‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–119
गांधी कहो, ‘मोहनदास करमचंद गांधी’ कहो, ‘महात्मा गांधी’ कहो, ‘बदनाम बाग़ी गांधी’ कहो या ‘बीसवीं सदी का पैग़ंबर’ कहो –गांधी आया था आंधी बन कर, गोडसे की
अंधी घृणा का शिकार हो कर दुनिया से गया तो पर सदियों तक संसार में सौहार्द्य तथा
शांति की शीतल समीर बहाता रहेगा। जीवन के हर क्षेत्र पर असर डालने वाले गांधी का
कहना था, “मेरा जीवन ही मेरी कला है”, हज़ारों कलाकार मूर्तियों, चित्रों और कार्टूनों में उसे और उस का संदेश अंकित
करते रहे हैं। उसने कुल दो फ़िल्में देखीँ, लेकिन उस पर और उस के विचारों पर उसका
महिमा मंडन और महिमा खंडन करने वाली फ़िल्में बनीं और बनती रहेंगी।
-घृणा और प्रेम, जिज्ञासा और
उत्सुकता - सबका विषय था गांधी
मशहूर फ़्रांसीसी कंपनी पाथे (Pathe) की ब्रिटिश शाखा ने 1922 में ‘घैंडी’ (Ghandi) नाम की न्यूज़रील बनाई। गांधी भीड़ को
भाषण दे रहा है। नीचे लिखा था –“गांधी को छह साल की
जेल! बदनाम बाग़ी की एकमात्र सिनेमाई तस्वीरें।”
-इसके बाद सन् 1932 की एक और न्यूज़रील मिलती है – “अस्पृश्यता विरोधी
भूख हड़ताल से भारत में नया संकट।”
-ब्रिटिश सरकार हॉलीवुड के डी.डब्लू.
ग्रिफ़िथ से गांधीजी के खिलाफ़ पूरी फ़ीचर फ़िल्म बनवाना चाहती थी, लेकिन ‘बर्थ ऑफ़ ए नेशन’ (1915), ‘इनटालेरैंस’ (1916) और ‘ऑरफंस आफ़
द स्टौर्म’ (1921) जैसी क्लासिक बनाने वाले निर्देशक ने साफ़
इनकार कर दिया था। डी.डब्ल्यू.
ग्रिफ़िथ को फिल्म निर्माण की आधुनिक तकनीक का
जन्मदाता कहा जाता है।
-जब गांधी बोला सन् 1931
महात्मा गांधी का पहला टीवी इंटरव्यू 30 अप्रैल 1931 को लिया गया था।
शीर्षक था ‘महात्मा गांधी टॉक्स’।
इसने पूरी दुनिया के कानों तक गांधी की आवाज़ पहुंचा दी। तब इसे
समाचार जगत में बड़ा स्कूप माना गया था। इसके लिए फ़ॉक्स-मूवीटोन (Fox Movietone) की टीम ने गुजरात के आणंद ज़िले के बोरसद गांव तक फ़िल्म कैमरा और सामग्री पहुंचाने के लिए
बैलगाड़ियोँ में सफ़र किया था। ये बेशक़ीमती तस्वीरें अभी तक उपलब्ध हैं।
(यह न्यूज़रील अब यू-ट्यूब पर देखी जा सकती है।)
इंटरव्यू के लिए गांधी जी अपनी दैनिक वेशभूषा में आए।
खुला सीना, टांगों में धोती। उन्होंने बाल विवाह, शराबबंदी जैसे प्रश्नों पर सवालों
के संक्षिप्त जवाब दिए। पूछा गया कि ‘क्या आप आज़ादी के लिए जान देने को
तैयार हैं’, तो उन्होंने सवाल को बेहूदा बताया। सही है कि पूरी
भेंटवार्ता में कोई बड़ी बात निकल कर नहीँ आई। पर दुनिया भर में गांधी जी के बारे
में जानने की उत्सुकता चरम अवस्था में थी कि इसका बनना भी बड़ी बात मानी गई थी।
आवाज़ की रिकॉर्डिंग मद्धम थी, मुश्किल से ही सुनी जा पाती थी।
पेश हैं उस बातचीत के तीन प्रश्न और उत्तर—
पत्रकार: “मिस्टर गांधी, प्लीज़ हमें बताइए आप लंदन में गोल मेज़ कॉफ़्रेंस-2
के लिए कब रवाना होंगे?”
