फ़िल्म योगी बिमल रॉय-एक
‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग–125
बिमल रॉय (1) (न्यू थिएटर्स से बांबे
टाकीज़ तक)
रैमनार्ड लैब प्रीव्यु
थिएटर, वरली, बंबई. सन् 1964; सुबह दस बजे; ढेरों फ़िल्म पत्रकार
बातें कर रहे थे। बिमल रॉय का इंतज़ार था। मेरी उत्सुकता चरम पर थी। मैं देखूंगा ‘परिणीता’ के निर्देशक को!
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एकाएक सब चुप हो गए।
मेरी बाईँ ओर से सीढ़ियों चढ़ते बिमल रॉय का सिर दिखाई दिया, फिर पूरा मुखमंडल, धीरे धीरे पूरा शरीर, दाहिने मुड़कर वह हमारे
सामने थे!
सबकी आंखें उन पर
टिकी थीं। पहली बार मुझे अहसास हुआ उस आभामंडल का जो चित्रकार दिव्य व्यक्तियोँ या
संतोँ के चित्र मेँ सिर के पीछे बना देते हैं। कोई आभामंडल था नहीं, बस, मुझे लगा था। उस दिन उनसे
कोई बात तक नहीं हो पाई। उनके निकट आने में मुझे अभी और वक़्त लगने वाला था।
सारी लाइटें बंद हो गईं।
शुरू हुई बिमल रॉय द्वारा निर्मित और एस. ख़लील निर्देशित अशोक कुमार. मीना कुमारी
के साथ शशि कपूर और तनुजा के छोटे रोलों वाली ‘बेनज़ीर’। पता नहीं मैं ने वह
कितनी देखी।
नायक नायिका वही ‘परिणीता’ वाले - अशोक कुमार और
मीना कुमारी। वहां वे बंगाली हिंदू थे, यहां लखनवी मुसलमान। नवाब अशोक कुमार है और
उनकी चहेती नाचने गाने वाली वेश्या बेनज़ीर मीना कुमारी। मुझे लगता है कि ‘परिणीता’ और नाचने गाने वाली
वेश्या ‘बेनज़ीर’ का मेल ही भविष्य की ‘पाकीज़ा’ बन सकता था।
नवाब साहब की बेगम को
बेटा हुआ है। उसे देखने आया उनका छोटा भाई अनवर (शशि कपूर) उनकी साली शाहिदा
(तनूजा) से इश्क़ करने लगता है। एक बार जो नवाब साहब ने अनवर को बेनज़ीर की बांहों
में देखा तो...।
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साल 1965 । पुणें में
माछेर झोल की एक शाम.‘माधुरी’ की ओर से मैंने फ़िल्म कहानी प्रतियोगिता आयोजित की थी। उसका परिणाम घोषित
करना था। बीमार बिमल रॉय थे पुणेँ के बेहतर वातावरण में इलाज के साथ साथ आराम कर
रहे थे। निर्णय मैं पुणें गया था। बिमल दा ने पांच श्रेष्ठ कहानियां मुझे दीं। उनके
साथ लंच किए बिना लौटने का सवाल ही नहीं था। माछेर झोल न हो तो बंगाली खाना कैसा! मैंने दिल्ली में कुछ
दोस्तों के घर मछली चख़ी जरूर थी, पर...माछेर झोल! मसालेदार रसे में से उसके
कांटों को उंगलियों से निकाल कर मछली खाना! मेरा संकट देख कर स्वयं
बिमल दा ने सिखाया कैसे उसका स्वाद लिया जाए। पता नहीं अपनी पसंद की किस कहानी पर
वे फ़िल्म बनाते। वह साल ख़त्म होते 8 जनवरी 1966 को कुल पचपन (55) साल जी कर वह फ़िल्मों का एक पूरा अध्याय
रच गए थे। तब तक मैं उनके काफी निकट आ चुका था।
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सन 1953 । नई दिल्ली का
रीगल सिनेमा। शरच्चंद्र के उपन्यास पर बनी ‘परिणीता’ का शो।
शेखर (अशोक कुमार) ने
हार ललिता (मीना कुमारी) के गले में डाल दिया
मैंने देखी ‘परिणीता’ में मीना कुमारी और मीना
कुमारी में ‘परिणीता’। कहानी थी कि कैसे एक शाम ललिता ने शेखर के गले में फूलों का हार डाल दिया
था और पलट कर शेखर ने ललिता के गले में।
यही था उनका विवाह – ‘परिणय’ – और वह ‘परिणीता’ (ब्याहता) बन गई थी। घर
में किसी को इसका पता न था। किन परिस्थियों में वह सचमुच ‘परिणीता’ बनी – यही फ़िल्म की
कहानी। निर्देशक ने पहले ही कुछ शॉट में मुख्य पात्रों से और और उन के हालात से
मिलवा दिया था। निर्धन कर्ज़दार मामा गुरचरण, उन का मकान सूदख़ोर लालची पड़ोसी नवीन
राय के पास गिरवी रखा है, नवीन राय का छोटा बेटा शेखर, शेखर की देखभाल करने वाली
ललिता। यहां से शुरू कर के अंतिम सीन तक जो रोचकता बनाए रखी गई थी वह अनोखा था।
इस के संवाद लेखकों के
एक नाम बाद में मेरे घनिष्ठ मित्र व्रजेंद्र गौड़ का भी था, जो कभी ‘सरिता’ में कहानियां लिखते थे।
संगीतकार थे मन्ना डे और अरुण मुखर्जी, गीतकार थे भविष्य में मेरे मित्र होने वाले
भरत व्यास। इसके ये दो गीत अवश्य सुनें— ‘चली राधे रानी’:
और
मैं शरच्चंद्र की ‘परिणीता’ देखने गया था, बिमल रॉय
की नहीं। वह दोनों की ‘परिणीता’ निकली!
