जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–117
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ओम प्रकाश |
फ़तेह दीन लाहौर के ऑल इंडिया रेडियो पर बहुत लोकप्रिय था। अपना
प्रोग्राम लिखता भी था, बोलता भी था, एक्टिंग भी करता था, गाता भी था। हर महीने
तनख़्वाह मिलती थी चालीस रुपए। बहुत बहुत बाद में वह बंबई में एक्टर, प्रोड्यूसर,
डायरेक्टर बना। चरित्र अभिनेता के रूप में इतना लोकप्रिय हुआ कि गोपी नाम की
फ़िल्म में दिलीप कुमार का बड़ा भाई बनने के लिए दिलीप के ही जितने पैसे मांगने पर
अड़ गया और लिये भी।
फ़तेह दीन तो उसका नाम रेडियो पर था। जन्म का नाम था ओम प्रकाश
छिब्बर। उसका जन्म सन् 1919 की 19 दिसंबर को लाहौर में हुआ था। पिता बड़े किसान
थे। लाहौर और जम्मू में उनके बंगले थे। तो वह कभी लाहौर रहता कभी जम्मू। जम्मू का
दीवान मंदिर नाटक समाज कोलीवाड़ा अब भी मशहूर है। वहां की रामलीला के पिछले कुछ
साल पहले अभिनेता वक़ार को गर्व था कि कभी यहां कमला नाटक का कलाकार ओम प्रकाश बॉलीवुड
में चमका, दमका।
ओम प्रकाश बचपन से ही ज़िद्दी था और अड़ियल भी। अपनी इज़्ज़त उसे जान
से भी प्यारी थी। अपने फ़ैसले इस भी ज़्यादा प्यारे थे। एक दिन स्कूल से लौटा तो
फिर नहीं गया। तीन साल तक जम्मू में मज़े उड़ाए, फिर लाहौर में बिज़नेस का ख़्याल
आया। ड्राई क्लीनिंग की दुकान ख़रीदी सोलह हज़ार रुपए लगा कर। नहीं चला पाया क्योंकि
मन नहीं लगता था। सात हज़ार में बेच दी। शास्त्रीय संगीत का शौक़ चर्राया, मन लगा
कर सीखा। यह शौक़ अंत तक उसे रहा। माधुरी के मुखपृष्ठ की फ़ोटो के लिए उसने ज़िद
की कि तबला बजाता पोज़ देगा – क्योंकि इसी में उसका चरित्र उभरेगा। सिर पर बाँकी
अदा से रखा टोप, मुस्कराते चेहरे पर आत्मविश्वास। माधुरी के फ़ोटोग्राफ़र को इसे
बेहतर पोज़ और कहां मिल सकता था!
फ़िल्म कैरियर के बारे में ओम प्रकाश ने कहीं कहा है, “मैं एक दोस्त की
शादी की पार्टी में था, नाच रहा था, हंस रहा था, मज़े कर रहा था कि लाहौर के एक बड़े प्रोड्यूसर दलसुख पांचोली ने मुझे
देखा।”
दोस्त की शादी के बाद ओम प्रकाश जम्मू चला गया। वहां एक टेलीग्राम
मिला: “तुरंत आओ – पांचोली।” वह समझा किसी दोस्त ने मज़ाक़ किया है। चाचाओं और भाइयों ने समझाया - जाने
में हर्ज़ ही क्या है? लाहौर पहुंच कर टेलिफ़ोन किया तो पंचोली ने कहा, “मैं किसी ओम प्रकाश
को नहीं जानता!” ओम प्रकाश पर घड़ों पानी गिर गया। जो भी हो, कोई बात नहीं! पान की दुकान पर
प्राण मिले। प्राण ने उन्हें पंचोली के चीफ़ प्रोडक्शन मैनेजर राम नारायण दवे से
मिलवाया तो उसने फ़िल्म दासी (1944) के लिए उसे 80 रुपये महीना की तनख़्वाह पर रख लिया। वह कॉमिक विलेन था। जम्मू पहुंच
कर ओम को टेलीग्राम मिला कि आप की सेवाओं की अब और ज़रूरत नहीं है। तमाम उम्मीदों
पर पानी फिर गया। कुछ महीनों के बाद ओम लाहौर के प्लाजा सिनेमा में बार में
दोस्तों के साथ बैठा था। ओम को देख कर दवे हैरान। बोले,“तुम गायब क्यों हो
गए थे?”
