कमाल अमरोही के
सहायक बाकर अली ने
मीना कुमारी के मुंह पर उस दिन तमाचा क्यों मारा?
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–116
महल 1949 बेकली और तड़प की फ़िल्म
महल के सातों गीत एक से बढ़ कर एक थे और अमिट
हैं:
1) आएगा आनेवाला (लता मंगेशकर)
2) छुन छुन घुघरवा बाजे (राज कुमारी और
ज़ोहराबाई अंबालेवाली)
3) घबरा के जो हम सिर को टकराएं (राज कुमारी)
4) दिल ने फिर याद किया (लता मंगेशकर)
5) मैं वो हंसी हूं लब पे जो आने से रह गई (राज
कुमारी)
6) एक तीर चला दिल पे लगा (राज कुमारी)
7) मुश्किल है बहुत मुश्किल (लता मंगेशकर)
पर फ़िल्म की पहचान है पहला गीत आएगा, आएगा, आने वाला आएगा:
ख़ामोश है ज़माना-चुपचाप हैं सितारे
आराम से है दुनिया -बेकल हैं दिल के मारे
ऐसे में कोई आहट -इस तरह आ रही है
जैसे कि चल रहा है -मन में कोई हमारे
या दिल धड़क रहा है -इक आस के सहारे
जैसे कि चल रहा है -मन में कोई हमारे
या दिल धड़क रहा है -इक आस के सहारे
आएगा, आएगा, आएगा, आएगा, आएगा, आनेवाला ... आएगा, आएगा आनेवाला
आएगा, आएगा, आएगा, आएगा आनेवाला, आएगा, आएगा, आएगा
दीपक बग़ैर कैसे - परवाने जल रहे हैं
दीपक बग़ैर कैसे – परवाने जल रहे हैं
कोई नहीं चलाता - और तीर चल रहे हैं
कोई नहीं चलाता - और तीर चल रहे हैं
तड़पेगा कोई कब तक बे-आस बे-सहारे
तड़पेगा कोई कब तक बे-आस बे-सहारे
दीपक बग़ैर कैसे – परवाने जल रहे हैं
कोई नहीं चलाता - और तीर चल रहे हैं
कोई नहीं चलाता - और तीर चल रहे हैं
तड़पेगा कोई कब तक बे-आस बे-सहारे
तड़पेगा कोई कब तक बे-आस बे-सहारे
महल पर विस्तार से लिखने
से पहले मैं इस गीत के और उसके गीतकार नक़्शब जारचावी के बारे में कुछ पंक्तियां लिख
रहा हूं:
सन 1955 में संगीतकार
नाशाद के बुलावे पर वह पाकिस्तान चले गए थे। वहीं कराची शहर में सन् 1967 को कुल बयालीस
साल की उम्र में उनका देहांत हुआ।
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हिन्दी वालों ने क्या,
पूरे भारत ने, सन् 1949 से पहले महल जैसी कोई रहस्यपूर्ण फ़िल्म नहीं देखी थी। आएगा, आनेवाला आएगा
गीत की जो बेकली है, दीपक बग़ैर परवानों की जो जलन है, जो तड़प है – फ़िल्म में
नायक शंकर (अशोक कुमार) की बेकली, जलन और तड़प बन जाती है और उसकी सताई पत्नी रंजना की भी - यहां तक कि रंजना आत्महत्या करने को विवश हो जाती है।
गहरी काली अंधेरी तूफ़ानी रात...कानपुर के जज ने हाल ही में इलाहाबाद में यमुना के तट पर संगम भवन नाम का बड़ा भवन ख़रीदा है। उसे देखने उन का बेटा शंकर पहली बार आया है। पहुंचते पहुंचते तूफ़ान आ गया है। नौकर चाकर के नाम पर घर में बस एक माली है। माली ने दरवाज़ा खोला और नए मालिक को भीतर ले चला। भवन क्या है पूरा महल है। हर आवाज़ गूंज कर बड़ी हो जाती है।
गहरी काली अंधेरी तूफ़ानी रात...कानपुर के जज ने हाल ही में इलाहाबाद में यमुना के तट पर संगम भवन नाम का बड़ा भवन ख़रीदा है। उसे देखने उन का बेटा शंकर पहली बार आया है। पहुंचते पहुंचते तूफ़ान आ गया है। नौकर चाकर के नाम पर घर में बस एक माली है। माली ने दरवाज़ा खोला और नए मालिक को भीतर ले चला। भवन क्या है पूरा महल है। हर आवाज़ गूंज कर बड़ी हो जाती है।
चलते चलते माली नए मालिक
को भवन की कहानी सुना रहा है:
“चालीस साल पहले की बात
है। एक आदमी ने यह बनवाना शुरू किया था। हर रात किश्ती खेता वह भवन बनता देखने
आता। पूरा बन गया तो एक रात अपनी प्रेमिका को यहां ले आया। प्रेमिका कामिनी बला की
