‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–114
यह फ़ोटो कब की है याद
नहीं, गोपी से पहली मुलाक़ात कब, कैसे, कहां हुई...याद नहीं। इतना याद है कि जब तो
अंतरंग हुई। एक और बात जो पक्की तौर पर याद है वह बात है सन् 1964 की।
माधुरी का पहला साल। हर
अंक में कुछ अनोखा, कुछ सार्थक, कुछ स्मरणीय देने को उतावला मैं और हमारी नवयुवा
टोली। भारत की सभी पत्रिकाओं से अलग, समाज और संस्कृति से
गहरे जुड़ाव वाली फ़िल्म पत्रिका। फ़ोटुओं के अनोखे चुनाव के कारण भी माधुरी चर्चा
में थी।
ऐसे में - -
मैं गोपी को, केवल
गोपीकृष्ण को, लेकर दो-पेजी रंगीन फ़ोटो फ़ीचर बनवाना चाहता था। बाएं पेज पर ऊपर
नीचे दो रंगीन फ़ोटो और उस के सामने वाले दाहिने पेज पर भी ऊपर नीचे दो रंगीन
फ़ोटो। चार मौसमों के प्रतीक फ़ोटो–सर्दी, गर्मी, बरसात और बसंत। ऊपर नीचे के दोनों
चित्रों के बीच कैप्शन। फ़ोटो और कैप्शन से किसी पुरातन काल का आभास हो, कुछ वैदिक
ऋचाओं जैसा, ऋषियों का, विश्वात्मा से उनकी निकटता का। गोपीकृष्ण एकमात्र ऐसा
नर्तक था जो वैश्विक नटराज का आभास दे सकता था, देता था।
उस तक संदेश भिजवाया। वह
मुग्ध हो गया। जी जान से जुट गया। उसका अपना नृत्य मंडल था। वहां गोपी का ट्रुप
लगातार नृत्य प्रस्तुति करता रहता था। कला मंदिर के अपने चित्रकार थे। चित्रकारों
से उसने चित्रित कराए चार विशाल पट - सर्दी, गर्मी, बरसात और बसंत के भावपूर्ण विराट
कलात्मक चित्रपट। उनके सामने चित्रित होनी थीं सिर पर चतुर्दिक फैली केश राशि वाले
सुगठित अंग प्रत्यंग से संपन्न नवयुवा गोपी की उन मौसमों की प्रतिनिधि ऋषियों की
नृत्य मुद्राएं।
सही याद नहीं कि
जैनेंद्र जैन की देख-रेख में हमारे फ़ोटोग्राफ़रों में से महाजन गए थे या
बालकृष्ण। ट्रांसपेरेंसियां आईं – एक से बढ़ कर एक! लाजवाब! कौन सी लें, कौन सी न
लें – समझ में नहीँ आता था। जैसे तैसे चार चुन ली गईं। अब कैप्शन की बारी थी।
पुरातन वैदिक देवताओं का आवाहन करते ऋचाओं जैसी भाषा में चार गद्य काव्यमय कैप्शन
मैंने लिखे और छप गए। छपते ही वह अंक और उसके वे चारों फ़ोटो चर्चा का विषय बन गए
-बॉलीवुड में किसी फ़िल्म पत्रिका मैं ऐसी कल्पनातीत सांस्कृतिक छवि! अभूतपूर्व! अपने आप में एक पूरा
स्टेटमैंट।
-
कला साधना में तन मन
धन से लग जाने वाले गोपी का जन्म कलकत्ते में 22 अगस्त 1935 को हुआ था। पूरा
परिवार कत्थक के बनारस घराने से जुड़ा था। उसकी मौसी थीं मशहूर नर्तकी-अभिनेत्री सितारा
देवी। उन की ठुमरी-गायक बहन तारा का बेटा यानी भांजा गोपी ग्यारह का हुआ तो कलकत्ते
में नाना सुखदेव महाराज ने कत्थक नृत्य सिखाना शुरू किया। नाना बहुत कठोर थे। हर
दिन कठिन रियाज़ में बीतता। क्या मज़ाल जो कोई चूक हो जाए! कोई रुरिआयत नहीं! तभी तो पंद्रह साल की
उम्र में अखिल बंगाल संगीत कांफ़्रेंस में उसे नटराज की उपाधि मिल पाई। इसी के दम
पर सत्रह साल का गोपी 1952 की फ़िल्म साक़ी में मधुबाला का नृत्य निर्देशक बन
पाया। कहा जाता है कि इतनी कम उम्र में कोई अन्य तब तक नृत्य निर्देशक नहीं बन
पाया था। बंबई में वह कुछ साल मौसी सितारा देवी के घर में नेपियन सी रोड पर ही रहा।