अंत यह हुआ कि ओम को सैय्यद इम्तियाज अली की स्क्रिप्ट वाली धमकी में खलनायक का रोल मिल
गया। पंचोली जी को हर दिन की शूटिंग के रशेज़ देखते थे। एक बार देखकर बोले, “मुझे ओम प्रकाश पसंद
है, वो अच्छा एक्टर है।” उन्होंने ओम को 1000 रुपये का चैक दिया। ओम ने जम्मू में वह पिताजी के चरणों में रख दिया।
देश का विभाजन होने से पहले ही 1946
में दंगे शुरू हो गए और ख़बर मिली कि लाहौर
पाकिस्तान में रहेगा। ख़ूनख़राबे के बीच लाहौर रेलवे स्टेशन तक पहुंचने में एक
मुसलमान परिवार ने मदद की।
यह था ओम प्रकाश के जीवन का पहला चरण।
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बंबई में उन्हीं दिनों की एक घटना प्रेरणादायक है। विभाजन के तुरंत
बाद वाला समय था। लाखों की जेबें ख़ाली थीँ। कहा जाता है कि कई दिन से अच्छा खाना
न मिलने पर मरता क्या न करता भाव दिल में समा एऐल्फिंस्टन होटल में जा बैठे। शौक़
से पेट भर खाया। अंत में वहां के दस्तूर के हिसाब से वेटर ने ज़ोर से खाने का बिल
बताया – “16 रुपए!” ओम प्रकाश होटल के मालिक मेहरा के पास गए, पैसे उसी को देने थे। खुख्खल
ओम उस से बोले, “आप जो चाहें मुझ से करवा लें। मैं अच्छा ऐक्टर हूं, एक दिन सफल हो कर आऊंगा
बिल चुकाने।” दिन अच्छा था। मालिक ने उस की आंखों में कुछ देखा, कहा,“ठीक है, यही सही!” कुछ समय बाद
निर्देशक जयंत देसाई ने लखपति में खलनायक को रोल दिया और पेशगी में एक हज़ार रुपए
का बीअरर चैक भी दिया। चैक कैश करा कर वह सीधा होटल मालिक ख़ुशीराम मेहरा के पास
गया। मेहरा ने उसे पहचाना नहीँ। ख़ैर, ओम ने बिल चुकाया, टैक्सी में उसे लेकर
महंगे होटल ले जा कर लंच खिलाया।
1955 की दिलीप कुमार और मीना कुमारी वाली फ़िल्म आज़ाद में हैड कांस्टेबल
के रूप में ओम प्रकाश की निजी पहचान पहली बार बनी। अब तो उसने साबित कर दिया कि वह
दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर जैसे दिग्गजों के सामने टिक सकता है।
मुझे याद है 1958 की शक्ति सामंत की मज़ेदार हावड़ा ब्रिज में बरमा
में रहने वाले प्रेम कुमार (अशोक कुमार) को पता चलता है कि उसके बड़े भाई मदन (चमन
पुरी) का कलकत्ते में क़त्ल हो गया है। मदन परिवार की बेशक़ीमती धरोहर (नगीने जड़ा
ड्रेगन जैसा मुखौटा) चुरा कर भागा था और अपराधियों के सिंडिकेट का शिकार हो कर
मारा गया था। उस का शव हावड़ा ब्रिज से हुगली नदी में धकेल दिया गया था। प्रेम कुमार
की जासूसी की कोशिश में मददगार था तांगेवाला श्यामू (ओम प्रकाश)।
याद कीजिए पहली जनवरी 1963 को रिलीज़ हुई देव आनंद और नूतन वाली फ़िल्म
तेरे घर के सामने। ज़मीन का एक टुकड़ा नीलाम हो रहा है। दो ख़रीददार बोलियां लगा
रहे हैं - लाला जगन्नाथ (ओम प्रकाश) और सेठ करमचंद (हरींद्रनाथ)। एक ने ख़रीद लिया
आगे वाला प्लाट तो दूसरे को मिला पीछे वाला। कहानी थी ओम प्रकाश के बेटे राकेश
(देव आनंद) और हरींद्रनाथ की बेटी सुलेखा (नूतन) के प्रेम की।