ख़ूबसूरत थी। वह आदमी हर रात किश्ती खेता आता और सुबह से पहले लौट जाता। आज की रात
जैसी ही एक भयानक तूफ़ानी रात किश्ती के साथ वह आदमी डूब गया। ग़म की मारी कामिनी
बिरहा में जलती रही और एक रात यमुना मेँ डूब मरी।”
दुखभरी कहानी सुनकर उदास शंकर इलाहाबाद के अपने
दोस्त श्रीनाथ से मिलने को उतावला हो गया। परचे पर उस का नाम पता लिख कर माली को
पकड़ाया और कहा, “अभी तुरंत जाओ और
ख़बर दो कि उनका दोस्त संगम भवन पहुंच गया है।”
माली के जाने के बाद शंकर महल में इधर उधर घूमने
लगा। एक दरवाज़ा पार किया ही था कि जाने कैसे कहीँ ऊपर से एक बड़ी सी पेंटिंग
धड़ाम से नीचे आ गिरी। शंकर बाल बाल बचा। उसे चौंकाने के लिए इतना ही काफ़ी नहीं
था। पास से देखा तो शंकर कांप ही गया।
तभी दो बज गए। दो के घंटे बजे और कहीँ से किसी के
गाने की आवाज़ आने लगी: आएगा, आनेवाला आएगा। आवाज़ टोहता हैरान सा शंकर इधर
से उधर भटकने लगा। कभी वह झूले पर झूलती दिखती! शंकर वहां के पहुंचता तो ग़ायब हो जाती!
एक बिल्ली रास्ता काट गई। शंकर सहमा। झूले वाली वह किश्ती खे रही है। कभी वह गा
रही है दीपक बग़ैर कैसे -परवाने जल रहे हैं तो कभी कोई नहीं चलाता - और तीर चल रहे
हैं। उसकी आवाज़ की तड़प अब शंकर की तड़प बन चुकी है। अभी वह महल के गुंबज में थी
कि कूद कर कहीं खो गई।
तभी शंकर को दोस्त श्रीनाथ (कनु राय) आ गया।
हैरान शंकर ने माली की कहानी दोहराई। फिर वह तस्वीर दिखाई जिस में हूबहू वह ख़ुद
है। उस गाने वाली का क़िस्सा सुनाया जो हर बार ग़ायब हो गई थी। श्रीनाथ ठहरा
स्थिरचित्त यथार्थवादी ठोस सत्य पर भरोसा करने वाला वकील। उसके लिए यह सब शंकर की
ख़ामख़्याली है, भ्रमित मन की उड़ान है। लेकिन शंकर
है कि श्रीनाथ उसकी एक सुनने को तैयार नहीं है। शंकर के मन में यह बात जम गई है वह
ही उसी रहस्यमय आदमी का पुनर्जन्म है, और अब उसे अपने पूर्वजन्म की प्रेमिका से
मिलना ही होगा। एक बार तो कामिनी ने शंकर से कहा भी था, “जाने
कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूं।”
शंकर पर जुनून सवार हो गया। हर रात दो बजे उसे
वही गीत सुनाई देता: आएगा, आनेवाला आएगा। श्रीनाथ अपने दोस्त को इस तिलिस्म
के फेर से उबारना चाहता है। शायद शंकर को नारी संग चाहिए!
तो उसने शंकर को दो नाचने वालियों के पास भेज दिया। उन्हें समझा भी दिया कि उनका
काम शंकर को होश में लाना है। पर यह जुगत बेकार जाती है। रात के दो बजते हैं। शंकर
वहीं से संगम भवन पहुंच जाता है।
कभी हम देखते हैं कि वह आकृति शंकर को महल के
गुप्त रास्तों पर ले जा रही है। कामिनी ने उसे विश्वास दिला दिया है कि वही उसके
पिछले जन्म का प्रेमी है। उस प्रेमी की मृत्यु बाढ़ में डूबने की वज़ह से स्वाभाविक
थी। वह मर गया था। अब उसका पुनर्जन्म तुम्हारे रूप में हुआ है। “मैंने डूब कर आत्महत्या की थी इसलिए मैं अभी तक
भटक रही हूं। इस जीवन में हम कभी मिल नहीं सकेंगे।”
शंकर निराश हो गया। कामिनी ने बताया एक राह है। “मैं
किसी औरत की हत्या कर दूं तो मेरी रूह उसकी देह में समा जाएगी और हमारा मिलन हो
सकता है।” शंकर को कामिनी का हर कहा मंज़ूर है।
माली की बेटी आशा को शंकर ने कई बार देखा है। पर
उसके चेहरे पर हमेशा लंबा घूंघट पड़ा रहता है। कामिनी ने कहा, “अगली
सुबह वह चाय लाए तो उस का घूंघट उघाड़ कर देखना, वह तुम्हें पसंद आई
तो मैं उसे मार कर उसी में समा जाऊंगी!”