तब एक दिन:
सुखदेव महाराज उसेले
जा पहुंचे शांताराम के पास। तब वह 19वां साल पूरा कर रहा था। शांताराम ने उसे देखा
और तभी के तभी झनक झनक पायल बाजे का हीरो बना लिया। फ़िल्म में उस के नृत्यों का
निर्देशन स्वयं सुखदेव महाराज करना चाहते थे। इसके लिए शांताराम सहमत नहीं हुए।
हां, फ़िल्म में जो पात्र उस्ताद मंगल बना है उसके व्यक्तित्व का विकास शांताराम
ने सुखदेव महाराज के आधार पर किया। (इस प्रकार हम गोपी के नाना के व्यक्तित्व की
कल्पना कर सकते हैं।)
झनक झनक पायल बाजे
झनक झनक पायल बाजे में काम करना गोपी के लिए
आसान नहीं था। अगर नाना कठोर थे तो निर्माता-निर्देशक शांताराम पूरे कड़ियल थे, काम
लेने में कठोरसे कठोरतम थे। कोई रूरिआयत नहीं! जो चाहिए, जैसा
चाहिए, वैसा कलाकार को करके रहना पड़ेगा। शांताराम स्वयं नर्तक रह चुके थे। गोपी में कमी रह जाती तो
ख़ुद कर के दिखाते। गोपी पीछे रहने वाला नहीं था। एक की जगह सवाया करने को तैयार
रहता। उससे तरह तरह का अभ्यास कराना, फ़िल्म की आवश्यकता के अनुरूप काम ले पाना और
तपा तपा कर उसे कुंदन बनाना शांताराम का ही काम था।
होता भी क्यों नहीं? होना ही था।
नवरस से संसिक्त ‘झनक झनक पायल बाजे’ नृत्य-गीत-संगीत का महोत्सव थी। यह राजकमल कलामंदिर की आठवीं फ़िल्म थी। फ़िल्म
क्या थी कथक, भरतनाट्यम्, मणिपुरी जैसे नृत्यों की समृद्ध भारतीयनृत्य परंपरा के
प्रति शांताराम की निष्ठा का जयघोष थी। राजकमल कलामंदिर का भविष्य इस पर टिका था।
और बिल्कुल नए, अज्ञात, कचिया कलाकार गोपी पर शांताराम ने अपना सर्वस्व दांव पर
लगा दिया था। इस ख़र्चीली कृति के निर्माण का व्यय उठाने के लिए शांताराम को पत्नी
के ज़ेवर तक गिरवी रखने पड़े थे। इस में हीरो राई रत्ती खरा न उतरता - तो?
तो,राजकमल कलामंदिर का बंटाढार हो जाता!
शांताराम का दांव रंग लाया। राजकमल का ख़ज़ाना
लबरेज़ हो गया। एक सिनेमाघर में तो यह लगातार दो साल चली थी!
कहानी और संवाद लिखे थे दीवान शरर ने, संगीतकार
थे वसंत देसाई। सभी दसों गीत लिखे थे हसरत जयपुरी ने, पहला टाइटिल गीत झनक झनक
पायल बाजे, पायलिया की रुनक झुनक पर छम छम मनवा नाचे, नील गगन भी सुन कर झूमे सोई
धरती जाग उठी है, गूंज उठा संसार, नील गगन भी सुन कर
झूमे मधुर मधुर झनकार गाया था उस्ताद अमीर ख़ां ने, इसके बाद सभी गीतों में लता
मंगेशकर थीं और उनके साथ किसी में थे हेमंतकुमार और किसी में मन्ना डे। मीराबाई के
भजन से प्रेरित गीत ‘जो तुम
तोड़ो पिया मैं नाहीं तोड़ूं रे तोरी प्रीत कृष्णा, कौन संग जोड़ूं रे’ में संतूर का उपयोग पहली बार
किया गया था और यह बजाया था संतूरवादक शिवकुमार शर्मा ने।
-सड़क पर दीवार पर नर्तकी रूपकला की नृत्य
प्रस्तुति का पोस्टर देख नृत्य गुरु मंगल महाराज (केशवराव दाते) भड़क उठते हैं –
उनकी पुरानी शिष्या पैसे के लिए ऐसा घटिया गंदा नाच कर रही है! पुत्र गिरधर (गोपीकृष्ण)
उन्हें रोकने की नाकाम कोशिश करता है। रूपकला की प्रस्तुति रुक जाती है।
एक बड़ी हवेली, युवती नीला (संध्या) कत्थक का रियाज़
कर रही है। असली कला क्या होती है यह दर्शाने के लिए गुरु मंगल शिष्य गिरधर को
आदेश देते हैं: “जाओ, दिखाओ!”