सन् 1950 के बाद के समय
किसी ज़माने की सिरमौर कंपनी बांबे टाकीज़ की हालत ख़स्ता था। उसमें नई जान डालने
के लिए अशोक कुमार बाहर से अच्छी प्रतिभाओं को बुला रहे थे। उनमें एक प्रतिभा थे
बिमल रॉय। यहां बिमल रॉय की पहली फ़िल्म थी ‘मां’। इसमें आशा पारेख बाल
कलाकार के रूप में दिखाई दी थी।
पूर्वी बंगाल या बांग्ला
देश कहे जाने वाले सोनार बांग्ला की मिट्टी में ढाका के वैद्य परिवार में 12 जुलाई
1909 में जन्मे बिमल रॉय स्कूल में पढ़ रहे थे कि पिता का देहांत हो गया। एक मित्र
के सुझाव पर वह मां और छोटे भाइयों को लेकर कलकत्ता आ गए। उसका फ़ोटोग्राफ़ का
शौक़ और पर्सपैक्टिव (परिदृश्य) को अलग आंखों से देखने की आदत उसे फिल्म उद्योग तक
ले गईं। वे इतिहास प्रसिद्ध न्यू थिएटर्स कंपनी में सहायक कैमरा मैन बन गए।
उल्लेखनीय है कि प्रमथेश चंद्र बरुआ निर्देशित बांग्ला तथा हिंदी ‘देवदास’ का कैमरामैन यह बिमल रॉय
ही थे।
उनके देहांत के बाद बेटी
रिंकी में जो संस्मरण लिखा था उसमें उनके इसी पक्ष पर ज़ोर देने के लिए यह फ़ोटो
चुना था। बिमल रॉय पर रिंकी की किताब का नाम ही है – ‘बिमल रॉय: द मैन हू स्पोक इन
पिक्चर्स’ (Bimal Roy: The Man Who Spoke In Pictures)।
न्यू थिएटर्स में उनकी शुरुआत कैमरा मैन के तौर
पर सन 23 साल की उम्र में सन् 1932 में ही हो गई थी। शुरुआती डौक्युमैंटरी फ़िल्म
थीं- ‘How
Kerosene tins are made’ (1932/33), ‘Grand Trunk Road’ (1932/33), ‘Bengal
famine’(1943)। फ़ीचर फ़िल्म थीं
तमिल की ‘नल्ला थंगल’ (1934), पी.सी.
बरुआ की बांग्ला और हिंदी ‘देवदास’
(1935-36), ‘गृहदाह’ (1936), उसी साल
की ‘माया’, ‘मुक्ति’ (1937), फणी मजूमदार निर्देशित ‘चंबे दी कली’ (1938), ‘बड़ी दीदी’ (1939), ‘अभिनेत्री’ (1940), ‘उदयेर पथे’ (1944),
उसी का हिंदी संस्करण ‘हमराही’
(1946)...
