‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–120
फिल्मों में महात्मा गांधी, भाग दो
पिछले रविवार कमल हासन की गांधी फ़िल्म हे राम के
वर्णन के अंत में आपने पढ़ा;
“शहर
चेन्नई, पिछली सदी के अंतिम वर्ष। 89 साल का साकेत राम के जीवन के अंतिम पल हैं।
सांप्रदायिक दंगे भड़क रहे हैं। अस्पताल जाने का रास्ता बंद है। साकेत राम की
यादें जाग्रत हो जाती हैं। साठ साल पहले चालीसादि दशक में वह और अमजद मोहनजोदड़ो
में पुरातत्ववेत्ता धा। अब वह गांधी जी को समझने लगा है। दिल्ली में उनके निकट आ
पहुंचा है। तभी गोडसे ने गांधी जी को मार डाला। गांधी जी के मुंह से निकला – ‘हे
राम’!”
अब हमारे फ़िल्मकार जागे। गांधी जी
को अलग अलग तरह से देखने दिखाने लगे...
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फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई का एक दृश्य |
लगे रहो मुन्ना भाई
निर्देशक राज कुमार हीरानी की 2006 की लगे रहो मुन्ना भाई ना तो गांधीजी की जीवनी थी, ना ही उन पर बनी डॉक्युमेंटरी।
‘गांधीगीरी’ शब्द
चालू करने वाला हंसी का यह फ़व्वारा गांधी जी की कथनी और करनी का संदेश दूर दूर तक
पहुंचाने का अद्वितीय माध्यम होने के साथ साथ निर्माता विधु विनोद चोपड़ा का
ख़ज़ाना लबरेज़ करने का साधन भी सिद्ध हुआ। कहा जाता है कि यू.एन.ओ. में दिखाई
जाने वाली यह पहली हिन्दी फ़िल्म थी, और 2007 के कान फ़िल्म फैस्टिवल के ‘तू
ले सिनेमा दु मोंद’ (Tous Les Cinema du Monde) सैक्शन में भी प्रदर्शित की गई थी।
मुन्ना भाई (संजय दत्त) और सर्किट (अरशद वारसी)
की कारस्तानियां सब जानते हैं। मुन्ना भाई सपने देखता है, सर्किट सपने पूरे करता
है अपने स्टाइल में। मुरली प्रसाद शर्मा यानी मुन्ना भाई के मन को भा गई रेडियो जोकी
जाह्नवी (विद्या बालन)। अब उससे मिलना है - तो मिलना है। सर्किट को कोई जुगत
निकालनी ही है। 2 अक्तूबर को गांधी जी के बारे जाह्नवी के सब सवालों के सही जवाब
देने वाले को उस से मिलने का मौक़ा मिलेगा। सर्किट ने कई विद्वानों को राज़ी कर
लिया मुन्ना भाई की मदद के लिए। मुन्ना भाई जीता, मुलाक़ात हुई, उस ने अपना परिचय
दिया इतिहास के प्रोफ़ेसर के रूप में।
जाह्नवी अपने घर ‘सैकेंड इनिंग्स हाउस’
नाम का वृद्धाश्रम चलाती थी। वहां मुन्ना भाई को गांधी पर भाषण देना है। करे तो
क्या करे! तैयारी के लिए वह शहर
के गांधी संस्थान की शरण जा पहुंचा। गांधी जी के सिद्धांत समझने की कोशिश करता
रहा। तीन दिन रात न कुछ खाया, न सोया, किताबें पढ़ता गुनता रहा। दिमाग़ में अजब
मंज़र दिखने लगे। एक बार मुंह से निकला ‘बापू’, तो गांधी जी मौजूद हो गए। बोले, “मैं तुझे रास्ता दिखाऊंगा।
सब से पहले तू जाह्नवी को सारा सच बता दे।” पहले तो मुन्ना भाई झिझका,