ओम प्रकाश कभी कामेडियन बना, तो कभी मुसीबतज़दा गृहस्थ, कभी
अकाउनटैन्ट, कभी खलनायक की ज़्यादतियों से सताया नशेड़ी जो पुलिस को ख़बर देता
रहता है आने वाले अपराधों की, चालाक नेता, तो कभी छोटे भाई के लिए कुछ भी करने को
तैयार रहने वाला बड़ा भाई। यही बड़ा भाई था फ़िल्म गोपी में मूर्तिकार गिरधारी लाल
(ओम प्रकाश)। उसका छोटा भाई था गोपीराम (दिलीप कुमार)। खलनायक था गांव का धनी
क्रूर व्यापारी लाला (प्राण)। दोनों भाई एक दूसरे पर जान देते हैं। गोपी बहुत
बोलता है, गिरधारी से रूठता है, मान जाता है। इसी फ़िल्म के लिए ओम प्रकाश ने
दिलीप कुमार जितने पैसे लिए थे।
सन् 1971 की परवाना में हीरो था राजेश (नवीन निश्चल), हीरोइन थी आशा
(योगिता बाली), खलनायक था कुमार सेन (अमिताभ बच्चन)। आशा ने कुमार सेन से शादी से
इनकार कर दिया। अब कुमार सेन गया आशा के गारजियन अशोक वर्मा (ओम प्रकाश) के पास।
गार्जियन अशोक ने प्रस्ताव ठुकरा दिया तो ने कुमार सेन ने उसे मारने
का षड्यंत्र रचा। अंततः कुमार ने अशोक को मार ही दिया और राजेश को फंसा दिया। समीक्षकों
की राय में इस प्रकरण का विकास और फ़िल्मांकन बेहद दिलचस्प था। इसी की शूटिंग के
दौरान गुणी और गुणज्ञ ओम प्रकाश ने अमिताभ की क्षमता को पहचाना। तब अमिताभ का समय
अच्छा नहीं चल रहा था। ओम प्रकाश उसकी तारीफ़ हर जगह किया करते थे। 1973 की प्रकाश
मेहरा की ज़ंजीर में नायक की भूमिका करने से धर्मेंद्र, राजकुमार और देव आनंद
इनकार कर चुके थे। ओम प्रकाश ने सुझाया अमिताभ का नाम - अमिताभ के सुपर
हीरो बनने का हाईवे खुल गया।
अभिनय केवल अच्छा डायलॉग डिलीवरी ही नहीं होता, दूसरों के बोले डायलॉगों
पर प्रतिक्रिया भी होता है, और टाइमिंग भी होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है
1966 की फ़िल्म प्यार किए जा का एक दृश्य।
पिता रामलाल (ओम प्रकाश) को फ़िल्म दीवाना बेटा आत्मा (महमूद) अपनी
प्रस्तावित फ़िल्म का रहस्यपूर्ण भुतहा दृश्य समझा रहा है। काली रात! भयावह आवाजें! दरवाज़ा चरमर चरमर
करते खुलता है!...उस में रामलाल की प्रतिक्रिया दर्शकों को लोटपोट कर देती थी।
सन 1975 की हृषीकेश मुखर्जी की चुपके चुपके को क्रिया प्रतिक्रिया का
सफलतम उदाहरण कहा जा सकता है। बंबई में रहने वाले शुद्ध हिंदी के प्रेमी जीजा जी
वकील राघवेंद्र शर्मा (ओम प्रकाश) की तारीफ़ करते करते नहीँ थकती बाटनी के
प्रोफ़ेसर डाक्टर परिमल (धर्मेंद्र) की नवविवाहिता पत्नी सुलेखा (शर्मीला टैगोर)।
शादी में जीजा जी आ नहीं पाए थे, इसलिए नव दंपती को उनसे मिलने जाना है। हरिपद
चोधरी (डैविड) के पास उनके मित्र जीजा जी की मांग आई किसी अच्छे भाषा-प्रेमी
ड्राइवर की। तो मज़ा लेने के प्यारे मोहन बनकर धर्मेंद्र बंबई चला गया उन के पास।
सुलेखा उस के बाद पहुंचेगी।
ड्राइवरी के पहले ही दिन से शुरू हो जाता है धर्मेंद्र और ओम प्रकाश