गांधी: “मुझे अभी कुछ अंदाज़ा नहीं है। और हां, अगर
वहां हिंदू-मुस्लिम प्रश्न पर कोई संतोषजनक हल की संभावना न हुई तो मेरे जाने की
संभावना नहीं है।”
पत्रकार: “आप कॉंफ्रेंस में गए तो आप भारतीय पहनावा
पहनेंगे या यूरोपियन?”
गांधी: “निस्संदेह, मैं यूरोपियन वेशभूषा में नहीं पाया जाऊंगा।
और मौसम ठीक रहा तो जैसा आज हूं वैसा ही जाऊंगा।”
पत्रकार: “और अगर इंग्लैंड के राजा आप को बकिंघम पैलेस
में बुलाएं तो भी क्या आप अपने भारतीय पहनावे में जाएंगे?”
गांधी: “किसी और पहनावे में जाना उन के प्रति अशिष्ट
होगा - क्योंकि मैं बनावटी लगूंगा।”
-खलनायक ‘गंगादीन’– गांधी पर पहली कथा फ़िल्म
अमरीका में ही गांधी जैसे पात्र वाली पहली कथा फ़िल्म बनी 1939 में।
नाम था ‘गंगादीन’। इस में गांधी जी की खिल्ली उड़ाई गई थी। आर.के.ओ. पिक्चर्स निर्मित
और जार्ज स्टीवंस निर्देशित सुपर हिट ‘गंगादीन’ रुडयार्ड किपलिंग की एक कविता और कहानी पर आधारित अपने ज़माने की
बड़ी फ़िल्मों में गिनी जाती है। ठगी प्रथा के ज़माने में तीन ब्रिटिश सैनिकों
(कलाकार कैरी ग्रांट, विक्टर मैक्लैग्लेन और डगलस फ़ेअरबैंक्स जूनियर) का एक सहायक
है भिश्ती गंगादीन (सैम जैफ़)। उसकी वेशभूषा गांधी जैसी ही है।
खलनायक था ख़ूंख़ार ऐडुआर्डो चिआनेल्ली। इसे भी गांधी जैसी वेशभूषा वाले
पात्र को विकृत व्यंग्य के रूप में ढाला गया है। इंग्लिश में इसे offensive and a demeaning caricature कहा गया। भारतीय समाचार पत्रों ने एकमत से इसे गर्हित कहा था।
-इसी तरह 1934-35 की ‘ऐवरीबडी लाइक्स म्यूज़िक’ में एक नीच पियक्कड़ पात्र को गांधी जैसा बनाया एक औरत के अश्लील
नृत्य करते दिखाया गया था।
-ए. के.
चैट्टियार की विशाल तमिल डाक्युमेंटरी
महात्मा गांधी – आंदोलन और गतिविधि
न्यूज़रील फ़ोटोग्राफ़र ए.
के. चैट्टियार ने भारत तथा विदेशों में एक लाख किलोमीटर से भी ज़्यादा सफ़र कर के गांधी
जी के बारे में पचास हज़ार फ़ुटेज संकलित की और तीन साल काट छांट और संपादित करके
इक्यासी मिनट की डॉक्युमेंटरी तैयार की सन् 1940 में। इससे पहले चेट्टियार पाथे की
न्यूज़ रीलों से संबद्ध थे। तमिल भाषी चेट्टियार ने कमेंटरी अपनी भाषा में ही की
थी। उसी साल यह सेंसर बोर्ड को दिखाई गई और पास भी हो गई। तब चेन्नई के रॉक्सी
थिएटर में दिखाई गई। बाद मॆं यह हिंदी और तेलुगु में डब की गई।
ज़ी न्यूज़ के अनुसर अब यह डिजिटलाइज़ कर दी गई है। तेरह रील वाली यह
तमिल फ़िल्म 15-MM में बनाई गई थी। अब यू-ट्यूब पर देखी जा सकती है।
इसकी फ़ुटेज दुर्लभतमों में दुर्लभ कहलाती है। गांधी जी
का विदेशी पत्रकार को दिया गया (ऊपर वाला) पहला इंटरव्यू भी इसमें संकलित है।
नेशनल गांधी म्यूज़ियम की सहायता से अब इसका डिजिटल संस्करण उपलब्ध है। इस डॉक्युमेंटरी
का मूल संस्करण 15 मिलिमीटर की रील पर था।
प्रथम स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 को तत्कालीन
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में यह विशेष रूप से दिखाई गई थी। किसी
कारण पंडित नेहरू नहीं आ पाए थे। उनकी जगह आई थीं उनकी बेटी इंदिरा गांधी।
बाद में चेट्टियार ने यह इंग्लिश में भी डब कराई।
इंग्लिश संस्करण 10 फ़रवरी 1953 को सैन फ़्रांसिस्को में प्रदर्शित हुआ। तब वहां
के तत्कालीन राष्ट्रपति ड्रवाइट डैविड आइज़नहावर और श्रीमती मार्मी आइज़नहावर ने
भी देखा।
-बीसवीं सदी
का पैग़ंबर 1941
गांधी जी पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाई 1941 में
पाथे की अमरीकी शाखा ने। शीर्षक था ‘महात्मा गांधी: बीसवीं सदी का पैग़ंबर’ (Mahatma Gandhi:
20th Century Prophet)। यह चार खंडों में बनाई गई थी। निर्देशक थे
स्टैनली नील (Stanley Neal) और लेखक क्वैंटन रेनाल्ड्स and (Quentin Reynolds).