पर इसका मौक़ा आया ही नहीं। शंकर आशा का घूंघट उघाड़ने
ही वाला है कि ग़ुस्से से उबलते शंकर के पिता को लेकर श्रीनाथ आ धमका। संगम भवन
छोड़ने को शंकर तैयार नहीं है। बच कर भागता है, सीढ़ियों से गिर कर घायल होता है,
श्रीनाथ और पिता ज़बरन उसे कानपुर ले जाते हैं।
पिताजी उसे समझाते हैं, पागलपन से उबारने की
कोशिश करते हैं, याद दिलाते हैं, “तुम्हारा रिश्ता पहले से तय है, सगाई हो चुकी है।
उसे दग़ा कैसे दे सकते हो? शादी होगी ही!” तमाम बहस से मज़बूर
शंकर पिस्तौल तानता है, पर गोलियां अपनी तस्वीर पर दागता है। गोलियां तस्वीर का
सीना चीर देती हैं। एक तरह से यह उस की आत्महत्या का प्रतीक है।
मंगेतर रंजना (विजयलक्ष्मी) से शादी होती है। घूंघट
में दबी दुबकी पत्नी को शंकर सुखी जीवन का भरोसा दिलाता है। दुल्हन ने उसकी
शेरवानी से गुलाब का फूल निकाल लिया। शंकर शरमाया सा झिझक रहा है। रंजना का हाथ
थामता है, सहलाता है। लगता है रंजना ने शंकर के मन से रहस्यमयी कामिनी की याद
निकाल दी है। शंकर कामिनी का घूंघट उठाने को है कि दो बज गए! शंकर को वही सुरीली
आवाज़ सुनाई पड़ रही है - ‘आएगा, आनेवाला आएगा’।
अब कुछ भी, कोई भी, किसी भी तरह शंकर को रोक नहीं
सकता। पहले तो वह संगम भवन जाने की कोशिश करता है। चिड़िया के पिंजरे से टकरा कर
होश में आता है। कहीं गहरे उसे पता है कि अब वह विवाहित है। घर से, संगम भवन से,
कामिनी के जुनून से दूर भाग जाना चाहता है। सच में वह अपने से बच निकलना चाहता है।
रंजना को भी छोड़ नहीं सकता। अब रंजना उस के साथ है। उसे लिए वह बड़ी दूर पहाड़ों
में, समाज से दूर बियाबानों में ज़िंदगी से दूर भाग रहा है। बड़ी अजीब जगहें हैं
ये। न कोई रहने का ठिकाना है, न कोई अपना या पराया है।
बेचारी रंजना का बुरा हाल है। उस पर तो मुसीबतों का
पहाड़ टूट पड़ा है। अभी तक उस ने अपना घूंघट नहीं उतारा है। “यह
उतारेंगे, तभी उतरेगा,” उस ने अपनी भाभी को ख़त में लिखा। अब ख़तों के
ज़रिए ही वह अपने दुखड़े रो सकती है। घर बार से, अपने और ससुराल के लोगों से बिछड़
कर भटक रही है। शंकर भी भटक ही रहा है। किसी को चैन नहीं है। पति पत्नी बेकल हैं।
बेआस हैं, बेसहारा हैं। यह जो भटकाव है, आवारगी है उस ‘आएगा,
आनेवाला आएगा’ की ही बदौलत है।
रंजना ने क़सम खा ली है कि वह अपने पति के गुप्त
रहस्य से परदा उठा कर रहेगी। क्या है जो उसे सता रहा है। कोसों दूर होने पर भी
संगम भवन उस पर क्यों सवार है। यहां वहां क्या कुछ भयानक और डरावना गुजरा दोनों पर
यह बताते रहने में एक पूरी किताब लगेगी।
संक्षेप में –बाद में वापस कानपुर-इलाहाबाद में पति
से बदला लेने के लिए रंजना ने ज़हर खा लिया और थाने में शिकायत कर दी कि ज़हर पति
ने दिया है। इस झूठ पर पछताई तो एक लंबी चिट्ठी लिख कर डाकबंबे में डाल दी जिस में
उस ने सब कुछ साफ़ कर दिया। रंजना की हत्या के मामले में शंकर पकड़ा गया। अदालत के
सामने माली की बेटी आशा ने संगम भवन की घटनाओं में अपनी भूमिका पर प्रकाश डाला,
बताया कि शंकर को देखते ही वह उसे चाहने लगी थी और भटका रही थी। बचाव पक्ष के वकील
