फ़िल्म योगी बिमल रॉय-तीन, कामिनी कौशल विशेष
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–127
‘भाग 94, कामिनी कौशल’ में मैंने लिखा था:
“मेरी राय में कामिनी के पूरे जीवन की सबसे अच्छी फ़िल्म है बिमल रॉय
निर्देशित बिराज बहु। शरच्चंद्र की दुखियारी नारी बनना कामिनी के लिए आसान नहीं
रहा होगा।... देवधर (प्राण) नाम के ठेकेदार के शिकंजे से बचने के लिए बिराज के
बजरे से नदी में कूद पड़ने पर और इधर उधऱ मारी मारी फिरने पर ‘सुनो सीता की कहानी’ गीत हर नर नारी
दर्शक को झकझोर जाता है। मुझे याद है सन् 1954 में मेरा इस गीत पर भावुक हो जाना।
देवर ने घर का बंटवारा करा लिया था। आर्थिक संकट से ग्रस्त बिराज का
दौरानी से मदद लेना, या पेड़ नीचे चूल्हा बना कर मांड पकाती बिराज आते जाते लोगों
से भीख स्वीकार करती कामिनी की भावभंगिमा अभिनय कला की पराकाष्ठा में गिने जा सकते
हैं। चिरस्मरणीय हैं बिराज और नीलांबर का कुछ बीते पलों की याद करने वाले दृश्य...
नीलांबर का याद दिलाना कैसे बिराज ने पंछी को पिंजरे से उड़ा दिया था इस विश्वास
के साथ कि वह अपने आप पिंजरे में लौट आएगा, कैसे वह बालिका वधु के कान ऐंठता था।
अधेड़ पति और बालवधु के अद्भुत प्रेम के पल। बिराज का शीशे में जर्जर मुंह देख कर
कहना, अच्छा ही हुआ जो मैं सुंदर नहीं रही।”
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बिराज बहु (1955) के लिए कामिनी कौशल को चुनने के बाद बिमल रॉय ने
पूछा–“आप ने कितनी बार पढ़ा है बिराज बहु उपन्यास?” “दो बार।” बिमल रॉय ने सलाह
दी – “बीस बार पढ़ो!” उपन्यास को बार बार पढ़ने का ही परिणाम था अभिनेत्री कामिनी का सचमुच
बिराज बन जाना, उस में रमा जाना। तभी वह इस के लिए श्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड
जीत पाई।
यह जो बिराज थी, बच्ची ही थी कि समाज की परंपरा के अनुसार बच्चे
नीलांबर चक्रवर्ती को ब्याह दी गई थी। अब वे बड़े हो गए हैं, एक दूसरे पर जान
निछावर करते हैं। निस्संतान बिराज (कामिनी कौशल) और नीलांबर (अभि भट्टाचार्य) एक
दूसरे पर जान निछावर करते हैं। बिराज अपना सारा लाड़ नीलांबर की छोटी बहन पुन्नु
(शकुंतला) पर उंडेलती है। छोटा भाई सपत्नीक पीतांबर (रणधीर)।
फ़िल्म कुछ इस तरह शुरू होती है – नदी में चल रही है नाव। नाविक
भटियाली गीत गा रहे हैं। गांव में गतिविधि के दृश्यों पर हम गीत पर हम नामावली
पढ़ते हैं। इस नदी में कहानी के अनेक दृश्य घटित होते हैँ।
अब गांव के किसी घर का आंगन। दो स्त्रियां तुलसी चौरे पर पूजा कर रही
हैं। एक है बड़ी बहु और दूसरी है छोटी बहु। बड़ी बहु बिराज अंधेरी सी कोठरी में
कुप्पी जलाती है। सुबह होती है। नीलांबर का छोटा भाई पीतांबर चोरी छिपे छोटे से
संदूक़ में कुछ छिपा रहा है। तभी छोटी बहु आती है। पानी लाने के बहाने पीतांबर उसे
वापस भेज देता है। कमरे का किवाड़ बंद करता है। कुछ रख कर संदूक़ बंद कर के छिपाता
