‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–122
मीना कुमारी पर नया कुछ
लिखने से पहले ‘पिक्चर प्लस’ पर मेरे संस्मरणों में अब तक उनके उल्लेख में से चुने अंश। फिर भाग 123 से
कुछ नया...
“सन् 1953। तेईस
साल की उम्र में मैंने नई दिल्ली के रीगल सिनेमा हॉल में बिमल रॉय की फ़िल्म
परिणीता देखी। शरच्चंद्र के उपन्यास पर आधारित। नायिका थी बीस साल की भोली कली
मीना कुमारी। उसने मेरा ही नहीं सबका मन मोह लिया था। पहली बार बेहिचक मैं कहना
चाहता हूं: “मैने मीना जी के नाम एक पोस्टकार्ड लिखा था।
मेरे जीवन का पहली और आख़री फ़ैन मेल! वह मीना के लिए
अधिक था, परिणीता के लिए कम।”
यह मेरा सौभाग्य था कि माधुरी के पहले अंक के
मुखपृष्ठ पर मीना जी को छापने का अवसर मिला। उनका फ़ोटो मैँने स्वयं अपनी देखरेख
मेँ फ़िल्म ‘पूर्णिमा’ के सैट पर खिंचवाया था। मीना जी ने पूछा था कि फ़ोटो मेँ उन का कितना अंश
दिखाया जाएगा। मैंने कहा था – बस्ट bust यानी ‘आवक्ष’। मूर्ति, चित्र और फ़ोटोग्राफ़ मेँ इस का
मतलब है ‘सिर से वक्ष तक मानव शरीर का चित्रण’। इसमें गोदी का अंश शामिल नहीँ होता। इसी समझ के अनुसार मीना जी अपने
दोनोँ हाथ गोद मेँ रख कर बैठ गईं – निश्चिंत, बेफ़िक्र। पर फ़ोटो तो गोदी तक था!
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मैं पहले अंक के सोलहों रंगीन पेजोँ का मेज़
पर रखा प्रिंटआउट देखकर ख़ुश हो रहा था। सौभाग्यवश किशन चंदर तभी आ पहुंचे। देखते
ही चौंके, बोले, “क्या ज़ुल्म ढा रहे हो!” मैं चौंका, पूछा, “क्या?” उन्होंने मीना जी की गोदी मेँ रखा बायां हाथ दिखाया और दिखाईं कटी उंगलियां…
दौड़ा दौड़ा मैँ फ़ोटोग्रेव्योर डिपार्टमैंट पहुंचा। नाडिग और
डैंगो (जरमन नाडिग और गोआनी डैंगो फ़ोग्रेव्योर मशीन के अध्यक्ष थे) मदद को आगे
बढ़े। चारोँ रंगोँ के सिलंडर फिर से बनाए गए। पत्रिका और मैं छीछालेदर से बच गए।
धन्यवाद नाडिग और
डैंगो!
धन्यवाद किशन चंदरजी!
दास्ताने
दर्द – मीना कुमारी (1)
(जिस भाग में यह छपी
थी, उस की तारीख़ कहीं लिखी नहीं मिली। पर क्रम सही है।)
हमारा पहला अंक छपे
बस एक महीना बीता था। 5 मार्च 1964।‘पिंजरे के पंछी’ फ़िल्म का महूरत।
मीना कुमारी मेकअप रूम में नवोदित गीतकार गुलज़ार को बुलाने की ज़िद कर रही थी।
पति कमाल अमरोही का कारिंदा बाक़र इनकार कर रहा था। मीना की ज़िद पर ग़ुस्साए
बाक़र ने मीना को तमाचा जड़ दिया।
आँसू बहाती तमतमाई
मीना तेज़ी से स्टूडियो के बाहर निकल आई। बोली, “कमाल साहब से कह
देना मैँ घर नहीँ लौटूंगी।”
सारी घटना सस्ते
पत्रकारोँ को चटपटा मसाला थी। मैँने अपने हाथों लिख कर बस एक पैरा छापा – कोरी
जानकारी का।“मीना जी कमाल का घर छोड़ कर गुलज़ार के घर चली गईं।”(अब मैं जानता हूँ
कि वह अपनी छोटी बहन के घर गई थीं।--अरविंद जनवरी सन् 2020)
-
1951। ‘तमाशा’ फ़िल्म की शूटिंग। अभिनेता अशोक कुमार ने
निर्माता कमाल से मीना का परिचय कराया था। कमाल ने ‘अनारकली’ फ़िल्म में काम करने का प्रस्ताव रखा। 13
मार्च 1951 को कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर हुए। महाबलेश्वर से इस की शूटिंग से लौटते