के तौर पर श्रीनाथ की कोई दलील काम नहीं आई। हत्या के मामले में शंकर को फांसी की
सज़ा हुई। शंकर को फांसी लगने वाली है।
रंजना की चिट्ठी अदालत तक आ पहुंची। फांसी लगने
ही वाली है कि हाई कोर्ट के हरकारे समय पर पहुंच गए, शंकर को टिकटी से उतार लिया
गया। पर आशा की शादी हो चुकी है।
-
दायरा
1953 [अपने समय से बहुत पहले बनी पहेली फ़िल्म]
महल के बाद दिल्ली में हम
सब उतावले थे कमाल अमरोही की नई फ़िल्म दायरा देखने को।
दायरा के दृश्य |
महल के चार साल बीत चुके
हैं। क्या कमाल दिखाएगा इस बार अमरोही? नामावली शुरू होने से पहले परदे पर बड़ी सी परकार से
दायरा खींच रही है एक लड़की। लिखा है: “किसका हाथ बनाता है दायरा और कौन है यह?
यह है अपने सही समय से
बहुत पहले बनी कई प्रतीकों से भरी पहेली फ़िल्म - दायरा।
-कौन हैं, क्या हैं, लकड़ी
के लंबे से लट्ठे को चीरते रहते दो बढ़ई? उम्र, बुढ़ापा, वक़्त, तक़दीर?
-क्या है - मंदिर में बार
बार बजता गीत देवता तुम हो मेरा सहारा– नियति के दायरे में घिरे लोगों की असहायता का दायरा है या
उसे तोड़ कर परली पार जाने की अभिलाषा?
-क्या है - खुले आसमान
के नीचे पलंग पर बीमार सी लेटी युवती पर फूलों की बेल की टहनियों का झुकना, उठना,
लहराना। उन में छिपी कोमल अव्यक्त आकांक्षाएं...
-क्या है - काग़ज़ पर
लिखी प्रेम कविता का यहां से वहां उड़ना, लिखित प्रेम संदेश का पढ़ेजाना और
अनुत्तरित रह जाना...मंदिर का चक्कर लगा कर उस का फिर लौट आना... फड़फड़ाना, कांपना,
कंपकंपाना...
क्या है यह सब, और यह क्या
कह रहा है?
-
सन 1953 के बाद बरास्ता
1963 से 1978 तक माधुरी के संपादन के अनुभव और उससे अलग होने के चालीसेक साल बाद सिने
उद्योग में आए परिवर्तन देखने के बाद मैं कहना चाहता हूँ कि दायरा समय से बहुत
पहले बन गई थी। एकल सिनेमाओं के उस युग में माइनरिटी दर्शकों के लिए आज की तरह के मल्टीप्लैक्स
कल्पनातीत थे। दायरा 1973 में बनती तो भी उसके लिए दर्शक वर्ग था – जो मणि कौल की उसकी
रोटी जैसी मद्धम गति की मूवी को सफल बना सकता था। उस दर्शक वर्ग के लोग और फ़िल्म
समीक्षक दायरा को समर्थन दे सकते थे। दायरा के जैसा कैमरा वर्क 1973 में और आजकल
2018-19 में सराहा जा सकता है। सराहा तो वह तब भी गया था – पर माइनरिटी दर्शकों के
लिए सिनेमाघर तब थे नहीं।
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गहरी रात है। तांगे से
उतर कर लड़खड़ाता चिंतित बेचैन बूढ़ा (नाना पल्सीकर) किवाड़ खटखटाता भड़भड़ाता है।
वह डॉक्टर साहब से मिलना चाहता है। डॉक्टर साहब बाहर गए हैं, दो दिन बाद लौटेंगे।
अजनबी शहर में वह कहां सिर छिपाए? डॉक्टर साहब के नौकर ने सुझाया –उधर उस हवेली की मालकिन
छत पर एक कमरा दे सकती है। तांगा वहां पहुंचा। दरबान ने मना कर दिया। बूढ़ा
परेशान। हम एक झलक देखते हैं – तांगे की पिछली सीट पर ‘कोई’ बैठी है। भीतर से बूढ़ी
मालकिन (प्रतिमा देवी) ने हवेली की परली छत उन्हें दे दी।
पौ फटे उरली छत...नौजवान
शरण (नासिर ख़ां) आंखें मलता उठता है। परली छत पर सोई सी लड़की शीतल (मीना कुमारी)