फिर बता ही दिया। अब वह गांधीवादी जीवन जीने लगा। जाह्नवी के साथ रेडियो शो भी
चलाने लगा। गांधी जी की छाया उस की मदद करती, श्रोताओं की समस्याओँ के हल होने
लगे।
एक था लक्की सिंह – छल छद्म
की सहायता से दूसरों को ठगने वाला बेईमान व्यापारी। उसने माफ़िया संसार में मुन्ना
भाई और सर्किट को लगा दिया। कई क़िस्से होते हैं, एक है लक्की सिंह की मांगलिक
बेटी सिमरन की शादी में नक़ली ज्योतिषी बटुक महाराज की खोटी सलाहों के चलते शादी
मे रुकावट का, एक और है जाह्नवी के
मन में मुन्ना भाई के बारे में ग़लतफ़हमियां पैदा करने का और फिर मुन्ना भाई को गोआ भेज
कर ‘सैकेंड इनिंग्स हाउस’
पर क़ब्ज़ा कर लेने का। मुन्ना भाई ने सत्याग्रह शुरू कर दिया। लोगों से अपील की
लक्की सिंह को गुलाब के फूल भिजवा कर उस का दिल जीतने की। अंत तो अच्छा होना ही था,
अच्छा ही हुआ।
मुन्ना भाई में गांधी
छाया के रूप में मिलते हैं तो ‘मैंने
गांधी को नहीँ मारा’ का बूढ़ानायक दुःस्वप्न से ग्रस्त
है।
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फिल्म मैंने गांधी को नहीं मारा में अनुपम खेर |
मैंने गांधी को नहीं मारा
सामने फैले विशाल सागर के तट पर
खड़ा है एक बूढ़ा। सागर की उत्ताल तरंगों में एक बेटी ढूंढ़ रही है अनेक प्रश्नों
के उत्तर। पीछे है उनका घर। सीढ़ी ऊपर चढ़ती नीचे उतरती। खुली खिड़कियों में
लहराते उड़ते परदे। ख़ाली डाइनिंग टेबल। यह है प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान प्रोफ़ेसर
उत्तम चौधरी का घर। यह है 2005 की अनुपम खेर निर्मित और जाह्नु बरुआ निर्देशित दिलचस्प मनोवैज्ञानिक
फ़िल्म ‘मैं ने गांधी को नहीं मारा’।
अनुपम खेर का भारतीय राजनीति पर
अपना दृष्टिकोण है। निर्देशक बरुआ को ऐसी फ़िल्म लिखने और चित्रांकित करना अच्छा
लगता है। मुख्य कलाकार थे – अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर। सेवानिवृत्त हिन्दी
प्रौफ़ेसर उत्तम चौधरी की प्रिय कविता है सोहन लाल द्विवेदी की ‘कोशिश करने वालों की हार नहीं होती”। फ़िल्म का विषय है नायक का उत्तरोतर ह्रास – डीमेंशिया
(मनोह्रास)। फ़िल्म का पूरा ट्रीटमैंट मनोवैज्ञानिक है। सठियाये प्रोफ़ेसर साहब
कुछ सिड़ी से हो गए हैँ। एक बार अख़बार में गांधी जी तस्वीर पर किसी ने ऐशट्रे
क्या रखी तो वह भड़क गए। एक रात बेटी तृषा (उर्मिला मातोंडकर) और बेटे ने देखा उन
का कमरा जल रहा है। तृषा डाक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने कहा अब कुछ नहीं हो सकता।
उन्हें ख़ामख़याली है कि उसके पास जो खिलौना बंदूक़ थी उस में कारतूस असली थे और
उसने ग़लती जो बंदूक़ का घोड़ा दबाया तो बिरला भवन में गांधी जी मर गए!