समय कार का ऐक्सीडैंट हुआ था। मीना के बाएँ हाथपर भारी चोटेँ आईं। जान ख़तरे मेँ
थी। कमाल अमरोही नित प्रति देखने और दिलासा देने आते रहे। मिलना न होता तो दोनोँ
ख़तोकिताबत करते। पर वह ‘अनारकली’ पूरी नहीं हो पाई। इस बीच 1953 की नंदलाल जसवंतलाल निर्देशित प्रदीप
कुमार, बीना राय वाली अनारकली आ गई।
टैगोर वंश से संबंध बरास्ता मेरठ-
कभी बहुत पहले। महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर के
छोटे भाई की बेटी हेमसुंदरी ठाकुर बालविधवा हो गई। जैसा कि बंगाली परिवारोँ में
चलन था उस के तमाम अधिकार छीन कर परित्यक्त कर दिया गया। वह मेरठ पहुँची जहाँ अनेक
बंगाली परिवार बहुत पहले से बसे थे। (टिप्पणी: अरुणा आसफ़अली मेरठ के एक बंगाली डाक्टर की बेटी थीं।) वहाँ हेमसुंदरी
नर्स बन गई। प्यारेलाल शंकरी मेरठी उर्दू पत्रकार थे और नए ईसाई बने थे। हेमसुंदरी
ने उन से शादी कर ली।
प्यारेलाल-हेमसुंदरी की दूसरी बेटी नर्तकी
प्रभावती (इक़बाल बेगम) बंबई में नाटकों मेँ काम करती थी। मंच पर नाम था कामिनी।
वह सुन्नी मुसलमान अल्लाबख़्श की दूसरी बीवी थी। पंजाब के भेड़ा (अब पाकिस्तान) से
आ बसे अल्ला बख़्श बंबई में पारसी थिएटरों में छोटेमोटे काम करते थे, जैसे
हारमोनियम बजाना, संगीत सिखाना, शायरी करना। ‘ईद का चाँद’ फ़िल्म मेँ अभिनय भी किया था, ‘शाही लुटेरा’ फ़िल्म का संगीत निर्देशन भी। निर्धन परिवार
दादर में रूपतारा स्टूडियो के पास रहता था।
1
अगस्त 1933। मीना का जन्म। अल्लाबख़्श के पास डिलीवरी कराने वाले डाक्टर गर्दे की
फ़ीस के पैसे नहीँ थे। वह बच्ची को एक इस्लामी यतीमख़ाने के दर पर छोड़ आए। कुछ
देर बाद आए तो देखा बच्ची के शरीर पर चींटियां रेग रही हैं। इस दृश्य का विश्लेषण
प्रसिद्ध पत्रकार विनोद मेहता ने मीना पर किताब मेँ इस तरह किया है-
“मुझे लगता है
कि वह क्षण मीना के अवचेतन मेँ कहीं गहरे पैठ गया था। मीना त्रासदिक भावनाओं से
ग्रस्त आत्मा थी। वह कभी प्रसन्न रह ही नहीं सकती थी। ज़िंदगी ने दुखदर्द और ग़म उस
के नाम कर दिए थे। उसे जो रोल मिले वे भी उस की मानसिकता के अनुरूप ही थे।।”
बच्ची का नाम रखा गया महज़बीँ। कहते सब उसे मुन्ना थे। चार साल की
मुन्ना और बच्चोँ की तरह स्कूल जाना चाहती थी, पर फ़िल्मोँ मेँ बाल कलाकार बना दी
गई। निर्देशक विजय भट ने ‘लैदरफ़ेस’ नाम की फ़िल्म मेँ एक दिन काम के पच्चीस रुपए दिए।महज़बीँ विजय भट को
इतनी पसंद आई कि वह उस के गुरु बन गए। सन 1940 की ‘एक ही भूल’ मेँ उन्होँ ने उस का नाम बेबी मीना कर दिया। तेरह साल की उम्र में रमणीक
प्रोडक्शंस की फ़िल्म ‘बच्चों का खेल’
मेँ वह हीरोइन मीना कुमारी बन गई। यहीँ से शुरू होती है मीना कुमारी की कहानी।
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‘दास्ताने
दर्द –मीनाकुमारी’ बहुत लंबी है। इसे बढ़ाने के बहुतेरे
मौक़े मिलेंगे। मैँ इसे आगे बढ़ाता भी रहूँगा – यह वादा रहा।
‘भाग 40 – भारतभूषण की फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ और ‘बरसात की रात’’