है। दरवाज़ा खोलता है। छोटी बहु पानी ले आई है। वह पूछती है – क्या छिपा रहे थे।
वह जवाब टाल जाता है।
कैमरा घूमता है – बड़ा भाई नीलांबर रामायण का पाठ कर रहा है। गांव में
हर कीर्तन में वह बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है। धर्म कर्म में उसे पूरा विश्वास है।
किसी को कुछ भी काम हो मदद के लिए दौड़ पड़ता है। पत्नी से बतकही उस का शौक़ है।
दोनों एक दूसरे पर मरते हैँ।
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पुन्नु बड़ी हो गई है। उसकी शादी के लिए नीलांबर जिस मोटे से सेठ के
पास जाता है वह अपने बेटे से शादी के लिए तैयार है, पर एक हज़ार नक़द और कुछ ज़ेवर
की मांग रखता है। नीलांबर गिड़गिड़ाता है, सेठ टस से मस नहीं होता। अंततः नीलांबर
अपनी ज़मीन गिरवी रख देता है। छोटा भाई पीतांबर कर्ज़ में भागीदार बनने के लिए
तैयार नहीं है। गांव वालों को बुला कर बंटवारा करवा लेता है। जितना भी घर था, उस
के बीच लकड़ी का बाड़ा खड़ा कर दिया जाता है। पीतांबर शादी में शरीक़ तक नहीं
होता। पुन्नू विदा हो रही है। प्यारी भाभी बिराज के गले लगती है, पैर छूती है,
विदा हो जाती है।
अब जो थोड़ा बहुत बचा है वह एक कुटी सा कमरा है, छोटा सा आंगन है।
कुटी के बाहर बड़े से पेड़ का ऊंचा सा थड़ा है। नीलांबर यहीं बैठ कर लोगों से
मिलता है।
लौंग शाट में कुटी के ऊपर पेड़के पत्ते कई बार पत्ते हरे होते हैं,
फूल आते हैं, पत्ते झड़ते हैं, हरे होते हैं...कई साल बीत गए हैं। नीलांबर और
बिराज बहु की ज़िंदगी बीत रही है।
पीतांबर शहर चला गया था। लौट आया है लेकिन अलग थलग रहता है। दोनों
बहुएं हिलमिल कर रहती हैं।
एक दिन नीलांबर थड़े पर बैठा है। लेनदार आता है। कर्ज़ अदायगी की मांग
करता है। नीलांबर और छह महीने की मोहलत मांगता है। लेनदार ननुकर करता है। तभी
बंदूक़ की गोली की धमाकेदार आवाज़ आती है। लेनदार बताता है - ज़मींदार का ऐयाश
बेटा देवधर (प्राण) गांव में अनैतिक व्यवहार कर रहा है, स्त्रियों से छेड़छाड़ कर
रहा है।
यहां से शुरू होता है बिराज बहु के जीवन का दुखांत भाग। देवधर की नज़र
बिराज पर पड़ी तो उस के पीछे ही पड़ गया। जब तब सामने पड़ जाता, टोकता। नदी के घाट
पर दोनों बहुएं पानी भर रही थीं। देवधर आ धमका जब कि जनाने घाट पर मर्द नहीं आते
थे। जैसे तैसे पानी अधूरा भर कर दोनों वहां से भागीं। वह उनके पीछे आता रहा। बिराज
को ग़ुस्सा आया। छोटी से बोली, “आज इस को ठीक करना ही पड़ेगा!” छोटी रोकती रही, बिराज पलट कर देवधर के पास गई और खरी-खोटी सुना आई।
एक गांववाले ने देखा बिराज को देवधर से बातें करते। इतना काफ़ी था बिराज और देवधर
की नज़दीकी की ख़बर वाइरल होने के लिए। पीतांबर ने अपनी बहु को डांटा फटकारा और
उसे लेकर शहर चला गया। नीलांबर और बिराज सिंघाड़े खा कर पेट भर रहे हैं। नौकरानी
सुंदरी देवधर की दूती बन गई है। बिराज ने उसे निकाल दिया। अब वह बिराज से बदला
