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बलराज साहनी, निरुपा रॉय |
-वीर विनोद छाबड़ा
आज़ादी के बाद के सिनेमा के इतिहास में जो फिल्म सबसे पहले राष्ट्रीय
और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने कंटेंट्स, प्रस्तुतिकरण, अभिनय और गीत-संगीत
के कारण चर्चा का विषय बनी थी, वो थी - दो बीघा ज़मीन। कहते हैं बिमल रॉय को यह फिल्म बनाने की
प्रेरणा वित्तोरियो डिसिका की दी बाईसाइकिल थीफ से मिली थी। रॉय ने
अपने मित्र सलिल चौधरी को इसकी कहानी लिखने को बोला और संवाद की ज़िम्मेदारी
हृषिकेश मुख़र्जी को सौंपी। सलिल दा ने इसका संगीत भी तैयार किया था। बिमल दा चाहते
थे कि फिल्म का शीर्षक कुछ ऐसा हो कि पूरी फिल्म का ख़ाका एकबारगी ज़हन में समा जाए।
इसके लिए उनकी नज़र गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता के शीर्षक 'दुई बीघा ज़मीन' पर पड़ी। तब के दौर
में देश का चिंतन समाजवादी था। किसान को ज़मींदार से और शहर को पूंजीपति, बनिया और साहुकार से
मुक्ति दिलानी थी। फिल्म इसी यथार्थ को उजागर करती है।
कहानी का सार
गांव में शंभू किसान (बलराज साहनी) का परिवार है। पत्नी (निरुपा रॉय)
और एक बेटा कन्हैया (रतन) है। पिता गंगू (नाना पलसीकर) बीमार है। एक क्रूर ज़मींदार
हरनाम सिंह (मुराद) भी है। भयंकर सूखा पड़ा। शंभू ज़मींदार से कर्ज लेने को मजबूर हो
गया। हरनाम मोटी रकम कमाने के चक्कर में गांव में फैक्ट्री लगाना चाहता है। इसके
लिए ज़मीन चाहिए। उसकी निगाह शंभू की दो बीघा ज़मीन पर है। उसे विश्वास है कि शंभू
मान जाएगा। लेकिन वो मना कर देता है। तब हरनाम ने शंभू को धमकाने की गरज़ से उसके
नाम पैंसठ रूपए का कोई पुराना कर्ज़ लिया दिखा दिया। कर्ज़ चुकाओ या ज़मीन बेचो।
दुर्भिक्ष के उस दौर में शंभू पत्नी के ज़ेवर बेच जैसे-तैसे पैसा जोड़ कर हरनाम को
देता है। लेकिन ज़मींदार बताता है कि ब्याज सहित कुल रकम दो सौ चौंसठ रूपए है। शंभू
सन्न रह जाता है। वो कोर्ट की शरण लेता है। लेकिन हरनाम यहां भी छल करके फैसला
अपने हक़ में करा लेता है। तीन महीने में कर्ज चुकाओ या ज़मीन बेचो। अब शंभू के
सामने एक ही विकल्प है - कलकत्ता जाओ और कमाओ।
वो बेटे कन्हैया के साथ कलकत्ता पहुंचता है। लेकिन यहां आकर शंभू को
समस्याओं के लंबे सिलसिले का सामना करना पड़ता है। एक नहीं कई लुटेरे हैं यहां।
सामान चोरी हो जाता है। लेकिन कुछ भले लोग भी हैं। बाप-बेटा उनकी मदद से काम शुरू
करते हैं। कन्हैया बूट-पालिश करता है और शंभू हाथ रिक्शा चलाता है। दोनों खूब
मेहनत करते हैं। एक दिन एक शंभू ज्यादा भाड़े की लालच में रिक्शा बहुत तेज चलाता
है। लेकिन उसका एक्सीडेंट हो जाता है। इधर गांव में पारो परेशान है। उसे शंभू के
एक्सीडेंट की खबर मिलती है। वो बीमार ससुर गंगू को पड़ोसी के भरोसे छोड़ कर शहर जाती
है। यहां उसको एक गुंडा बहकाने की कोशिश करता है। वो किसी तरह उसके चंगुल से छूट
कर भागती है और एक कार से टकरा जाती है। शोर मचता है। पारो को अस्पताल ले जाना है।
एक रिक्शा रुकवाया जाता है। वो रिक्शा शंभू का है। अस्पताल में डॉक्टर शंभू से