‘बैजू बावरा’ विजय भट्ट की ग्यारहवीं और भारतभूषण की
पंदरहवीं फ़िल्म थी। और इस में वह टाइपकास्ट हो गए भक्तों या शायरों के रोल में…। अगले ही साल भट्ट ने उन्हें ‘चैतन्य महाप्रभु’ बना दिया जिस के लिए मिला ‘फ़िल्मफ़ेअर’ का श्रेष्ठ अभिनेता अवार्ड।
विजय भट्ट ही प्रकाश पिक्चर्स के लिए ‘लैदरफ़ेस’ (1939) में मीना कुमारी को ला चुके थे।‘बैजू बावरा’ साबित हुई मीना कुमारी को भी स्टार बनाने
वाली फ़िल्म...।
तानसेन के रियाज़ के समय आसपास किसी को शोर
मचाने या गाने बजाने की छूट नहीं थी . एक घुमंतू संत की गाती बजाती टोली तानसेन के
घर के सामने से गुज़र रही थी . चौकीदारों ने उस पर हमला कर दिया . मरते मरते संत
ने बेटे वैद्यनाथ (बैजू) से वादा लिया कि वह तानसेन से बदला लेगा . बालक बैजू पर
यही धुन सवार हो गई . अनाथ बैजू को शरण मिली यमुना तट पर किसी गाँव के पुजारी के
पास . गाँव के आरंभिक दृश्यों में लगातार यमुना में नावें दिखाई जा रही हैं .
नाविक की बेटी भी नाव में दिखती है . ये दृश्य ज़मीन तैयार करते हैँ क्लाईमैक्स
में बाढ़ग्रस्त यमुना मॆं नाविक की जवान बेटी गौरी (मीना कुमारी) और गायक बैजू के
विलीन होने की .
‘तू गंगा की मौज मैं यमुना का धारा’ (राग भैरवी – मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर)संभवतः ‘संगम’ के ‘मेरे मन की गंगा तेरे मन की यमुना’ की आधारभूमि तैयार करने वाला गीत है .
एक डाकू सरदारनी हमला करती है, पर बैजू के
गीत ‘इनसान बनो’ की दीवानी हो जाती है . गांव वाले दया की भीख मांगते हैँ तो बैजू को साथ ले
जाने की शर्त पर बख़्श देती है . डकैत बाला अपने जागीरदार पिता की हत्या का बदला
ले रही है . उस की कहानी से जवान बैजू को याद आता है अपने पिता को दिया गया वचन .
इस से आगे की फ़िल्म का मुख्य भाग इसी पर केंद्रित है . तानसेन के रियाज़ के समय
आसपास किसी को शोर मचाने या गाने बजाने की छूट नहीं थी। एक घुमंतू संत की गाती
बजाती टोली तानसेन के घर के सामने से गुज़र रही थी। चौकीदारों ने उस पर हमला कर
दिया। मरते मरते संत ने बेटे वैद्यनाथ (बैजू) से वादा लिया कि वह तानसेन से बदला
लेगा। बालक बैजू पर यही धुन सवार हो गई। अनाथ बैजू को शरण मिली यमुना तट पर किसी
गाँव के पुजारी के पास। गाँव के आरंभिक दृश्यों में लगातार यमुना में नावें दिखाई
जा रही हैं। नाविक की बेटी भी नाव में दिखती है। ये दृश्य ज़मीन तैयार करते हैँ
क्लाईमैक्स में बाढ़ग्रस्त यमुना मॆं नाविक की जवान बेटी गौरी (मीना कुमारी) और
गायक बैजू के विलीन होने की।
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‘भाग 55 दास्ताने अब्बास – 4 नवंबर 2018’
सन 1857 से ही आज़ादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर
हिस्सा लेने वालोँ के ख़ानदान में पैदा हुए अब्बास तीन भाषाओं में लिखते थे – इंग्लिश, उर्दू और हिंदी। उन की भाषा लच्छेदार नहीं
होती थी। सीधीसादी तथ्यात्मक। ऐसी ही थीं उन की अपनी बनाई असरदार फ़िल्में। जैसे
1959 की ‘चार दिल चार राहें’।
कहीं एक चौराहा बन रहा है। चार दिशाओं को