फ़िल्म के पहले कार्ड पर लिखा था:
"Alan Twyman Presents a Louis Gainsborough Film Star of India (1953) Mahatma Gandhi:
Twentieth Century Prophet." 1954 में देखे गए
संसकरण में लिखा था: "Restored Version" कॉपीराइट अधिकारी का नाम थालुई गेन्सबरो (Louis Gainsborough)।
फ़िल्म बताया गया था कि गांधी (1869--1948) बीसवीं सदी का सब से अधिक प्रभावशाली व्यक्ति था। न्यूज़
रीलों में दिखाई गई घटनाओं का ब्योरा अपने समय के प्रमुख पत्रकार क्वैंटिन
रेनाल्ड्स (Quentin Reynolds) की आवाज़ में पेश किया गया था। प्रदर्शित घटनाओँ का समय सन् 1920 से
जनवरी 1948 में गांधी की हत्या तक था।
-मार्टिन लूथर किंग जूनियर और गांधी
अमरीका की बात बढ़ाएं तो बात करनी चाहिए वहां के
अफ़्रीकी मूल के कालों के पैग़ंबर मार्टिन लूथर किंग जूनियर (जन्म 1929 – मृत्यु 1968) के गांधी
प्रेम की। वह सन् 1955 से आजीवन गांधीवादी नागरिक अधिकार आंदोलन चलाते रहे।
सत्य, अहिंसा और जनता से सीधा संपर्क, काले लोगों को दमित रखने वाले गोरों के
दिलों तक पहुंचने की उनकी कोशिश और सफलता आधुनिक अमरीकी इतिहास का हिस्सा बन गई
हैं। तब से अब तक मार्टिन लूथर किंग से प्रेरित अमरीकी लोक संस्कृति में, फ़िल्मों
में और टीवी सीरियलों में गांधी जी विराजमान हैं। उदाहरण के तौर पर दोनों के
काल्पनिक वार्तालापों पर संगीतबद्ध काव्य सीरीज़ ‘ईपिक रैप बैटल्स आफ़ हिस्टरी’। उसकी एक क़िस्त
में ‘स्लमडॉग मिलियनेअर’ की तर्ज़ पर गांधी को ‘स्लमडौग स्किलिनेयर’ (Slumdog skillionaire)कहा गया है।
-‘महात्मा: गांधी एक जीवनी
1869-1948’
गांधी जी पर उपलब्ध तमाम
फ़ुटेज और संबंधित ऐतिहासिक स्थलों का चित्रण करने वाली ‘महात्मा: गांधी एक जीवनी 1869-1948’ नाम की सन् 1968 की 33 रीलों में 14 अध्यायों
वाली और 330 मिनट लंबी यह डॉक्यूमेंटरी मैं ने बंबई में ‘माधुरी’ संपादन काल में देखी थी। भारत सरकार की
फ़िल्म डिवीज़न के लिए विट्ठल भाई झवेरी नेतमाम उपलब्ध फ़ुटेज खोज कर, उनका संकलन
और संपादन किया, पटकथा लिखी और फ़िल्म में सार्थक टिप्पणियां भी स्वयं की थीं। इसके
कई छोटे संस्करण भी मिलते हैं। पूरे देश को गांधी के पीछे चलते देखना, उनके कहे पर
लोगों का करने या मरने पर आमादा हो जाना – अपने आप में रोमांचक अनुभव था। पांच
घंटे नौ मिनट दम साधे मैं देखता रहा पर्दे पर घटित होता बीसवीं सदी के पूर्वार्ध
में भारत का
इतिहास।
-‘नाइन अवर्स टु रामा’: गांधी जी पर पहली कथा फ़िल्म
1963 तक स्वयं गांधी जी पर कोई फ़ीचर फ़िल्म नहीँ बनी थी। उस साल जो
बनी वह थी ब्रिटेन-अमरीका की राजनीतिक मर्डर-थ्रिलर कोटि की ‘नाइन अवर्स टु रामा’ (Nine Hours to Rama)। स्टैनली वूलपर्ट (Stanley
Wolpert) के उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म का विषय था ‘गांधी जी की हत्या से नौ घंटे पहले से नाथूराम गोडसे’। जे.ऐस. कश्यप गांधीजी