स्पष्ट है कि उसने गांधी को नहीं
मारा। 30 जनवरी 1948 को वह आठ साल का बच्चा था।
अब तृषा ले गई अपने पिता को डॉक्टर
सिद्धार्थ के पास। निर्देशक हमें दिखाता है रोगी के मन के भय, भ्रम, उस की
अनिश्चितताएं। वह दिखाता है आज की दुनिया में गांधी होने का मतलब। आज किसी को अपनी
अंतरात्मा की फ़िक्र नहीँ है। जो कुछ है वह पैसा है अमीरी है। कहां गईं ईमानदारी,
सहनशीलता, अहिंसा? गांधी क्यों बन कर रह गया मात्र एक
सड़क का नाम, एक डाक टिकट, एक मूर्ति? गांधी
कहता है तुम लोग मुझे बस 2 अक्तूबर और 30 जनवरी को याद करते हो।
गांधी माई फ़ादर
गांधी माई फ़ादर - 31 जनवरी 1948 को राजघाट की ओर
जाते इस जनसमूह में कोई एक हरिलाल भी था, इसमें वह कहां था, कौन था - कोई जानता
नहीं था, पहचानता नहीँ था।
गांधी जी के बड़े बेटे इस हरिलाल मोहनदास गांधी की
कहानी पर बनी सन् 2007 की अनिल कपूर निर्मित और फ़ीरोज़ अब्बास खाऩ निर्देशित ‘गांधी,
माई फ़ादर’।
यह इतनी मर्मस्पर्शी थी कि दिल्ली गाज़ियाबाद बॉर्डर पर आनंद विहार रेल टर्मिनल और
बस अड्डे के पास ई.डी.एम. माल के ‘पीवीआर’
सिनेमाघर में फ़िल्म ख़त्म होने पर मैं कुछ देर तक उठ नहीं सका था।
फ़िल्म शुरू होती है जून 1948, कोई अज्ञात व्यक्ति -
बढ़े केश, दाढ़ी, बेहोश, लाइलाज, नशे में धुत, मैलाकुचैला बंबई की सड़कों पर मिला
था, अस्पताल लाया गया है। अपना नाम गांधी बता रहा है। डॉक्टर समझ नहीं पाते कि यह
गांधी कैसे है?
असल में वह है गांधी जी का बेटा हरिलाल गांधी।
1906 राजकोट, फ़ुटबाल खेल में एक जीवंत लड़का, दक्षिण
अफ़्रीका, गांधी का फ़ीनिक्स आश्रम, वह लड़का हरिराम गांधी पिता के पास आया है...
आगा खां जेल में गांधी जी का पैर दबाता हरिलाल |
बड़े बेटे हरिलाल (अक्षय खन्ना) से गांधी जी (दर्शन
ज़रीवाला) के उलझे, पेचीदा, असहज और बिगड़े संबंधों को चित्रित करना कोई ख़ाला जी
का घर नहीं था। बाप बेटे की इच्छाएं एक दूसरे से विपरीत थीँ। बेटा इंग्लैंड जा कर
बैरिस्टर बनना चाहता था। बाप के सामने धर्म संकट था स्कॉलरशिप के लिए उसका अनुमोदन
करें या उस का जिसकी बारी थी। बाप ने न्याय का मार्ग चुना। हरिलाल भारत लौट आया
बीवी गुलाब (भूमिका चावला) और बच्चों के पास। आगे पढ़ने और बढ़ने की उसकी हर कोशिश
नाकाम होती है। लालची व्यापारी उसके नाम हरिलाल गांधी का इस्तेमाल करके मुनाफ़ा
कमाना चाहते है। कोई कमायाब नहीं होता। आमदनी ज़ीरो, सिर पर कर्ज़। परेशान गुलाब
मायके चली जाती है, और महामारी में मर जाती है। थकाहारा अकेला हरिलाल पियक्कड़ हो
जाता है। बहकावे में आकर मुसलमान बन जाता है, पर जल्दी ही फिर हिंदू बन जाता है।
बाप से संबंध बिगड़ते जा रहे हैँ। उनके सुधरने की कोई संभावना नहीं है।
1942 के ‘भारत
छोड़ो’
आंदोलन के कारण गांधी जी और कस्तूर बा (शेफाली शाह) आगा खां के महल में बंद हैँ।
एक बार हरिलाल आता है। संबंध सुथारने की असफल कोशिश करता है।
मां कस्तूर बा की मृत्यु के बाद जेल से लौट आता है।
फ़िल्म का एक मार्मिक दृश्य-ट्रेन छूटने को है। भागता
भागता हरिराम कंपार्टमैंट तक पहुंचता है। मां को मुरझाया सा संतरा देता है। मां
बड़े प्यार से पूछती है, “कहां
मिला यह?” मानो किसी ने स्वर्ग से लाकर कोई अलौकिक फल उसे दिया
है। और बेटा हरिराम अपने महान पिता से कहता है, “आप जो
हो, जो भी बने हो, वह सब इनके, केवल इनके, बूते
पर है!”