जाती चार सड़कों का इस चौराहे से जुड़ी हैं चार अनोखी प्रेम कहानियाँ। उस की एक
इमेज मेरे मन पर अंकित हो गई थी। अभी तक है। ब्राह्मण नौजवान गोविंदा (राज कपूर)
बचपन की अछूत सहेली कालीकलूटी ‘चावली’ (बेहद काले शरीर वाली मीना कुमारी) से शादी करने तमाम विरोधों के बावजूद
अपनी बारात ले जा रहा है। वही दूल्हा है, वही बाराती। उस
के आगे है एक ढोल वाला, पीछे है एकमात्र
साथी। काले आसमान में ढोल की ढमढम बज रही है, विद्रोही राज कपूर का क्लोज़प, फिर पूरा शरीर, एक के पीछे एक कुल तीन जन।‘ढम ढम’ क्या है क्रांति की आवाज़ है। दुल्हन मीना कुमारी घर पर थी, पर जब बारात पहुँची भगा दी गई थी।
‘भाग
92 – प्राण – 14 जुलाई 2019’
हलाकू
(1956)
ईरान में कहीं - नीलोफ़र
(मीना कुमारी) और परवेज़ (अजित) का रोमांस अब्बा हकीम नादिर को परवेज़ पसंद नहीं
है। एक लंबे सफ़र से लौटे, तो क़हवाख़ाने में बेटी के क़िस्से सुने। शुरूआती विरोध
के बाद हकीम साहब ने परवेज़ को शादी के लिए ज़ेवरात ख़रीदने दूर शहर भेज दिया। तभी
चंगेज़ ख़ाँ के पोते शक्तिशाली सुलतान हलाकू के बहादुर मंगोल बढ़ते चले आ रहे हैं।
हकीम साहब मारे जाते हैं, नीलोफ़र पकड़ी गई, बेची जा रही है, परवेज़ ने ख़रीद ली,
पर हलाकू के लिए सैनिकों ने हथिया ली। हलाकू उसे बेगम बनाना चाहता है, उस की पहली
बेगम को यह पसंद नहीं। अब परवेज़ और नीलोफ़र की जंग है हलाकू के ख़िलाफ़। नीलोफ़र
बार बार उस की हत्या करना चाहती है, परवेज़ हलाकू के ख़िलाफ़ जंग कर रहा है। उन के
प्रेम को देखते हुए हलाकू दोनों को माफ़ कर देता है। पहली बेगम का कहा मान कर ईरान
को आज़ाद करके वापस चला जाता है।
‘भाग 97 सुपरस्टार बाल कलाकार से फ़िल्म लेखक बनी हनी ईरानी की संघर्ष कथा – 25 अगस्त 2019’
आज की पीढ़ी को शायद ही पता हो कि एक ज़माने में ईरानी
सिस्टर्स के नाम से मशहूर बाल कलाकार डेज़ी और हनी बौलिवुड पर छाई थीं। किसी
फ़िल्म में उन का होना सफलता की गारंटी था। उन के हिसाब से फ़िल्म लिखी और बनाई
जाती थीं। पहले आई थी डेज़ी, बाद में आई
थी हनी। अपनी पहली फ़िल्म देवेंद्र गोयल की 1959
की ‘चिराग़ कहाँ
रोशनी कहाँ’ में हनी बनी थी लड़का – राजू।
सहकलाकार थे राजेंद्र कुमार और मीना कुमारी। मां मीना कुमारी पति की मृत्यु से
पहले ही गर्भवती हो गई थी और राजू बाद में एक बड़ी संपत्ति का अधिकारी सिद्ध होता
है।
-
‘बंदिश’
(1955)
सत्येन बोस
निर्देशित ‘बंदिश’ डेज़ी ईरानी की पहली फ़िल्म थी। इस में ‘टमाटर’ (डेज़ी) की बात ही
निराली धी। नामावली में उस का नाम अशोक कुमार और मीना कुमारी के बाद आता है, पर मेरी नज़र में
वे दोनों सुपरस्टार डेज़ी के सह कलाकार थे। अन्य कुछ कलाकार थे नज़ीर हुसैन, सज्जन, शम्मी व मेहमूद (जो
बस एक दृश्य में नौका खिवैया बना गाता नज़र आया था), संगीत हेमंत
मुखर्जी का था।
…एक और जगह दोनों
बैठे हैं। कमल के पर्स में कई फ़ोटो हैं। एक है उषा (मीना कुमारी) का। फ़्लैशबैक
में हम देखते हैं किस तरह कमल के बाप (बिपिन गुप्ता) ने उषा से उस की शादी स्वीकार
नहीं की थी। बस, अब कमल ने टमाटर से छुट्टी पाने की जुगत निकाली। उषा के घर ले गया टमाटर को
