी में ‘mother-child, mother-child’ टाइप कर बैठी थी, अब ठीक हो गई है। अपने बॉस को पसंद है। कुछ साल बाद उनसे शादी भी हो जाती है।
आठ साल बीत गए हैं। मीना जैसे तैसे कर के आगे बढ़ी है। एडवोकेट जगदीश चंद्र (अशोक कुमार) की सैक्रेटरी बन गई है। पश्चात्ताप के मारे जंगल में छोड़े बेटे को ढूंढने गई थी लेकिन वह मिला नहीं था। तबसे अपराध भावना से ग्रस्त रही शुरू। टाइपिंग शुरू की तो ग़लती से बार बार इंग्लिश में एक चिट्ठी में ‘mother-child, mother-child’ टाइप कर बैठी थी, अब ठीक हो गई है। अपने बॉस को पसंद है। कुछ साल बाद उनसे शादी भी हो जाती है।
अब्दुल चाचा बच्चे रोशन को स्कूल में दाख़िल कराते रहते हैं। हर स्कूल
में बच्चे बाप का नाम पूछते हैं। अंततः वह जिस स्कूल में पहुंचा वहां उसके असली
पिता महेश का बेटा रमेश भी उसी की क्लास में है। दोनों घने दोस्त बन जाते हैं।
बाक़ी सब बच्चे रोशन का मज़ाक़ उड़ाते हैं लेकिन रमेश उस की हिमायत करता रहता है।
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अरविंद कुमार |
एक दिन रमेश रोशन को घर ले गया। मालती को वह बड़ा अच्छा लगता है,
लेकिन महेश नाजायज बच्चे को घर से निकाल देता है। वह नहीं चाहता उस का बेटा ऐसों
के साथ रहे। उदास रोशन बुरी संगत में पड़ गया।
एक दिन रोशन को बचाने की कोशिश में कार दुर्घटना में रमेश मर गया। ग़लती
महेश की नहीँ थी, फिर भी चोरी के मामले में पकड़ा गया। मुक़दमा महेश की अदालत में
है। बचाव पक्ष के वकील के तौर पर अब्दुल चाचा ले आए मशहूर ऐडवोकेट जगदीश चंद्र को।
मीना की मौजूदगी में अब्दुल चाचा ने वकील साहब के सामने सारा भेद खोल दिया। कैसे
वह उन्हें जंगल में मिला था और उसकी मां कोई और नहीं मीना ही है। मीना ने भी रोशन
को पहचान लिया। अदालत में वह गवाही दे रही है। जज महेश ने उसे पहचान लिया। अपनी
ग़लती भी मान ली।
अगले दिन मालती ने महेश से कहा कि अब्दुल चाचा के घर जाकर रोशन को ले
आए। मीना चुपचाप घर से भाग रही थी। पति जगदीश चंद्र ने उसे रोक लिया। बोले अब उनकी
नज़र में वह बहुत ऊंची हो गई है। रोशन को अपने घर ले आए। मीना और महेश अब्दुल चाचा
के घर हैं। वे रोशन से जुदा होना नहीं चाहते। अंत में मीना और पति जगदीश के हवाले
कर देते हैं।
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद
कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई
है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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