जैसे ही लगते थे। नायक था नाथुराम गोडसे – हत्या से नौ घंटे पहले से उस का क्रिया
कलाप, फ़्लैश बैक में उस के जीवन के कुछ दृश्य।
नाथूराम गोडसे
की भूमिका की थी जरमन अभिनेता हौर्स्ट बुखोल्ज़ ने। दिखाया गया था कि गोडसे की कम-उम्र
पत्नी सांप्रदायिक दंगे में बलात्कार के बाद मर गई थी। यह भी दिखाया गया था कि वह
एक विवाहिता का दीवाना हो गया था, बाद में एक वेश्या से भी लगा रहा था। गोडसे के
विषाक्त मन में हिंदुओं के तथाकथित द्रोही महात्मा गांधी के प्रति घोर घृणा भरी
है। भारतीय पुलिस अधिकारी गोपाल दास हत्या निवारण की सतत कोशिश करता है, पर सफल
गोडसे होता है।
-रिचर्ड रिचर्ड ऐटनबरो की गांधी
“गांधी को इंसान ही रहने देना।”
हंगरी के गैबरीअल पास्कल और इंग्लैंड के
डैविड लीन गांधी जी पर फ़िल्म बनाना चाहते थे। डैविड लीन तो 1958 में भारत आए भी पर
उन की पटकथा पर बात नहीं बन पाई। ब्रिटेन में रहने वाले मोतीलाल कोठारी ने बातचीत
विचार विमर्श करना शुरू किया रिचर्ड ऐटनबरो से। फ़िल्म ‘गांधी’ का बनना तय हो गया। पंडित जवाहर लाल नेहरू
ने सलाह दी, “चाहे जो भी करना, गांधी
को भगवान मत बनाना। हम भारत में यही करते आ रहे हैं। वह महान इंसान थे, उन्हें इंसान
ही रहने देना।”
निस्संदेह 1982 की ऐटनबरो की फ़िल्म गांधी जी
पर ईपिक स्केल पर बनी सर्वोत्तम और विशालतम फ़िल्म है। शुरू में ही निर्देशक कहता
है: “किसी एक कृति में किसी व्यक्ति के जीवन को
समेटा नहीं जा सकता। संभव नहीं है कि हर साल की उस की करनी को समान महत्व दिया
जाए, उस के जीवन की हर घटना को रेखांकित किया जाए। हर उस व्यक्ति का ज़िक्र किया
जाए जिस से उसे कुछ मिला। जो भी किया जा सकता है वह है कि उस की भावना को पूरी
निष्ठा से दिखाने की कोशिश की जाए और उस के हृदय तक पहुंचने की कोशिश की जाए।”
30 जनवरी शाम, बिरला भवन। गांधी जी की
प्रार्थना सभा शुरू होने को है, लोग आ रहे हैं, उनमें है नाथूराम गोडसे और उसके
साथी। दूर कही तांगे की पिछली सीट पर बैठा दाढ़ी वाला आदमी इशारे से उन्हें आगे बढ़ने
का इशारा करता है। पोतियों के कंधों का सहारा लिए गांधी जी आ रहे हैं। भीड़ में से
आगे बढ़ गोडसे उनके पैर छूता है, उठता है, छाती में गोली दाग देता है।
अगला दिन – गांधी जी की शवयात्रा। शव के पास
बैठे हैं सरदार पटेल, आगे ट्रक में खड़े हैं जवाहर लाल नेहरू। कमैंटेटर रेडियो पर
विश्व के नेताओं के संदेश सुना रहे हैँ।
कभी बहुत साल पहले, दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन
चल रही है। इसी ट्रेन से शुरू हुआ था गांधी जी की विरोध यात्रा का प्रयाण। अंत तक
हम गांधी जी के जीवन के कुछ दृश्य देख कर पैठते हैं उनकी विचारधारा में। भारत के
स्वतंत्रता संग्राम के कुछ प्रकरण... देश का विभाजन न रोक पाने की उन की
निराशा.... सब कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है...