और समझा दिया –‘यह है तेरी मां’। उषा ने एक रात के लिए रख लिया उसे। अब टमाटर नई मां से
चिपक लिया! और उषा के दिल से भी चिपक गया टमाटर। (डेज़ी का कहना है, ‘अपनी मां से मुझे
उतना प्यार कभी नहीं मिला जितना मीना कुमारी ने मुझे दिया’।) लेकिन उषा के घर
से ले जाना ही पड़ा टमाटर को। बेचारा कई कोशिश करता है। नाटकघर में छोड़ना चाहता
है। वहाँ उषा मंच पर नाटक कर रही थी। टमाटर पहुँच गया मंच पर, बोला,“मम्मी!” एक बार फिर टमाटर
कमल के पास।
-
‘भाग 110 मुखराम शर्मा: 17 नवंबर 2019’
एक ही रास्ता 1956
बी.आर. चोपड़ा ने बनाई पंडित मुखराम शर्मा की‘एक ही रास्ता’- अजब असमंजस की कहानी। संदेश था विधवा विवाह।
कहानी थी चार मुख्य पात्रों की - बड़े सरकारी ठेकेदार कुँवारे
प्रकाश मेहता (अशोक कुमार),उन का
कर्मचारी अमर (सुनील दत्त), अमर की पत्नी मालती (मीना कुमारी),और बेटा राजा (डेज़ी
ईरानी)। अमर और मालती - दोनों - अनाथालयों
में पले हैं। बच्चा राजा भी अनाथालय से लिया गया है। उन के लिए अपना कहने को कोई
नहीं है। कोई है तो प्रकाश मेहता है। वह अमर का मालिक कम और दोस्त ज़्यादा है। अमर
और मालती के घर जब तब आता रहता है। मालती के लिए वह घर का सदस्य ही है। बड़े से
बंगले में रहता है। कुँवारेपन की बात करो तो कहता है कि जैसी सर्वांगसंपूर्ण पत्नी
उसे चाहिए वह शायद ही कभी मिले।
फ़िल्म शुरू होती है एक सुबह। अमर और राजा व्यायाम कर
रहे हैं। मालती नाच का रियाज़ कर रही है। तीनों में जो घनिष्ठ अपनापन है वह हम
देखते हैं उन के खेल कूद से, आँख मिचौनी सेहै। राजा बन जाता है डकैत और वे उस के
शिकार। साथ साथ पिकनिक पर जाते हैं, मस्ती करते हैं।
कंपनी का मुंशी है बिहारी (जीवन)। वह ट्रक वाले से
मिलाजुला है। जितना सीमैंट ट्रक में भेजता है, उस से कम किताबों में लिखवाता है।
मुनाफ़ा दोनों बाँट लेते हैं।
एक दिन- स्विंग पूल पर अमर, मालती और राजा खेल कूद रहे थे। अमर ने देखा कि बिहारी
ट्रक में से सीमैंट किसी को बेच रहा है। अमर ने दोनों को रंगे हाथ पकड़ लिया और
तत्काल काररवाई की। ट्रक वाला जेल गया। बिहारी को भी नौकरी से हाथ धो कर जेल की
हवा खानी पड़ी। अब जेल से छूट कर बिहारी खोमचे पर मिठाई बेच रहा है। अमर ने देखा
तो उसे सुधरने की सीख देने लगा। ट्रक वाला भी आ निकला। कहासुनी मारपीट में बदल गई।
ड्राइवर और अमर कभी सड़क पर, कभी कीचड़ में लड़ते भिड़ते गारे से लथपथ हो गए। ट्रक
वाला भाग निकला। और – कुछ दिन बाद मौक़ा देख कर ड्राइवर अमर को कुचल कर भाग लिया।
जो कभी हँसती खेलती छोटी सी गृहस्थी थी अब निराधार घर
बन गई। बेटा राजा पूछता, पिताजी कहाँ हैं तो उसे कठोर सच बताने की हिम्मत न मालती
को होती न प्रकाश को। कह देते,‘वे अस्पताल
में हैं’। वह पूछता,‘कब आएंगे’ तो कह देते,‘जल्दी ही’। झूठ को
सही बनाए रखने के लिए अमर की तरफ़ से राजा को खिलौने दे देते। कहते,‘अच्छे बच्चे बनोगे, स्कूल जाओगे, दोनों जून खाना खाओगे तो पिताजी और जल्दी
आ जाएँगे’।
मालती का उत्साह बढ़ाने के लिए प्रकाश ने सलाह दी,‘डांसिंग का स्कूल खोल लो। मन बहला