‘द गार्जियन’ ने लिखा, “जिन लोगों के लिए गांधी सिर्फ़ रिचर्ड ऐटनबरो तक
सीमित है, ‘गांधी माई फ़ादर’ देख कर उनकी आंखें
फटी रह जाएंगी। निश्चय ही ‘गांधी माई फ़ादर’ ए-क्लास फ़िल्म है।”
रोड टु संगम
“टुकड़े
देश के नहीँ मुसलमानों के हुए थे” कहने वाली ‘रोड
टू संगम’ (2010) में बहाना है साठ साल पुरानी ‘फ़ोर्ड वी-8’ कार के इंजन
की मरम्मत, विषय है स्वतंत्रता के बाद भारतीय मुसलमान, उनमें से कई का पाकिस्तान
प्रेम और कई का अपने सच्चे भारतीय होने पर गर्व, और ज़रा से शक़ पर पूरे महल्लों
के निवासियों का आतंकवादी घोषित करने की सत्ता के कुछ तत्वों की प्रवृत्ति।
मैंने ‘रोड
टू संगम’ अब देखी - पहली बार - तो अफ़सोस हुआ कि इससे पहले
मुझे इतनी उम्दा फ़िल्म के बारे में पता ही नहीं था। गांधी जी पर और उनकी
मान्यताओं पर जो फ़िल्म बनी हैं, मेरी राय में यह उन में उच्चतम कोटि में गिनी
जाने लायक़ है। क्या बात है! वर्तमान भारत में हिंदू-मुस्लिम समस्या का इतना
सुंदर चित्रण!
संगम का शहर इलाहाबाद, सुबह
के विविध दृश्य, रेल का पुल, गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम... सुबह की सैर पर कुछ
मुसलमान दोस्त। हंसी मज़ाक, चकल्लस, चेमेगोइयां... एक के मोबाइल पर फ़ोन आता है।
यह है मशहूर कार इंजीनियर हशमत उल्ला (परेश रावल)। यह फ़ोन आया है इलाहाबाद के
म्यूज़ियम से किसी बेहद पुरानीकार फ़ोर्ड वी8 के इंजन को फिर से चालू करने का। ‘काम बहुत इंपोर्टैंट,
ख़ुसूसी, ज़रूरी और अरजैंट’ है।
हशमत उल्ला खाते पीते घर का
मोतबर शहरी है, सुखी परिवार है, ख़ुदा का बंदा है। बड़ी मस्जिद की समिति का
सैक्रेटरी है। हम देखते हैं वह नात गायकी की महफ़िल में सब से अगली पंक्ति में
बैठा संगीत में सही मुकाम पर सिर हिला कर दाद दे रहा है। अचानक गाना रुक जाता है।
समिति के चेयरमैन नवाब कसूरी (ओम पुरी) तशरीफ़ ला रहे हैं! नवाब साहब के संगी साथियों
के लिए अगली पंक्ति का एक हिस्सा ख़ाली रखा गया है। वह गाना फिर से शुरू करने का
इशारा करते हैं। हशमत उल्ला और नवाब कसूरी के हावभाव से साफ़ हो जाता है कि वे एक
दूसरे को पसंद नहीं करते। इस तरह दो प्रतिद्वंद्वियों से हमारी मुलाक़ात होती है
और अंत तक होती रहती है।
हशमत उल्ला की कार मरम्मत की
दुकान। फ़ोर्ड वी8 का इंजन दुकान में पहुंच गया है। यह एक ऐतिहासिक कार का इंजन है।
इलाहाबाद में त्रिवेणी में प्रवाहित करने के लिए गांधी जी के जो दो अस्थि कलश त्रिवेणी
में प्रवाहित किए जाने थे, उनमें से एक संगम तक इसी कार में गया था। दूसरे कलश का
क्या हुआ यह किसी को पता ही नहीं था। अभी हाल समाचार छपे हैं वह ग़लती से ओडिशा
पहुंच गया था और किसी पब्लिक स्ट्रॉंग बॉक्स में बंद पड़ा था। अब मिल गया है। गांधी
