‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद
कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–130
बिमल रॉय की अंतिम और सर्वांग संपूर्ण फ़िल्म–कल्याणी की कहानी
सन् 1930 वाले
दशक में हम मिलते हैं कल्याणी (नूतन) से। उसके पिता गांव के डाक बाबू हैं। कल्याणी
उनका खाना लाई है डाकघर में। वह बाद में खा लेंगे। कर्मचारी अख़बार की ख़बर पढ़
रहे हैं। क्रांतिकारियों ने बम विस्फोट किया है। आज़ादी की लड़ाई का ज़माना है।कल्याणी
का भाई गया तो लौट कर नहीं आया...
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जेल। जनाना
वार्ड। हत्या के ज़ुर्म में क़ैद काट रही है कल्याणी। वही है ‘बंदिनी’। हम देखते हैं
बंदिनियों का जीवन, बंदीघर में दुनिया से कटे होने पर घरवालों की याद। इसका प्रतीक
है एक और बंदिनी, चक्की चलाती वह गा रही है
‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल/सावन में लीजो बुलाय रे/
लौटेंगी जब
मेरे बचपन की सखियां/ देजो संदेशा
भियाय रे/
अब के बरस भेज
भैयको बाबुल।”
पता नहीं इस
जगह के लिए इस गीत का विचार किसके मन में आया होगा। शैलेन्द्र ने कमाल की रचना की
है। गीत का प्रभावशाली फ़िल्मांकन अनुपम है।
(आज की पीढ़ी के लिए सांस्कृतिक जानकारी। उस ज़माने में सावन की तीज
बड़ा त्योहार थी। त्योहारों के लिए सामूहिक शब्द था तीज त्योहार। भाई ससुराल से
बहनों को लेने जाते। मेरे देखे ज़माने में पूरा वातावरण झूले के गीतों से भर जाता
था।)
बंदीघर दुनिया
से इतना कटा भी नहीं है। आज़ादी की लड़ाई की गूंज जेल तक पहुंचती रहती है। एक
क्रांतिकारी को फांसी दी जाएगी। ऐसे सीन तीसादि दशक में अकसर होते थे। स्वयं
कल्याणी का प्रेमी बिकास घोष (अशोक कुमार) भी क्रांतिकारी था। वातावरण में तनाव
है, कुछ होने वाला है। फांसी घर। फांसी का फंदा लटक रहा है। फांसी देने वाला
जल्लाद खड़ा है। अंधकार से भरा जेल का गलियारा। एक दो खिड़की से झांकते क़ैदी।
स्त्री पुरुष। सबके चेहरों पर तनाव और उत्तेजना है। कुछ विभीषक होने वाला है।
गलियारे में से
एक नौजवान गाता जा रहा है –‘मत रो माता लाल
तेरे बहुतेरे’। उस अभिनेता
का नाम मुझे मालूम नहीं है। पर उस यह एक दृश्य उसे हर सम्मान का भागी बना देता है।
सही रोमांचक और मर्मस्पर्शी प्रभाव तो आप यह गीत देखकर ही महसूस कर पाएंगे। फांसी
लग गई है। हर क़ैदी नारे लगा रहा है: वंदे मातरम।
बंदिनी को बिमल
रॉय की श्रेष्ठ फ़िल्म यूं ही नहीं कहा गया है, देखिए चित्रांकन:
यह उन दिनों की
बात है जब तपेदिक़ होने का मतलब था मौत। रोगी की सेवा सुश्रूषा करने वाले को भी
छूत लगने की पूरी संभावना रहती थी। एक स्त्री क़ैदी बीमार है। जेल के युवा डॉक्टर देवेन (धर्मेंद्र) ने
घोषित कर दिया उसे तपेदिक़ लग चुकी है। उसके इलाज के लिए अलग बंदोबस्त किया गया।
तलाश थी उस की देखभाल करने वाली स्त्री क़ैदी की। कोई भी तैयार नहीं थी। सेवा भावी
कल्याणी ने अपने आप को पेश किया। वह स्वीकार कर ली गई। अब वह और रोगिणी अलग जगह
रहते हैं। डॉक्टर देवेन उसके लिए भी स्वास्थ्यप्रद आहार तज़वीज करता है। शेष