और -- गिरधर जो नाचता है, जो नाचता है, तो यहां
से वहां, वहां से यहां, इधर से उधर, उधर से तिघर, कभी वादक मंडली के पार, कभी दूर
खुले असमान में, चक्कर पर चक्कर, अप्रतिम पद संचालन– तबले की थाप और पैरों की धाप
की अद्भुत जुगलबंदी!!
चमत्कृत हो जाती है। (तब गोपी बीस साल का था,
संध्या बाईस की। दोनों यौवन से भरपूर!) उसे शिष्या बनाने से पहले मंगल महाराज दो शर्त रखते हैं – “1) वह पूरा जीवन कला को समर्पित करेगी, और 2) आगामी नृत्य प्रतियोगिता
में ‘तांडव नृत्य’ में गिरधर के साथ
पार्वती बनेगी।”
अब शुरू होता है एक के बाद एक और नए रियाज़ों
का सिलसिला। एक के से एक बेहतरीन नृत्य, गीत और संगीत। दर्शक मुग्ध होते रहते हैं,
नीला और गिरधर की कला पर मुग्ध होते रहते हैं, और मुग्ध होते रहते हैं एक दूसरे
पर। जो मुग्ध नहीं होता वह है खलनायक मणिलाल (मदन पुरी) - नीला का सरपरस्त, नीला
का सहारा और नीला को अपने लिए चाहने वाला रईस। वह आशंकित तो पहले से था नीला और
गिरधर के रिश्ते पर, अब उसे भरोसा हो गया है नीला हाथ से गई और वह गुरु मंगल
महाराज से शिकायत करता है। गुरु जी शिकायत को नज़रंदाज़ कर देते हैं। तांडव नृत्य
प्रतियोगिता की तैयारियां करनी हैं। वेशभूषा, घुंघरू आदि लाने गुरु जी बनारस जा
रहे हैं। शिष्य गिरधर को नसीहत देते हैं - प्रेम जैसे बंधनों में न बंधने की। शिष्य
उन्हें भरोसा दिलाता है।
गुरु जी गए, तो एक और सिलसिला शुरू हुआ - एक के
बाद एक और नए नृत्य का रियाज़... हर नृत्य पहले से बेहतर, कभी खुले आसमान के नीचे,
कभी मैसूर के वृंदावन गार्डन में। नीला और गिरधर अपने को रोक नहीं पाते। एक दूसरे
से प्रेम कर ही बैठते हैं। गुरू जी लौटते हैं, देखते हैं, लाठी घुमा कर जो फेंकते
हैं तो वह गिरधर के पैर पर पड़ती है। सेवा कर के नीला उसे ठीक करती है। अब गिरधर
के लिए कला से भी बढ़ कर है नीला। वह समझ गई है कि गिरघर की कला का भविष्य ख़तरे
में है। अजब दुबधा है। गिरधर की प्रगति की ख़ातिर वह उसे विश्वास दिला देती है कि
मणिलाल के साथ वह...। ‘पतिता’ नीला को हमेशा हमेशा के लिए त्याग कर गिरधर चला गया वापस गुरु-पिता के घर
– अपनी कला को चरम तक पहुंचाने।
नीला समझ नहीं पाती क्या करे। नदी में कूदी,
बहती रही, दूर एक साधु ने निकाल लिया। जोगन मीरा बनी, भक्त इकट्ठा होने लगे। एक
दिन गिरधर भी आया। वह रह नहीं सकता उस के बग़ैर! नीला उसे न पहचानने का नाटक करती है। गिरधर
अटल है। आख़िर गुरु जी गिरधर को ले ही गए।
साधु और सेविका बिंदिया बीमार नीला को अनजाने
में उसी मंदिर के पास ले गए जहां तांडव नृत्य की परीक्षा होनी है। गुरु जी ने एक
और सहनर्तकी रख ली है गिरधर के साथ प्रतियोगिता में तांडव नृत्य के लिए।
और...वह जो मणिलाल था, अब तक सक्रिय है। उस की
हर कोशिश है गिरधर को हरवाना है। उस ने सहनर्तकी को पैसा दे रखा है गिरघर के तांडव