रहेगा और आमदनी भी होगी।’ प्रकाश का बार बार मालती से
मिलनेआना पड़ोसियों मे कानाफूसी का विषय बन गया। ऊपर से बिहारी अफ़वाहें फैलाने
लगा – मालती और प्रकाश के बारे में। कभी कभी वह मालती से मिलने भी आ धमकने लगा।
एक दिन प्रकाश घर आया तो देखा बिहारी मालती को पकड़ने
की कोशिश कर रहा है। उस ने बिहारी को एक दो जड़ दिए। अब बिहारी पड़ोसियों को और भी
भड़काने लगा। एक दिन बिहारी के गुंडों से लड़ते लड़ते प्रकाश के सिर से ख़ून बहने
लगा। लोगों को शांत करने के लिए प्रकाश ने अपने ख़ून से मालती की माँग भर दी। शादी
के बाद जीवन आसान नहीं था। यह ‘एक ही
रास्ता’ था लोगों के मुँह बंद करने का। यही नहीं उन दिनों के
दस्तूर से किसी विधवा से विवाह भी कोई आसान नहीं था। आजकल का ज़माना होता तो शादी
किए बिना भी साथ रह सकते थे – कोई उंगली भी न उठाता।
‘गुरुदत्त – अंतिम भाग -‘साहब बीबी और ग़ुलाम’’
1962
में आई गुरुदत्त की ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’। मुझ जैसे
लोग दीवानों की तरह देखने गए। मैं ने कई बार देखी। समीक्षा भी लिखी थी ‘कारवां’ में। उपन्यास के विशाल कैनवस को कुल दो घंटे पचपन मिनट में चित्रांकित कर सकने वाली असंभव सी
फ़िल्म।
सफल इंजीनियर अतुल्य चक्रवर्ती (गुरुदत्त) कई साल बादआया है। पहले आया था तोशरमीला सा नया नया छात्र था। अपने घर फ़तेहपुर से आया
था यहाँ। पहले यहाँ ऐयाशी का जीवन था। शान शौक़त के दिन बीत रहे थे।
दलालों के बहकावे में आ कर मँझले बाबू ने परिवार का सब कुछ कोयले की खदान पर लगा
दिया। पर कोयले की खदान थी ही नहीं। सारा मालमत्ता सिफ़र हो गया। मँझले बाबू
देनदारों का रुपया वापस नहीं कर पा रहे थे। हवेली और उस का सारा सामान नीलाम हो
गया। चौधरी परिवार तितर बितर हो गया। कौन कहाँ गया अब कोई नहीं जानता।
अब हवेली खंडहर बन चुकी है।
अब उस का काम है इमारत के खंडहरों को ढहाना। अब उस का मन
यादों में खो जाता है। यादें, बहूत पुरानी, भूलीबिसरी
सी यादें, यादें, यादें। इस
पुरातन हवेली के वैभवपूर्ण काल की दुखियारी लंबी यादें...
तब छोटी बहू पति को लुभाने की तरक़ीबें तलाशती रहती थी।
अख़बार में उस की नज़र पड़ी ‘मोहिनी
सिंदूर’ के विज्ञापन पर। दावा किया गया था कि
यह सिंदूर लगाने से बिछड़े प्रीतम वापस मिल जाते हैं। छोटी बहू को माम हुआ कि
भूतनाथ उसी कंपनी में काम करता है। बस, यह जादुई सिंदूर
मँगाने के लिए छोटी बहू ने भेजा अपने भरोसेमंद चाकर बंसी (धूमल) को भूतनाथ के पास।
परपुरुष का किसी बहू के कक्ष में पाया जाना भयानक अपराध माना जाता था। इसलिए बंसी
भूतनाथ को चोरी छिपे ले गया उन के पास।
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छोटी बहू के सौदर्य से पराभूत भूतनाथ के मुँह से बोल ही
नहीं निकल रहा था। उस की हिचक मिटाने के लिए छोटी बहू ने बात शुरू की उस की कंपनी
के बारे में, वहाँ के लोगोँ के बारे में। अब तो
भूतनाथ ने (मालिक की बेटी) जवा के बारे में और उस के प्रति अपने आकर्षण के बारे
में एक साँस में सब कुछ बता डाला। अब छोटी बहू ने सिंदूर के बारे में पूछाथा:“कुछ काम का है या नहीं?”