को देखता रह जाता है। उठता है, सिगरेट जलाता है, देखता रहता है। हवेली में नीचे
उतरता है। माँ से मिलता है, घर की निजी बग्घी से एग्ज़ामिनेशन हाल जाता है। विद्यार्थी
इम्तहान में मिले परचे के जवाब कापियों में लिख रहे हैं। लेकिन इस की आंखों में ‘वह’ समाई है - छत पर लेटी लड़की।
वह अपनी आंसर शीट पर एक भी शब्द नहीं लिख पाता। परचा समाप्त होने की घंटी बजती है।
चपरासी उस की शीट खींच कर चला जाता है।
![]() |
अरविंद कुमार |
इस तरह हम फ़िल्म के सभी
प्रमुख पात्रों में मिल चुके हैं। बाद में एक और पात्र मिलेगा - शीतल के पास वाले
घर की छत से जब तब बात करने वाली और ज़रूरत पड़े तो बीच की दीवार फांद कर आ जाने
वाली गोमती (रूपमाला)। अंत समय में वही होती है शीतल के साथ।
बूढ़े के साथ वाली लड़की
‘उस’ की क्या है? हम जानते हैं वह बूढ़े
की पत्नी है, गोमती भी जान जाती है कि शीतल बूढ़े की पतिव्रता है। हवेली की मालकिन
और उस का बेटा उसे बूढ़े की बेटी समझते हैं। मालकिन जान जाती है बेटे शरण के दिल
की बात। वह दोनों की शादी की बात ‘उस’ के पिता से चलाती है। अचानक बूढ़े को भान होता है कि उस
के बाद शीतल का क्या होगा। अब चाहता है कि ‘उस’ की शादी करा दे। यह उसकी
अपनी मौत के बाद ही मुमकिन है। अतः वह रेल दुर्घटना का बहाना बना कर अपने को मृत
घोषित कर देता है। सब चाहते हैं कि शरण और शीतल की शादी हो जाए। कोई नहीं जानना
चाहता कि शीतल क्या चाहती है।
फ़िल्म के अंत में हम
देखते हैं शरण और शीतल की शादी का जश्न, दूसरी तरफ़ मौत की नींद सोई शीतल।
वास्तविकता क्या है – कोई नहीं जानता। यही थी समय से बहुत पहले बनी
पहेली - दायरा।
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पाकीज़ा बारहबानी सोना थी बड़े बड़े सैटों वाली भावप्रवण फिल्म
तवायफ़ कहो या वेश्या - हिन्दी
फ़िल्मों में आकर्षण का विषय रही हैं। देवदास की चंद्रमुखी (बरुआ की चंद्रवती,
बिमल रॉय की वैजयंती माला, संजय लीला भंसाली की माधुरी दीक्षित, सोहराब मोदी की मिर्ज़ा
गालिब की मोती बेगम (चौदहवीं) सुरैया, केदार शर्मा की पुरानी चित्रलेखा की महताब
और नई की मीना कुमारी, लेख टंडन की आम्रपाली की वैजयंती माला, शक्ति सामंत के अमर
प्रेम की पुष्पा शर्मिला टैगोर, मुज़फ़्फ़र अली की उमराव जान की रेखा और जे.पी. दत्ता की उमराव
जान ऐश्वर्या राय बच्चन से बिल्कुल अलग हैं - कमाल अमरोही की पाकीज़ा की मां नरगिस (मीना कुमारी) और बेटी साहिबजान
(मीना कुमारी)।
कहानी किसी भी फ़िल्म की बुनियाद होती है। ऊपर गिनाई गई
फ़िल्मों की भी है। लेकिन असली परख होती है उस बुनियाद पर खड़ी इमारत से, उसके मूड
से। फ़िल्म की माउंटिंग, सैटिंग से जिसे इंग्लिश में Mis-en-scene (मिज़-ऐं-सीन) कहते हैं। उसके रंग-ढंग, टोन, आवाज़,
संगीत, वेशभूषा, कैमरा वर्ग, प्रकाश व्यवस्था से।
कुछ है जो पाकीज़ा के मूड को दीगर हिन्दी फ़िल्मों के मूड
से जुदा करता है। जिस तरह वह माउंट की गई है वह मुग़ले आज़म जैसी एपिक फ़िल्मों
जैसा है – विशाल, भव्य, स्पैक्टेक्यूलर, अद्भुत होने के साथ साथ मानव की गहनतम
भावनाओं को छूने वाला। पाकीज़ा कहानी है तवायफ़ मां नरगिस (मीना कुमारी) और तवायफ़