को अधबीच छोड़ देने के लिए। नृत्य में गिरधर पद संचालन कर रहा है, तबला उसकी
जुगलबंदी कर रहा है। निकट वाले वन में थाप और धाप की ध्वनियाए आ रही हैं।
अचेत नीला के पैरों में हरक़त होती है... पूरा
बदन सचेतन होता है... वह उठ खड़ी होती है... दौड़ती है। तांडव में गिरधर पिछड़ रहा
है। सहनर्तकी कहीं विलीन हो चुकी है। अकेला गिरधर नाच रहा है। नीला आती है उस का
साथ देने। गिरधर की नज़र में नीला पतिता है, वह उसे धकियाता है, नाच से उसे हटाने
की कोशिश करता है। गुरु जी के संकेत पर नाच में तन्मय हो जाता है। अब नीला उस के
साथ है।
अब जो तांडव हो रहा है वह अभूतपूर्व है,
कल्पनातीत है। जल, धरती, कण कण - सब वैश्विक नृत्य का अंग बन गए हैं। गगन से देवी
देवता देख रहे हैँ। फूल बरसा रहे हैं।
गिरधर अब तांडव सम्राट है।
पर नीला को स्वीकारने को तैयार नहीं है।
अंततः गुरु के समझाने पर दोनों का मिलन होता
है।
![]() |
अरविंद कुमार |
पूरी फ़िल्म पर गीतों के बोल, संगीत के स्वर
समाए हैं। यही फ़िल्म का कथ्य है, तथ्य है। जैसे:
-“झनक-झनक
पायल बाजे/ पायलिया की रुनकझुनक पर/
छम छम मनवा नाचे/ झनक-झनक पायल बाजे…
नील गगन भी सुन कर झूमे/ मधुर मधुर
झनकार/ सोई धरती जाग उठी है/ गूंज उठा
है संसार”
-“ओ सुनो सुनो सुनो सुनो सुनो जी आ/ ओ सुनो सुनो सुनो सुनो रे
रसिया मन बसिया/ कुछ तुम से बोलें अंखियां/ देख देख तोहे आशा नाचे/ छक छूम छूम छूम, छक छूम छूम
छूम/ झूम झूम मन बीना बाजे/ तारा तुम
तुम तुम, तारा तुम तुम तुम / कटाए नहीं कटतीं रतियां/
कुछ तुम से बोलें अंखियां/ … खोल रे मन की
किवड़िया/ मेरे बैन, मेरे नैन, मेरे बैन, मोरे श्याम/ मेरे तन, मेरे मन, मेरा धन, मेरा प्राण/
बिनती करूं छलिया हो रसिया…/ कुछ तुम से बोलें
अंखियां…./ मेरे राज, मेरे प्यार, मेरे
ताज, मेरे हार…./प्रेम प्यार की डोर ना
तोड़ो
मेरे मोर, मेरे चोर…. / कुछ कुछ तुम से बोले अंखियां/ हो सुनो सुनो सुनो सुनो रे रसिया हो मेरे मनबसिया/ कुछ
कुछ तुम से बोले अंखियां”
-“रुत
बसंत आई बन बन उपवन/ द्रुम मिलिंद
प्रफुल्लित सुगंध/ मंद पवन आवत मिलिंद मधुकर मधुर गुंजत/रुत बसंत आई/ आई है घटा उमड़ घुमड़ घोर फिर/ कहु गात उमड़ गीत अति श्याम बरन/ आई है घटा उमड़
घुमड़उमड़ घुमड़/ श्याम बरन श्याम बरन श्याम बरन/ पतझड़ छाई छाई/ जलत उदास मैं घबराई/ नैना रस की प्यासी प्यासी/ पतझड़ छाई/ पतझड़छाई, छाई, जलत उदास मैं घबराई/ नैना रस की
प्यासी/ नैना रस की प्यासी/ नैना रस की
प्यासी”
-“अब तो साजन घर आ जा/ ओ मेरे सैयाँ मन का फूल खिला जा/ अब तो साजन घर आ जा/ तड़प तड़प के ये बरखा बहार गुज़री है/ जो रुत थी आई वो बेक़रार गुज़री है/ हो राग मिलन के सुना जा/ अब तो साजन घर आ जा, आ जा”
-“अब तो साजन घर आ जा/ ओ मेरे सैयाँ मन का फूल खिला जा/ अब तो साजन घर आ जा/ तड़प तड़प के ये बरखा बहार गुज़री है/ जो रुत थी आई वो बेक़रार गुज़री है/ हो राग मिलन के सुना जा/ अब तो साजन घर आ जा, आ जा”