भूतनाथ ने कहा था कि असरदार है।
अगली शाम सिंदूर पहुँचाने वह गया छोटी बहू के पास। अब
क्या था! सारा दिन छोटी बहू ने बिताया
सिंगारपट्टी में। गाती रही ‘पिया
ऐसो जिया में समाय गयो रे।’ उसे भरोसा
था कि सिंदूर का असर होगा, होगा। बंसी से संदेश भिजवाया छोटे
बाबू के पास कि बहूरानी बीमार हैं। शायद इस बहाने वे उसे देखने आ जाएँ। वे कुछ कम
नहीं थे। औरतों की बीमारी से विचलित होना मर्दों का काम नहीं था। नहीं आना था, नहीं आए।
आख़िर एक दिन छोटी बहू ने विनती कर ही दी –“मैं
क्या करूँ आप को ख़ुश करने के लिए?” छोटे बाबू ने चुनौती फेंकी,“तुम वह सब करोगी जो
तवायफ़ करती हैं?– गाओगी, नाचोगी,
पियोगी?”
पहले तो छोटी बहू को धक्का लगा। पर उसकी हसरतें भी कम
नहीं थीं। उसने संकल्प कर लिया, सब कुछ
करेगी - पति को पाने के लिए।
भूतनाथ की पुकार फिर हुई। उसे पैसे थमाते छोटी बहू ने
शराब की सब से बढ़िया बेशक़ीमती बोतल लाने की माँग कर दी। भूतनाथ को यह अच्छा नहीं
लगा। वह इनकार करता रहा, समझाता रहा,
अनुनय विनय करता रहा। छोटी बहू अड़ी थी, अड़ी
रही। तो वह बोतल ले ही आया और दे भी आया। साँझ पड़ी। छोटे बाबू ने गिलास में शराब
भर कप आगे बढ़ाया। छोटी बहू झिझकी, पति ने वह उन के गले में
ज़बरन उतार दिया पूरा गिलास।
वक़्त बीत रहा था। कोई दोएक साल बाद मुंगेर से लौटा
भूतनाथ। चौधरी परिवार के पैसा धेला कुछ नहीं बचा था। हवेली ख़स्ताहाल थी। छोटे
बाबू फ़ालिज़ के मारे बिस्तर में पड़े थे। छोटी बहू नशे में रहती थी। अब छोटे बाबू
उन का नशा छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे। छोटी बहू ने सुन रखा है कि नदी किनारे कोई
चमत्कारी संत पघारे हैं। हर रोग के इलाज की औषध देते हैं। भूतनाथ मिला तो बहूरानी
ने विनती की कि उन महात्मा के पास ले चले।
परंपरावादी चौधरी परिवार की बहुओं का परपुरुष के साथ
जाना भ्रष्ट और अक्षम्य अपराध था। मँझले बाबू ने देखा - छोटी बहू किसी के साथ
बग्घी में जा रही है। उन के पहलवान चारक जल्दी हीबग्घी के पास पहुँच गए। भूतनाथ की
इतनी पिटाई हुई कि उस की आँखें खुली अस्पताल में। छोटी बहू कहाँ गई – किसी को पता नहीं था। भूतनाथ को होश
आया तो बंसी ने बताया छोटी बहू के विलुप्त होने के बाद छोटे बाबू भी जाते रहे थे।
कौड़ी कौड़ी के मोहताज मँझले बाबू हवेली छोड़ कर कहीं चले गए थे।
-
‘भाग 106 गुरुदत्त: 20 अक्तूबर 2019’
‘साँझ और सवेरा’
गुरुदत्त के अभिनय वाली आख़िरी फ़िल्म है हृषिकेश मुखर्जी की ‘सांझ और सवेरा’(1964)।
उन दिनों की बात है जब लड़का या लड़की देखे नहीं जाते थे। परिवार का
नाई या कोई रिश्तेदार रिश्ता पक्का कर दिया करता था।
गौरी (मीना कुमारी) के पिता का देहांत हो गया। पिता के अभिन्न मित्र
ऐडवोकेट मधुसूदन (मनमोहन कृष्ण) उसे अपने घर ले आए। गौरी उन के घर में रम गई।
मधुसूदन के साथ रहता है उन का भक्त भानजा तबलावादक प्रकाश (महमूद)।
बंबई में माँ के साथ रहते हैं धनी डाक्टर शंकर चौधरी (गुरुदत्त)। कभी
पहले किसी रिश्तेदार ने मधुसूदन जी की बेटी माया से डाक्टर शंकर का रिश्ता पक्का
कर दिया था। माँ ने बेटे डाक्टर को आदेश दिया शादी का। बेटे ने ‘हाँ’ कर दी। मधुसूदन को तार मिला,“माँ बेटे आ रहे हे शादी के लिए!”