बेटी साहिबजान (मीना कुमारी) की। शहर लखनऊ के कोठों में है एक नरगिस। हर तवायफ़ की
तरह उसके लिए भी इश्क़ करना मना है। वह नाचने वाली है, किसी के घर की शोभा नहीं बन
सकती। लेकिन कोई है जो उसके साथ घर बसाना चाहता है और वह उसी के साथ बस जाना चाहती
है। यह है शहर लखनऊ की कमाल अमरोही की पाकीज़ा। उस
के साथ घर बसाना चाहता है नवाब शहाबुद्दीन (अशोक कुमार)।
शहाबुद्दीन ले गया उसे अपने नवाबी
घर। यह जो घर है सिनेमा के परदे पर मर्द औरतों से भरा पूरा एक क़ुनबा, एक पूरा
माहौल, है। क़ुनबे के सदर शहाबुद्दीन के पिता को बेटे से नरगिस का रिश्ता मंज़ूर
नहीं है। हवेली से निकल कर अपमानित नरगिस ने पालकी वाले से कहा, “मुझे क़ब्रिस्तान तक छोड़ दो।” वहीं वह बस गई। दीन दुनिया के रस्मोरिवाज से दूर, अकेली, बेसहारा।
यहीं उस की बच्ची का जन्म हुआ, यहीं बीते उस के जीवन के आख़िरी दस महीने। नरगिस की
बुरी ख़बर मिली तो बड़ी बहन नवाबजान (वीना) बच्ची को ले गई।
सतरह साल बीत गए। ग़मज़दा
शहाबुद्दीन को मिला एक ख़त। मरने से पहले यह ख़त लिखा था नरगिस ने, पर भेज नहीं
पाई थी। उस के टूटेफूटे संदूक़ में किसी किताब में रखा था। संदूक़ कबाड़ी बाज़ार
पहुंचा, तो किसी भले मानस को मिला, उसने शहाबुद्दीन के पास भेज दिया। पता लगाता
शहाबुद्दीन पहुंचा नवाबजान के कोठे पर। सतरह साल की साहिबजान (नरगिस) बिल्कुल अपनी
मां पर गई है। उस का मुजरा चल रहा है। नवाबजान ने कहा –“कल आना!”
और रातोंरात आशियाना छोड़ रवाना हो
गई रेलगाड़ी से। निचली बर्थ पर साहिब सोई है, ऊपरवाली पर ख़ाला नवाब। रास्ते के
किसी स्टेशन पर एक नौजवान चढ़ा। डिब्बा जनाना था, पर गाड़ी चल पड़ी थी। मज़बूरन
अगले स्टेशन तक वहीं रुका रहा। साहिबजान का महावर से लाल तलवा और मेहंदी से रचा
पैर देख कर दिलफेंक नौजवान मुग्ध हो गया। अपने को रोक न पाया, एक रुक्का लिखा- “आप के पांव देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा,
मैले हो जाएंगे।” रुक्का साहिब की खुली किताब में
रखा और उस में से बहुरंगी पंख ले लिया। स्टेशन आ रहा था, उतर गया। साहिबजान के
जागने तक वह जा चुका था। वह उस का रुक्का देर तक पढ़ती रही।
[फ़िल्म
देखते समय, और अब भी, मुझे याद आई कमाल अमरोही के गुरु सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘पृथ्वीवल्लभ’ (1953) (कहानी कन्हैयालाल मुंशी,
संवाद लेखक पंडित सुदर्शन)। उज्जैन का राजा मुंज (सोहराब मोदी) तैलप की क़ैद में है। राजकुमारी हीरोइन मृणालवती
(दुर्गा खोटे) उसे ठोकर मारती है। मुंज कहता है, “आहिस्ता! आप के नाज़ुक पैर में मोच आ जाएगी!” मुझे अभी तक याद है ‘पृथ्वीवल्लभ’ की लोकप्रियता। मेरठ में एक पागल घूमा करता था, कहता रहता, “मैं पृथ्वीवल्लभ हूं!” वह
फ़िल्म मैं ने बाद मॆं दिल्ली में सुबह की शो में दो बार देखी थी। ‘तैलप की नगरी में गाना नहीं है,
बजाना नहीं है’– उसका एक गीत था।]
नवाबजान ने बड़ी हवेली ख़रीदी।
शामों के गौहरजान (नादिरा) की देखरेख में साहिबजान के मुजरों की महफ़िल जमती।