बंदिनियों में अब वह ईर्ष्या का पात्र बन जाती है। कल्याणी की सादगी, एकाकीपन,
तत्परता से देवेन प्रभावित है। कल्याणी उससे कतराती रहती है। देवेन ही नहीं जेलर
साहब भी जानना चाहते हैं कल्याणी की कहानी। उन्होंने कल्याणी से कहा अपनी कहानी
लिख दे।
कल्याणी और
क्रांतिकारी विकास एक-दूसरे को चाहने लगे थे। गांव में यह किसी को पसंद नहीं है।
कल्याणी को छोड़कर विकास को कहीं जाना पड़ा। वह लौट कर आने का वादा कर गया था, पर
आया नहीं है। पिता भी दुखी रहते हैं। उन के कष्ट और अपने विरह से तप्त कल्याणी घर
गांव छोड़ देती है। वह जा रही है। हम सुनते हैं कल्याणी की मनोदशा को रेखांकित करता
मुकेश का गाया यह अविस्मरणीय गीत –‘ओ जाने वाले
लौट के आना’:
शहर में वह
नर्स बन गई है। उसके जिम्मे है एक कर्कश और सनकी औरत। उसे पता चलता है कि यह विकास
की पत्नी है। कल्याणी के पिता बेटी को तलाशते शहर आए। दुर्घटनाग्रस्त हुए और मर
गए। कल्याणी को पता चला तो उस के दुख का वारापार नहीं था। वह विकास की पत्नी की
कर्कशता से परेशान है। यही है मेरे हर दुख का कारण – इसके लिए उसे छोड़ जाने वाली विकास
की पत्नी। और एक दिन क्रोध से पागल हो कर कल्याणी ने उसे ज़हर दे दिया।
निर्देशक हमें
दिखाता है वैल्डर की जलती बुझती रोशनी में घने अंधकार और प्रकाश का खेल, पृष्ठभूमि
में कहीँ लोहे पर मार, वातावरण में तरह-तरह की आवाज़ें, उसका हत्या के फ़ैसले की
तरफ़ इंच इंच बढ़ना, कैरोसीन स्टोव को ज़ोर ज़ोर से धौंकना, पूरे प्रकरण में एक
शब्द न बोलना...और बाद में उतनी उत्तेजना से अपराध स्वीकारना...सब कुछ निर्देशन की
पराकाष्ठा का उदाहरण है।
फ़्लैश बैक
समाप्त हो गया है। देवेन को कल्याणी से प्रेम हो गया है। कल्याणी यह नहीं चाहती,
पीछे हटती रहती है। एक दिन देवेन ने उससे मन की बात कह ही दी। वे आमने सामने नहीं
हैं। उनके बीच में विभाजक फट्टे हैं। वक़्त वक़्त पर पहरेदार घोषणा करते रहते हैं –“सब ठीक है”, जबकि फ़िल्म
में ऐसा है नहीँ जेल से मुक्त हो कर कल्याणी जाने वाली है देवेन के साथ। जेलर कहता
है अब तुम घर की बंदिनी बन जाओगी। देवेन के घर जाते समय उसे मिल जाता है बिकास –
बुरी तरह बीमार है वह। कल्याणी को पता चलता है किन हालात में उसे बेमेल विवाह करना
पड़ा – आज़ादी की लड़ाई के लिए।
अंत में वह
देवेन के घर नहीं विकास के साथ चली जाती है।
अंत में कुछ जानकारी
निर्देशक-निर्माता बिमल रॉय की फ़िल्म का आधार था जरासंध (चारुचंद्र
चक्रवर्ती) का उपन्यास तामसी। पटकथा लिखी थी नवेंदु घोष ने, संवाद पाल महेंद्र ने
(पाल महेंद्र ने ही माधुरी में बिमल रॉय की धारावाहिक जीवनी लिखी थी – अमार
बिमलदा)। संगीतकार थे शचिन देव बर्मन, गीतकार थे शैलेन्द्र और (शैलेन्द्र का बिमल
रॉय से झगड़ा हो जाने पर स्वयं शैलेन्द्र के सुझाव पर आए गुलज़ार) कैमरा संचालक थे
कमल बोस।
मुख्य कलाकार थे – नूतन (कल्याणी), अशोक कुमार (विकास) धर्मेंद्र
(देवेन), राजा परांजपे (कल्याणी के पिता), चंद्रिमा भादुड़ी (जेल वार्डन)।
अंतिम कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।
संपादक - पिक्चर
प्लस)
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