के बीच शुद्ध हिन्दी में डायलॉगों पर क्रिया प्रतिक्रिया और टाइमिंग का घोर
मनोरंजक द्वंद्व। इसमें फूस पर आग का काम देते हैं सुलेखा और प्यारे मोहन के
रोमांटिक डायलॉग – ओम प्रकाश समझता है कि उनकी साली से नया ड्राइवर रोमांस कर रहा
है।
और उसी साल की जूली में कैथोलिक रेल इंजन ड्राइवर के रोल में ओम
प्रकाश ने बिल्कुल अलग तरह का यादगार अभिनय कर के अपना सिक्का जमा दिया।
जिस चरित्र अभिनेता ने 307 फ़िल्मों में जो विविध रोल किए हों उसकी कथा उतनी ही विविध है और
वर्णानातीत है। आइए, हम बात करें उन फ़िल्मों की जिनमें वह चरित्र अभिनेता से बढ़
कर बहुत कुछ थे। मेरा मतलब है –कन्हैया, जहांआरा और दस लाख।
‘रुक जा ओ जाने वाली रुक जा’
ओम प्रकाश ने संतसिंह और पाछी (ओम प्रकाश के भाई) द्वारा निर्मित
कन्हैया का निर्देशन किया था। प्रमुख कलाकार थे राज कपूर और नूतन। संगीकार थे शंकर
जयकिशन। शन्नो (नूतन) ने कोई धार्मिक नाटक देखा और कन्हैया (कृष्ण भगवान) की
भक्तिन हो गई। उसी गांव में रहता था आवारा निठल्ला शराबी कन्हैया (राज कपूर)। एक
दृश्य में कन्हैया (राज कपूर) ढलान पर फिसलती बोतल के पीछे पीछे गाता दौड़ रहा है
- ‘रुक जा ओ जाने वाली
रुक जा मैं भी हूं राही तेरी मंज़िल का’। उसी दृश्य में शन्नो भी भटक रही है। ऐसा भ्रम हो जाता है कि वह यह
शन्नो के लिए गा रहा है।
कन्हैया इस सब से बेख़बर है, पर शन्नो उसे अपना कन्हैया समझ बैठती है
और बांहों में भर लेती है। गांव में इन दोनों के बारे में कानाफूसी होने लगती है।
पंचायत बैठती है। दोनों को गांव में रहना है तो शादी करनी होगी। कन्हैया तैयार है,
पर शन्नो नहीं। सीता मैया की तरह उसे अग्नी परीक्षा देनी होगी। परीक्षा होगी ही।
गाँव में बीमारी फैल जाती है। कन्हैया को जादुई शक्ति मिल गई है। वह सब का इलाज कर
रहा है।
जहांआरा 1964
मुग़ल ख़ानदान पर तमाम फ़िल्में बनी हैँ, लेकिन शाहजहां की बड़ी बेटी
जहांआरा पर एक यही बनी। यह बनाई ओमप्रकाश ने, पर निर्देशन करवाया था विनोद कुमार
से। जहाँआरा (माला सिन्हा) और मिर्ज़ा चंगेजी (भारत भूषण) बचपन के साथी हैं और
धीरे धीरे प्रेमी भी। लेकिन उन का इश्क़ परवान नहीं चढ़ा। कहा जाता है कि मुग़ल
बेटियों का ब्याह नहीं होने दिया जाता था। एक वक़्त आया जब शाहजहाँ ने दिल्ली को
अपनी राजधानी बनाया। जहाँआरा ने चाँदनी चौक बनवाया और फ़ारसी और उज़्बैक सौदागरों
के लिए सराय भी।
नायक के तौर पर ओम प्रकाश की एक फ़िल्म है चरणदास। मैकेनिक चरणदास
आदर्श गृहस्थ है, मेहनत से धनी व्यापारी बन जाता है। घर के लोग पैसे के पीछे
स्वार्थ से अंधे हो जाते हैं। चरणदास बेघर हो जाता है। उन के व्यवहार से परेशान
चरणदास घर छोड़ देता है। अकेली लल्ली को पगलाई हालत में मिलता है। लल्ली और चरणदास
अपने परिवारों को सबक़ सिखाने में कामयाब होते हैं।
लेकिन नायक के तौर पर ओम प्रकाश की बढ़िया फ़िल्म है दस लाख...