रातों में दूर मैदान के पार कोई ट्रेन गुज़रती तो साहिबजान को याद आता वह दीवाना जिसने
वह रुक्का लिखा होगा। सोचती - वह कौन था, कैसा होगा।
अकसर महफ़िल में होता एक नवाब (कमल
कपूर)। गौहर ने उसे चुन लिया है साहिबजान के लिए। नवाब साहब ने अपने बजरे पर मुजरा
रखा। अचानक गुस्साए हाथियों ने बजरे पर हल्ला बोल दिया। नवाब साहब मारे गए। बहती साहिबजान
कहीं किनारे लगी। वहां एक तंबू लगा है। तंबू में जो ठहरा है वह आसपास कहीं नहीं
है। किसी ने बताया, अकसर साहब जंगलों में घूमघाम कर
दो तीन दिन में आते हैं। इधर उधर टहलती साहिबजान तंबू में गई। बिस्तर बिछा था। इधर
उधर देखा। तंबू वाले की डायरी के फड़फड़ाते पन्नों में वह रंगीन पंख भी रखा था जो
रेल के डिब्बे में साहिबा की किताब में लगा था। तअज्जुब की मारी वह पन्ने पलटने
लगी। यह क्या! डायरी में रेल के डिब्बे में लेटी
साहिबा के बारे में भी लिखा था, और लिखने वाले ने लिखा था-‘वह हसीना मेरे दिल से उतरती नहीँ!’
साहिबा के जीवन में पहली बार
रोमांस ने जन्म लिया। सारा मौसम उसे आशिक़ाना लगने लगा। वह उस का इंतज़ार कर रही
है - वह कौन है, कैसा है।
और अचानक घोड़े पर सवार वह लिखने
वाला भी आ गया। वह आशिक़ जिस के बारे में वह सोचा करती थी। वह है घोड़े पर सवार
फ़ौरेस्ट रेंजर फबीला जवान सलीम (राज कुमार)। किसी भी लड़की के सपनों का राजकुमार।
दोनों मिले। प्यार की दोचार घड़ी बीतीं। पर साहिब ने याददाश्त खो जाने का बहाना कर
के अपना नाम धाम कामकुछ नहीं बताया। सांझ ढलने से पहले खोजी दस्ता साथ लिए नवाबजान
आ पहुंची। साहिब को ले तो गई पर साहिब दिल में सलीम को बसा कर ले गई। उसकी ज़िंदगी
में प्रेम का बिरवा जम गया था। साहिब का कोठा फिर आबाद हो गया। बार बार साहिब को
याद आते उस तंबू में गुज़ारे पल।
और कभी एक बार फिर मिले साहिब और
सलीम – बीच बाज़ार। भीड़ इकट्ठा हो गई। अब दोनों एक दूसरे से पूरी तरह वाकिफ़ हैं।
साहिब को ले कर वह पहुंचा अपने घर।
यह वही घर है जहां बरसों पहले शहाबुद्दीन
ले गया था नरगिस को। जिन हकीम साहब ने नरगिस और शहाबुद्दीन का रिश्ता नामंज़ूर कर
दिया था वही इस बार भी अड़े हैं। सलीम के चचा शहाबुद्दीन भी मौजूद हैं। हकीम साहब
को इस अनजान बेनाम हसीना के साथ सलीम का रिश्ता नामंज़ूर कर दिया। सलीम ने घर छोड़
दिया, साथ ले चला साहिबजान को। जहां भी वे जाते साहिबा पहचानी जाती। दंगे फ़साद की
नौबत आ जाती। भीड़ के पूछने पर एक जगह सलीम ने उसका नाम बताया –‘पाकीज़ा’ और बाक़ायदा निकाह करने लगा। सताई
साहिबा उसे छोड़ कर फिर अपने कोठे पर पहुंच गई।
शिकिस्तादिल सलीम शादी के लिए
तैयार हो गया। खुन्नस में आकर उसने साहिबजान को ही शादी की एक दावत में मुजरे के
लिए बुलवाया– वह राज़ी हो गई। मुजरा हो रहा है। यह एक तरह से फ़िल्म का क्लाईमैक्स
है। साहिब नाच रही है। थक गई है। कांच के गिलास टूट जाते हैं। कांच के टुकड़े
फ़र्श पर बिखर गए हैं। साहिब नाच रही है। तलवे लहूलुहान हो गए हैं। साहिब नाच रही
है। ख़ास घरवालों में है शहाबुद्दीन। नवाबजान ने पहचान लिया। बुलंद आवाज़ में
बोली, “शहाबुद्दीन, देख, अपनी बेटी का जलवा देख!”