माया (ज़ेब रहमान) दिल्ली में पढ़ रही है, आती है। शादी संपन्न हो
जाती है। अधरात सरदर्द का बहाना कर सोने चली जाती है। सुबह विदा होनी है। तैयारियाँ
हो गई हैं। लड़के वाले अपने कमरे में हैं। गौरी माया को जगाने गई: कमरा ख़ाली था! वह संदेश छोड़
गई है कि प्रेमी के साथ जा रही है।
खुली छत वाली कार में दोनों किसी पहाड़ी सड़क पर तेज़ी से जा रहे हैं।
वकील साहब मधुसूदन जी का दिल बैठ गया। सारा दायित्व प्रकाश के सिर पर आन पड़ा।
उसे एक ही रास्ता सूझा परिवार की इज्जत बचाने का। “गौरी को माया बना कर भेज दे!” गौरी बहुत मना करती
है, पर प्रकाश गौरी को डाक्टर साहब के साथ विदा करवा ही देता है। उधर माया भागी तो
पता चला कि उस के प्रेमी के ग़लत इरादे माया को पता चल गए। उस ने स्टीयरिंग पर
क़ब्ज़ा करना चाहा तो कार खड्ड में गिर पड़ी।
अब? कई संभावनाएँ हैँ:
सात फेरे माया के साथ लिए गए थे। गौरी का मन
कहता है कि वह पत्नी नहीं है।
कभी कोई गौरी को पहचान लेगा।
गौरी का भेद खुल गया तो डाक्टर चौधरी की क्या प्रतिक्रिया होगी?
माया मरी नहीं है। कभी वह नमूदार हो गई तो
क्या होगा?
‘सांझ
और सवेरा’ में ये सब संभावनाएं घटित होती हैं।
गौरी अपने आप को पत्नी नहीं मानती और ‘पति’ के सामने आत्मसमर्पण न करने के बहाने करती रहती
है। ‘पति’ अपने को वंचित मानता है और
अप्रसन्न है। प्रकाश आता है माया/गौरीको पगफेरे की रस्म पूरी
कराने। मधुसूदन मामाजी अब बनारस में रहते हैं, वहीं जाना होगा। किसी बहाने वहाँ
मंदिर में डाक्टर शंकर और माया/गौरी की दूसरी शादी करा दी
जाती है - एक दूसरे को माला पहना कर। गौरी प्रसन्न है, डाक्टर शंकर प्रसन्न हैं -
सब प्रसन्न हैं।
डाक्टर साहब को सीधासाधा प्रकाश पसंद आ गया है। वह उसे भी अपने साथ
बंबई ले आते हैं। तबले की दूकान पर उसे मिलती है राधा (शुभा खोटे)। दोनों में तबले
की ताल पर बहस हो जाती है जो अंत में प्रेम में परिवर्तित होनी ही थी। राधा की माँ
मनोरमा जाती है डाक्टर शंकर की माँ रुक्मिणी के पास और पहचान लेती है गौरी को जो
अपने सफल दांपत्य में माँ बनने वाली है। मनोरमा को मौक़ा मिल गया रुक्मिणी को
भड़काने का। एक दिन माया/गौरी डाक्टर साहब के
अस्पताल गई है किसी काम से। रोगी के बिस्तर पर पड़ी है बेहोश माया! उस की याददाश्त जाती रही है। गौरी सिहर गई। भेद खुला तो सास और पति ने
उसे इतना बुराभला कहा कि वह आत्महत्या करने जा पहुँची। एक भले मानस ने उसे रोका और
घर पर शरण दी। अंत में सब ठीक हो जाता है।
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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