दस लाख
दसलखिया ओमप्रकाश से ‘शादी’ रचाने वाली मनोरमा और उस का साथी प्राण
दस लाख के निर्माता थे मेरे अच्छे मित्र देवेंद्र गोयल –सांवले से,
हरदम मुस्कराते, दिमाग़ साफ़ था, सोच समझ कर फ़िल्म बनाते थे। मैं उन्हें ‘बहुत’ अच्छा निर्देशक तो
नहीं कहूंगा, लेकिन सफल निर्माता-निर्देशक ज़रूर कहूंगा।
एकदम बांये देवेंद्र गोयल |
दस लाख की बात करें तो पहले आज की नौजवान पीढ़ी को फ़िल्म के नाम पर कुछ
बताऊंगा। जब यह बनी थी तो दस लाख रुपए बहुत बड़ी चीज़ थे। गुरुदत्त की फ़िल्म
मिस्टर ऐंड मिसेज फ़िफ़्टी फ़ाइव में तीस लाख की बपौती वसूलने के लिए नारीवादी
आंटी ने मधुबाला की शादी करवा दी थी। उन दिनों का एक लोकप्रिय फ़िल्मी गाना था –ज़माना
दस दस के दस नोट का। तब दस का नोट आजकल के नोटों से तो बड़ा था ही, उसकी क्रय शक्ति
भी कई गुना बड़ी थी। मेरी किशोर अवस्था बीती थी दिल्ली में करौल बाग़ के देवनगर
में। हमारे जान पहचान में गाय भैंस का दूध बेचने वालों ने सात लाख रुपए की डर्बी
रेस की लॉटरी जीती तो सनसनी बन गए थे, सतलखिया कहलाने लगे थे। अपना काम धंधा छोड़
बंबई में फ़ाइनेंसर बन गए थे। तो दस लाख पा कर अधेड़ निर्धन गोकुलचंद का बौरा जाना
कोई बड़ी बात नहीं थी।
फ़िल्म शुरू होती है लाला गोकुलचंद से। वह हरदम झींकता रहता है, लालची
है, बंबई में रहने वाले चचेरे भाई निहाल की ख़ुशक़िस्मती से जलता रहता है, और सब
से बड़ी बात यह कि वह अच्छी क़िस्मत वालों की तरह
शान शौक़त से रहना चाहता है। दो बेटे हैं। बड़े बेटे मनोहर (रमेश देव) की
शादी हो चुकी है। उस के दो बच्चे हैं। छोटा बेटा किशोर (संजय ख़ान) इंजीनियरी पढ़
रहा है, और रीता (बबीता – पहली फ़िल्म) से प्यार करता है। धोती कुरता पहनने वाले
गोकुलचंद की छोटी सी दुकान है। वहां आता है विलायती जैरी (प्राण), चतुर चालाक चालबाज़
कार्टूनी दलाल। आज वह लॉटरी के टिकट बेच रहा है। दस रुपए का टिकट ख़रदोगे तो दस
लाख मिल जाएंगे। लालची गोकुलचंद ने टिकट ख़रीद लिया। अब उस का सपना है दस लाख। अब
वह दस लाख के लिए पूजा पाठ करता है, मंदिर जाता है, मन्नतें मनाता है, हर वह छोटा
मोटा ख़र्चा करता है जो पहले करने से कतराता है। उसे भरोसा है कि दस लाख मिलेंगे
ही। घर में बेटों, बहू, बच्चों को सपने दिखाता रहता है और निहालचंद से जलता रहता
है। लॉटरी के दस लाख मिलने वाले नहीं थे, नहीं मिले। वह निहालचंद की तक़दीर को
कोसने लगा। और एक दिन निहालचंद के मरने की ख़बर आई। वह मुर्दनी में जाने का ख़र्च
करने को तैयार नहीं है। बेटों ने कहा कि आप को जाना चाहिए, पर नहीं माना। किसी
बेटे ने कहा,“हो सकता है निस्संतान निहाल कुछ आप को छोड़ गया हो”, तो निहाल की मौत
पर रोने का दिखावा करने लगा। और गया भी। अब हम देखते हैं हवाई जहाज़ से उतरते
सूटेडबूटेड गोकुलचंद को। स्वर्गीय निहाल के सभी टैक्स अदा करने के बाद बसे दस लाख
और ग्यारह हज़ार रुपए अकेले उसे मिले हैं। आन, बान और शान से रहना चाहता है। बड़े
बेटे मनोहर की नौकरी छुड़वा दी। दसलखिए का बेटा नौकरी करे! यह उस की शान के
ख़िलाफ़ था।
शानची गोकुलचंद की शान को बुला रहा है कश्मीर - और वह कश्मीर पहुंच
जाता है। वहां उसे मिलता जैरी का परिवार। उन पर वह अपनी ख़ुशकिस्ती का रौब न डाले
यह संभव ही नहीं था। जैरी का पूरा परिवार उस से जोंक की तरह चिपक गया। सैरसपाटे का
सारा ख़र्च अब गोकुलचंद के हिस्से है। वे लोग गोकुलचंद के सफ़ेद बाल और मूंछें काली
करवाते हैं, व्हिस्की और बीयर पीना सिखाते हैं, लगातार उस की चंपी करते रहते हैं
और बेटों के जो ख़त आते हैं वे बाप तक पहुंचने नहीँ देते। बार बार कहते हैं
तुम्हारे बच्चों को तुम्हारी क़द्र नहीं है। कृतघ्न हैं, पैसा बरबाद कर रहे हैं। मुटल्ली
वियालतन डौली पर गोकुलचंद रीझ गया है। दोनों मिल कर गाते हैं, बरसात का गीत ‘पतली कमर है!’