-केतन मेहता की ‘सरदार’
‘गांधी’ स्वयं गांधी जी पर थी, तो केतन मेहता निर्देशित
1993 की ‘सरदार’ थी सरदार पटेल पर। उसमें गांधी जी के साथ जवाहर लाल नेहरू जैसे अनेक नेता
पात्र थे।
शुरू में दोस्तों के साथ
ताश खेलते वल्लभ भाई पटेल गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन की खिल्ली उड़ा रहे हैं।
बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने उन्हें गांधी से मिलवाया। एक जनसभा में उनका भाषण सुना
तो वल्लभ भाई गांधी के साथ हो लिए। गुजरात में आंदोलनों का नेतृत्व किया। फ़िल्म
1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के बाद आता है आज़ादी के रास्ते में भयानक मोड़। मुस्लिम लीग के डायरेक्ट
एक्शन आंदोलन से भड़के भीषण हिंदू-मुस्लिम दंगे। ठोस ज़मीनी हक़ीक़त को समझ कर
सरदार पटेल ही थे जिन्होंने समझा कि देश सिविल वॉर की कगार पर है। देश का विभाजन
ही एकमात्र उपाय है। सरदार पटेल ही जिन्होंने नेहरू और गांधी को और कांग्रेस
कार्यकारिणी को विभाजन मानने को राज़ी किया। फ़िल्म दिखाती है आज़ादी के बाद उनमें
और नेहरू में उपजे मतभेद, और गांधी जी की हत्या के बाद किस तरह दोनों ने कंधे से
कंधा मिला कर देश चलाया, देसी राज्यों को केंद्र सरकार के अंतर्गत शामिल किया। अंत
में हम देखते हैं, गांव में विश्राम करते सरदार पटेल को संतोष है- कश्मीर से कन्या
कुमारी तक स्वंतत्र भारत एक है। सरदार पटेल की भूमिका में परेश रावल की अभिनय
क्षमता जाज्वल्यमान है।
-श्याम
बेनेगल की ‘द मेकिंग
आफ़ द महात्मा’
यह है तो डॉक्युमेंटरी
पर लंबी फ़ीचर फ़िल्म जैसी दिलचस्प है। भारत-दक्षिण
अफ़्रीका के सहयोग से बनी श्याम बेनेगल की फ़िल्म, मेरी राय में, गांधी के विकास
का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
मां पुतली बाई ने बेटे मोहन को इंग्लैंड भेजने से पहले तीन शपथ
दिलवाईं - 1. मांस-मच्छी नहीं खाएगा, 2. शराब नहीं पिएगा, 3. स्त्रियों का मां,
बहन समझेगा। बेटा सब पर दृढ़ रहा।
लंदन में जो निरामिष रेस्तरां मिला उसकी खिड़की में रखी थीं कई
किताबें। ‘ए प्ली फ़ॉर वेजिटेरियनिज़्म’ का उसके जीवन पर गहरा असर पड़ा। इसके लेखक हेनरी सॉल्ट की ही एक और
किताब थी अमरीकी दार्शनिक ‘हेनरी डैविड थोरो’ (Henry David Thoreau)। सिविल डिसोबेडिएंस (सिविल नाफ़रमानी) की पैरवी करने वाले थोरो ने
लिखा था: “किसी भी अन्यायी सरकार के आदेशों के विरोध में अवज्ञा के हथियार का
पालन करना चाहिए।” गांधी ने अपने जीवन में थोरो के सिविल नाफ़रमानी सिद्धांत को
राजनीतिक हथियार के रूप में पराकाष्ठा तक पहुंचा कर दिखाया था।
इसी तरह गांधी को मैनचैस्टर के एक निरामिष भोजी ने दी ‘बाइबिल’। उस का ‘सरमन ऑन द माउंट’ गांधी को बड़ा
प्रेरक लगा। सन 1926 की बात है। गुजरात विद्यापीठ में गांधी ने ‘गीता’ की तुलना ‘बाइबिल’ के ‘सरमन ऑन द माउंट’ से की। उसका कहना
था कि दोनों में कर्म न्यास की पैरवी की गई है। परंपरावादी हिंदू नाराज़ हुए तो गांधी