1946 की ‘हमराही’ का बिमल रॉय की सिने यात्रा में विशेष स्थान है।
निर्देशक के तौर पर यह उनकी पहली हिंदी फ़िल्म थी। मूल कहानी बांग्ला की ‘उदयेर
पथे’ वाली ही थी। विषय था – धनवान और निर्धन का
टकराव।
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आदर्शवादी युवक अनूप निर्धन है तो मुकाबले में धनवान
है राजेंद्र। पत्रकार अनूप की बहन सुमित्रा को गोपा ने अपने जन्मदिन पर बुलाया था।
गोपा की भाभी रूपा ने सुमित्रा पर चोरी का इलज़ाम लगा कर उसका भारी अपमान किया।
गोपा को यह अच्छा नहीं लगा। माफ़ी मांगने वह सुमित्रा के घर आई। यहीं उसकी पहली
मुलाक़ात होती है अनूप से। अनूप उसे माफ़ नहीं कर पाता और उसे ‘निर्धनों
की शत्रु’ कह बैठता है। अब हुआ यह कि अनूप के संपादक जी ने
उसे भेजा राजेंद्र के पास। राजेंद्र को ज़रूरत थी भाषण लेखक की। अनूप ने जो भाषण
लिखा वह बहुत लोकप्रिय हुआ। राजेंद्र अपने आप को ही लेखक समझने लगा। उसके हाथ लग
गई उस उपन्यास की पांडुलिपि जो अनूप लिख रहा था। राजेंद्र ने वह उपन्यास अपने नाम
से छपवा दिया। उसकी वाहवाही होने लगी।
इधर राजेंद्र की कंपनी में हड़ताल हो गई। हड़ताल
का नेतृत्व अनूप और गोपा के हाथों में है। गोपा अपना सब कुछ त्याग कर अनूप की
हमराही बन जाती है।
-
1950 की
‘पहला आदमी’ ने इस पर मोहर लगा दी। आज़ाद हिंद फ़ौज के ज़माने की प्रेम कहानी
परनेताजी सुभाष चंद्र बोस पूरी तरह छाए थॆ, लेकिन दिखाए नहीं गए थे। मुख्य कलाकार
थे स्मृति विश्वास और पहाड़ी सान्याल। यह अभिनेता नज़ीर हुसैन की पहली फ़िल्म थी
जो स्वयं आज़ाद हिंद फ़ौज में सिपाही रह चुके थे। उन्हें स्वतंत्रा सेनानी के पदक
के साथ आजीवन रेलवे का पास भी दिया गया था। आज़ाद हिंद फ़ौज बंद होने के बाद से कलकत्ते
में नाटकों में काम करते थे। न्यू थिएटर्स के संचालक बी.एन. सरकार को पसंद आए तो
अपनी कंपनी में शामिल कर लिया था। वहीं बिमल रॉय से मुलाक़ात हुई और उनके सहायक बन
गए। कहानी के विकास में आज़ाद हिंद फ़ौज का उन का अनुभव बहुत काम आया। फ़िल्म के
संवाद लेखन में भी वह सहायक सिद्ध हुए।
फ़िल्म का क्लाईमैक्स हृदयद्रावक
था। शहीद नायक का शव घर लाया गया है। शोकसंतप्त पिता उसे नेताजी के विशाल चित्र के
नीचे रखता – यह देशभक्ति का प्रतीक बन जाता है।
-
न्यू थिएटर्स की ‘पहला आदमी’ के बाद बांबे टाकीज़ के लिए शुरू हुआ बिमल राय के जीवन नया
अध्याय। बांबे टाकीज़ के लिए बिमल राय की पहली फ़िल्म थी 1952 की ‘मां’।
गांव में सेवानिवृत चंदरबाबू
सपत्नीक रहते हैं। उनके दो बेटे हैं – राजन (पाल महेंद्र) और भानु (भारत भूषण)।
चंदरबाबू ज़मींदार साहब का कामकाज देखते हैँ। बड़ा बेटा राजन शहर में वकालत पढ़
रहा है। अपनी धनी घराने की पत्नी से राजन डरता रहता है। छोटे महनती मस्तमौला बेटे
भानु ने राष्ट्रीय आंदोलनों में पड़ कर पढ़ाई छोड़ दी। पिता उससे निराश हैं।
उन्हें लगता है कि राजन ही उन का सहारा बनेगा।
कालिज के प्रिंसिपल रामनारायण अपनी
की बेटी मीरा (श्यामा) और भानु का प्रेम देख कर उनका विवाह कराना चाहते हैं।
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अरविंद कुमार |
शहर में राजन को परीक्षा के लिए
तीन सौ रुपए चाहिएं पर पत्नी नहीं देती।
पिता चंदरबाबू जतन कर के भी पैसे नहीं जुटा पाते। एक राज भानु देर रात घर
लौट रहा था। चंदरबाबू को चोर समझ कर भीड़ उन के पीछे दौड़ रही है। चोरी के शक़ में
पकड़ा जाता है भानु और एक साल के लिए जेल जाता है। राजन परीक्षा पास कर चुका है।
जेल से छूटे भानु को पिता से मिलने नहीं देता। अपनी जगह पकड़े गए भानु से मिलना
चाहते हैं। बुरी तरह बीमार हैं, भानु से मिल पाने से पहले मर जाते हैं। भानु को
लगता है कि वे उससे मिलना नहीं चाहते। मां पागल सी हो गई है। बेटे भानु की तलाश
में मारी मारी फिर रही है। कोई कहता है कि भानु मर गया है। अब वह राजन के घर में चाकरी
कर रही है। मीना की सहायता से वह माँ को मिल पाता है और अपने साथ ले जाता है।
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1953 की ‘परिणीता’ के बाद शुरू हुआ बिमल रॉय की
फ़िल्मयात्रा का नया अध्याय – अपनी कंपनी के अंतर्गत ‘दो बीघा ज़मीन’ से
वह पढेंगे आप अगले भाग
126 से...
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता
विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार
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संपादक - पिक्चर प्लस)
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