उधर घर पर भाभी देवर किशोर की शादी रीता से कराने की तैयारी कर रही
हैं। सहेली सावित्री से बेशक़ीमती हीरों का हार उधार मांग लाई। ससुर जी के आने पर
वापस कर दूंगी।
जैरी परिवार गोकुलचंद को भड़काने में लगा है। गोकुलचंद को पूरा भरोसा
हो गया कि बच्चों को उस की परवाह नहीं है, उन्हें तो बस उस की दौलत से प्यार है।
घर लौटा तो साथ ले आया नई मंगेतर डौली को और उस के पूरे ख़ानदान को। उन्हों ने गोकुलचंद
से बच्चों को घर से निकलवा दिया। बच्चे भी ख़ुश हैं – अब जैरी परिवार के राजपाट से
छुट्टी मिली। लेकिऩ इसी समय वह हार ग़ायब हो गया जो भाभी रीता के लिए लाई थी और एक
बार उसे पहना भी चुकी थी। (वह जैरी ने वह चुरा कर बेटी हेलेन को दे दिया है।) अब मनोहर,
किशोर, भाभी और बच्चो टूटी फूटी झोंपड़ी में रहते हैं। बड़ा भाई मकान बनाने में
ईंटें और सीमेंट ढोने वाला मज़दूर बन गया है। ऊँचाई से गिर कर उसे भारी चोट लगी
है। छोटे भाई किशोर को चाहिएँ पाँच लाख रुपए भाई के इलाज के लिए। जैरी कहता है यह
चाल है बाप का माल हड़पने की। गोकुल को भरोसा है जैरी पर। वह किशोर को भगा देता
है। गोकुलचंद और डौली की शादी होने को है। दोनों बच्चों को लिए बड़ी बहू आ गई सब
से भीख सी मांगने लगी। जैरी को रट है कि वह चाल चल रही है। बहू ने बच्चों के सिर
पर हाथ रख कर क़सम ली तो गोकुलचंद ठिठका। वहाँ कई महमान थे जो जानते थे परिवार की
दुर्दशा। ससुर को बहू पर भरोसा था। होटल के कमरे से रुपए लेने गया तो जैरी ने
रुपयों की अटैची छीन ली और कमरे में आग लगा दी। लोमहर्षक क्लाईमैक्स के बाद सब ठीक
हो गया। गोकुलचंद ने झंझट की जड़ सारी संपत्ति दान कर दी। परिवार सुखी है, जैरी और
डौली जेल में चक्की पीस रहे हैं।
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अरविंद कुमार |
(नोट: फ़िल्म का प्रसिद्ध गीत ‘तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा’ गीत भिखारी नहीं गाता, संजय ख़ान और बबीता गाते हैं बूढ़े भिखारी के
लिए पैसे जमा करने के लिए। दूसरी बार दो बच्चे गाते हैं।)
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समाहार:
ओम प्रकाश ने फ़िल्मों में पचास से ज़्यादा सालकाम किया। और अचानक काम
बंद कर दिया। एक साल के भीतर पहले बड़े भाई बख्शीजंग गए, फिर ओम प्रकाश की पत्नी
प्रभा चल बसीं, बहनोई लालाजी नहीं रहे, छोटा भाई पाछी की मौत हो गई। आगा, मुकरी, गोप, मोहनचोटी, कन्हैयालाल, मदनपुरी, केश्टो मुखर्जी जैसे
संगी साथी साथ छोड़ गए। वह भाई के बच्चों के साथ जीवन बीत रहा था। 21 फ़रवरी 1998 में लीलावती अस्पताल
में वह भी विदा हो गए।
उनकी याद दिलाने को अब उन 307 फ़िल्म हैं।
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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