शहाबुद्दीन के अब्बा ने नवाबजान पर
जो गोली चलाई वह लगी शहाबुद्दीन को। सन्नाटा छा गया। मरते मरते शहाबुद्दीन ने सलीम
से कहा, “मेरी बेटी को अपनी बना ले, सलीम।
बारात। डोली में है सलीम। सब की
अनसुनी करते सलीम ने डोली का रुख़ साहिबजान के कोठे की तरफ़ कर दिया।
मीना कुमारी और कमाल अमरोही पाकीजा के सेट पर |
-अंत में - मीना और कमाल
जहां तक मीना कुमारी का
सवाल है कमाल ने उन्हें लेकर कुल दो फ़िल्में बनाईं। ‘ज़्यादा क्यों नहीं?’ का एक जवाब यह हो सकता
है कि मीना कुमारी चमचमाते हीरों की खदान बन गई थीं। कमाल ख़ुद दूसरों की फ़िल्म
लिखता रहा और अपने सहायक बाक़र अली को लगा दिया पूरे दिन मीना पर नज़र रखने के लिए
- और साथ-साथ प्रोड्यूसरों से पैसे वसूलने के लिए। यह वही बाक़र अली है जिस ने 5 मार्च
1964 को ‘पिंजरे के पंछी’ फ़िल्म के मुहूरत पर सबके सामने मीना
के मुंह पर तमाचा जड़ दिया था और पट पट आंसू बहाती, रोती, बिसूरती मीना ने खुलेआम
कहा था, “कमाल साहब से कह देना आज मैं घर नहीं आऊंगी!” मतलब यह कमाल का पूरा
तंत्र सफल अभिनेत्री मीना के एजेंट का काम कर रहा था और मीना को भुनाने पर लगा था।
‘पाकीज़ा’ बनाने की बारी आई तो
मीना को फिर से मना कर कमाल महल में बुला लिया गया। पर वहां भी कमाल “तलाक़ तलाक़ तलाक़” कहने से नहीं चूका।
अफ़वाह यह थी कि पछतावा होने पर अपने भरोसे के बाक़र अली से उनका निकाह करा दिया।
मीना ने उसके साथ ‘हलाला’ करने से इनकार कर दिया। कहा नहीं जा सकता कि अंत में मीना ब्याहता थीं या
नहीं। मैंने कमाल परिवार की तरफ़ से प्रचारित ऐसी बातें देखी हैं कि पूरे प्रकरण
को सम्मानजनक बनाने के इरादे से हलाला के लिए मीना का निकाह एक अभिनेत्री के पिता
के साथ कराया गया था जो कमाल का दोस्त था। मीना ने उसके साथ ‘हलाला’ किया और एक बार फिर
कमाल की पत्नी बन गईं।’
किन हालात में आदमी कब
क्या करता है – इसका असर उस आदमी के काम की समीक्षा पर नहीं पड़ना चाहिए।
निस्संदेह कमाल अमरोही शीर्ष व्यक्ति थे। हिन्दी फ़िल्म इतिहास में ‘महल’ और ‘पाकीज़ा’ जैसी फ़िल्म बनाने के
लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
अत्यधिक शराब पीने से जिगर
की रोगी मीना अंतिम समय मेरे घर की सड़क नेपियन सी रोड के अंत में एलिज़ाबेथ
नर्सिंग होम में थीं। वह सुन्नी थीं या शिया – मृत्यु पर इस पर भी विवाद हुआ था।
दफ़न की रसम के लिए यह जानना ज़रूरी समझा गया था। मुझे याद है देर रात, शायद दो
बजे तक, ग़मज़दा भीड़ के साथ मैं भी कमाल
महल के बाहर खड़ा था। तब बहस चल रही थी, क़ानूनी दस्तावेज तलाशे जा रहे थे...।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार
की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना
जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
बहुत ही दुखद कहानी थी, मीना कुमारी की
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