जी के पोते तुषार गांधी उसे त्रिवेणी में प्रवाहित करेंगे। वह कार अब शहर के
म्यूज़ियम में रखी है।
मुआयना किया गया। इंजन कई
जगह ज़ंग खा गया है, कुछ पुरजे टूट से गए हैं। मतलब यह कि इंजन फिर से चालू करना
ही होगा। यह काम सौंपा गया है हशमत को। हशमत को म्यूज़ियम में गांधी के बारे में
पता चला, उनकी हत्या के बारे में भी, और यह भी पता चला कि नए बने पाकिस्तान के
बक़ाया पचपन करोड़ दिलाने की गांधी जी की ज़िद उन की हत्या का एक कारण थी।
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हशमत ने ठान लिया है - जो भी
करना पड़े, वह इंजन ठीक कर के रहेगा! काम को जो हिस्सा वह ख़ुद नहीं कर सकता वह सही
मिस्तरियों से करवा के रहेगा।
अब हुआ यह कि उत्तर प्रदेश
में हिज़्बुल मुजाहिदीन ने बम विस्फोट कर दिया। कई नगरों में तलाशों का सिलसिला
शुरू हुआ, धरपकड़ शुरू हुई। मुसलमानों का कहना था कि बेकसूर लोगों को पकड़ा और
सताया जा रहा है। उनके उग्रवादी धड़ों की बन आई। नवाब कसूरी और उन के पिछलग्गू
इमाम ने विरोध प्रदर्शन और हड़ताल
का रास्ता अपनाया। कचहरी के सामने जो भारी प्रदर्शन हो रहा था, उसमें कसूरी के बेटे
का गला पार्टीशन की ग्रिल के ऊपरी हिस्से के सीख़चे में फंस गया। वह किसी गोली या
लाठी का नहीं अपनी ग़लती का शिकार हुआ था। लेकिन उसकी मौत को उग्रवादियों ने शहादत
का रुतबा घोषित कर दिया। जब तक सरकार नवाब साहब से माफ़ी न मांग ले हड़ताल ज़ारी
रहेगी।
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अरविंद कुमार |
यह अप्रत्याशित घटनाचक्र बन
जाता है कार के इंजन की मरम्मत में रुकावट का। शरीफ़ हशमत उल्ला लाख समझाता है,
बताता है कि यह कार उस बंदे के अस्थिकलश के प्रवाह में काम आएगी जिसने पाकिस्तान के
हक़ में जान क़ुर्बान कर दी थी और उसे उस कार के इंजन की मरम्मत का काम करने दिया
जाए। वह तरह तरह से काम शुरू करने की कोशिश करता है। हशमत उग्रवादियों का विरोधी
बन गया है। सुबह की सैर के कई संगीसाथियों ने उससे किनारा कर लिया है। कैसे और किस
तरह वह इंजन ठीक कर पाता है, कैसे वह कार अस्थिकलश के जुलूस में सबसे आगे चल पाई,
हशमत की कोशिशों से कैसे उग्रवादी भी उस देश की मुख्यधारा में शामिल होते हैं –
यही है अंत ‘रोड टू संगम’ का।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार
की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना
जायेगा।
संपादक - पिक्चर प्लस)
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बहुत ही शानदार। गांधी और फिल्मों पर लिखे गए अब तक के सबसे अच्छे लेख में से एक अरविंद कुमार जी को प्रणाम बारंबार अभिनंदन
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