दवाएं और एक बोतल खून के लिए कहता है। शंभू की कमाई सारी पूंजी ख़त्म हो जाती है।
इधर कन्हैया पिता की मदद के लिए चोरी करता है और पकड़ा जाता है। इस बीच तीन महीने
गुज़र चुके हैं। शंभू और पारो गांव जाते हैं। उनकी ज़मीन पर हरनाम कब्ज़ा करके
फैक्ट्री का निर्माण शुरू कर चुका है। शंभू एक मुठ्ठी माटी लेना चाहता है लेकिन
सुरक्षाकर्मी उसे ऐसा नहीं करने देता। निराश शंभू और पारो वहां से चल देते
हैं।
फिल्म का प्रभाव
फिल्म रिलीज़ होती है तो उसे ज़बरदस्त आलोचना का सामना करना पड़ता है।
नव-यथार्थवाद के नाम पर यह क्या बना डाला? पूंजीवादी व्यवस्था
इसे हज़म नहीं कर पाती है। समाजवाद अभी शैशवावस्था में है। लेकिन जब फिल्म को कांस
और कार्लोव वरी में आयोजित इंटरनेशनल मेलों में अवॉर्ड मिलते हैं तो देश में सबकी
आंखें खुलती हैं। शोषित समाज और शोषणकर्ता का असल चित्र सामने आता है। उसी साल देश
में पहली बार नेशनल अवॉर्ड घोषित होते हैं। उसमें 'दो बीघा ज़मीन' को श्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड
मिलता है। इसी समय फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी स्थापित होते हैं। बेस्ट फिल्म के लिए 'दो बीघा ज़मीन' और बेस्ट डायरेक्टर
के लिए बिमल रॉय के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं मिलते हैं। कई साल बाद 2005 में
इंडिया टाइम्स मूवीज़ ने पच्चीस सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्मों के सूची जारी की तो
उसमें भी दो बीघा ज़मीन को भी स्थान मिला।
रोचक प्रसंग
दो बीघा ज़मीन से जुड़े कई रोचक प्रसंग हैं। फिल्म के मूल एंड में शंभू को उसकी
ज़मीन वापस मिल जाती है, लेकिन पारो मर जाती है। बिमल रॉय की पत्नी मोना बिना रॉय को यह अंत
बहुत अमानवीय लगा। उन्होंने सुझाया कि ज़मीन जाने दो लेकिन पारो को ज़िंदा रखो। और
वही हुआ। क्लाईमैक्स दोबारा शूट किया गया।
हीरो चुनने से पहले बिमल रॉय के दिमाग में नज़ीर हुसैन, जयराज और त्रिलोक
कपूर जैसे दिग्गज थे। लेकिन उन्हें बलराज ने बहुत प्रभावित किया जब वो रिक्शा वाले
के गेटअप में उनके सामने खड़े हो गए। तब वो दो मील रिक्शा चला कर आये थे और पसीने
से तरबतर बुरी तरह हांफ रहे थे। जनता के हुड़दंग से बचने के लिए आउटडोर शूटिंग के
दौरान कैमरा एक कार में छुपा कर रखना पड़ता था। कई बार बलराज साहनी को असली
रिक्शावाला समझ लिया गया। उन्हें सवारी बैठानी पड़ी और इसकी एवज़ उन्हें भाड़ा भी
मिला। स्टैंड पर रिक्शा लगाने के लिए उनका असली रिक्शेवालों से कई बार झगड़ा भी
हुआ। एक बार बलराज को सिगरेट की तलब लगी। उन्होंने शॉप कीपर से महंगी सिगरेट
मांगी। लेकिन शॉप कीपर ने उनके रिक्शेवाले का गेटअप देख कर भगा दिया।
मीना कुमारी का दिल आया
लेखक |
बीआर चोपड़ा इसके कथानक और ग्रामीण पृष्ठभूमि से इतना ज्यादा प्रभावित
हुए थे कि उन्होंने आगे चल कर नया दौर
बनाई थी। यों तो कई समीक्षकों ने इसे सराहा।
लेकिन सबसे बढ़िया कमेंट राजकपूर ने दिया था - काश! मैंने इस फिल्म को बनाया होता!
(लेखक जाने माने फिल्म विशेषज्ञ हैं।)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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