-
और आगे बढ़ने से पहले
मैं अमेरीकन नर्तकी कैसिडी (Cassidy) के रविवार 5 जनवरी
2014 के चिट्ठे से कुछ अंश उद्धृत करना चाहता हूँ:
“अधिकतर जन गोपीकृष्ण को 1955
की ‘झनक झनक पायल
बाजे’ मात्र तक सीमित समझते हैं। निस्संदेह उस में उस की
पहचान के तौर पर उस की बिजली जैसी तेजी से कत्थक के चक्करों तक समझते हैं। वह इस
से बढ़ कर बहुत कुछ था। सही है कि यह फ़िल्म उस की अदम्य आंतरिक ऊर्जा का उत्कृष्ट
नमूना थी। उस में उसके चक्कर पर क्लासिकल चक्कर चकरघिन्नी थे, चाबुकदस्ती जैसा अंग
संचालन...। उस के जैसा कोई और पुरुष नर्तक भारतीय फ़िल्मों में नहीँ आ पाया। तांडव
नृत्य तो शायद अब तक सर्वश्रेष्ठ ही है। इस ब्लाग में मैं उस की कुछ और फ़िल्मों
के बारे में बात करूंगी।
“आम तौर
पर कहा जाता है कि सिनेमा से गोपी का पहला संपर्क 1952 की ‘साक़ी’ में मधुबाला के नृत्य निर्देशक के तौर पर हुआ। लेकिन 1955 की ‘झनक झनक’ से पहले वह 1953 की बिमल राय निर्देशित
मीनाकुमारी की ‘परिणीता’ में रोशन
कुमारी के साथ नाच चुका था। इसी तरह चेतन आनंद की ‘आंधियां’ में भीड़ वाले सीन में वह ‘राधा राधा’ गाता 51 सैकंड के लिए कत्थक नाचता दिखा था। (नामावली में कहीं उस का
ज़िक्र नहीं है।”
कत्थक के अतिरिक्त गोपी ने भरतनाट्यम भी सीखा था। गुरु थे महालिंगम
पिल्लई और गोविंद राज पिल्लई।
उस ने गृहस्थी, दास्तान, आम्रपाली,
महबूबा, उमराव जान, नाचे मयूरी और मर्चैंट-आइवरी की द परफ़ैक्ट मर्डर जैसी
फ़िल्मों का नृत्य निर्देशन किया। सुनील दत्त के साथ वह सैनिकों के मनोरंजन के लिए
जाता रहा। उसे पद्मश्री से भी अलंकृत किया गया था। एक दफ़ा बंबई में उस ने मैराथन
कत्थक नृत्य का नौ घंटे बीस मिनट तक नाचने का रिकार्ड स्थापित किया। मुझे याद है
एक पूरा मेला सा था। हाल में नाच चलता रहता। दर्शक आते जाते रहते। कुसुम, बेटा
सुमीत, बेटी मीता और मैं उस में कई घंटे बैठे रहे। बंबई के सभी समाचार पत्र उस की
प्रगति का ब्योरा छापते रहते थे।
18 फ़रवरी 1994 को साठ
साल के गोपी को दिल का भारी दौरा पड़ा। वह अगली सुबह नहीं देख पाया।
और अंत में—
“वैजयंती
माला के साथ नवयुवा गोपी कृष्ण की नृत्यनाटिका (बैले नृत्य)”
इस जानकारी के लिए मैं हिंदी फ़िल्म संगीत प्रेमी
भरत उपाध्याय का आभारी हूं। यह जानकारी atulsongaday.me नाम के ब्लॉग से ली गई है। श्री
अतुल प्रति दिन एक गीत के बारे में लिखते हैं। श्री भरत उपाध्याय का यह ब्लाग अतुल
जी ने 9 जून 2014 को विशेष रूप से प्रस्तुत किया था।
अंजली पिक्चर्स की सन् 1964 की फ़िल्म फूलों की
सेज के निर्माता थे पति-पत्नी पी. आदिनारायण राव और अंजलि देवी। मुख्य कलाकार थे
वैजयंतीमाला, अशोक कुमार, मनोज कुमार, गोपीकृष्ण, निरूपा राय, ललिता पवार, मेहमूद,
अंजलिदेवी, शुभा खोटे, मुकरी, कन्हैयालाल। कहानी का आधार था गुलशन नंदा का उपन्यास