ने कहा, “जहां तक मेरा सवाल है मेरे लिए ‘बाइबिल’, ‘क़ुरान’ के साथ हमारे अपने धर्मग्रंथों का सम्मान मेरे कट्टर सनातनी होने के
विपरीत नहीं है।”
श्याम बेनेगल बताते हैं कि जान रस्किन की ‘अनटु दिस लास्ट’ किताब ने गांधी की विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला। गांधी जी
जोहिनसबर्ग से डरबन जा रहे थे। यह पूरा चौबीस घंटों का सफ़र होता था। उस सफ़र में
पहली बार पढ़ी उन्होंने यह किताब। किताब में ऐडम स्मिथ और जॉन स्टुअर्ट जैसे
अर्थशास्त्रियों का खंडन करते हुए पूंजीवाद के आधारभूत सिद्धांतों की आलोचना की गई
थी। यह भी कहा गया था कि पूंजीपति अपनी संपत्ति का स्वेच्छा से परित्याग कर के सबके
जीवन को सुखी बनाने में योगदान करेँ। इसी का असर था कि गांधी ने नैटाल (Natal) में फीनिक्स
सैटलमैंट (Phoenix Settlement) की स्थापना कर डाली। यह गांधी जी का पहला आश्रम था – यहां सब
सदस्यों को श्रमिक जीवन जीने में प्रयोग करने होंगे। उन दिनों गांधी जी ‘इंडियन ओपीनियन’ पत्र प्रकाशित कर
रहे थे। सभी पश्चिमी और भारतीय सदस्य पत्र का काम तो करते ही थे आत्मस्वालंबन के
लिए कुछ कमाते भी थे। यहीं गांधी जी ने ‘अनटु दिस लास्ट’ का अनुवाद किया ‘सर्वोदय’ नाम से।
श्याम बेनेगल की फ़िल्म इसी तरह गांधी के गांधी बनने के लंबे सफ़र का
ब्योरा देती है, तो सन् 2000 की हिंदी, तमिल, तेलुगु और इंग्लिश भाषाओं में बनी कमल हासन की सबसे
बड़ी फ़िल्म ‘हे राम’ एक समीक्षक के अनुसार, “यह गांधी की कीर्ति और कृत्यों का बखान नहीं ही है।
उनको लेकर जो अति असहनशीलता है या जो अज्ञानता का जाल उनके चारों तरफ़ डाल दिया
गया है –उसे काटने का प्रयास है। तत्कालीन घटनाओं पर आधारित अर्धकथात्मक कृति है,
क्लासिक ऐफ़र्ट है, भारतीय सिनेमा की महान उपलब्धि है।”
-‘हे
राम’: कमल हासन की गांधी फ़िल्म
बहुत पहले- अयोध्या की मस्जिद के विध्वंस का छठा साल। सेवानिवृत्त पुरातत्ववेत्ता
साकेत राम (कमल हासन) मृत्यु शैय्या पर है। सेवासुश्रूषा कर रहा है ऐतिहासिक
उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध पोता साकेत राम जूनियर।
फोटो कमल हासन वाली
फिल्म का
1999। मृत्युशैया पर पड़े बूढ़े पुरातत्ववेत्ता साकेत राम (कमल हासन)
को ऑक्सीजन दी जा रही है। उसकी देखभाल कर रहा है ऐतिहासिक कथाएं लिखने वाला पोता
साकेत राम जूनियर। गांधीजी को खुला आसमान पसंद था, साकेत राम को चाहिएं अंधेरे बंद
कमरे। साकेत राम कोई महात्मा नहीं है। वह महात्मा गांधी का निंदक है या प्रशंसक –
यह भी कहा नहीं जा सकता – यही फ़िल्म का अकथित मर्म है। इस साकेत राम के साथ साथ दर्शक
गांधी को देखने और समझने की यात्रा पर बढ़ता है। कभी यह साकेत राम सिंधु घाटी पर
शोध में विख्यात पुरातत्ववेत्ता मौर्टिमर व्हीलर का सहायक था। साकेत राम का साथी
था उसका ख़ास दोस्त पठान अमजद (शाहरुख़ ख़ान)। भारी सांप्रदायिक दंगे भड़कने की