लेने पर तुल गई।
नीलांबर को कोई काम नहीं मिल रहा था। दो तीन दिन वह शहर में टक्कर
मारता रहा। काम नहीं मिला। गांव के एक दुकानदार ने उसे अपने यहां काम का आश्वासन
दिया। नीलांबर अकेले घर जाना नहीं चाहता था। दुकानदार ने कहा, मेरे घर कीर्तन में
रुक जा, फिर चलेंगे। राधा कृष्ण की संगमरमर की सुंदर मूर्ति के सामने नीलांबर ने
जो भजन गाया – वह फ़िल्म की हाईलाइट है। ‘झूम झूम मनमोहन रे मुरली मधुर बजा जा’
![]() |
बिमल रॉय |
कीर्तन समाप्त ही हुआ था कि मित्र नारायण के देहांत का समाचार मिला।
नीलांबर यहां से सीधा नदी तट पर श्मशान चला गया। किसी से घर कहलवा दिया कि मैं नहा
धो कर आऊंगा मेरे कपड़े भिजवा दो।
भूखी प्यासी बिराज उस की प्रतीक्षा कर रही थी। चूल्हा ठंडा पड़ा था।
बारिश शुरू हो चुकी थी। संदेश मिला तो उस ने कपड़े दिए, भीतर खोजा कहीं चावल का एक
दाना नहीं था। बारिश में घर से निकल पड़ी। वह संदेश वाहक भी जा रहा था। उस ने
पूछा, “कहां जा रही हैं बारिश में?” बिराज ने कहा,“काम से” और आगे बढ़ ली। श्मशान घाट पर नीलांबर ने पूछा, “बिराज क्या कर रही
थी?” संदेशवाहक ने बता दिया, “नदी ही की तरफ़ जा रही थीं, जल्दी में थीं।” यह बात सब में
चर्चा का विषय बन गई। हर आदमी इस का अलग मतलब लगाने लगा। क्रुद्ध नीलांबर घर लौटा
तो बिराज किसी सहेली से चावल ला कर बना चुकी थी। क्रुद्ध नीलांबर ने जवाब तलब
किया, “कहां गई थी, क्यों गई थी?” अपने पर पहली बार संदेह से हत्प्रभ बिराज चुप रही। नीलांबर का क्रोध
बढ़ता गया। बिराज पर व्यभिचार का आरोप लगा कर नीलांबर ने बिराज को त्याग दिया।
बिराज चली गई कोई पूछता तो कहती, “उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया!” बिराज जा रही है नदी की तरफ़। किसी नाव में चढ़ कर मंझधार में कूद
जाती है।
बिराजके जाने का समाचार मिला तो पीतांबर लौट आया। बंटवारे के पछतावे
पर बीच की दीवार तुड़वा दी। नीलांबर पछता रहा है। पागलों सा इधर उधर भाग रहा है। ससुराल
से पुन्नू आ गई है। अब उसके लिए भाभी का नाम लेना ‘पाप’ है। नीलांबर समझाता है, “वह आना चाहती है आ नहीं पा रही।”
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अरविंद कुमार |
वह बहे जा रही है। कहां पहुंची – कुछ पता नहीं। होश आया तो अस्पताल
में थी, हालत ख़स्ता थी। उसे लगा कि मरने वाली है। अब एक ही तमन्ना है मरते समय
पति की चरण रज अपने मस्तक पर लगाने की। अस्पताल से भाग निकली। रंग झवां गया है।
शीशा देखती है तो काला पड़ा चेहरा देख कर कहती है- अच्छा है रूप बिला गया।
अंततः घर पहुंचती है। सब उसकी सेवा सुश्रूषा में लगे हैं। सांस उखड़
रही है। नीलांबर की चरण रज माथे पर लगाती है। बिराज बहु का जीवन ओर उसकी सुख दुख भऱी
कहानी समाप्त होती है।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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