अंधेरा चिराग़, निर्देशक थे इंदरराज आनंद, हसरत जयपुरी के गीतों को संगीत दिया था
आदिनारायण राव ने।
यह श्री राव की दूसरी हिंदी फ़िल्म थी। पहली थी
स्वर्णसुंदरी।
श्री भरत उपाध्याय लिखते हैं—
वैजयंती और गोपीकृष्ण पर यह राग माला फूलों की
सेज में कत्थक नृत्य नाटिका के रूप में उत्कृष्टतः फ़िल्मांकित की गई थी। इस में
तोड़ा, टुकड़ा, परन और चक्कर के साथ अभिनय दर्शाए गए थे। लता और मन्ना डे ने
शास्त्रीय राग शैली का संपूर्ण पालन किया गया था। नाटिका के आरंभ में है वैजयंती
का लंबा एक गीत। पूरे प्रकरण में राग अडाणा, सारंग, कल्याण, खमाज और सोहिनी की
रागमाला है। यह अपने आप में महान उपलब्धि थी। भरतनाट्यम विशेषज्ञ वैजयंती यहां
कत्थक नृत्य में सहज भाव से गोपीकृष्ण के साथ सामंजस्य कर पाई है। वाह, क्या भाव
मुद्राएं हैं। नाचते नाचते वह अभिनय में एक पल नहीं चूकती। और स्वर संयोजन – समझ
में नहीँ आता कि लता गा रही है या वैजयंती। नृत्यनाटिका का अंत होता है सवाल-जवाब
में।
कोरस : -
बिरहन के पास बिरहा की आग तन मन
सुलगाए
चमकत प्रेम ज्वाला नंद लाला
राधा:
ज़ुल्मी याद आवन लागी
मोहे रोज़ तडपावन लागी
चले साँस घबरावन लागी
सांवरो कहां
मैं हूं तिहारी
प्रीत की मारी
आ जा मुरारी
आ भी जा रसिया आ आ
मन मोरा प्यासा है आ आ
आ भी जा रसिया
नैन कमल हैं निस दिन तरसें
बिन बादल हाय झर झर बरसें
बिन तोरे कछु नहीं भाए
आ रे आ - मोरी थाम ले बैयाँ
आ रे आ - मोरी थाम ले बैयाँ
आऽ आ आ आ
आ भी जा रसिया आ आ
छुन-छुन-छुन- छुन-
चमकत नाचत कनहैया
(ताता थई ताता थई - कत्थक तोड़ा)
चाल ढाल छबि न्यारी
दै दै तारी
बारी बारी
तत बाजत पग नूपुर झनकारी
बाजत पग नूपुर झनकारी
बाजत पग नूपुर झनकारी
राधा:
जा रे जा रे जाआऽ कान्हा जा रे जा
चलो छोड़ो मोरे हाथ
ज़ालिमा जा रे
कान्हा जा रे जा
हटो तो से हम ना बोले जालिमा आ आ
कान्हा जा रे जा
कष्ण:
हम से ना रूठो राधा
जिया ना जलाओ राधा
मुरली की तान - तुम राधा - आ
मोरा तुम ही राग
तुम ही रंग
तुम ही प्राण हो
प्राण हो
राधा प्राऽण होऽऽऽ
राधा प्राण हो
(धाकित धाकित --- कत्थक तोड़ा)
राधा:
मन मोहनाऽ
पिया तू जो मिलाऽ
मोरा खोया दिल मिल गयाऽ आ आ
खोया दिल मिल गयाऽ
आआ आऽ आआ
आ आ आ आ आ
सुन सुन सुन मोरे साँऽवरिया
रून झुन झुन बाजे पायलिया आ
तन मन तो झूमे प्रीत भरा
छुन छुन छुन
नाचें चारों दिशा आ आ
मन मोहनाऽ पिया तू जो मिलाऽ
मोरा खोया दिल मिल गया आ आ
खोया दिल मिल गयी
मनमोहना
मनमोहना
सा-नि-धा-मा-गा-धा सा-गा-सा
सा-गा-मा मा-धा-मा धा-नि-धा
नि-सा-नी सा-गा-सा मा-गा-सा-नि-धा-मा
गा-मा-धा-नि-सा
आआआ आआआ आआ
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार
की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना
जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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