संभावना के चलते दोनों को वहां से जाने का आदेश दिया जाता है। साकेत राम की आशा है
जल्दी ही वह ‘अखंड भारत’ में इस जगह काम के लिए फिर लौटेगा। दोस्त अमजद सिंधु सभ्यता का
गुणगान कर रहा है जिस ने ईसा से हज़ारों साल पहले नाली व्यवस्था बनाई, जो बच्चों
के खेलने को खिलौने बनाती थी।
ऐसा नहीं है कि दंगों का असर उत्तर भारतीयों पर ही पड़ा
हो। विभाजन के एक साल पहले कलकत्ते में साकेत राम ने बंगाल के दंगे भी भोगे थे। डायरैक्ट ऐक्शन डे से भड़के दंगों में मुसलमानों
ने पत्नी अपर्णा (रानी मुखर्जी) परबलात्कार किया। असहाय साकेत राम बस पिस्तौल
तानता रह गया। हम देखते हैं घनघोर हिंसा के दृश्य। मानवता के दो छोरों की
लोमहर्षकता। अपर्णा के बलात्कारी आल्टर टेलर का कनफ़ैशन – “हालात
ने हमें उत्तेजित कर दिया था।” एक बूढा मुसलमान अपनी तरफ़ बढ़ते साकेत राम को रक्षक
समझता है। साकेत राम उस पर हमला करता है। आक्रमक मुद्रा में वह एक घर में घुसता
है। अंधी बच्ची को देख कर जुगुप्सा होती है, लौट आता है।
डायरेक्ट ऐक्शन डे से भड़के दंगों में उसे मिलता है एक और राम –
उग्रवादी राम अभयंकर। अभयंकर उसे बतात है अपना सत्य। इस सत्य से बदल जाता साकेत
राम का संपूर्ण दृष्टिकोण। अब वह किसी मुसलमान का हत्यारा मात्र नहीं है, अब वह गांधी
से घृणा करने वाला हिंदू बन गया है। अभयंकर ने उसे विश्वास दिला दिया है - जो कुछ
भी तांडव हो रहा है उसका ज़िम्मेदार न जिन्ना है, न सुहरावर्दी है, बल्कि यह सब
गाँधी की करनी है।
इसके
बाद मैं ‘हे
राम’
फ़िल्म के बारे में किन्हीं अज्ञात पी.एस, अर्जुन के 11 नवंबर 2011 के ब्लाग से
कुछ अंश दे रहा हूं।
![]() |
अरविंद कुमार |
“इसकी
रिलीज़ के समय मैं सत्रह साल का था। अनेक दर्शकों की तरह मैं भी कनफ़्यूज़्ड था।
कुछ साल बाद मैं ने यह फिर देखी। मुझे लगा यह अच्छी मूवी है। फिर 2010 में देखी।
मूवी ने मुझे बस मेँ कर लिया। अब मेरे लिए यह मेरी देखी फ़िल्मों में सब से अच्छी है।
‘हे
राम’
अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्म थी। धर्म और राजनीति का भयानक मिश्रण आज भी हमारे
साथ पहले जैसा ही है।
शहर
चेन्नई, पिछली सदी के अंतिम वर्ष। 89 साल का साकेत राम के जीवन के अंतिम पल हैं।
सांप्रदायिक दंगे भड़क रहे हैं। अस्पताल जाने का रास्ता बंद है। साकेत राम की
यादें जाग्रत हो जाती हैं। साठ साल पहले चालीसादि दशक में वह और अमजद मोहनजोदड़ो
में पुरातत्ववेत्ता धा। अब वह गांधी जी को समझने लगा है। दिल्ली में उन के निकट आ
पहुंचा है। तभी गोडसे ने गांधी जी को मार डाला। गांधी जी के मुंह से निकला – ‘हे राम’!”
अब हमारे फ़िल्मकार जागे। गांधी जी को अलग अलग तरह से
देखने दिखाने लगे...
उनके बारे में आप पढ़ेंगे फ़िल्मों में महात्मा गांधी के दूसरे भाग मॆं
अगले रविवार।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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